Author : Niranjan Sahoo

Published on Dec 13, 2021 Updated 0 Hours ago

क्या नई शिक्षा नीति लागू होने से लेकर अबतक हालात पटरी पर हैं? आने वाले दशकों में इस व्यापक शिक्षा नीति के सामने की बड़ी चुनौतियां क्या-क्या हैं?

नई शिक्षा नीति NEP 2020: मनचाहे नतीजे पाने के लिये हमें इन पाँच चुनौतियों से सफलतापूर्वक निपटना होगा

पिछले साल जुलाई में भारत में नई शिक्षा नीति (NEP) जारी की गई थी. ये शिक्षा क्षेत्र के लिए 21वीं सदी की पहली और सबसे व्यापक नीति है. शिक्षा जगत के लिए 1986 के बाद पहली बार अनेक मकसदों वाला नीतिगत दस्तावेज़ सामने रखा गया. इसमें कोई शक़ नहीं कि भारत का शिक्षा क्षेत्र फ़िलहाल संकट के दौर से गुज़र रहा है. लिहाजा नई शिक्षा नीति के सामने इन समस्याओं से पार पाने की चुनौती है. NEP की पहली सालगिरह के मौके पर अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “हम आज़ादी के 75वें साल में प्रवेश कर रहे हैं. एक प्रकार से नई शिक्षा नीति पर अमल इस अवसर से जुड़ी प्रमुख घटना बन गई है. नया भारत बनाने और भविष्य के लिए युवाओं को तैयार करने में इस नीति की बड़ी भूमिका रहने वाली है.” केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने NEP 2020 को 21वीं सदी की ज़रूरतों के हिसाब से एक दूरदर्शी शिक्षा नीति करार दिया. उनका कहना था कि इस नीति के ज़रिए भारत में एक-एक छात्र की क्षमताओं का विकास सुनिश्चित हो सकेगा. साथ ही हम शिक्षा को सबके लिए सुलभ बनाते हुए क्षमताओं का निर्माण करने की दिशा में आगे बढ़ेंगे. उनका विचार था कि नई शिक्षा नीति देश में शिक्षा से जुड़े परिदृश्य में आमूलचूल बदलाव लाएगी. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि NEP भारत में शिक्षा को समग्र, सस्ता, सुलभ और न्यायपूर्ण बनाएगी. ऐसे में सवाल उठता है कि इस सिलसिले में अब तक क्या प्रगति हुई है? क्या नई शिक्षा नीति लागू होने से लेकर अबतक हालात पटरी पर हैं? आने वाले दशकों में इस व्यापक शिक्षा नीति के सामने की बड़ी चुनौतियां क्या-क्या हैं?

सरकार की नीतियों और निर्णयों को ज़मीन पर उतारकर प्रधान ने ख़ुद को साबित किया है. विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्यों में नई शिक्षा नीति लागू करने में कई तरह की अड़चनों और विरोधों का सामना करना पड़ सकता ह

कुछ अहम उपलब्धियां और पड़ाव

नई शिक्षा नीति लागू हुए 16 महीने से ज़्यादा का वक़्त बीत चुका है. इस कालखंड में वैश्विक स्वास्थ्य संकट के चलते पैदा हुई चुनौतियों के बावजूद NEP ने कुछ अहम पड़ाव पार कर लिए हैं. शुरू से देखें तो शिक्षा जगत से ताल्लुक रखने वाले विभिन्न किरदारों के बीच नई शिक्षा नीति के उद्देश्यों और लक्ष्यों के प्रति दिलचस्पी पैदा करने और जागरूकता बढ़ाने में सरकार ने सराहनीय काम किया है. इस सिलसिले में 10 दिन तक चले शिक्षक पर्व की मिसाल दी जा सकती है. इस दौरान राष्ट्रीय स्तर पर कई समारोह आयोजित किए गए. इनमें प्रधानमंत्री समेत तमाम आला अधिकारियों ने हिस्सा लिया. इसके साथ ही इरादों में और स्पष्टता लाने के लिए सरकार ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय कर दिया. इतना ही नहीं सरकार के इस अहम मंत्रालय में नई ऊर्जा और गतिशीलता लाने के लिए नए मंत्री के तौर पर धर्मेंद्र प्रधान को कमान सौंपी गई. धर्मेंद्र प्रधान को पेट्रोलियम मंत्रालय जैसे अहम महकमे में बड़े-बड़े बदलाव लाने का श्रेय दिया जाता है. सरकार की नीतियों और निर्णयों को ज़मीन पर उतारकर प्रधान ने ख़ुद को साबित किया है. विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्यों में नई शिक्षा नीति लागू करने में कई तरह की अड़चनों और विरोधों का सामना करना पड़ सकता है. ऐसे में आपसी राय-मशविरे से और समझा-बुझाकर इस नीति को आगे बढ़ाने में धर्मेंद्र प्रधान का कूटनीतिक कौशल निर्णायक साबित हो सकता है.

जहां तक राज्यों में नई शिक्षा नीति और उससे जुड़े कार्यक्रमों की शुरुआत की बात है तो अब तक केवल कुछ मुट्ठीभर राज्यों में ही इसका आग़ाज़ हो सका है. इनमें से ज़्यादातर राज्यों में केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की ही सरकार है. 

अब NEP से जुड़ी अहम गतिविधियों की शुरुआत की बात कर लेते हैं. मौजूदा दौर की बदलती ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्कूली पाठ्यक्रम में बदलाव किया गया है. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) और वित्तीय जगत से जुड़े साहित्य को स्कूली सिलेबस में शामिल किया गया है. NEP में मातृभाषा और स्थानीय भाषाओं पर ख़ास ज़ोर दिया गया है. लिहाज़ा कई राज्यों में प्रयोग के तौर पर स्थानीय भाषाओं में इन विषयों की पढ़ाई शुरू की गई है. इसके साथ ही मंत्रालय ने बहुचर्चित एकेडमिक बैंक ऑफ़ क्रेडिट की भी शुरुआत की है. इस कार्यक्रम से उच्च शिक्षा के छात्रों को प्रवेश और बाहर निकलने के कई विकल्प मिल सकेंगे. इनके अलावा नई शिक्षा नीति से जुड़े कई और कार्यक्रम भी शुरू किए गए हैं. इनमें निपुण (NIPUN) भारत मिशन, विद्या प्रवेश, दीक्षा (DIKSHA) और निष्ठा (NISHTHA) शामिल हैं. निपुण (NIPUN) भारत मिशन का लक्ष्य तीसरी कक्षा पूरी होने तक बच्चों में पढ़ने, लिखने और अंकगणित से जुड़े कौशल में सुधार लाना और उनकी सीखने की क्षमता को धारदार बनाना है. विद्या प्रवेश पहली कक्षा के बच्चों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है. तीन महीनों के इस कोर्स में बच्चों को स्कूली शिक्षा के लिए तैयार कराया जाता है. दीक्षा (DIKSHA) ई-सामग्री मुहैया कराने से जुड़ा कार्यक्रम है. इसमें पोर्टल के ज़रिए शैक्षणिक सामग्री उपलब्ध करवाई जा रही है. जबकि निष्ठा (NISHTHA) माध्यमिक स्तर के शिक्षकों के प्रशिक्षण से जुड़ा कार्यक्रम है.

बहरहाल, जहां तक राज्यों में नई शिक्षा नीति और उससे जुड़े कार्यक्रमों की शुरुआत की बात है तो अब तक केवल कुछ मुट्ठीभर राज्यों में ही इसका आग़ाज़ हो सका है. इनमें से ज़्यादातर राज्यों में केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की ही सरकार है. नई शिक्षा नीति लागू करने वाला सबसे पहला राज्य कर्नाटक है. 24 अगस्त को कर्नाटक में नई शिक्षा नीति लागू की गई थी. हाल ही में मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में भी NEP से जुड़े कई कार्यक्रमों की शुरुआत हुई है. ज़ाहिर है इससे नई शिक्षा नीति को आगे बढ़ाने में मदद मिली है. कुल मिलाकर अब NEP ने रफ़्तार पकड़नी शुरू कर दी है.

पांच बड़ी चुनौतियां

ये सही है कि NEP ने कुछ हद तक रफ़्तार पकड़ी है लेकिन इसको पूरी तरह से अमल में लाने का रास्ता रुकावटों से भरा है. पहला, भारत जैसे देश का विशाल आकार और यहां के शिक्षा जगत की विविधता के मद्देनज़र किसी नई पहल को लागू कराना पहाड़ चढ़ने जैसा है. मिसाल के तौर पर हम सिर्फ़ स्कूली शिक्षा तंत्र के आकार को ही ले सकते हैं. आकार के मामले में भारत का शिक्षा तंत्र दुनिया का दूसरा स्थान पर है. भारत में 15 लाख से ज़्यादा स्कूल, 25 करोड़ से अधिक छात्र और तक़रीबन 89 लाख शिक्षक हैं. देश में उच्च शिक्षा से जुड़ा तंत्र भी बहुत बड़ा है. AISHE की 2019 की रिपोर्ट में भारत में उच्च शिक्षा से जुड़े तमाम आंकड़े पेश किए गए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 3.74 करोड़ छात्र उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं. देश में तक़रीबन एक हज़ार विश्वविद्यालय, 39,931 कॉलेज और 10,725 स्वतंत्र संस्थान हैं. ज़ाहिर है कि नई शिक्षा नीति को देशभर में अमल में लाने से जुड़ी क़वायद बहुत विशाल है. इसमें राज्य, ज़िला, तहसील और प्रखंड स्तर के अनेक किरदार शामिल हैं. भारत में राज्यों और ज़िलों के स्तर पर बहुत अधिक विविधताएं मौजूद हैं. निश्चित रूप से निजी क्षेत्र के साथ-साथ इन तमाम किरदारों के बीच ज़िम्मेदारियों और मालिक़ाना दर्जे का साझा स्वरूप तैयार करना बहुत बड़ी चुनौती है.

भारत में 3.74 करोड़ छात्र उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं. देश में तक़रीबन एक हज़ार विश्वविद्यालय, 39,931 कॉलेज और 10,725 स्वतंत्र संस्थान हैं. ज़ाहिर है कि नई शिक्षा नीति को देशभर में अमल में लाने से जुड़ी क़वायद बहुत विशाल है. 

दूसरे, NEP के लक्ष्यों को हासिल करने की पूरी क़वायद राज्यसत्ता की क्षमता से जुड़ी है. NEP का मसौदा तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष के. कस्तूरीरंगन भी इस ओर इशारा कर चुके हैं. उनका विचार है कि भारत का शिक्षा तंत्र तंगी का शिकार है. यहां अफ़सरशाही का बोलबाला है. नए-नए प्रयोग या नवाचार और अपना स्तर ऊंचा करने से जुड़ी ज़रूरी क्षमता का अभाव है. बहरहाल NEP के तहत शिक्षा जगत में आमूलचूल बदलावों का लक्ष्य रखा गया है. शिक्षा मंत्रालयों (केंद्र और राज्यों में) के भीतर और दूसरे नियामक निकायों की आंतरिक क्षमता ऐसे बदलावों के हिसाब से बिल्कुल नाकाफ़ी हैं. NEP के तहत पहले से तय की गई सामग्रियों और रटी-रटाई तकनीक पर आधारित मौजूदा शिक्षा व्यवस्था से हटकर प्रायोगिक शिक्षा और गहन सोच पर आधारित शिक्षा की ओर बढ़ने का लक्ष्य है. इसके लिए शिक्षा जगत को चलाने वाले लोगों की सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना होगा. इसके साथ-साथ शिक्षकों, छात्रों और अभिभावकों के व्यवहार में भी बदलाव लाना बेहद ज़रूरी है.

इसका मतलब ये है कि हज़ारों स्कूलों और कॉलेजों में इसके हिसाब से क्षमता निर्माण की ज़रूरत होगी. अनेक मकसदों और अनुभव-आधारित लक्ष्यों वाले इतने बड़े कार्यक्रम को अमल में लाने से जुड़े कार्यकारी पहलुओं के हिसाब से इन संस्थानों को नए सिरे से तैयार करना होगा. संक्षेप में कहें तो मंत्रालय के मौजूदा सांगठनिक ढांचे और उसके पूरे इको सिस्टम का पूरी तरह से कायापलट करने की दरकार है. हालांकि इस सिलसिले में एक सुखद बात ये है कि NEP से जुड़े दस्तावेज़ में मौजूदा नियामक तंत्र में आमूलचूल बदलाव लाने को लेकर एक व्यापक रोडमैप पेश किया गया है. इसके साथ ही शिक्षा मंत्रालय भारतीय उच्च शिक्षा आयोग के गठन को लेकर एक क़ानून लाने की क़वायद में जुटा है. ये आयोग UGC, AICTE और राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद जैसे मौजूदा नियामक निकायों की जगह लेगा. हालांकि इन क़ानूनी पहलों से आने वाले समय में तैयार होने वाले नए संस्थागत ढांचे के लिए अभी इंतज़ार करना होगा.

  NEP से जुड़े दस्तावेज़ में मौजूदा नियामक तंत्र में आमूलचूल बदलाव लाने को लेकर एक व्यापक रोडमैप पेश किया गया है. इसके साथ ही शिक्षा मंत्रालय भारतीय उच्च शिक्षा आयोग के गठन को लेकर एक क़ानून लाने की क़वायद में जुटा है. 

तीसरा, NEP पर अमल और उसकी कामयाबी काफ़ी हद तक केंद्र और राज्यों के बीच के सहयोग पर निर्भर करेगी. भले ही NEP का मसौदा केंद्र सरकार (राज्यों की सरकारों समेत तमाम संबंधित पक्षों से मिले सुझावों के आधार पर) ने तैयार किया है लेकिन इस पर अमल राज्यों की सक्रिय भागीदारी पर निर्भर करेगा. इसकी वजह ये है कि ज़्यादातर सेवा-आधारित शिक्षा राज्य सरकारों द्वारा मुहैया कराई जाती है. सौ बात की एक बात ये है कि नई शिक्षा नीति से जुड़े तमाम कार्यक्रमों की शुरुआत करते वक़्त केंद्र को सहकारी संघवाद और विकेंद्रीकरण के सिद्धांतों के हिसाब से बड़ी कुशलता से आगे बढ़ना होगा. हालांकि ये पूरी क़वायद आसान नहीं है. हाल के वर्षों में राजनीतिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया बहुत तेज़ गति से बढ़ी है. ज़ाहिर तौर पर केंद्र और राज्यों के बीच भरोसे की डोर टूटती दिखाई दी है. विपक्षी पार्टियों के शासन वाले कई राज्यों ने NEP से जुड़े कई अहम प्रावधानों और उनको अमल में लाने के तौर-तरीक़ों पर कड़ा एतराज़ जताया है. इस सिलसिले में तमिलनाडु सरकार का ताज़ा क़दम चिंता बढ़ाने वाला है. तमिलनाडु सरकार ने राज्य में NEP लागू नहीं करने का फ़ैसला किया है. इसके बाद विपक्षी पार्टियों की हुकूमत वाले दूसरे राज्यों में भी ऐसे ही फ़ैसले लिए जाने की आशंका बढ़ गई है. ज़ाहिर है NEP को ज़मीन पर उतारने के लिए केंद्र और राज्यों के बीच के आंकड़े ठीक करना निहायत ज़रूरी है.

चौथा, NEP के समावेशी दृष्टिकोण को साकार करने में निजी क्षेत्र (ख़ासतौर से उच्च शिक्षा व्यवस्था के मामले में) की भूमिका निर्णायक है. ग़ौरतलब है कि उच्च शिक्षा से जुड़े तक़रीबन 70 प्रतिशत संस्थान (कॉलेज और यूनिवर्सिटी) निजी क्षेत्र द्वारा संचालित किए जा रहे हैं. उच्च शिक्षा हासिल कर रहे लगभग 65-70 फ़ीसदी छात्र निजी क्षेत्र द्वारा चलाए जा रहे उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. दरअसल उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय निजी क्षेत्र अपने साथ ज़रूरी वित्तीय संसाधन और नवाचार लेकर आता है. लिहाज़ा सरकारों और नियामक निकायों को NEP से जुड़ी पूरी प्रक्रिया में निजी क्षेत्र को अपना बराबर का भागीदार समझना होगा. साथ ही निजी क्षेत्र के योगदान को सुलभ बनाने के लिए कार्यकारी संस्थागत व्यवस्था भी बनानी होगी.

तमिलनाडु सरकार ने राज्य में NEP लागू नहीं करने का फ़ैसला किया है. इसके बाद विपक्षी पार्टियों की हुकूमत वाले दूसरे राज्यों में भी ऐसे ही फ़ैसले लिए जाने की आशंका बढ़ गई है. ज़ाहिर है NEP को ज़मीन पर उतारने के लिए केंद्र और राज्यों के बीच के आंकड़े ठीक करना निहायत ज़रूरी है. 

और अंत में एक अहम बात ये कि NEP से जुड़े तमाम कार्यक्रमों पर कामयाबी से अमल के लिए आने वाले कई दशकों तक पर्याप्त वित्तीय संसाधनों की दरकार होगी. इस सिलसिले में NEP में साफ़ साफ़ कहा गया है कि नई नीति के लक्ष्यों को साकार करने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक ख़र्च को जीडीपी के 6 प्रतिशत हिस्से तक ले जाना होगा. ये एक कठिन चुनौती है. कम से कम अतीत में किए गए वादों और वास्तविक कामयाबियों के मद्देनज़र तो ऐसा ही लगता है. इस सिलसिले में हम 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति की मिसाल ले सकते हैं. उस नीति में भी जीडीपी का 6 प्रतिशत हिस्सा शिक्षा क्षेत्र के लिए आवंटित किए जाने की सिफ़ारिश की गई थी. हालांकि इतने दशकों बाद भी शिक्षा पर सार्वजनिक ख़र्च जीडीपी के 3 फ़ीसदी से ऊपर नहीं जा सका है. ये अजीब विडंबना है कि जिस साल NEP का आग़ाज़ हुआ उसी साल केंद्रीय बजट में शिक्षा क्षेत्र के आवंटन में कमी आ गई. 2020-21 में केंद्र का शिक्षा बजट 99,311 करोड़ रु था जिसे 2021-22 में 6 प्रतिशत घटाकर 93,224 करोड़ रु कर दिया गया. हालांकि इस साल कोविड-19 महामारी के चलते सरकार की प्राथमिकताओं में बदलाव आ गया है. देश का एक बहुत बड़ा तबका महामारी के चलते पैदा हुई आर्थिक परेशानियों से जूझ रहा है. कोविड-19 के कारण सरकार के कल्याणकारी ख़र्चों में बढ़ोतरी के चलते शिक्षा बजट में की गई कटौती समझ में आती है. बहरहाल शिक्षा पर होने वाले ख़र्च को जीडीपी के 6 प्रतिशत तक ले जाने के लिए भारी-भरकम वित्तीय संसाधनों का जुगाड़ करना होगा. हालांकि इस पूरी क़वायद का तौर-तरीक़ा अब तक साफ़ नहीं हो पाया है.

निष्कर्ष

कुल मिलाकर कहें तो NEP 2020 सचमुच हर लिहाज़ से एक क्रांतिकारी दस्तावेज़ है. इस नीति के तहत तमाम दूसरे मसलों के साथ-साथ शैक्षणिक मुद्दों और ढांचागत विषमताओं के निपटारे पर ज़ोर दिया गया है. इसमें 21वीं सदी में भारत की ज़रूरतों के मद्देनज़र शिक्षा को व्यापक और सुलभ बनाने और छात्रों को भावी मांग के हिसाब से तैयार करने का खाका खींचा गया है. इसके साथ ही NEP के सामने शिक्षा जगत की अनेक समस्याओं से निपटने की कठिन चुनौती भी है. निश्चित रूप से भारत अपनी युवा आबादी का लाभ उठाना चाहता है. साथ ही तेज़ गति से बढ़ती ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था में पैदा होने वाले अवसरों को भी हम अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं. ऐसे में नई शिक्षा नीति पर प्रभावी रूप से अमल करना निहायत ज़रूरी हो जाता है. NEP देश का कायापलट करने की क्षमता रखती है. यही वजह है कि महामारी से जुड़ी तमाम चुनौतियों के बावजूद केंद्र सरकार ने इसकी गंभीरता और मकसद को समझते हुए तत्काल कई कदम उठाए हैं.

ये अजीब विडंबना है कि जिस साल NEP का आग़ाज़ हुआ उसी साल केंद्रीय बजट में शिक्षा क्षेत्र के आवंटन में कमी आ गई. 2020-21 में केंद्र का शिक्षा बजट 99,311 करोड़ रु था जिसे 2021-22 में 6 प्रतिशत घटाकर 93,224 करोड़ रु कर दिया गया. 

हाल के महीनों में सरकार की ओर से नई शिक्षा नीति से जुड़े कई कार्यक्रम शुरू किए हैं. कई राज्यों में भी आधिकारिक रूप से इस नीति को लागू कर दिया गया है. कई दूसरे राज्यों में इसे अपनाने की प्रक्रिया जारी है. हालांकि अभी NEP को एक लंबा रास्ता तय करना है. राज्य, ज़िला और निजी क्षेत्र समेत विभन्न संबंधित पक्षों के बीच तालमेल और सहयोग कायम करने की ज़रूरत होगी. विशाल आकार और अमल से जुड़ी जटिलताओं के चलते निश्चित रूप से ये एक बहुत कठिन काम है. इसके साथ ही राज्यसत्ता की कमज़ोर क्षमता और वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता से जुड़ी समस्याओं से भी पार पाना होगा. भारत का शैक्षणिक तंत्र नए विचारों और नवाचारों को आसानी से स्वीकार नहीं करता. लिहाज़ा इस मोर्चे पर भी ठोस पहल की ज़रूरत होगी. हालांकि सबसे बड़ी चुनौती NEP पर आम सहमति कायम करने की है. 1986 के बाद पहली बार आए इस प्रकार के कार्यक्रम से जुड़ने के लिए राज्यों को तैयार करना होगा. संक्षेप में कहें तो NEP की कामयाबी काफ़ी हद तक सहकारी संघवाद पर निर्भर है. इसके लिए राज्यों को सुधार प्रक्रिया की अगुवाई करनी होगी.

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