Author : Kabir Taneja

Published on Jul 18, 2023 Updated 0 Hours ago

नेतन्याहू की वापसी से इज़रायल और उसके विदेशी साझेदारों के बीच संबंधों में एक और बदलाव आने की उम्मीद है.

Netanyahu returns to power in Israel: इज़रायल की सत्ता में नेतन्याहू की वापसी!
Netanyahu returns to power in Israel: इज़रायल की सत्ता में नेतन्याहू की वापसी!

इज़रायल (Israel) के नागरिकों के बीच चुनाव हताशा का एक चक्र और अक्सर मज़ाक का एक विषय बन चुका है. इसकी वजह ये है कि पिछले चार वर्षों के दौरान इज़रायल में पांचवीं बार चुनाव कराए गए हैं. इस चुनाव में लोगों ने एक बार फिर एक स्थायी राजनीतिक नेतृत्व को चुनने की कोशिश की है जो आने वाले समय में बना रह सके. इज़रायल की राजनीति में उतार-चढ़ाव को सही साबित करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री बेन्जामिन नेतन्याहू (Benjamin Netanyahu) धुर दक्षिणपंथी (far-right politicians) राजनेताओं और दलों के अपने गठबंधन के साथ जीत की ओर आगे बढ़े. हालांकि, इज़रायल के इतिहास में सबसे ज़्यादा समय तक सत्ता संभालने वाले नेता होने के बावजूद नेतन्याहू के पिछले कार्यकाल के दौरान भ्रष्टाचार के जो दाग़ (accusations of corruption) उन पर लगे थे वो अभी भी उनके साथ बने हुए हैं. अगले कुछ हफ़्तों के दौरान नेतन्याहू के सामने एक ऐसी सरकार बनाने की बहुत बड़ी चुनौती होगी जो आने वाले महीनों में विपरीत हालात का सामना करते हुए ख़ुद को बचा सके.

नेतन्याहू एक विशेष प्रकार के राजनीतिक शाश्वत हैं जो पिछले कुछ वर्षों के दौरान अपनी मौजूदगी का एहसास करा रहे हैं क्योंकि एक के बाद एक कई राजनेता परिदृश्य में आए लेकिन नाकाम रहे.

नेतन्याहू एक विशेष प्रकार के राजनीतिक शाश्वत हैं जो पिछले कुछ वर्षों के दौरान अपनी मौजूदगी का एहसास करा रहे हैं क्योंकि एक के बाद एक कई राजनेता परिदृश्य में आए लेकिन नाकाम रहे. उन राजनेताओं ने मतदाताओं के धैर्य की परीक्षा ली क्योंकि लोगों को नफ्ताली बेनेट और बाद में यार लापिड की गठबंधन सरकार से निपटना पड़ा. नेतन्याहू की वर्तमान वापसी उनके ज़्यादातर दूसरे कार्यकाल की तरह इस बार भी कई तरह की चुनौतियों से भरपूर होगी और उन पर बहुत ज़्यादा दबाव होगा. नेतन्याहू को अपने धुर दक्षिणपंथी प्रायोजकों और उनके लिए वोट करने वाले मतदाताओं को शांत रखना होगा. नेतन्याहू के सहयोगियों में किंगमेकर हैं इतामार बेन-गविर जो चरम दक्षिणपंथी ओत्ज़मा यहुदित पार्टी के नेता हैं और चुनाव में जिन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया है. उम्मीद की जा रही है कि नेतन्याहू की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार में बेन-गविर आंतरिक मंत्रालय की मांग करेंगे जो पुलिस और आंतरिक सुरक्षा के मामलों पर नियंत्रण रखता है.

नये युग का विवाद

हाल के वर्षों में इज़रायल की राजनीति में तेज़ी से बदलाव होता रहा है. 2021 में इज़रायल की अरब पार्टियां आठ दलों की गठबंधन सरकार में किंगमेकर के तौर पर देखी गई थीं. इस गठबंधन सरकार के तहत बेनेट और लापिड को नेतृत्व की साझा ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी. लेकिन एक साल में ही हालात पूरी तरह से बदल गए और इज़रायल की अरब पार्टियों की जगहधुर दक्षिणपंथी पार्टियां किंगमेकर की भूमिका में आ गईं जो कि इज़रायल के अरब नागरिकों द्वारा निभाई जा रही बड़ी भूमिका के ख़िलाफ़ हैं. हालांकि लापिड के हार मानने से पहले ही इज़रायल के मुख्य सुरक्षा साझेदार अमेरिका के द्वारा बेन-गविर जैसे लोगों के साथ काम करने के लिए उत्सुक नहीं होने की ख़बरें आने लगी हैं.

नेतन्याहू की वापसी ऐसे समय में हुई है जब न सिर्फ़ पश्चिम एशिया बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी विवाद बहुत ज़्यादा हैं. एक तरफ़ यूक्रेन में रूस के युद्ध ने वैश्विक व्यवस्था और यूरोप की विदेश नीति में कई कमज़ोरियों को उजागर किया है तो दूसरी तरफ़ अमेरिका की ताक़त में कमी आने को लेकर बहस चल रही है. एक विवाद महाशक्तियों के मुक़ाबले के नये युग को लेकर भी है जो कि इस बार अमेरिका और चीन के बीच है. क्षेत्रीय दृष्टिकोण से देखें तो नेतन्याहू ने अपना पिछला कार्यकाल ख़त्म होने से पहले अब्राहम अकॉर्ड किया था जो कि एक ऐतिहासिक समझौता है. इस समझौते की वजह से ईरान से ख़तरे को लेकर इज़रायल और अरब देशों के एक महत्वपूर्ण हिस्से के बीच औपचारिक संबंध स्थापित हुए हैं.

नेतन्याहू की वापसी ऐसे समय में हुई है जब न सिर्फ़ पश्चिम एशिया बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी विवाद बहुत ज़्यादा हैं. एक तरफ़ यूक्रेन में रूस के युद्ध ने वैश्विक व्यवस्था और यूरोप की विदेश नीति में कई कमज़ोरियों को उजागर किया है तो दूसरी तरफ़ अमेरिका की ताक़त में कमी आने को लेकर बहस चल रही है.

इस बीच इज़रायल और सऊदी अरब- जिसने फिलहाल अब्राहम अकॉर्ड से बाहर रहना पसंद किया है क्योंकि दस्तावेज़ों में वो इज़रायल का दुश्मन है लेकिन बर्ताव में व्यावहारिक- ने डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति रहते हुए अपनी-अपनी घरेलू ताक़त को मज़बूत करने और अपने इर्द-गिर्द अमेरिका की सुरक्षा संरचना को और ज़्यादा मज़बूत करने का काम किया. लेकिन इस मक़सद के लिए 2021 में राष्ट्रपति जो बाइडेन के प्रशासन का अमेरिका में आना दोनों देशों के द्वारा एक झटके की तरह माना गया क्योंकि बाइडेन ने सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की आलोचना की और ईरान के साथ परमाणु समझौते को लेकर फिर से बातचीत का इरादा ज़ाहिर किया. इस परमाणु समझौते पर ऑस्ट्रिया के वियना में दस्तख़त के तीन साल बाद ट्रंप ने 2018 में अचानक इससे बाहर होने का फ़ैसला लिया था. ट्रंप के द्वारा लिए गए इस फ़ैसले का पश्चिम एशिया में सऊदी अरब और इज़रायल- दोनों देशों ने उत्साह से समर्थन किया था और दोनों देशों को उम्मीद है कि 2024 में एक बार फिर से व्हाइट हाउस में रिपब्लिकन पार्टी का राष्ट्रपति होगा.

लेकिन शुरुआत में नेतन्याहू के लिए चुनौती होगी अपने बेहद धुर दक्षिणपंथी नये सहयोगियों के बीच अपनी मध्य-दक्षिणपंथी पहचान को संतुलित रखना ताकि पश्चिमी देशों के साथ एक ‘स्वीकार्य’ संबंध बरकरार रखा जा सके. हालांकि,ईरान जैसे विवादित मुद्दों पर आने वाले महीनों में नेतन्याहू के लिए बाइडेन की नीतियों से निपटना आसान साबित हो सकता है क्योंकि अब अमेरिका भी इस तथ्य को मानने के क़रीब पहुंच चुका है कि निकट भविष्य में ईरान के साथ फिर से परमाणु समझौता करना संभव नहीं होगा. इसकी वजह ये है कि ईरान में काफ़ी हद तक महिलाओं के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन– जो कि पिछले 50 दिनों से भी ज़्यादा समय से जारी है और जिसे उम्मीद से काफ़ी अधिक बताया जा रहा है- के कारण ईरान की सत्ता में बैठे लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई में बढ़ोतरी हो रही है. इस आंदोलन की वजह से परमाणु समझौते के लिए ईरान को किसी तरह की पेशकश के ज़रिए सुलह का रास्ता तैयार करने के ख़िलाफ़ माहौल बन गया है. इसके अलावा, अगर धुरदक्षिणपंथियों और चरम कट्टरपंथियों के प्रतिनिधियों को नई सरकार में आंतरिक सुरक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण पद सौंपे जाते हैं तो फिलिस्तीन का मुद्दा एक बार फिर ज़ोर पकड़ सकता है जहां मई 2021 में तनाव काफ़ी बढ़ गया था.

भारत के लिए नेतन्याहू के साथ संबंध जहां इज़रायल के साथ दोस्ती के मामले में एक अच्छी बात है लेकिन विश्व के देशों के साथ संबंधों के मक़सद के मामले में आर्थिक सहयोग भारत के एजेंडे में सबसे ऊपर है.

भारत के लिये अच्छी ख़बर

अंत में, नेतन्याहू की वापसी शायद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए एक अच्छी ख़बर है जो इज़रायल के इस नेता के साथ विशेष दोस्ती रखते हैं. वैसे तो भारत-इज़रायल के बीच संबंध बेनेट और लापिड- दोनों के कार्यकाल में तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ना जारी रहा लेकिन मोदी-नेतन्याहू के बीच का दोस्ताना संबंधदोनों देशों के बीच समान राष्ट्रीय हितों पर बनी दोस्ती को और मज़बूत कर सकता है. दोनों नेताओं के बीच धार्मिक यहूदीवाद, चरम रूढ़िवादिता और हिंदू राष्ट्रवाद के इकोसिस्टम से जुड़े राजनीतिक और धर्म संबंधी दृष्टिकोण में भी वैचारिक समानताएं हैं. इन विचारों के आधार पर राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रवाद का उनका व्यापक मत है.

हालांकि,भारत के लिए नेतन्याहू के साथ संबंध जहां इज़रायल के साथ दोस्ती के मामले में एक अच्छी बात है लेकिन विश्व के देशों के साथ संबंधों के मक़सद के मामले में आर्थिक सहयोग भारत के एजेंडे में सबसे ऊपर है. दोनों देशों के नेतृत्व के संबंधों को लेकर भले ही बड़ी-बड़ी बातें बनाई गई हैं लेकिन इसके बावजूद आर्थिक और व्यापार सहयोग पिछले कुछ वर्षों के दौरान बहुत ज़्यादा नहीं बढ़ा है. चीन के साथ गलवान संकट, जिसकी शुरुआत 2020 में हुई थी, के समय से भारत ने अपनी आर्थिक दिशा में काफ़ी बदलाव किया है. ये एक वास्तविकता है जिसके मुताबिक़ नेतन्याहू को कम समय में सामंजस्य बैठाना होगा और महज़ राजनीतिक मामूली बातें शायद या उम्मीद के मुताबिक़ पीछे छूट गई हैं.

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