Published on Apr 02, 2021 Updated 0 Hours ago

आज भी महिला विद्वानों को सुरक्षा क्षेत्र में शामिल होने के लिए उचित प्रोत्साहन नहीं मिलता है.

नो वुमंस लैंड: सुरक्षा अध्ययन से जुड़े क्षेत्र में लैंगिक भेदभाव और महिलाओं का संघर्ष

मैंने अंतरराष्ट्रीय संबंधों (international relations) और सुरक्षा अध्ययन से जुड़े विषयों पर 25 साल से अधिक समय, थिंक-टैंक यानी विचारक समूहों (think tank) की दुनिया में बिताया है. बदलते समय के साथ, इस क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति में कुछ मामलों में सुधार हुआ है, लेकिन महत्वपूर्ण बाधाएं अब भी बनी हुई हैं. इसका सकारात्मक पक्ष देखें तों मैंने अंतरराष्ट्रीय संबंधों और सुरक्षा अध्ययन के क्षेत्र में प्रवेश करने वाली महिलाओं की संख्या में वृद्धि भी देखी है. लेकिन यह बढ़ती संख्या पूरी कहानी नहीं बताती है. अभी भी इस क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय संबंधों और सुरक्षा अध्ययनों से जुड़ी महिला विद्वानों और विश्लेषकों के सामने बड़ा फ़ासला है, जिन्हें पाटना बेहद ज़रूरी है.

इस संबंध में आज की संख्या, दो दशक पहले की तुलना में अधिक आशाजनक है, लेकिन इन क्षेत्रों में पदानुक्रम (hierarchy) जैसे-जैसे बढ़ता है, महिलाओं की संख्या वाले आंकड़े तेज़ी से नीचे आने लगते हैं. महिलाओं की संख्या में वृद्धि, दुर्भाग्य से थिंक-टैंक यानी विचारक समूहों या फिर सरकारी नौकरशाही में नेतृत्व और प्रबंधकीय भूमिकाओं में परिलक्षित नहीं होती है. यह मामला तब भी है जब कोई इन संस्थानों में वरिष्ठ कार्यकारी पदों या फिर मेंटरिंग व पर्यवेक्षण से जुड़ी भूमिकाओं को देखता है. इसलिए, जहां इस क्षेत्र में महिलाओं का घनत्व बढ़ा है वहीं वरिष्ठ और प्रबंधकीय पदों पर उनके करियर की प्रगति और उनका ऊंचे पदों पर पहुंचना अब भी एक मुद्दा बना हुआ है. बेशक, यह आंशिक रूप से लंबे समय से चले आ रहे मुद्दों को प्रतिबिंबित करता है: फिर भी उच्च पदों पर पहुंचने के लिए महिलाओं को कुछ समय लगेगा. लेकिन यह फिर भी केवल एक कारण है.

bमहिलाओं की संख्या में वृद्धि, दुर्भाग्य से थिंक-टैंक यानी विचारक समूहों या फिर सरकारी नौकरशाही में नेतृत्व और प्रबंधकीय भूमिकाओं में परिलक्षित नहीं होती है.

आज भी, इस क्षेत्र में जाने के लिए युवा प्रतिभाशाली महिलाओं की समुचित तरीके से हौसलाअफ़ज़ाई नहीं की जाती है. जहां तक मेरे खुद के अनुभव की बात है तो जब मैंने इस क्षेत्र में क़दम रखा, उसके बाद क़रीब एक दशक तक मैंने सुरक्षा अध्ययनों पर नहीं, बल्कि विदेश नीति के मुद्दों पर काम किया. अब कुछ हद तक मुझे लगता है कि मैंने अनजाने में उस सामाजिक अनुकूलन को स्वाभाविक रूप से स्वीकार कर लिया था, कि मैं सक्षम होने के बावजूद सुरक्षा क्षेत्र से जुड़ा अध्ययन नहीं कर सकती, क्योंकि महिलाएं इन क्षेत्रों के अनुकूल नहीं होती हैं. मैंने भी मान लिया था कि यह स्वाभाविक रूप से पुरुषों के अध्ययन का क्षेत्र है. लेकिन जैसे-जैसे मेरी उम्र थोड़ी बढ़ी, तो मैं इस प्रभुत्व (dominance) और अपनी अनिच्छा को लेकर सवाल करने लगी.

सेमिनार और चर्चाओं में नज़रअंदाज़

चाहे अंतरराष्ट्रीय संबंध (IR) हो या सुरक्षा अध्ययन (निश्चित तौर और अन्य क्षेत्र भी) मेरा अनुभव वैसा ही रहा है जैसा ज़्यादातर महिला विद्वानों ने अनुभव किया है. उदाहरण के लिए, अगर मैं चर्चा के दौरान हस्तक्षेप करना चाहती थी, तो पहली बार में तो मुझे नजरअंदाज़ कर दिया जाता. इसके बावजूद अगर मैं बोलती थी, तो उनके लिए मुझे आसानी से ख़ारिज करना मुमकिन नहीं था, लेकिन वे मुझे मेरी बात का श्रेय भी नहीं दे पाते थे. वे मेरी जगह मेरी तरह की राय रखने वाले किसी पुरुष साथी को इसका श्रेय देते थे. इसको लेकर शुरुआती दिनों में मुझे लगा कि मैं अति-संवेदनशील हो रही हूं, लेकिन बाद में मुझे पता चला कि ज़्यादातर महिलाओं का अनुभव ऐसा ही रहा है. इस कारण बैठकों में एक तरह की चिढ़ पैदा होने लगी थी, क्योंकि इन चर्चाओं के पेशेवर नतीजे होते थे. मेरी दोस्त और मेंटर डॉ. पैट्रीशिया मेरी लुईस ने एक बार मुझसे कहा था कि पिछले कुछ वर्षों से उन्होंने महिलाओं की अनदेखी के इस मुद्दे को लेकर पेशेवर बैठकों के दौरान पुरज़ोर हस्तक्षेप करने वाली महिलाओं को ख़ासतौर पर मौका देने की रणनीति अपनाई है. आमतौर पर यह महिलाओं की बात और उनकी आवाज़ को रेखांकित करने (विशेष रूप से सुरक्षा अध्ययन के मामले में) की एक उपयोगी रणनीति है. हालांकि, यह अब भी एक सामान्य परिपाटी नहीं बन पाई है.

अगर मैं बोलती थी, तो उनके लिए मुझे आसानी से ख़ारिज करना मुमकिन नहीं था, लेकिन वे मुझे मेरी बात का श्रेय भी नहीं दे पाते थे. वे मेरी जगह मेरी तरह की राय रखने वाले किसी पुरुष साथी को इसका श्रेय देते थे

इसके पेशेवर परिणाम यह हैं कि महिला विद्वानों को शोध-कार्यों की खाली जगहों के लिए भी गंभीरता से नहीं लिया जाता है. ओआरएफ के साथ जुड़ने और चीन की सैन्य रणनीति (Chinese military strategy) पर मेरी पहली किताब आने के बाद एक अन्य थिंक टैंक (जिसमें शोध के एक पद के लिए मैंने पहले आवेदन किया था और मेरा चयन नहीं हुआ था) के प्रमुख ने मुझसे कहा कि वह यह समझ नहीं पाए थे कि मैं रक्षा अध्ययन पर काम कर सकती हूं. वैसे, उन्होंने यह बात कहते हुए यह जताने की कोशिश की थी कि मुझे चयनित नहीं करने के उनके निर्णय के लिए मैं ही ज़िम्मेदार थी. उस वक़्त भी मैंने उन के सामने जिस प्रोजेक्ट का प्रस्ताव रखा था वह अंतरराष्ट्रीय संबंधों और सुरक्षा अध्ययन से ही संबंधित था. निस्संदेह रूप से बुद्धिमान, उदार-व्यक्तित्व (broad-mindedness) और वैश्विक फ़लक पर (cosmopolitanism) अनुभव पाने के बावजूद उन्होंने मुझे लैंगिक आधार पर परखा था.

यह सज्जन अगर अनजाने में लैंगिक आधार पर भेदभाव कर बैठे थे तो कई अन्य ऐसे भी हैं जो जानबूझकर महिला विद्वानों को कमतर दिखाते हैं, और इसे लेकर उनमें तनिक भी खेद या पछतावा नहीं होता है. ऐसे ही एक व्यक्ति ने मुझसे कहा कि उन्होंने सम्मेलन के आयोजकों से कहा था कि वे मुझे आमंत्रित न करें. इस तथ्य के बावजूद कि मैंने इस क्षेत्र में चार साल तक काम किया था और अच्छी तरह स्थापित भी चुकी थी. बाद में उस व्यक्ति ने कहा कि वह तो केवल मज़ाक कर रहे थे. हो सकता है कि वह मज़ाक कर रहे हों, लेकिन उन्होंने अपनी राय ज़ाहिर कर दी थी कि मुझे इस क्षेत्र में काम नहीं करना चाहिए.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समस्यायें

ये समस्याएं सिर्फ़ भारत या भारतीय सिस्टम से जुड़ी समस्या नहीं है, और न ही इतनी स्पष्ट हैं. एक अन्य उदाहरण, जिसकी अक्सर अनदेखी कर दी जाती है, उसके बारे में सैन- डिएगो स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर, प्रो. डेविड लेक से बात करने पर पता चली. डिएगो एक जाने माने विद्वान हैं और इंटरनेशनल स्टडीज़ एसोसिएशन (International Studies Association) के अध्यक्ष रह चुके हैं. उनसे जब अंतरराष्ट्रीय संबंधों और सुरक्षा अध्ययन (IR and security studies) क्षेत्र में महिलाओं को संदर्भित किए जाने यानी उनके रेफरेंस से जुड़े पूर्वाग्रहों (reference bias) के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था-  प्रत्येक नए प्रकाशन या हर किताब को ध्यान में रखना और उसे पढ़ना लगभग असंभव है, भले ही वह प्रकाशन शोध के क्षेत्र से सीधे तौर पर जुड़ी सामग्री सामने रखता हो. उन्होंने आगे कहा कि वह उन्हीं किताबों या प्रकाशनों को पढ़ना चाहेंगे जिन्हें लिखने वाले को वह जानते हों या फिर जिनसे वह परिचित हों. उन्होंने कहा, “मुझे अपनी संदर्भ सूची में किसी किताब या लेख को शामिल करने से पहले उस व्यक्ति के काम को गहराई से आत्मसात करना होता है, और इसमें समय लगता है. व्यक्तिगत संबंध की वजह से ही गहराई से अध्ययन किया जा सकता है. इस तरह अधिक उद्धरण संभव हो पाते हैं और संभवतया, अधिक व्यक्तिगत कनेक्शन बनते हैं.” यहां तक कि विद्वानों के लेखन में दिए जाने वाले संदर्भ और फुटनोट्स (footnotes) में अपनी किताब या प्रकाशन को शामिल कराने के लिए पहचान और व्यक्तिगत नेटवर्क की ज़रूरत पड़ती है. ऐसे में पुरुषों के वर्चस्व वाले क्षेत्र में महिलाओं के लिए राह आसान नहीं है. यह विशेष रूप से चिंता की बात इसलिए है, क्योंकि अकादमिक जगत में उद्धरण मायने रखते हैं.

यहां तक कि विद्वानों के लेखन में दिए जाने वाले संदर्भ और फुटनोट्स (footnotes) में अपनी किताब या प्रकाशन को शामिल कराने के लिए पहचान और व्यक्तिगत नेटवर्क की ज़रूरत पड़ती है.

इस क्षेत्र में जब महिलाओं के लिए सामान्य तौर पर परिस्थितियां बेहतर और स्वागत योग्य नहीं रही हैं ऐसे में मुझे इस बात की खुशी भी है कि ब्रजेश मिश्रा, आर.के. मिश्रा, जनरल वी.पी. मलिक और डॉ. सी. राजा मोहन जैसे पुरुषों से मुझे मार्गदर्शन और सहयोग हासिल हुआ. इनके अलावा संजॉय जोशी और समीर सरन के नेतृत्व में ओआरएफ अब एक ऐसा संगठन है, जो मज़बूती से लिंग आधारित संतुलन, विविधता और समावेशन का सम्मान करता है. लेकिन, यह भी सच है कि महिला विद्वानों को आज भी आगे बढ़ने के लिए जो मशक़्क़त करनी पड़ती है, उससे ही पता चलता है कि अभी भी इस क्षेत्र में महिलाओं के खड़े होने के लिए उन्हें कितना सफ़र तय करना बाक़ी है.

महिलाओं ने भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र शांति एजेंडा (India’s UN Peacekeeping agenda) में व्यापक योगदान दिया है, जो प्रस्ताव 1325 का एक कार्रवाई योग्य एजेंडा रहा है; 

संयुक्त राष्ट्र ने साल 2000 में प्रस्ताव संख्या 1325 पास किया. इस प्रस्ताव का मक़सद राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका बढ़ाने के साथ-साथ सैन्य पर्यवेक्षक, नागरिक, पुलिस, मानवाधिकार और मानवीय मदद में जुड़े कार्यबल में महिलाओं की भर्ती कर उनकी फील्ड ऑपरेशन से जुड़े क्षेत्रों में भूमिका को बढ़ाना था. लेकिन, 20 साल बीत जाने के बावजूद भारत को अब भी एक राष्ट्रीय कार्य योजना (National Action Plan) बनानी है. महिलाओं ने भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र शांति एजेंडा (India’s UN Peacekeeping agenda) में व्यापक योगदान दिया है, जो प्रस्ताव 1325 का एक कार्रवाई योग्य एजेंडा रहा है; लेकिन राष्ट्रीय कार्य योजना एक ऐसा तंत्र है जो शांति और सुरक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका और मौजूदगी को मज़बूती प्रदान कर सकता है. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस जैसे कार्यक्रम महिलाओं की उपलब्धियों और उन्हें क्या और हासिल करना है, उसे रेखांकित करने का अवसर प्रदान करते हैं. भले ही ऐसे कार्यक्रमों की भी आलोचना होती है, लेकिन हमें प्रत्येक उस अवसर का इस्तेमाल करना चाहिए जो हमें आगे क्या किया जाना है, इस बात को रेखांकित करने का मौका दे.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.