Published on Jul 31, 2023 Updated 0 Hours ago

भारत विकासशील और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों की नेट ज़ीरो (शून्य कार्बन उत्सर्जन) प्रतिबद्धता में मदद करके जलवायु परिवर्तन के मामले में विश्व का नेतृत्व करने की भूमिका में आ सकता है.

नेट ज़ीरो: विकासशील देशों की अगुवाई करने का भारत के लिए एक शानदार मौक़ा
नेट ज़ीरो: विकासशील देशों की अगुवाई करने का भारत के लिए एक शानदार मौक़ा

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की उत्सर्जन अंतराल रिपोर्ट (एमिशन गैप रिपोर्ट) 2021 के अनुसार विश्व अभी तक ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लक्ष्य की तरफ़ बढ़ने में नाकाम रहा है. विकसित देशों के पास जहां वित्तीय संसाधन और तकनीक तक पहुंच है वहीं विकासशील और छोटे द्वीपीय विकासशील देश पेरिस समझौते के अनुच्छेद 10 के मुताबिक़ ज़रूरी समर्थन का इंतज़ार कर रहे हैं. चूंकि इन कमज़ोर देशों के प्रति प्रतिबद्धता के मामले में विकसित देशों ने पर्याप्त कार्रवाई नहीं की है, ऐसे में भारत सैद्धांतिक और व्यावहारिक जोखिम के ज़रिए ख़ुद को जलवायु परिवर्तन के मामले में नेतृत्व की भूमिका में रखकर अच्छा प्रदर्शन कर सकता है. पेरिस समझौते को लेकर प्रतिबद्धता के मामले में भारत ने पहले ही ‘पूरी तरह नियमों के मुताबिक़’ काम किया है. अब भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन अधिकता 2030 तक 45 प्रतिशत से भी ज़्यादा कम करने और 2070 तक नेट ज़ीरो हासिल करने की महत्वाकांक्षी योजना पर प्रतिबद्धता जताई है. ये घोषणा करके भारत ने जलवायु समानता के विषय के इर्द-गिर्द वैश्विक संवाद को आकार देने में बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के बीच अग्रणी स्थान हासिल कर लिया है. इन घोषणाओं का विश्व के विकसित और विकासशील देशों पर अच्छा प्रभाव पड़ा है. अब भारत वैश्विक व्यवस्था में अपना उचित स्थान हासिल करने के लिए आर्थिक या सांस्कृतिक प्रभाव (सॉफ्ट पावर) के साथ-साथ अपने बौद्धिक और तकनीकी कौशल का फ़ायदा उठा सकता है. भारत इसकी शुरुआत ‘वैश्विक नेट ज़ीरो’ के मुश्किल लक्ष्य को साकार करने के लिए नतीजों पर आधारित हस्तक्षेपों के ज़रिए विकासशील और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों के समर्थन से कर सकता है.

चूंकि इन कमज़ोर देशों के प्रति प्रतिबद्धता के मामले में विकसित देशों ने पर्याप्त कार्रवाई नहीं की है, ऐसे में भारत सैद्धांतिक और व्यावहारिक जोखिम के ज़रिए ख़ुद को जलवायु परिवर्तन के मामले में नेतृत्व की भूमिका में रखकर अच्छा प्रदर्शन कर सकता है.

राष्ट्रीय रणनीति को बताने में स्पष्टता

अपनी मजबूरियों से पार पाकर भारत जलवायु कार्रवाई पर विकासशील और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों की आवश्यकताओं को समझने की तरफ़ विशेष संसाधनों को लगा सकता है. किसी देश की प्राथमिकताओं की तरफ़ सम्मान दिखाते हुए अपने लोक केंद्रित विकास के मॉडल, देसी तकनीकों, कार्यक्रम प्रबंधन विशेषज्ञता और समावेशी नीतियों से जो भी कुछ भारत ने सीखा है, वो साझा कर सकता है. इस तरह का घटनाक्रम विकासशील और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों को वित्तीय आदान-प्रदान की भारी उम्मीदों से मुक्त कर सकता है. भारत इसकी शुरुआत विकासशील और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों को स्थानीय क्षमता निर्माण के माध्यम से 2023 तक पेरिस समझौते के वैश्विक सर्वेक्षण के लिए तैयारी में समर्थन से कर सकता है. इस तरह का समर्थन धीरे-धीरे अलग-अलग द्विपक्षीय और बहुपक्षीय पहलों के ज़रिए किया जा सकता है. ये ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि 2023 में पेरिस समझौते के सर्वेक्षण का नतीजा 2023 के बाद के चरण के लिए नये राष्ट्रीय निर्धारण योगदान (एनडीसी) का मसौदा तैयार करने पर असर डाल सकता है. भारत विश्व के अलग-अलग क्षेत्रों में वैश्विक जलवायु घटनाक्रम के तालमेल में मदद कर सकता है ताकि वो ज़्यादा उपयुक्त, असरदार और टिकाऊ बन सकें.

ये ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि 2023 में पेरिस समझौते के सर्वेक्षण का नतीजा 2023 के बाद के चरण के लिए नये राष्ट्रीय निर्धारण योगदान (एनडीसी) का मसौदा तैयार करने पर असर डाल सकता है. 

कुछ क्षेत्रों में उद्देश्यपूर्ण कार्रवाई काफ़ी ज़्यादा अनुकूल परिणाम पैदा कर सकते हैं. नवीकरणीय ऊर्जा, इलेक्ट्रिक गाड़ियों, टिकाऊ पर्यावरण और स्मार्ट खेती को बढ़ावा देने पर नये सिरे से ज़ोर का नतीजा तेज़, समावेशी और टिकाऊ लाभ के रूप में निकल सकता है. वैसे तो हर क्षेत्र की अपनी एक विशेष संरचना और विकास की एक अलग प्रक्रिया होती है लेकिन बहुपक्षीय एजेंसियों, स्थानीय/राज्य/केंद्र सरकारों, निजी क्षेत्रों, सिविल सोसायटी और अकादमिक क्षेत्र को शामिल करके जलवायु कार्रवाई को लेकर सर्वांगीण दृष्टिकोण बदलाव लाने वाला हो सकता है. इन क्षेत्रों के हर स्तर पर विशेष रूप से केंद्रित जानकारी साझा करने के रास्ते को बढ़ावा देने से सभी भागीदारों के लिए महत्वपूर्ण अवसर मिल सकते हैं. भारत की अगुवाई वाली पहल जैसे अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन, आपदा प्रबंधन अवसंरचना के लिए केंद्र, एशिया और प्रशांत के लिए अंतरिक्ष विज्ञान और तकनीकी शिक्षा केंद्र (सीएसएसटीई-एपी), स्टार्ट-अप इंडिया अंतर्राष्ट्रीय शिखर वार्ता, इत्यादि में अलग-अलग देशों की भागीदारी ने इस तरह की पहल के उपयोगी होने पर फिर से ज़ोर डाला है.

‘व्यावसायिक कूटनीति’ की मदद लेना

भारतीय व्यवसाय संघ जैसे कि भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई), फिक्की, एसोचैम, नैसकॉम वैश्विक ‘वृत्तीय अर्थव्यवस्था (सर्कुलर इकोनॉमी)’ से जुड़े संवाद की तरफ़ काफ़ी योगदान कर सकते हैं. जलवायु परिवर्तन पर भारत की व्यावसायिक कूटनीति का प्रचार करने में ये संगठन महत्वपूर्ण दूत बन सकते हैं. ये संगठन विकासशील और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों में जलवायु के हिसाब से अच्छी पद्धतियों के आदान-प्रदान में अपनी भूमिका निभा सकते हैं. बाज़ार की समझ पर नियंत्रण के लिए किसी देश के अनुसार प्रणाली बनाने, प्रगतिशील (इनोवेटिव) लघु, छोटे और मध्यम उद्योगों के विकास को बढ़ावा देने, और कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) के माध्यम से कौशल प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना- ये कुछ ऐसे क़दम हैं जो ‘स्थानीय हरित काम-काज’ का निर्माण कर सकते हैं. ये उपाय ऐसे देशों में बड़े पैमाने की आर्थिक स्थिरता को सुधार सकते हैं और वैश्विक अर्थव्यवस्था में एकीकरण को आसान बना सकते हैं. सरकार की कूटनीतिक कोशिश इस दिशा में कंपनियों के कार्यकलापों की मदद करने वाली होनी चाहिए.

भारतीय व्यवसाय संघ जैसे कि भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई), फिक्की, एसोचैम, नैसकॉम वैश्विक ‘वृत्तीय अर्थव्यवस्था (सर्कुलर इकोनॉमी)’ से जुड़े संवाद की तरफ़ काफ़ी योगदान कर सकते हैं. 

हरित पूंजी: सहयोग के लिए ज़रिया

आपूर्ति के दृष्टिकोण से जलवायु वित्त को लेकर विकसित देशों की वर्तमान प्रतिबद्धता उनके द्वारा ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन के अनुरूप नहीं है. विकसित देशों का वास्तविक खर्च उनकी घोषित प्रतिबद्धता के मुक़ाबले काफ़ी कम है. इसके अलावा विकसित देश बाज़ार दर पर दी गई निजी वित्तीय मदद को जलवायु कार्रवाई के लिए अपने वित्तीय समर्थन के रूप में पेश करने की कोशिश करते हैं. इस तरह, हरित पहल के लिए विशेष और एक समान पूंजी जुटाने का काम ज़्यादातर विकासशील और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों, जो कम प्रति व्यक्ति आय, अस्थिर अर्थव्यवस्था, बजट में खर्च की कम क्षमता और कम बचत दर जैसी मजबूरियों का सामना करते हैं, के लिए एक निरंतर चुनौती बन गई हैं. ये ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि इन देशों ने भी वैश्विक दबाव के आगे झुकते हुए कार्बन उत्सर्जन कम करने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को लेकर प्रतिबद्धता जताई है. विश्व में एक सिद्धांतवादी किरदार के रूप में भारत उन देशों को वैश्विक मंचों पर दृढ़ता के साथ इन विसंगतियों को लेकर अपनी बात रखने में मदद कर सकता है. इसका नतीजा प्रतिबद्धता में बढ़ोतरी और ‘वास्तविक’ जलवायु वित्त को जारी रखने के रूप में निकल सकता है, ख़ास तौर पर 2023 के बाद के चरण के लिए.

विश्व में एक सिद्धांतवादी किरदार के रूप में भारत उन देशों को वैश्विक मंचों पर दृढ़ता के साथ इन विसंगतियों को लेकर अपनी बात रखने में मदद कर सकता है.

अंतर्राष्ट्रीय सार्वजनिक जलवायु वित्त की व्यवस्था जैसे कि हरित जलवायु कोष (जीसीएफ) का पूरी तरह फ़ायदा उठाने में विकासशील और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों की अक्षमता चिंताजनक है. इसके अलावा निजी वित्त प्रदान करने वाले, इन देशों की अर्थव्यवस्था में निवेश करने के विरोध में हैं क्योंकि यहां विश्वसनीय परियोजनाओं की कमी है और ‘हरित क्षेत्र’ के लिए अनुकूल माहौल नहीं है. इस तरह की व्यावहारिकता के अंतर को पूरा करना दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है. भारत वित्तीय क्षेत्र में अपने इनोवेशन और विशेषज्ञता का फ़ायदा उठाकर विकासशील और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों को लाभ पहुंचाने में मदद कर सकता है. भारत इन देशों को क्षमता और संस्थान के निर्माण, वित्तीय शासन व्यवस्था में सर्वश्रेष्ठ पद्धतियों और आर्थिक नीतियों में जलवायु कार्रवाई के संचार में समर्थन भी दे सकता है. परियोजना का डिज़ाइन बनाने, योजना तैयार करने, उन्हें लागू करने और नियंत्रित करने में विकासशील और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों को भारत की तरफ़ से मदद बड़े स्तर के ‘हरित कार्यक्रमों’ की स्वीकार्यता को सुधार सकते हैं और इस तरह वित्तीय प्रवाह के लिए रास्ता खुल सकता है.

परियोजना का डिज़ाइन बनाने, योजना तैयार करने, उन्हें लागू करने और नियंत्रित करने में विकासशील और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों को भारत की तरफ़ से मदद बड़े स्तर के ‘हरित कार्यक्रमों’ की स्वीकार्यता को सुधार सकते हैं और इस तरह वित्तीय प्रवाह के लिए रास्ता खुल सकता है.

ये हमारे नीले संगमरमर की सतह पर जड़े जवाहरात हैं. अपने कार्यकलापों और व्यवहार के ज़रिए भारत दुनिया को एक बड़े मक़सद के रास्ते पर ले जा सकता है. ये रास्ता ऐसा है जो किसी विशेष देश के हितों के संकीर्ण दृष्टिकोण से ऊपर उठकर है और ये हमें एहसास दिलाता है कि हर कोई हमारे साझा भविष्य को आकार देने के लिए बहुपक्षवाद को फिर से ज़िंदा करने में समान रूप से एक साथ मिलकर अपने हितों की बेहतर ढंग से सेवा कर सकता है.

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Authors

Labanya Prakash Jena

Labanya Prakash Jena

Labanya Prakash Jena is the Head, Centre for Sustainable Finance, Climate Policy Initiative India. Before this, he was working as the Regional Climate Finance Adviser ...

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Prasad Ashok Thakur

Prasad Ashok Thakur

Prasad Ashok Thakur is a CIMO scholar and has authored a book and several articles published with The World Bank Asian Development Bank Institute United ...

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