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पीढ़ियों तक चलने वाला अल्प-पोषण का कुचक्र निर्धनता, सामाजिक अलगाव और लैंगिक असमानताओं की वजह से और बढ़ जाता है.
देश से कुपोषण को पूरी तरह से मिटाने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले अल्प-पोषण के कुचक्र को तोड़ना सबसे अहम उपायों में से एक है. भारत की बात करें तो पीढ़ियों को प्रभावित करने वाले अल्प-पोषण के कुचक्र को ख़त्म करने की ज़रूरत को अतीत में हमेशा ही नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है. अंतरजन्य प्रभावों को “माहौल, वातावरण और परिस्थितियों का सामना करने के मामलों में एक पीढ़ी द्वारा दूसरी पीढ़ी के स्वास्थ्य और शारीरिक विकास के क्षेत्र में हासिल किए गए अनुभवों के तौर पर परिभाषित किया जाता है. अल्प आयु में होने वाली शादियां और मां बनने से जुड़ी अहम घटनाएं पोषण के अभाव के मुख्य कारणों में से एक हैं. स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इन कारकों के चलते बुरा असर पड़ता है. मातृ और शिशु स्वास्थ्य और किशोरावस्था को स्वस्थ बनाने के लिए किए जाने वाले निवेश से लागत की तुलना में काफ़ी अधिक मुनाफ़ा हासिल (चित्र 1) होता है. निम्न और उच्च-मध्यम आय वाले देशों में तो इस तरह के निवेश से लागत की तुलना में तिगुना लाभ देखा गया है.
पिछले दशकों में भारत ने 18 साल की उम्र से पहले होने वाली शादियों की संख्या कम करने की दिशा में प्रभावी कामयाबी दर्ज की है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 5 के अंतर्गत 22 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों (यूटी) से हासिल पहले चरण के आंकड़ों पर नज़र डालने से स्पष्ट है कि अल्प आयु में होने वाली शादियों के आंकड़ों में ठहराव देखने को मिलता है लेकिन इसी के साथ किशोरावस्था में गर्भधारण की दर में बढ़ोतरी देखने को मिली है. इस कारण जन्म के समय होने वाली समस्याओं, शिशु का वज़न कम होने और मातृ और शिशु मृत्यु दर के ऊंचा रहने जैसी चिंताओं के संकेत सामने आती हैं. चित्र 2 और 3 में 22 राज्यों/केंद्र-शासित प्रदेशों में बाल विवाह और किशोरावस्था में होने वाले गर्भधारण से जुड़े आंकड़ों के संकेत मिलते हैं.
इनमें त्रिपुरा के आंकड़े सबसे ज़्यादा चिंता पैदा करते हैं. यहां बाल विवाह और किशोर उम्र में गर्भावस्था- दोनों में तेज़ बढ़ोतरी देखने को मिलती है. असम और मणिपुर में भी बाल विवाह के मामलों में बढ़त देखी गई है. त्रिपुरा के अलावा आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, सिक्किम और लक्षद्वीप में भी किशोरावस्था में होने वाले गर्भधारण में इज़ाफ़ा देखने को मिला है. एनएफएचएस-5 (2015-16) से पहले हुए आख़िरी सर्वे के शून्य के मुक़ाबले लक्षद्वीप में 1.1 प्रतिशत किशोरवय गर्भधारण का आंकड़ा सामने आया है.
भारत के अलग-अलग इलाक़ों की केस स्टडी से पता चलता है कि किशोर आयु और कम उम्र की लड़कियां पीढ़ी दर पीढ़ी तक चलने वाले कुपोषण के कुचक्र की शिकार हो जाती हैं.
कुपोषण के रुझान तो डराने वाले हैं. 11 राज्यों में 5 साल से कम उम्र वाले बच्चों में बौनेपन के मामलों में बढ़ोतरी देखी गई. इसमें मेघालय (46.5%) और बिहार (42.9%) सबसे ऊपर हैं. एनएफएचएस-5 से पता चलता है कि केरल, गोवा और त्रिपुरा में बौनेपन के मामलों में तेज़ी देखने को मिली है जो चिंता का विषय है. शारीरिक अंगों की कमज़ोरी के मामले या तो स्थिर रहे हैं या फिर ज़्यादातर राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में इसमें बढ़ोतरी देखने को मिली. 11 राज्यों में सामान्य से कम वज़न वाली आबादी में बढ़ोतरी देखी जा रही है. कुपोषण (1) के दोहरे भार का ख़तरा इस बात से स्पष्ट है कि 5 साल से कम आयु वाले बच्चों में सामान्य से ज़्यादा वज़न होने का रुझान देखने को मिल रहा है. सामान्य से ज़्यादा वज़न वाले बच्चों से जुड़े आंकड़ों में हिमाचल प्रदेश और मिज़ोरम जैसे राज्यों और लद्दाख और लक्षद्वीप जैसे केंद्र-शासित प्रदेशों में तेज़ी देखने को मिली है. 22 राज्यों/केंद्र-शासित प्रदेशों में महिलाओं के पोषण स्तर से जुड़े आंकड़ों में एक तरफ़ तो दुबली-पतली महिलाओं (18.5 से कम बीएमआई) के प्रतिशत में कमी दर्ज की गई है लेकिन वहीं दूसरी ओर 22 राज्यों/केंद्र-शासित प्रदेशों में से 16 में मोटापे की शिकार और सामान्य से ज़्यादा वज़न वाली महिलाओं की तादाद में तेज़ बढ़त देखने को मिली है.
साक्ष्यों से स्पष्ट है कि किशोर उम्र की माताओं के बच्चों में बौनेपन के मामले बाकियों के मुक़ाबले 10 फ़ीसदी ज़्यादा देखने को मिलते हैं. भारत के अलग-अलग इलाक़ों की केस स्टडी से पता चलता है कि किशोर आयु और कम उम्र की लड़कियां पीढ़ी दर पीढ़ी तक चलने वाले कुपोषण के कुचक्र की शिकार हो जाती हैं. पीढ़ियों तक चलने वाला अल्प-पोषण का कुचक्र निर्धनता, सामाजिक अलगाव और लैंगिक असमानताओं की वजह से और बढ़ जाता है. इसका सोचने समझने की शक्ति, मानसिक बनावट और शारीरिक विकास पर अपरिवर्तनीय प्रभाव पड़ता है. माताओं(गर्भावस्था से पहले और बाद में) और बच्चों के लिए ठोस उपाय और दखल देकर पीढ़ी दर पीढ़ी तक चलने वाले कुपोषण के कुचक्र से लड़ा जा सकता है. इससे बौनेपन के बोझ से निपटने में भी मदद मिल सकती है.
चित्र 4,5 और 6 से 5 साल से कम के बच्चों, 15-49 वर्ष की महिलाओं और किशोर आयु (15-19 वर्ष) वाली लड़कियों में ख़ून की कमी या एनीमिया से जुड़े रुझानों के संकेत मिलते हैं. इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि बच्चों और महिलाओं में एनीमिया के मामले बढ़ रहे हैं. 16 राज्यों/केंद्र-शासित प्रदेशों में 5 साल से कम के बच्चों में एनीमिया के मामलों में बढ़ोतरी हुई है. असम (32.7 फ़ीसदी अंक), मिज़ोरम (27.1 फ़ीसदी अंक), मणिपुर (18.9 फ़ीसदी अंक) और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर (18.9 फीसदी अंक) में ऐसे मामलों में तेज़ बढ़त देखी जा सकती है.
16 राज्यों/केंद्र-शासित प्रदेशों में प्रजनन योग्य आयु (15-49 वर्ष) वाली महिलाओं में एनीमिया में बढ़त देखी गई है. असम (19 प्रतिशत अंक), जम्मू-कश्मीर(17 प्रतिशत अंक), लद्दाख (14.4 प्रतिशत अंक) के आंकड़ो में एनीमिया के स्तर में तेज़ी देखी जा सकती है. किशोर आयु वाली लड़कियों (15-19 साल) में एनीमिया के प्रसार के रुझानों पर नज़र डालें तो 16 राज्यों/केंद्र-शासित प्रदेशों में इसमें तेज़ी देखी जा सकती है. जम्मू-कश्मीर (26.3 प्रतिशत अंक), असम (24.3 प्रतिशत अंक), त्रिपुरा (15.7 प्रतिशत अंक), लद्दाख (15.3 प्रतिशत अंक) में इसमें तेज़ बढ़त देखी जा सकती है.
एनीमिया का सबसे ज़्यादा प्रसार लद्दाख में देखने को मिला है. यहां पांच वर्ष से कम उम्र वाली 92.5 प्रतिशत बच्चियां, प्रजनन आयु वर्ग की महिलाओं (15-49 वर्ष) का 92.8 प्रतिशत और किशोर उम्र वाली लड़कियों (15-19 वर्ष) का 96.9 प्रतिशत एनीमिया से ग्रस्त है. किशोरावस्था में एनीमिया का शिकार होने पर लंबे समय तक शरीर पर इसका असर रहता है. इससे मातृ मृत्यु, जन्म के समय सामान्य से कम वज़न और नवजात बच्चों में रक्तहीनता जैसी समस्याओं का ख़तरा बढ़ जाता है.
पोषण उपलब्ध कराने के लिए किए जाने वाले सरकारी हस्तक्षेपों के पैमाने पर असम का प्रदर्शन लचर नज़र आता है. ये चिंता का विषय है. 2016-18 के समग्र राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण के मुताबिक किशोरावस्था की करीब 40 फ़ीसदी लड़कियां रक्तहीनता यानी एनीमिया से ग्रस्त हैं. इस आयु वर्ग की लड़कियों की कुल आबादी का एक चौथाई हिस्सा स्कूल-आधारित चार महत्वपूर्ण सेवाओं- मिड डे मील, साल में दो बार होने वाले स्वास्थ्य जांच, पेट के कीड़े मारने वाली दवा और साप्ताहिक रूप से दिए जाने वाले आयरन और फॉलिक एसिड के सप्लिमेंट्स हासिल कर पाने से वंचित रह जाती हैं. एनएफएचएस-5 के आंकड़ों से गर्भवती महिलाओं में आयरन और फॉलिक एसिड सप्लिमेंट्स के सेवन के मामले में बड़ा भारी अंतर देखने को मिलता है. इस पैमाने पर केरल का आंकड़ा 67 फ़ीसदी तो नागालैंड का सिर्फ 4.1 प्रतिशत है. गर्भवती महिलाओं द्वारा आईएफए सप्लिमेंट्स के सेवन के मामलों को मां बनने वाली महिला के शिक्षा का स्तर और पैदा होने वाले बच्चों का क्रम जैसे कई कारक प्रभावित करते हैं.
11 राज्यों/केंद्र-शासित प्रदेशों में प्रसव-पूर्व देखभाल से जुड़ी सेवाओं में सुधार देखने को मिला है. इस मामले में बिहार और मणिपुर में बेहतरी साफ़ नज़र आती है जबकि इन सेवाओं में 93 फ़ीसदी विस्तार के साथ गोवा सबसे ऊपर है.
नवजात और छोटे बच्चों के खानपान से जुड़े सूचकों की बात करें तो ख़ासतौर से स्तनपान के स्तर में भारत के सभी राज्यों में सुधार देखने को मिला है. हालांकि, स्तनपान को जल्दी शुरू करने की प्रवृति और पूरक आहार लेने के मामले में कई राज्यों में गिरावट देखने को मिली है. वैसे ऐसा भी नहीं है कि हर ओर सिर्फ़ निराशाजनक परिणाम ही सामने आए हों. पानी और स्वच्छता के मामलों में पोषण से जुड़े संवेदनशील सूचकों में ज़ाहिर तौर पर सुधार देखने को मिले हैं. राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में इन सेवाओं में विस्तार देखने को मिला है. 11 राज्यों/केंद्र-शासित प्रदेशों में प्रसव-पूर्व देखभाल से जुड़ी सेवाओं में सुधार देखने को मिला है. इस मामले में बिहार और मणिपुर में बेहतरी साफ़ नज़र आती है जबकि इन सेवाओं में 93 फ़ीसदी विस्तार के साथ गोवा सबसे ऊपर है. प्रसव-पूर्व सही देखभाल होने से गर्भावस्था और प्रसव के दौरान स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को कम करने में मदद मिल सकती है. एनएफएचएस-4 के एक विश्लेषण से पता चलता है कि मां बनने वाली महिलाओं में शिक्षा का निम्न स्तर, निर्धनता और किशोरावस्था में गर्भधारण- वो प्रमुख वजहें हैं जिनके चलते भारत में प्रसव-पूर्व देखभाल से जुड़ी उपलब्ध सेवाओं के इस्तेमाल का स्तर काफ़ी नीचे है.
भारत के हर हिस्से से मिल रहे बदलावों से जुड़ी कामयाबियों के किस्सों से साफ़ है कि लड़कियों और महिलाओं के स्वास्थ्य में निवेश और स्वास्थ्य और पोषण के क्षेत्र में सुविधाओं में बढ़ोतरी करने से कुपोषण के स्तर में कमी लाई जा सकती है. पीढ़ी दर पीढ़ी कुपोषण के कुचक्र को तोड़ने के तरीकों पर किए गए एक अध्ययन से पोषण पर पूरे जीवन भर के लिए निवेश की ज़रूरतों का पता चलता है. ऐसे निवेश का कई पीढ़ियों तक प्रभाव देखा जाता है. राष्ट्रीय पोषाहार रणनीति के तहत जीवन चक्र से जुड़े उपायों को अपनाने पर ज़ोर दिया गया है. इसके तहत जीवन के महत्वपूर्ण पड़ावों में पोषण से जुड़े उपायों पर ध्यान देने की बात कही गई है ताकि शारीरिक वृद्धि और संपूर्ण विकास के स्तर में सुधार लाया जा सके.
एक स्वस्थ भावी पीढ़ी के लिए भारत को तत्काल कदम उठाने की ज़रूरत है!
(1) कुपोषण का दोहरा भार एक ही समय में अल्प-पोषण के साथ-साथ मोटापे और सामान्य से ज़्यादा वज़न की समस्याओं या खान-पान से जुड़े ग़ैर-संक्रामक रोगों की मौजूदगी को दर्शाता है.
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Dr. Shoba Suri is a Senior Fellow with ORFs Health Initiative. Shoba is a nutritionist with experience in community and clinical research. She has worked on nutrition, ...
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