Author : Parjanya Bhatt

Published on May 29, 2019 Updated 0 Hours ago

इस गठबंधन को अपवित्र और उन हिंदू सांप्रदायिकों का आगमन करार दिया गया जो राज्य की जनसांख्यिकी यानि स्थानीय जनसंख्य़ा के मूल व्यवहार और गुण को  बदलने की कोशिश थी

कश्मीर पर नई दिल्ली नर्म और सख़्त उपायों का समझदारी से करे प्रयोग

इस समय दरकार है एक मज़बूत सरकार की जो क्षुद्र राजनीतिक लाभों से आगे की सोच सके और घाटी में कठोर तथा मधुर दोनों तरह की शक्तियों के प्रयोग का संतुलन स्थापित कर सके.

तीन साल तक लगातार तनाव-वृद्धि और उग्रवाद-विरोधी कार्रवाइयों के बाद इन दिनों कश्मीर घाटी में अपेक्षाकृत शांति है. नागरिक अशांति की घटनाओं, ख़ासतौर पर पत्थरबाज़ी की घटनाओं में कमी और आतंकी संगठनों के लिए युवाओं की भर्तियों की घटनाओं में पिछले चार महीनों में आई कमी सकारात्मक बदलाव का इशारा कर रही है. चरमपंथी  नेताओं को निशाने पर लेने और सीमापार पाकिस्तान स्थित रणनीतिक ठिकानों के खिलाफ़ सोची-समझी और साहसिक रणनीतिक उग्रवाद-विरोधी कार्रवाइयों के बिना राज्य में यह स्थिति नहीं आती. लेकिन पाकिस्तान की छद्म और  संकर युद्ध फिर से शुरू कर सकने की क्षमताओं को देखते हुए कहा जा सकता है, कि कश्मीर में मामूली  शांति की झलक देने वाली यह स्थिति कभी भी बदल सकती है.

नागरिक अशांति की घटनाओं, खास तौर पर पत्थरबाजी, की घटनाओं में कमी और आतंकी संगठनों के लिए युवाओं की भर्तियों की घटनाओं में पिछले चार महीनों में आई कमी सकारात्मक बदलाव का इशारा कर रही है.

कश्मीर संघर्ष कई प्रभावकारी क्षेत्रों का मिश्रण है, जिसमें संघर्ष का मनोविज्ञान, प्रचार अभियान, पैसों की फंडिंग , सोशल मीडिया, धारणा प्रबंधन, राजनीतिक संचालन कौशल और कूटनीति   की भूमिकाएं हैं. सेना इस पूरे परिदृश्य का एक सिर्फ़ एक हिस्सा भर है.  ऐसे संघर्षों में सैन्य भागीदारी को ज्य़दा महत्व मिल जाता है क्योंकि वह प्राथमिक रूप से स्थितियों पर नियंत्रण करते हुए ऐसा वातावरण तैयार  कर सकती है जिसमें ज्य़ादा जटिल क्षेत्रों पर ध्यान दिया जा सके. इसीलिए नई दिल्ली को घाटी में अपेक्षाकृत शांति के इस मौके का फायदा उठाते हुए अपनी ताक़त  समझदारी से इस्तेमाल करना चाहिए यानि उसे  अपने कठोर और नरमदोनों तरह की शक्तियों के संयोजन का प्रयोग करना चाहिए.

नई दिल्ली को घाटी में अपेक्षाकृत शांति के इस मौके का फायदा उठाते हुए शक्तियों का चातुर्यपूर्ण प्रयोग करना चाहिए अर्थात् कठोर और नरम दोनों तरह की शक्तियों के संयोजन का प्रयोग करना चाहिए.

अतीत में सन् 2008-10 के बीच कश्मीर में हिंसक झड़पों का नए सिरे से उभार हुआ था, जिससे विरोध करने वालों की एक नई पीढ़ी उभरी थी जो बाद में फिर 2016 में सामने आई थी. 2008 में अमरनाथ भूमि-विवाद और 2010 में माचिल में फर्जी मुठभेड़ जैसी घटनाओं ने घाटी के वातावरण को दूषित किया था. लेकिन, नवंबर 2010 से अक्टूबर 2011 का  समय एक तरह से उम्मीदों का दौर था, जो जल्दी ही घाटी में गहरी निराशा में बदल गया था. पहली बार नागरिक वार्ताकारों के समूह ने घाटी में जाकर कश्मीरी समाज के सभी वर्गों के लोगों से संवाद स्थापित किया और महत्वपूर्ण सिफ़ारिशें कींजिसकी  सराहना स्थानीय लोगों ने भी की थी. लेकिन, सरकार ने उन सिफ़ारिशोंको  नज़रअंदाज़ कर दिया,  जिससे काफ़ी हद तक मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाओं को कम करते हुए  सुरक्षा बलों और कश्मीरी समाज के बीच संबंधों को सुधारने की दिशा में सहयोग मिला होता. वार्ताकारों की रिपोर्ट न लागू होने से घाटी के कश्मीरियों के मन में काफ़ी हद दिल्ली के प्रति तक गुस्सा और अविश्वास की भावना पैदा हुई. 

पहली बार नागरिक वार्ताकारों के समूह ने घाटी में जाकर कश्मीरी समाज के सभी स्तरों पर लोगों से संवाद स्थापित किया और महत्वपूर्ण  सिफ़ारिशें की जिनकी स्थानीय लोगों ने भी व्यापक सराहना की थी.

नई दिल्ली की ओर से सकारात्मक प्रतिक्रिया के अभाव के बावजूद 2012 में घाटी में शांति बनी रही. पर्यटकों ने एक बार फिर से वहां जाना शुरू कर दिया था. एक बार फिर से उम्मीद का माहौल बना था, लेकिन यह बहुत कम वक्त तक रहा. राधा कुमार ने अपनी पुस्तक ‘पैराडाइज एट वॉर: ए पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ कश्मीर’ में लिखा है कि माहौल में सुधार रोकने के लिए पाकिस्तान-समर्थित आतंकी संगठनों जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तोएबा ने घाटी में घुसपैठिये भेजने शुरू करने के साथ ही नए सिरे से अपने संगठन में स्थानीय लोगों की भर्ती तेज कर दी थी. फरवरी 2013 में अफ़जल गुरु की फांसी ने भी कश्मीरियों को अलग-थलग कर दिया था.

वार्ताकारों की ओर से की गई पहल भी थोड़े समय में ख़त्म गई क्योंकि उस दौरान केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार अपने कई मंत्रियों के खिलाफ़ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझने में लगी रही और बाद में 2014 के आम चुनावों की तैयारी में व्यस्त हो गई. मई 2014 में मजबूत जनादेश के साथ सत्तारूढ़ होने वाली बीजेपी ने नवंबर में जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने के लिए पीडीपी से हाथ मिला लिया. इस गठबंधन को अपवित्र और उन हिंदू सांप्रदायिकों का आगमन करार दिया गया जो राज्य की जनसांख्यिकी यानि स्थानीय जनसंख्य़ा के मूल व्यवहार और गुण को  बदलने की कोशिश थी. इसके अलावा वे  राज्य को मिले विशेष संवैधानिक प्रावधानों को निरस्त करना चाहते थे. अफ़ज़ल गुरु को मौत की सज़ा मिलने के बाद लश्कर और जैश ने 2015 में देशभर में कई ठिकानों पर हमला किया और 2016 में पठानकोट और उरी हमलों के साथ पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद नई ऊंचाइयों पर पहुंच गया. इन हमलों ने नई दिल्ली और इस्लामाबाद के संबंधों को तो बिगाड़ा ही, उसी दौरान हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के ख़ात्मे ने पूरी घाटी को हिंसा के चक्र में झोंक दिया.

सन् 2016 में एक तरह से 1990 के दशक की पुनरावृत्ति हो रही थी – पाकिस्तान की ओर से मिला –जुला युद्ध रणकौशल और भारत की ओर से केवल सैन्य प्रहार हो रहा था दोनों ही संदर्भों में. आतंक का मुक़ाबला केवल ताक़त के साथ करते हुए ऐसा दिख रहा था कि  सरकार और कश्मीरियों के  बीच राजनीतिक और  सामाजिक स्तर  पर संवाद का अभावथा. पिछले 30 वर्षों में भारत घाटी में आतंकी नेटवर्क को पूरी तरह से काबू करके आतंकी विचारधारा को पराजित नहीं कर सका क्योंकि सरकारों ने इस समस्या से निपटने के क्रम में अपेक्षाकृत शांत और सामान्य स्थितियों के दौरान भी मुख्यतः कठोरतापूर्ण रवैया अपनाये रखा था. 1990 के दशक में कठोर शक्ति के प्रयोग की प्रवृत्ति प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में धीरे-धीरे संवाद और समझाने की  नरम ताक़तों के प्रयोग की ओर बढ़ी. इसी वजह से वह संतुलित और मानवीय दृष्टिकोण के लिए कश्मीरियों की श्रद्धा के पात्र बने हुए हैं. आज की स्थितियां एक बार फिर से कठोर और नरम ताक़तोंके बीच सही और वाजिब संतुलन की मांग कर रही है .

भारत घाटी में आतंकी नेटवर्क को पूरी तरह से काबू करके आतंकी विचारधारा को पराजित नहीं कर सका क्योंकि सरकारों ने इस समस्या से निपटने के क्रम में अपेक्षाकृत शांत और सामान्य स्थितियों के दौरान भी मुख्यतः कठोरतापूर्ण रवैया अपनाये रखा था. 

कश्मीर में दिखाई दे रहे  मिले-जुले युद्ध का ये पूरा एक  सिलसिलेवार फ़लक है. यह पारंपरिक  युद्ध की सीमारेखा से नीचे के स्तर पर रहता है, लेकिन- यह शांतिपूर्ण समय के दौरान भी नीचे-नीचे खदकता रहता है. पाकिस्तान ने अपने राज्य प्रायोजित आतंकवाद के पिछले तीन दशकों में  इस मिश्रित युद्ध के विभिन्न साधनों का प्रयोग किया है. लेकिन, विशेष रूप से पिछले तीन वर्षों में इस्लामाबाद ने नई दिल्ली की ज़मीनी मुसीबतें बढ़ाने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफार्मों का रणनीतिक इस्तेमाल किया है. उसने कट्टरपंथीकरण  और स्थानीय युवाओं को आतंकी संगठनों में भर्ती करने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों का सफलतापूर्वक उपयोग किया है. उसने घाटी में मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाओं को विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उछालते हुए घाटी में आत्मघाती विस्फोटों का क्रम भी फिर से शुरू करवाने में सफलता पाई है. इसके बावजूद, आतंकवाद के खिलाफ़ भारत के सांगोपांग आक्रमणों ने ढाई साल की विस्फोटक अवधि के बाद तुलनात्मक स्थिरता की वापसी का मार्ग प्रशस्त किया है. अधिकांश आतंकी नेतृत्व को ख़त्म करने से सुरक्षा बलों को ऐसे तत्वों पर हावी होने में भी मदद मिलेगी. लेकिन, बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि आने वाले महीनों में नई दिल्ली कश्मीर घाटी के साथ कैसा बर्ताव करती है. केंद्र सरकार के रवैये के अलावा इस बात का भी महत्व होगा कि पाकिस्तान किस तरह घाटी में फिर से खड़े होने की कोशिशें करता है.

कश्मीर में दिखाई दे रहे संकर युद्ध का पूरा एक वर्णक्रम फलक है. यह पारम्परिक युद्ध की सीमारेखा से नीचे के स्तर पर रहता है, लेकिन यह शांतिपूर्ण समय के दौरान भी नीचे-नीचे खदकता रहता है.

पाकिस्तान एक निर्णायक मोड़ पर है. वह विदेशी मुद्रा भंडार की भारी कमी का सामना कर रहा है. घाटी की आगामी स्थितियों पर इस बात का भी असर पड़ेगा कि पाकिस्तान अपने घरेलू नकदी संकट से कैसे उबरता है और इन हालात में भी जैश-ए-मोहम्मद और लश्करे-तैय्यबा  जैसे आतंकी समूहों को कैसे पैसे से मदद करता है.  जो इस्लामाबाद के इशारे पर लगातार भारत विरोधी गतिविधियों में लगे रहते हैं. इन हालातों में पाकिस्तान घाटी में हिंसा में कमी और स्थिरता के मौजूदा दौर को जारी रहने देने के बजाय 2016 जैसी स्थितियों को ज्य़दा फायदेमंद समझेगा.

दूसरी ओर, मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वैश्विक आतंकवादी के रूप में नामित करा लेने की भारत की कूटनीतिक जीत तथा मनोबल बढ़ाने वाले बालाकोट हवाई हमलों जैसी बातों का बहुत मामूली असर होने की संभावना है. घाटी में निस्तब्धता के प्रत्येक अवसर के बाद आतंकी गुटों को सामूहिक रूप से अपने क्षेत्र का विस्तार करते देखा गया है. उस प्रकाश में इस्लामिक स्टेट (आईएस) द्वारा कथित रूप से कश्मीर को अपना ‘प्रांत’ घोषित करने की हिम्मत की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए क्योंकि घाटी में कट्टरपंथ का व्यापक प्रसार पहले से ही नई दिल्ली के लिए सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है.

मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वैश्विक आतंकवादी के रूप में नामित करा लेने की भारत की कूटनीतिक जीत तथा मनोबल बढ़ाने वाले बालाकोट हवाई हमलों जैसी बातों का बहुत मामूली असर होने की संभावना है

बहुत लंबे समय से नई दिल्ली कश्मीर संघर्ष से निबटने के लिए सैन्य साधनों का उपयोग करती आई है और उसने शांतिपूर्ण तथा रचनात्मक बातचीत की प्रक्रिया के माध्यम से स्थायी समाधान खोजने की इच्छा जताने से ज्यादा कुछ नहीं किया है. हालांकि, कश्मीर की जटिलताओं से न तो केवल सैन्य साधनों से पार पाया जा सकता है और न ही केवल राजनीतिक वार्ताओं के माध्यम से. इस समस्या को एक मजबूत सरकार ही हल कर सकती है जो क्षुद्र राजनीतिक लाभों से आगे की सोच सके और कठोर  और नरम ताक़तों का  इस्तेमाल कर संतुलन बना सके. मामले को संभालने में तानाशाहों जैसा रवैया कश्मीर में – नई दिल्ली की स्थिति को और बिगाड़ देगा. इससे और ज्य़ादा नागरिक तथा राजनीतिक अशांति पैदा होगी और पाकिस्तान को तश्तरी में सजा कर दिया गया एक और मौका मिल जाएगा.

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