Published on Feb 02, 2024 Updated 0 Hours ago
नेताजी का मेयर का कार्यकाल: राष्ट्रवादी मूल्यों के साथ जनकेंद्रित प्रशासन

शहरी अनुभव को तय करने के लिए नगर निकायों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. एक ऐसी विकेंद्रीकृत व्यवस्था जिसमें कोई स्थानीय निकाय स्वायत्त रूप से काम कर सके, उसे एक ठोस शहरी नीति और प्रशासनिक ढांचे के लिए ज़रूरी माना जाता है. 1992 में किया गया संविधान का (74वां संशोधन) क़ानून के ज़रिए शहरों से जुड़ी 18 महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां राज्य सरकारों से लेकर शहरी निकायों को दी गई थीं, ताकि भारत में शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) को अधिक स्वायत्तता प्रदान की जा सके. हालांकि, स्थानीय निकायों को सीमित कार्यकारी और वित्तीय अधिकारों की चुनौती अभी भी बनी हुई है. कई मामलों में स्थानीय निकायों के चुनाव भी अनियमित रूप से कराए जा रहे हैं. मिसाल के तौर पर भारत के सबसे अधिक शहरीकृत राज्य महाराष्ट्र में, अन्य पिछड़े वर्ग (OBC) को प्रतिनिधित्व के मसले पर विवाद की वजह से 2020 से महाराष्ट्र में ही बिना चुने गए शहरी बोर्ड के बग़ैर काम चलाया जा रहा है.

मेयर के तौर पर नेताजी के कार्यकाल की बारीक़ी से पड़ताल करने पर, औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार द्वारा थोपी असमान सत्ता व्यवस्था के अंतर्गत जनकल्याण के लिए काम करने की राह में आने वाली चुनौतियों के बारे में पता चलता है.

इस मोड़ पर शायद ये अच्छा होगा कि हम भारत में नगरीय प्रशासन के इतिहास पर एक नज़र डालें,जिसकी शुरुआत ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में हुई थी. भारत में पहला नगर निगम 1688 में चेन्नई (तब मद्रास) में स्थापित किया गया था. इसके बाद, 1726 में मुंबई (पहले बंबई) और कोलकाता (तब कलकत्ता) में नगर निगम स्थापित किए गए थे. वैसे तो देश पर अंग्रेज़ों का राज था, पर नगर निगम वो शुरुआती संस्थाएं थीं, जहां भारतीय नागरिक चुनावी व्यवस्था के तहत स्वशासन कर सकते थे. भारतीयों के नेतृत्व वाले नगर निगमों का काम-काज, बहुत आसान नहीं था. क्योंकि भारतीय नेताओं के राष्ट्रवादी मक़सद अक्सर ब्रिटिश हुकूमत की दमनकारी नीतियों से टकरा जाते थे. भारत के अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, 1930-1931 के दौरान कोलकाता नगर निगम (KMC) के मेयर रहे थे. मेयर के तौर पर नेताजी के कार्यकाल की बारीक़ी से पड़ताल करने पर, औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार द्वारा थोपी असमान सत्ता व्यवस्था के अंतर्गत जनकल्याण के लिए काम करने की राह में आने वाली चुनौतियों के बारे में पता चलता है. इसी दौर में भारत के अन्य राष्ट्रवादी नेताओं के नेतृत्व में अन्य प्रशासनिक संस्थाओं को चलाने का अनुभव भी आज के प्रशासन और नीतिगत चुनौतियों से निपटने की राह दिखा सकता है. कोलकाता नगर निगम में सुभाष चंद्र बोस का प्रमुख योगदान, म्युनिसिपल गजट की शुरुआत करना था, जिसे जनता और कोलकाता नगर निगम के मामलों के बीच की कड़ी कहा जाता है. पहला गजट 1 अप्रैल 1924 को प्रकाशित किया गया था. नगर निगम के प्रशासन केंद्रित अन्य तत्वों के साथ साथ ये गजट भी अब कोलकाता नगर निगम ने डिजिटल आर्काइव के रूप में संरक्षित कर लिया है, और ये संरक्षित दस्तावेज़ ही इस लेख का प्रमुख स्रोत हैं.

नगर निकाय प्रशासन में बोस के प्रयास

कोलकाता नगर निगम में सुभाष चंद्र बोस का करियर 1924 में एक पार्षद के तौर पर शुरू हुआ था, और ये 1940 में एक मनोनीसदस्य के तौर पर ख़त्म हुआ. नगर निगम की राजनीति में उन्हें उनके गुरु दीनबंधु चितरंजन दास ने प्रवेश कराया था. दीनबंधु चितरंजन दास बहुत बड़े वकील थे और वो कोलकाता के मेयर चुने गए थे, और सुभाष चंद्र बोस इसके मुख्य कार्यकारी अधिकारी थे. चितरंजन दास के नेतृत्व में जिन क्षेत्रों पर ज़ोर दिया गया, उनमें- मुक्त प्राथमिक शिक्षा; ग़रीबों को मुफ़्त में मेडिकल सेवाएं देना; अच्छी गुणवत्ता वाले खाने और दूध की आपूर्ति करना; शोधित और अनफिल्टर्ड पानी की आपूर्ति में सुधार करना; सीवरेज की बेहतर व्यवस्था; ग़रीबों के लिए मकान, उपनगरीय इलाक़ों का विकास; परिवहन की सेवाओं में सुधार; और कम लागत में प्रशासन को अधिक कुशल बनाना शामिल था. पहले CEO और फिर मेयर के तौर पर सुभाष चंद्र बोस ने नगर निकाय प्रशासन का दायरा बढ़ाने में कामयाबी के साथ साथ इन एजेंडों को भी आगे बढ़ाया था.

सुभाष चंद्र बोस ने सार्वजनिक तौर पर एकाधिकारवादी व्यवहार का विरोध किया और निर्माण के प्रयासों में स्थानीय स्तर पर बने उत्पादों को बढ़ावा देने की वकालत की थी.

बोस के कार्यकाल में लोगों की रोज़ी-रोटी और मज़दूरों के कल्याण पर भी काफ़ी ज़ोर दिया गया था. कोलकाता के मेयर के तौर पर उन्होंने बंगाल बस सिंडीकेट (भारत के बस मालिकों द्वारा बनाई गई संस्था) की कोशिशों को बढ़ावा दिया था, जिससे वो सरकार समर्थित ट्रामवेज़ कंपनी का मुक़ाबला कर सके. उन्होंने बंगाल बस सिंडिकेट के तहत चल रही बसों के लिए नए रूट के परमिट जारी करके ये मक़सद हासिल किया था. सुभाष चंद्र बोस ने सार्वजनिक तौर पर एकाधिकारवादी व्यवहार का विरोध किया और निर्माण के प्रयासों में स्थानीय स्तर पर बने उत्पादों को बढ़ावा देने की वकालत की थी. नागरिक उत्तरदायित्व और ज़िम्मेदारियों के ज़रिए बोस ने राष्ट्रीय विकास की ऐसी परिचर्चा की शुरुआत की थी, जो ब्रिटिश राज के सक्षम विकल्प के तौर पर उभरा था.

ब्रिटिश प्रशासन के दौरान संरक्षणवादी व्यवस्था आम थी. इसमें प्रशासनिक एजेंसियां, नए कर्मचारियों को मौजूदा कर्मचारियों की सिफ़ारिश पर नियुक्त करती थीं. बोस ने इस संरक्षणवादी व्यवस्था पर प्रहार किया और कहा कि ऐसी व्यवस्था, केवल सत्ता की अंतर्निहित असमान संरचना के आधार पर काम कर सकती है. इसके बजाय, बोस ने प्रतिद्वंदी इम्तिहान (इंडियन सिविल सर्विस में भर्ती के इम्तिहान की तरह) की व्यवस्था की पुरज़ोर वकालत की. अफ़सोस की बात ये है कि भारत में नगर निगम और अन्य सार्वजनिक संस्थानों में भर्ती की प्रक्रिया अभी भी भ्रष्टाचार के इल्ज़ामों की शिकार है, जो जनसेवा और जनकल्याण काम कुशलता से करने में बाधा बनती है. नगर निगम में हुनरमंद कर्मचारी बहाल करने के लिए बोस ने प्रस्ताव रखा कि निकाय प्रशासन की पढ़ाई कराने के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय अपने राजनीति विज्ञान विभाग के अंतर्गत एक उप-विभाग की स्थापना करें. 

आज के विश्व में अब ये बड़े स्तर पर स्वीकार किया जा रहा है कि तमाम पेशेवर कामकाजी स्थानों पर विविधता, समानता और समावेश (DEI) होना चाहिए. इस मामले में सुभाष चंद्र बोस एक दूरदर्शी नेता थे, जो अपने वक़्त से बहुत आगे की सोच रखते थे. क्योंकि, उन्होंने कोलकाता नगर निगम में अल्पसंख्यकों को उनकी आबादी के अनुपात में स्थान देने की वकालत की थी. जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के रिश्ते बेहद तनावपूर्ण थे, तब भी बोस दोनों गुटों के बीच एक गठबंधन बनाने में सफल रहे थे और उन्होंने कई प्रमुख मुस्लिम नेताओं के साथ मिलकर काम किया था. जहां उनकी बेहद लोकप्रिय और राष्ट्रवादी नेता की छवि उन्हें देश के कोने कोने में ले गई, वहीं एक प्रशासक के तौर पर भी बोस के अनुभवों की देश के अलग अलग नगर निगमों में काफ़ी मांग थी. संरक्षित दस्तावेज़ों से पता चलता है कि बोस को अक्सर कराची (अब पाकिस्तान में) और कुश्तिया (अब बांग्लादेश में) के नगर निगमों में आमंत्रित किया जाता था, जहां वो मोटे तौर पर स्थानीय स्वशासन के संस्थानों की अहमियत पर ज़ोर दिया करते थे.

एक तरफ़ तो बोस, भारत की पारंपरिक प्रशासन व्यवस्थाओं से भली-भांति परिचित थे. वहीं दूसरी ओर, उन्हें अन्य देशों में स्थानीय निकायों के प्रशासन के काम-काज की भी बारीक समझ थी. बोस अक्सर दुनिया के अन्य देशों में नगर निकायों के कामकाज से सीख लेने और फिर उसे कोलकाता में लागू करने के लिए प्रयासरत रहते थे. एक बार उन्होंने कोलकाता नगर निगम के अधिकारियों से कहा था कि वो लंदन काउंटी काउंसिल से संपर्क करें, ताकि वहां के कोल्ड स्टोरेज के नेटवर्क के बारे में और अधिक जानकारियां ले सकें और फिर कोलकाता में भी वैसी ही व्यवस्था विकसित की जा सके, ताकि खाने की बर्बादी रोकी जा सके.

निष्कर्ष

सुभाष चंद्र बोस दूर की सोच रखने वाले प्रशासक थे. कोलकाता नगर निगम में उनके कार्यकाल के दौरान हुए काम-काज से ये बात स्पष्ट हो जाती है. वो सत्ता की असमान संरचना और असंतुलन से भी बख़ूबी परिचित थे, और लगातार प्रशासन का ऐसा मॉडल विकसित करने के लिए कोशिशें करते रहे, जिसे भारत अपना होने का दावा कर सके. मेयर-इन-काउंसिल प्रशासनिक व्यवस्था के तहत कोलकाता नगर निगम के सशक्तिकरण का काम, बोस के कार्यकाल के दौरान ही मज़बूत हुआ और इसे अपने तरह का एकदम नया अनुभव कहा जाता है. यहां तक कि आज भी बहुत से बड़ नगर निगम, जैसे कि मुंबई में मेयर और परिषद के अन्य सदस्य लोकतांत्रिक तरीक़े से नहीं चुने जाते हैं.

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Authors

Snehashish Mitra

Snehashish Mitra

Snehashish is a Fellow-Urban Studies at ORF Mumbai. His research focus is on issues of urban housing, environmental justice, borderlands and citizenship politics. He has extensive ...

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Nilanjan Gupta

Nilanjan Gupta

Nilanjan Gupta is a research fellow in the History Department of Jadavpur University. His research focus is on issues of mobility and the development of ...

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