16 फरवरी को, मैंने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के आंकड़ों का विश्लेषण किया था और यह तथ्य पेश किया था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 8 नवंबर 2016 को शुरू किए गए नोटबंदी (विमुद्रीकरण) के प्रयोग के परिणामस्वरूप डिजिटल भुगतान के अनगिनत उपायों में 8 नवंबर से पहले के रुझान की तुलना में जबरदस्त वृद्धि हुई है।
अर्थव्यवस्था के मौजूदा डिजिटलीकरण को प्वाइंट्स ऑफ सेल यानी पीओएस (डेबिट और क्रेडिट) पर हुए लेन-देन की कुल राशि के आधार पर भी मापा जाता है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा फरवरी में केवल चार अज्ञात बैंकों के लिए जारी किए गए आंकड़ों से पता चला है कि इस आधार पर पिछले रुझान की तुलना में डिजिटलीकरण में वृद्धि हुई। आरबीआई ने अब नवंबर एवं दिसंबर 2016 और जनवरी 2017 के लिए संशोधित आंकड़े जारी किए हैं उनसे यह पता चला है कि सभी रिपोर्टिंग बैंकों के लिए पीओएस सिर्फ चार नहीं हैं। 8 नवंबर 2016 के बाद क्या हुआ, इस बारे में मेरा पिछला विश्लेषण आरबीआई द्वारा जारी किए गए आंशिक आंकड़ों पर आधारित है। लेकिन अब जबकि डेटा को संशोधित कर दिया गया है, तो मैंने वही विश्लेषण फिर से किया है और उससे जो पता चला है वह वाकई चौंकाने वाला है।
मीडिया में फिलहाल यह बताया जा रहा है कि डिजिटल भुगतान की संख्या घट रही है। हालांकि, वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है।
मेरे द्वारा विकसित सांख्यिकीय मॉडल का उपयोग करके यह गणना करना वाकई संभव है कि पूर्ण डेटासेट के साथ डिजिटल लेन-देन का अब बढ़ा हुआ स्तर किस हद तक अंतर्निहित या वास्तविक रुझान के अनुरूप है। सीधे शब्दों में कहें, तो यह एक किफायती एकल परिवर्तनीय मॉडल है जिसके तहत यह माना जाता है कि डिजिटल लेन-देन का कोई भी विशेष घटक, जैसे कि पीओएस लेन-देन की कुल राशि एक स्थिर अवधि की एक रैखिक अभिव्यक्ति होती है और उस एम3 के मूल्य को दर्शाती है, जो मनी स्टॉक का एक व्यापक माप है और जिसमें सभी परिवर्तनीय डेटा प्राकृतिक लॉगरिदम (लघुगणक) में प्रतिपादित होते हैं।
इस तरह के मॉडल की खासियत यह है कि इसमें ‘दृढ़ प्रमाण’ का स्तर काफी ऊंचा होता है। इसमें ‘दृढ़ प्रमाण या भरोसे (गुडनेस ऑफ फिट)’ का स्तर सभी मामलों में 90 फीसदी से भी काफी ज्यादा होता है और अक्सर यहां तक कि 96 या 98 फीसदी के स्तर को भी छू लेता है।
आरबीआई के आंकड़ों के आधार पर इस श्रृंखला में पहले हिस्से ने दिसंबर 2016 में रुझान के सापेक्ष पीओएस और आईएमपीएस दोनों में ही मूल्य की दृष्टि से वृद्धि दर्शाई और जनवरी 2017 में भी फिर से रुझान के सापेक्ष ही बढ़ोतरी दर्शाई। दूसरे शब्दों में, दिसम्बर और जनवरी के बीच दर्ज की गई निरपेक्ष गिरावट ने इस वास्तविकता का खुलासा नहीं किया था कि पीओएस अब भी उस रुझान से ज्यादा था, जिसका पूर्वानुमान इस मॉडल ने नोटबंदी (विमुद्रीकरण) के कारण आए ढांचागत बदलाव से पहले लगाया था।
नए आंकड़ों से और भी ज्यादा आकस्मिक या प्रभावशाली तस्वीर उभर कर सामने आई है। मैंने उस मूल अंश से संबंधित शोध को और ज्यादा बढ़ा दिया है जिसमें केवल पीओएस एवं तत्काल भुगतान प्रणालियों (आईएमपीएस) पर ही विचार किया गया था और इसके साथ ही मैंने इसमें आधुनिक डिजिटल भुगतान के दो अन्य महत्वपूर्ण अवयवों ‘मोबाइल बैंकिंग लेन-देन’ और नेशनल इलेक्ट्रॉनिक्स फंड्स ट्रांसफर (एनईएफटी) से जुड़े लेन-देन को शामिल किया है। इसके तहत मुख्यत: एक बैंक खाते से दूसरे खाते में सीधे ही इलेक्ट्रॉनिक हस्तांतरण हो जाता है, जो समूची भारतीय भुगतान प्रणाली में निर्बाध रूप से जारी रहता है। ये दोनों ही नए अवयव ऊपर वर्णित ठीक वही किफायती रेखीय निकासी या प्रतिगमन मॉडल के अनुरूप हैं।
पीओएस से जुड़े आंकड़ों से पता चला है कि दिसंबर 2016 के दौरान रुझान की तुलना में पीओएस में 84 फीसदी की जबरदस्त बढ़ोतरी दर्ज की गई और जनवरी 2017 के दौरान भी रुझान के मुकाबले इसमें 72 फीसदी की खासी बढ़ोतरी आंकी गई। एक बार फिर, वैसे तो यह सच है कि निरपेक्ष या पूर्ण स्तर में गिरावट दर्ज की गई है, लेकिन इस तरह के दो डेटा बिंदुओं वाले विश्लेषणों में इस तथ्य की अनदेखी कर दी गई है कि पीओएस अब भी नोटबंदी से पहले वाले रुझान की तुलना में काफी ज्यादा है।
इसी तरह, आईएमपीएस में भी दिसम्बर के दौरान 13 फीसदी की वृद्धि और जनवरी 2017 के दौरान 12 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। एक बार फिर, यह वृद्धि रुझान की तुलना में ही आंकी गई है।
मेरे अनुसंधान से यह पता चला है कि मोबाइल बैंकिंग में दिसंबर के दौरान 88 फीसदी की जोरदार बढ़ोतरी हुई थी, जो जनवरी 2017 में कुछ घट जाने के बावजूद 70 फीसदी की आकर्षक वृद्धि को दर्शाने में कामयाब रही।
इसी तरह, एनईएफटी से जुड़े आंकड़े भी दिसंबर 2016 और जनवरी 2017 में क्रमशः 27 फीसदी एवं 23 फीसदी की वृद्धि दर्शाते हैं।
इससे साफ जाहिर है कि पीओएस और मोबाइल बैंकिंग ने प्रतिशत के लिहाज से रुझान की तुलना में सर्वाधिक बढ़ोतरी दर्शाई, जबकि आईएमपीएस और एनईएफटी ने अपेक्षाकृत कम वृद्धि दर्ज की। दरअसल, यह सामान्य सी बात है, क्योंकि नकदी की कमी से उपजी खाई को भरने के लिए पीओएस और मोबाइल बैंकिंग लेन-देन का फिर से चलन में आना स्वाभाविक ही तो है।
मैं ठीक उसी तरह से गणना नहीं करती हूं जिस तरह से गणना मीडिया ने फरवरी 2017 के लिए की है। फरवरी 2017 के लिए पीओएस हेतु सभी रिपोर्टिंग बैंकों के बजाय महज चार बैंकों से जुड़े डेटा ही उपलब्ध हैं। यही नहीं, हमारे पास अन्य घटकों या अवयवों से जुड़ा पूरा डेटा भी नहीं है। जब हमारे पास इससे संबंधित पूरा डेटा होगा, तभी हम इस बारे में कुछ सार्थक कह सकते हैं कि आखिरकार पिछले महीने क्या हुआ।
सरकार के डिजिटलीकरण अभियान का एक पहलू भारत इंटरफेस फॉर मनी (भीम) है, जो प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 30 दिसंबर 2016 को लांच किया गया एक आधिकारिक पेमेंट प्लेटफॉर्म या सिस्टम है। भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम के आधिकारिक आंकड़ों से पता चला है कि 8 फरवरी 2017 तक इस एप के लगभग 14 मिलियन डाउनलोड हो चुके थे, जबकि समाचार रिपोर्टों के अनुसार फरवरी के उत्तरार्द्ध तक इसके डाउनलोड का आंकड़ा 17 मिलियन को पार कर गया था। एनपीसीआई (भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम) के आंकड़ों से पता चला है कि ‘भीम’ संबंधी लेन-देन (ट्रांजैक्शन) की कुल संख्या और मूल्य में भी निरंतर वृद्धि हो रही है। निश्चित रूप से यह एक शुभ एवं उत्साहवर्धक शुरुआत है।
एनपीसीआई के आंकड़ों से पता चला है कि ‘भीम’ संबंधी लेन-देन की कुल संख्या और मूल्य में भी निरंतर वृद्धि हो रही है।
हालांकि, काफी तामझाम और डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा घोषित की जा चुकी प्रतिबद्धताओं के बावजूद चिंता के कुछ कारण हैं। मसलन, इस बात के पक्के सबूत हैं कि डिजिटल भुगतान के तौर-तरीकों को शुरू में अपनाने के बाद कुछ छोटे कारोबारियों और व्यापारियों ने फिर से नकद लेन-देन का चलन आरंभ कर दिया है, क्योंकि नकदी की किल्लत कमोबेश समाप्त हो गई है। इसी तरह कुछ उपभोक्ता भी पुन: नकद लेन-देन करने के रास्ते पर चल पड़े हैं क्योंकि एटीएम में फिर से नोटों की वापसी हो गई है। इसका कारण विशुद्ध रूप से यह नहीं है कि लोग एवं कारोबारी अपने लेन-देन को खाता — बही में दर्ज न करने और इस तरह टैक्स अदायगी से बचने के लिए ही नकद लेन-देन करना चाहते हैं। हालांकि, यह कमोबेश निश्चित रूप से एक कारक (फैक्टर) है। इसके कई और भी अधिक व्यावहारिक कारण हैं जिनमें ट्रांजैक्शन का बार-बार फेल हो जाना, नेटवर्क से जुड़े मुद्दे और ज्यादा ट्रांजैक्शन लागत शामिल हैं। उदाहरण के लिए, कुछ कारोबारी इस तरह की शिकायतें करते रहते हैं कि वे कुछ पेमेंट एप के जरिए अपने बैंक खातों में धन नहीं प्राप्त कर सकते हैं। यही नहीं, इस तरह के पेमेंट एप आम तौर पर मासिक ट्रांजैक्शन के कुल मूल्य को तब तक के लिए सीमित भी कर देते हैं जब तक कि इस तरह के बैंक ग्राहक ‘केवाईसी’ से जुड़ी जटिल एवं काफी समय लगने वाली प्रक्रियाएं पूरी नहीं कर देते हैं। यह ‘भीम’ का एक अहम फायदा है, जो एनपीसीआई का आधिकारिक उत्पाद है और जो यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (यूपीआई) का इस्तेमाल करता है। दूसरे शब्दों में, यह भारतीय रिजर्व बैंक की विनियमित या नियंत्रित भुगतान प्रणाली के जरिए किसी उपयोगकर्ता (यूजर) के बैंक खाते से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है और यह किसी भी अन्य पक्ष (थर्ड पार्टी) की वाणिज्यिक भुगतान व्यवस्थाओं पर कतई निर्भर नहीं है।
मैंने इन सभी नए आंकड़ों का विश्लेषण किया है, फिर भी यह सवाल बना हुआ ही है कि क्या नोटबंदी के बाद रुझान की तुलना में पीओएस इत्यादि में दर्ज की गई अच्छी–खासी बढ़ोतरी अल्पकालिक ही है या क्या हम कुल लेन-देन में स्थायी रूप से डिजिटलीकरण की अधिक हिस्सेदारी के साथ एक नए संतुलन की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
विश्लेषणात्मक रूप से, एक विशेष सवाल का जवाब हम तब तक देने में समर्थ नहीं होंगे, जब तक कि हमारे पास और ज्यादा आंकड़े उपलब्ध नहीं हो जाएंगे। सवाल यह है कि रुझान की तुलना में पीओएस इत्यादि में दर्ज की गई बढ़ोतरी का कितना हिस्सा स्थायी बदलाव को दर्शाता है और इसका कितना हिस्सा महज नोटबंदी के मद्देनजर हुई अल्पकालिक वृद्धि को दर्शाता है।
सामान्य तौर पर तो यही प्रतीत होता है कि डिजिटल भुगतान में बढ़ोतरी का एक हिस्सा अवश्य ही दीर्घकालिक ढांचागत बदलाव को दर्शाता है। अन्यथा, जब जनवरी 2017 में नकदी की कमी कमोबेश पूरी तरह से गायब हो गई थी, तो वैसे में लेन-देन के मामले में 8 नवंबर से पहले की स्थिति की जल्द ही वापसी हो जानी चाहिए थी। यह अभी तक नहीं हुआ है, जिससे इस संभावना को बल मिलता है कि डिजिटल भुगतान के मामले में लोगों के मूल नजरिए में शायद बदलाव आ चुका है। फिर भी, तथ्य यही है कि उपलब्ध डेटा से लोगों द्वारा धीरे-धीरे पुराने चलन को ही अपनाने के बारे में पता चलता है। इसका मतलब यही हुआ कि हम भले ही लंबे समय तक नहीं, लेकिन अभी कुछ और महीनों तक निश्चित रूप से इस बारे में कुछ भी कहने में समर्थ नहीं होंगे।
अत: ऐसे में आरबीआई, वित्त मंत्रालय एवं प्रधानमंत्री कार्यालय को सतर्क रहना होगा और इसके साथ ही डिजिटल लेन-देन से जुड़े डेटा पर आगे भी करीबी नजर रखना होगा।
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