Author : Hari Bansh Jha

Published on Apr 05, 2021 Updated 0 Hours ago

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नेपाल: संसद भंग किए जाने पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला और उभरती परिस्थितियां

नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने 23 फ़रवरी को अपने ऐतिहासिक निर्णय में प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली द्वारा संसद को भंग किए जाने के फ़ैसले को असंवैधानिक करार देते हुए पलट दिया. कोर्ट के फ़ैसले के मुताबिक संसद को भंग किए जाने से पहले सारे विकल्पों पर विचार नहीं किया गया. कोर्ट ने कहा कि इसके चलते नेपाली जनता पर ताज़ा चुनाव का भारी आर्थिक बोझ पड़ सकता है. कोर्ट के इस निर्णय के साथ ही राजनीतिक नियुक्तियों समेत तमाम फ़ैसले अपने-आप ही रद्द हो जाते हैं क्योंकि उनका कोई वैधानिक आधार नहीं था. इसके साथ ही सरकार ने 8 मार्च तक संसद की बैठक बुलाने की बात कही है.

संसद भंग किए जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की नेपाल के तमाम अहम हलकों में तारीफ़ हो रही है. इसमें विभिन्न राजनीतिक दल और सिविल सोसाइटी के सदस्य भी शामिल हैं. ऐसा माना जा रहा है कि ये फ़ैसला निष्पक्ष और बेबाकी भरा है और इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सक्षमता पर लोगों का विश्वास फिर से बहाल हुआ है.

हालांकि, अदालत के फ़ैसले से नेपाल की राष्ट्रीय राजनीति में नई चुनौतियां भी खड़ी हो गई हैं. सत्ताधारी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) में टूट के बाद अब किसी भी राजनीतिक दल के पास संसद में बहुमत नहीं रह गया है. ऐसे में नेपाली राजनीति में अनिश्चितता का वातावरण पैदा हो गया है.

सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के मद्देनज़र नेपाली प्रधानमंत्री ओली पर नैतिक और राजनीतिक आधार पर इस्तीफ़े का दबाव बढ़ गया है. वैसे ऐसा लगता नहीं कि बिना ठोस वजहों के वो इस्तीफ़ा देंगे. 

सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के मद्देनज़र नेपाली प्रधानमंत्री ओली पर नैतिक और राजनीतिक आधार पर इस्तीफ़े का दबाव बढ़ गया है. वैसे ऐसा लगता नहीं कि बिना ठोस वजहों के वो इस्तीफ़ा देंगे. ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि वो संसद में अविश्वास प्रस्ताव का सामना करेंगे. अगर ऐसी परिस्थिति खड़ी होती है तो ये बात भी सच है कि उनके गुट वाली एनसीपी संसद में अल्पमत में है.

275 सदस्यों वाले सदन में एनसीपी के पास 173 सदस्य हैं. कम्युनिस्ट पार्टी में टूट के बाद इस बात के आसार न के बराबर हैं कि दोनों गुट सरकार का गठन करने के लिए एक साथ आएंगे. हालांकि, दोनों गुटों के एक बार फिर साथ आने की संभावना से पूरी तरह इनकार भी नहीं किया जा सकता क्योंकि पार्टी का अब तक कानूनी तौर से विभाजन नहीं हुआ है.

अगर प्रधानमंत्री ओली को संसद में विश्वास मत जीतना है तो उन्हें कम से कम 138 सदस्यों का समर्थन जुटाना होगा. अगर वो ऐसा करने में नाकाम रहते हैं तो उनके पास इस्तीफ़ा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा.

संकट की इस घड़ी में नेपाली कांग्रेस किंग मेकर की भूमिका में

फ़िलहाल प्रधानमंत्री ओली के गुट वाले एनसीपी के पास संसद में करीब 83 सांसद हैं जबकि पार्टी के दहल-नेपाल गुट के साथ 90 सांसद हैं. 63 सांसदों के साथ नेपाली कांग्रेस (एनसी) सदन में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है और मौजूदा राजनीतिक संकट की घड़ी में मानो किंगमेकर बनकर उभरी है. एनसीपी का कोई भी धड़ा एनसी का समर्थन पाकर बहुमत के सिद्धांत के आधार पर सरकार बना सकता है.

एक और विकल्प ये है कि 63 सांसदों वाली एनसी 32 सांसदों वाली जनता समाजवादी पार्टी के साथ हाथ मिलाए और फिर ये दोनों दल मिलकर 90 सांसदों वाले एनसीपी के दहल-नेपाल गुट के साथ गठजोड़ कर ले. ऐसी परिस्थिति में बनने वाली सरकार के पास संसद की कुल सदस्य संख्या के 67 फ़ीसदी के बराबर सांसद होंगे.

अगर प्रधानमंत्री ओली को संसद में विश्वास मत जीतना है तो उन्हें कम से कम 138 सदस्यों का समर्थन जुटाना होगा. अगर वो ऐसा करने में नाकाम रहते हैं तो उनके पास इस्तीफ़ा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा.

नेपाल का ताज़ा राजनीतिक संकट 20 दिसंबर 2020 को तब और गहरा हो गया जब प्रधानमंत्री ओली ने नेपाली संविधान की धारा 85, 76 (1), और 76 (7) के प्रावधानों के तहत संसद को भंग कर दिया. इसके साथ ही उन्होंने 30 अप्रैल और 10 मई 2021 को मध्यावधि चुनाव कराने की घोषणा भी कर दी. पुष्प कमल दहल के नेतृत्व वाले एनसीपी के अपने विरोधी धड़े के हर पैंतरे को पस्त करने के लिए प्रधानमंत्री ओली ने ये दांव चला था. दहल के नेतृत्व वाला धड़ा ओली को उनके पद से हटाना चाहता है. ओली के इस फ़ैसले के चलते एनसीपी दो गुटों में बंट गई. एक गुट का नेतृत्व प्रधानमंत्री ओली के हाथ है जबकि दूसरे गुट की अगुवाई पुष्प कुमार दहल और माधव कुमार नेपाल संयुक्त रूप से कर रहे हैं. दोनों ही गुटों ने पार्टी के ढांचे में बदलावों को दर्ज कराने के लिए चुनाव आयोग से संपर्क किया है और पार्टी पर अपना अधिकार होने से जुड़े दावे पेश किए हैं.

प्रधानमंत्री ओली संसद भंग करने के बाद क्या कहा?

प्रधानमंत्री ओली ने अपने बचाव में कहा है कि पार्टी में उनके विरोधी जनता तक सेवाएं पहुंचाने के उनके कार्यों में बाधाएं खड़ी कर रहे थे लिहाजा मज़बूरी में उन्हें संसद भंग करने का फ़ैसला करना पड़ा. ओली को लगता है कि उनके पास संसद भंग करने की वैसी ही विशेष शक्तियां मौजूद हैं जैसी शक्तियां यूनाइटेड किंगडम के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के पास हैं. ग़ौरतलब है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉनसन ने भी संसद भंग कर मध्यावधि चुनावों की घोषणा की थी.

जबसे नेपाल में संसद भंग की गई तब से काठमांडू समेत देश के बाक़ी हिस्सों में इस फ़ैसले के समर्थन और विरोध में रैलियों और प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया. सड़कों पर इस तरह के शक्ति प्रदर्शनों के ज़रिए नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों ही गुटों ने न केवल सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को डराने-धमकाने की कोशिश की बल्कि उनके फ़ैसले को प्रभावित करने का भी प्रयास किया.

पुष्प कमल दहल ने धमकी दी थी कि अगर संसद भंग करने के फ़ैसले को वापस नहीं लिया गया तो वो हिंसक विरोध-प्रदर्शन शुरू कर देंगे. उन्होंने यहां तक कह दिया था कि वो करीब दस लाख लोगों की भीड़ इकट्ठी कर सत्ता के मुख्य केंद्र सिंह दरबार और प्रधानमंत्री के आधिकारिक आवास बालुवाटार का घेराव करेंगे. उन्होंने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के अलावा नेपाल के दोनों पड़ोसियों भारत और चीन से संसद को फिर से बहाल कर नेपाल में लोकतंत्र और संघीय ढांचे की जड़ों को मजबूत करने में अपना योगदान देने की अपील भी की थी.

63 सांसदों के साथ नेपाली कांग्रेस (एनसी) सदन में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है और मौजूदा राजनीतिक संकट की घड़ी में मानो किंगमेकर बनकर उभरी है. एनसीपी का कोई भी धड़ा एनसी का समर्थन पाकर बहुमत के सिद्धांत के आधार पर सरकार बना सकता है.

एनसीपी के प्रचंड-नेपाल गुट के अलावा नेपाली कांग्रेस, जनता समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी ने भी नेपाली संसद को भंग करने के प्रधानमंत्री ओली के फ़ैसले का विरोध किया था. हालांकि, इन सभी दलों ने कोई साझा मोर्चा बनाकर नहीं बल्कि स्वतंत्र रूप से सरकार का विरोध किया था.

दूसरी तरफ़ प्रधानमंत्री ओली संसदीय चुनाव करवाने को लेकर इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने पिछले तीन वर्षों में अपनी सरकार द्वारा हासिल की गई उपलब्धियों का बार-बार इस प्रकार बखान करना शुरू कर दिया था, मानो वो किसी रैली में भाषण दे रहे हों. देश के चुनाव आयोग ने भी चुनावी आचार संहिता के मसौदे पर चर्चा के लिए राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित करना शुरू कर दिया था. इतना ही नहीं आयोग ने मध्यावधि चुनाव करवाने के लिए सरकार से 7.79 अरब नेपाली रुपए की मांग भी कर दी थी.

जबसे नेपाल में संसद भंग की गई तब से काठमांडू समेत देश के बाक़ी हिस्सों में इस फ़ैसले के समर्थन और विरोध में रैलियों और प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया. सड़कों पर इस तरह के शक्ति प्रदर्शनों के ज़रिए नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों ही गुटों ने न केवल सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को डराने-धमकाने की कोशिश की बल्कि उनके फ़ैसले को प्रभावित करने का भी प्रयास किया.

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद नेपाल की राजनीति की दशा और दिशा

अब सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद अचानक राष्ट्रीय राजनीति की पूरी दशा दिशा ही बदल गई है. नेपाल में जारी तनाव भरे माहौल के बीच कम से कम इस बात के लिए इस फ़ैसले की सराहना होनी ही चाहिए कि इसने फौरी तौर पर ही सही पर प्रधानमंत्री ओली द्वारा संसद भंग किए जाने से नाराज़ विपक्षी पार्टियों का ग़ुस्सा ठंडा करने की कोशिश की है. वैसे अभी इस राजनीतिक संकट का अंत नहीं हुआ है. ओली के नेतृत्व वाला एनसीपी का गुट सुलह के मूड में नहीं दिखता. ऐसे में देश में राजनीतिक अस्थिरता का एक नया दौर भी शुरू हो सकता है. इसके लिए कोई और नहीं बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार खुद ज़िम्मेदार है. संसद में दो-तिहाई बहुमत होने के बावजूद ये सरकार देश को एक नई दिशा दिखाने में विफल रही है. देरसवेर नेपाल को अपनी जनता से ताज़ा जनादेश हासिल करना ही होगा ताकि वहां एक लंबे समय के लिए शांति और स्थिरता सुनिश्चित की जा सके.

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