Author : Sushant Sareen

Published on May 17, 2024 Updated 0 Hours ago

वैसे तो पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले जम्मू-कश्मीर के हालिया विद्रोह के पीछे आर्थिक कारण हैं. पर, ऐसा लगता है कि इस बग़ावत की बुनियाद में राजनीतिक अर्थव्यवस्था और सियासी आज़ादी जैसे पुराने मसले हैं, जो इसे ताक़त दे रहे हैं.

पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर के दूसरे हिस्से में ‘विद्रोह’!

पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले जम्मू कश्मीर (PoJK), जिसे पाकिस्तानी ‘आज़ाद जम्मू और कश्मीर’ कहते हैं, में बग़ावत ने पूरे पाकिस्तान को सन्न कर दिया है. पाक अधिकृत कश्मीर में जितने बड़े पैमाने पर, जितनी तेज़ी और भयानक तरीक़े से बग़ावत के शोले भड़के, उसे देखकर पाकिस्तान के अधिकारी पूरी तरह हैरान रह गए. पाकिस्तान की सरकार ने पाक अधिकृत कश्मीर से छनकर आ रही ख़बरों को रोकने की पुरज़ोर कोशिशें कीं. इंटरनेट को बंद कर दिया गया था. मुख्यधारा के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने बस नाम के लिए इस विद्रोह की ख़बरें चलाईं. टीवी की परिचर्चाओं में इन गतिविधियों का हल्का फुल्का ज़िक्र किया गया और अख़बारों में भी इस विद्रोह की बहुत कम ख़बरें छपीं. हालांकि, सुरक्षा बलों के साथ हिंसक झड़पों, बाग़ी तेवरों वाली तक़रीरों और अलगाववाद की बातें करने वाले नारों और पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले इलाक़े के अलग अलग हिस्सों से राजधानी मुज़फ़्फ़राबाद की ओर लोगों के मार्च की तस्वीरें पूरी दुनिया के सोशल मीडिया पर वायरल हो गईं. निश्चित रूप से पाकिस्तान के ‘स्वतंत्र’ मीडिया ने पिछले कई वर्षों के इतिहास में इस इलाक़े से निकली शायद सबसे बड़ी ख़बर को कमतर करके पेश करने की कोशिश की. हैरानी की बात तो ये थी कि पश्चिम का जो मीडिया जम्मू-कश्मीर में भारत के संवैधानिक सुधारों के ख़िलाफ़ मुहिम चलाता रहा है, उसने भी ऐसा नाटक किया, जैसे PoJK में कुछ हुआ ही न हो.  

 

अब चाहे जो भी हो, पर जिस वक़्त https://www.thenews.com.pk/tns/detail/1173575-shadow-war मची हुई है. पश्तून इलाक़े में इस्लामिक आतंकवाद फिर ज़ोर पकड़ रहा है और पंजाब सूबे में पाकिस्तानी फ़ौज के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा बढ़ रहा है. ऐसे में पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर में बग़ावत से पाकिस्तान की तस्वीर एक ऐसे देश की बनती है, जो अपने तमाम सरहदी इलाक़ों पर से अपना नियंत्रण लगातार गंवाता जा रहा है, और उसके अंदरूनी इलाक़ों में भी अवाम का ग़ुस्सा सुलग रहा है. ज़्यादातर पाकिस्तानियों के लिए असली चिढ़ाने वाली बात तो ये थी कि जिस दिन PoJK में बग़ावत के शोले भड़ रहे थे, ठीक उसी दिन जम्मू-कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश में बड़ी शांति से चुनाव हो रहे थे. भारत के केंद्र शासित प्रदेश और पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले इलाक़े की तस्वीरों के बीच का ये विरोधाभास इससे ज़्यादा स्याह नहीं हो सकता था. पाकिस्तान के लोगों को अपने देश के क़ब्ज़े वाले कश्मीर के लोगों की मांग से ज़्यादा इस बात की फ़िक्र थी कि उनके कश्मीर में विद्रोह ने किस तरह इस पूरे मसले पर भारत के रुख़ को और मज़बूती दे दी है. पाक अधिकृत कश्मीर से पाकिस्तान के लिए जो सबसे बुरी तस्वीर आई, वो कोहाला में पाकिस्तानी झंडे को नीचे उतारे जाने की थी. कोहाला, पाकिस्तानी पंजाब से पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में दाखिल होने का एक रास्ता है.

 पाक अधिकृत कश्मीर से पाकिस्तान के लिए जो सबसे बुरी तस्वीर आई, वो कोहाला में पाकिस्तानी झंडे को नीचे उतारे जाने की थी. कोहाला, पाकिस्तानी पंजाब से पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में दाखिल होने का एक रास्ता है.

राजनीतिक छल प्रपंच

 

अब से कुछ साल पहले तक कल्पना भी नहीं की जा सकती थी पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में ऐसा अभूतपूर्व विद्रोह भी भड़क सकता है. कश्मीर को लेकर भारत के साथ संघर्ष की वजह से PoJK को भारत के केंद्र शासित प्रदेश में उग्रवाद फैलाने का ‘बेस कैंप’ माना जाता था. इस इलाक़े में सक्रिय तमाम जिहादी संगठनों की वजह से पूरा समाज कट्टरपंथी हो गया था; इसमें अगर हम पाकिस्तान के सुरक्षा बलों की दमनकारी व्यापक मौजूदगी और हर शख़्स पर निगाह रखने वाले खुफ़िया अधिकारियों को भी जोड़ दे, तो तस्वीर और भी भयावाह हो जाती है. 2024 में जब मैं मुज़फ़्फ़राबाद के दौरे पर गया था, तो अपनी आंखों से देखा था कि अगर कोई भी भारत से आए पत्रकार से बात करने का साहस करता था, तो उससे सवाल किए जाते थे और उस पर नज़र रखी जाती थी. वैसे तो कुछ लोग ऐसे मिले थे, जिन्होंने खुलकर आज़ाद कश्मीर की बात की थी. लेकिन, ज़्यादातर ने पाकिस्तान के रुख़ को ही दोहराया था.

 

हालांकि, ख़तरे की घंटियां तो कुछ समय पहले से बजनी शुरू हो गई थीं. पाकिस्तान के कुछ पत्रकारों के मुताबिक़, आज़ाद कश्मीर के मौजूदा ‘प्रधानमंत्री’ अनवर-उल-हक़ ने इस्लामाबाद में सांसदों को चेतावनी दी थी कि उनके यहां की नई पीढ़ी अब पाकिस्तानियों को अपने पुरखों जैसे सम्मान की नज़र से नहीं देखती. अनवर-उल-हक़ ख़ुद भी PoJK में हुई तमाम गड़बड़ियों के प्रतीक हैं. अपने हमनाम, पाकिस्तान के पूर्व कार्यवाहक प्रधानमंत्री अनवर उल हक काकड़ की तरह अनवर-उल-हक़ को भी पाकिस्तानी सेना ने ही पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाया है. उनको तब प्रधानमंत्री के तौर पर चुना गया था, जब उनके पहले वज़ीर-ए-आज़म रहे तनवीर इलियास को अदालत की अवमानना की वजह से अयोग्य क़रार देने के बाद अपदस्थ कर दिया गया था. वैसे तो अनवर-उल-हक़, पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (PTI) के टिकट पर चुनाव जीते थे. लेकिन, उनके प्रधानमंत्री बनने की वजह से PoJK में PTI में फूट पड़ गई. उनकी सरकार, पार्टी छोड़कर भागने वालों की मदद से बनाई गई थी, जिसे अधिकृत कश्मीर की विधानसभा में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ के सदस्यों का समर्थन हासिल था. जब इस नई हुकूमत को समर्थन देने वाले हर शख़्स को मंत्री पद या ऐसे ही दूसरे पद के इनाम दिए गए, तो इसमें हैरानी वाली कोई बात नहीं नज़र आई. सच तो ये है कि PoJK में विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों की एक प्रमुख मांग ये भी है कि सत्ताधारी वर्ग और अधिकारियों को मिलने वाले वेतन, भत्तों और सुविधाओं (इनमें जज और उच्च वर्ग के लोग भी शामिल हैं) को पूरी तरह ख़त्म कर दिया जाना चाहिए. प्रदर्शनकारी ये मांग भी कर रहे हैं कि सरकारी ख़र्चे पर किसी को भी 1300 CC से ज़्यादा पावर वाली गाड़ी से चलने की इजाज़त नहीं होनी चाहिए. अनवर-उल-हक़ को जिस तरह जोड़-तोड़ करके सत्ता में लाया गया, उससे पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले जम्मू-कश्मीर में प्रशासनिक व्यवस्था और भी चरमरा गई है. मौजूदा ‘प्रधानमंत्री’ एक अप्रवासी वज़ीर-ए-आज़म ज़्यादा हैं और उन पर मुज़फ़्फ़राबाद से ज़्यादा वक़्त इस्लामाबाद में बिताने के आरोप भी लग रहे हैं.

 पाकिस्तान के कुछ पत्रकारों के मुताबिक़, आज़ाद कश्मीर के मौजूदा ‘प्रधानमंत्री’ अनवर-उल-हक़ ने इस्लामाबाद में सांसदों को चेतावनी दी थी कि उनके यहां की नई पीढ़ी अब पाकिस्तानियों को अपने पुरखों जैसे सम्मान की नज़र से नहीं देखती. अनवर-उल-हक़ ख़ुद भी PoJK में हुई तमाम गड़बड़ियों के प्रतीक हैं.

जनादेश के साथ छलावा, इस बग़वात की तमाम वजहों में से महज़ एक है. लेकिन, ये काफ़ी महत्वपूर्ण है, क्योंकि सियासी तबक़े की विश्वसनीयता और वैधता न होने की वजह से मुख्यधारा की सारी पार्टियां अप्रासंगिक बन गई हैं. क्योंकि पाकिस्तान के सैन्य सत्ता तंत्र ने इस इलाक़े की सियासत में दख़लंदाज़ी कर करके उन्हें प्रासंगिक बना दिया है. ऐसा कोई राजनेता नहीं बचा है, जिसका सड़कों पर उतरी जनता के बीच कोई असर या अच्छी छवि हो. इस विरोध प्रदर्शन की अगुवाई, ज्वॉइंट अवामी एक्शन कमेटी के ज़रिए ख़ुद जनता कर रही है, और इस समिति के सदस्यों का भी अवाम पर कोई नियंत्रण नहीं है.

 

रोज़ी रोटी के मसले

 

पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर में इस बग़ावत को हम सच्चे अर्थों में राजनीतिक विरोध प्रदर्शन नहीं कह सकते हैं. ज्वॉइंट अवामी एक्शन कमेटी और उसके समर्थकों ने इसे #RightsMovementAJK हैश टैग के साथ प्रचारित किया. लेकिन इसके पीछे की असल वजह बुनियादी ज़रूरतों से जुड़े ऐसे मुद्दे हैं, जिनका ताल्लुक़ लोगों के अस्तित्व से है. इस आंदोलन की शुरुआत मई 2023 में उस वक़्त हुई थी, जब बिजली के बिलों और आटे की क़ीमतों में भारी बढ़ोत्तरी के ख़िलाफ़ भड़के लोगों ने विरोध प्रदर्शन किए थे. पिछले साल अगस्त महीने तक पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर में हालात बिगड़ने लगे थे. रावलाकोट में प्रदर्शनकारियों ने अपने बिजली के बिल जला दिए और सविनय अवज्ञा आंदोलन करने का एलान किया. उन्होंने ये मांग भी की कि बिजली से जुड़े सारे मूलभूत ढांचे उनके खेतों से हटा दिए जाएं. जल्दी ही ये विरोध प्रदर्शन पूरे पाकिस्तान में भी फैल गए. उसके बाद से ही इस मुद्दे पर लोगों के बीच ग़ुस्सा सुलग रहा था. पाकिस्तान के अधिकारियों ने इस मसले से अपने आज़माए हुए पुराने तरीक़े से निपटने की कोशिश की: यानी जब तक मुमकिन हो इसकी अनदेखी करो; जब इन बातों पर ध्यान देना ज़रूरी हो जाए, तो ऐसे वादे करो जिन्हें पूरा करने का तुम्हारा कोई इरादा न हो; जब हालात थोड़े संभल जाएंगे, तो उन वादों को पूरा करने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी. अगर कोई दोबारा विरोध प्रदर्शन शुरू करने की कोशिश करता है, तो सरकारी तंत्र का इस्तेमाल करके उसे सख़्ती से कुचल दो, ताकि प्रदर्शनकारियों में भय पैदा हो जाए.

 

9 मई को ठीक इसी नुस्खे पर काम किया गया था, जब मुज़फ़्फ़राबाद की तरफ़ मार्च करने वालों को रोकने के लिए लगभग 70 लोगों को हिरासत में ले लिया गया था. लेकिन, PoJK प्रशासन के इस क़दम ने लोगों के सब्र का बांध तोड़ दिया और उसके बाद तो मानो क़यामत आ गई, जिसके बाद ददियाल में सुरक्षा बलों और प्रदर्शनकारियों के बीच हिंसक झड़प हुई. उसके बाद तो पूरे अधिकृत जम्मू कश्मीर में भयानक और हिंसक विद्रोह भड़क उठा और इस पर क़ाबू पाने की सारी कोशिशें नाकाम हो गईं. हालात उस वक़्त और बिगड़ गए, जब सरकार ने अर्धसैनिक पाकिस्तान रेंजर्स को PoJK में तैनात किया और उन्होंने संघर्ष के दौरान तीन से चार प्रदर्शनकारियों को गोली मार दी. इस हत्याओं के बाद के हालात ठीक वैसे ही थे, जैसे फिलिस्तीन में दिखते हैं. लाशों को सड़कों और गलियों में घुमाया गया और बदला लेने की तीखी तक़रीरें की गईं.

 इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि रोज़ी रोटी के मसले असली हैं, बल्कि उनका संबंध तो लोगों के अस्तित्व से जुड़ा है. पाकिस्तान की खस्ता आर्थिक हालत का असर पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में भी महसूस किया जा रहा है.

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि रोज़ी रोटी के मसले असली हैं, बल्कि उनका संबंध तो लोगों के अस्तित्व से जुड़ा है. पाकिस्तान की खस्ता आर्थिक हालत का असर पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में भी महसूस किया जा रहा है. लेकिन, चूंकि इस इलाक़े को अब तक गेहूं और बिजली की दरों में काफ़ी सब्सिडी दी जाती रही थी, ऐसे में बिजली की दरों और आटों की क़ीमतों में आए उछाल से लोगों की ज़िंदगी तबाह हो गई है. ऐसा नहीं है कि PoJK के लोगों से पाकिस्तान के बाक़ी लोगों की तुलना में बिजली की ज़्यादा क़ीमत वसूली जा रही है. हालांकि, लोगों का मानना है कि चूंकि क़ब्ज़े वाले इलाक़े से बनाई जाने वाली पनबिजली की लागत केवल 3 पाकिस्तानी रुपए प्रति यूनिट आती है. ऐसे में उनसे बिजली की इतनी ही क़ीमत वसूली जानी चाहिए. लेकिन, PoJK के लोगो से तमाम दूसरे चार्ज, सरचार्ज और टैक्स जोड़कर लगभग 60 रुपए प्रति यूनिट की दर से वसूली की जा रही है. पाक अधिकृत जम्मू कश्मीर की सरकार और वहां के लोग ये मांग भी कर रहे हैं कि उन्हें अपने यहां बनाई जा रही बिजली के बदले में रॉयल्टी मिलनी चाहिए. लेकिन, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था वैसे ही दिवालिया होने की कगार पर खड़ी है और बिजली का सेक्टर पहले से ही क़र्ज़ के दुष्चक्र में फंसा हुआ है. ऐसे में पाकिस्तान की सरकार के पास मुफ़्त में या फिर बेहद कम क़ीमत पर सस्ती बिजली मुहैया कराने के लिए बहुत कम गुंजाइश बचती है.

 

बग़ावत का सियासी अर्थशास्त्र

 

वैसे तो पाक अधिकृत जम्मू कश्मीर में हालिया बग़ावत के पीछे ज़्यादातर आर्थिक मसले हैं. लेकिन, इनकी तह में राजनीतिक अर्थशास्त्र और राजनीतिक स्वतंत्रताओं जैसे मुद्दे भी हैं, जो लगता है कि इस आंदोलन को और हवा दे रहे हैं. क्योंकि, वैसे तो इस आंदोलन को मुख्य रूप से अधिकार कार्यकर्ता और व्यापारिक समुदाय चला रहे हैं. लेकिन आंदोलन को समाज के कम-ओ-बेश हर तबक़े का समर्थन हासिल है. पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर और अन्य इलाक़ों जैसे कि गिलगित बाल्टिस्तान में नाराज़गी का आधार ये है कि स्थानीय लोगों की अपने ही शासन में कोई हिस्सेदारी नहीं है. वैसे तो पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले जम्मू-कश्मीर और गिलगित बाल्टिस्तान दोनों जगहों पर नाम के लिए ‘चुनी हुई’ सरकारें हैं. लेकिन, उनके पास कोई शक्ति नहीं है. पाकिस्तानी फ़ौज का कोई कैप्टन या मेजर भी इन इलाक़ों के तथाकथित ‘वज़ीर-ए-आज़म’ या वज़ीर-ए-आला से कहीं ज़्यादा ताक़तवर और प्रभावशाली होता है. पाकिस्तान अपने यहां लगने वाले टैक्स इन इलाक़ों से भी वसूलता है. इसीलिए लिए इन इलाक़ों से ‘नुमाइंदगी नहीं तो टैक्स नहीं’ के नारे इन विरोध प्रदर्शनों का आधार बन गए हैं. लेकिन, पाकिस्तान इन दोनों अधिकृत इलाक़ों को अपने यहां की राष्ट्रीय असेंबली या सीनेट में कोई नुमाइंदगी दे पाने में या तो अक्षम है या अनिच्छुक है.

 

पाकिस्तान के लिए दूसरी समस्या ये है कि अगर सरकार प्रदर्शनकारियों की मांग के आगे झुक जाती है, तो फिर ये पाकिस्तान के उन इलाक़ों के लिए भी मिसाल बन जाएगी, जो राहत की मांग कर रहे हैं. आज जब पाकिस्तान एक के बाद एक क़र्ज़ की नई किस्तें हासिल करने के लिए बार बार अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के दरवाज़े खटखटा रहा है, और जिनकी शर्तें बेहद सख़्त होनी लगभग तय हैं. इसके एवज़ में पाकिस्तान की हुकूमत को और भी अलोकप्रिय क़दम उठाने पड़ेंगे. ऐसी ख़बरें हैं कि इनकम टैक्स की दरों में बदलाव किया जाएगा और पेंशनर्स (जिसमें पूर्व फौजी भी शामिल हैं) से भी टैक्स वसूली जाएगा. बिजली और गैस की दरों में भी और इज़ाफ़ा किए जाने की आशंका है. जहां तक आम लोगों की बात है, तो उनके लिए तो ये अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद है क्योंकि उनके लिए तो बुनियादी ज़रूरतों और खाने-पीने के सामान की क़ीमतें चुका पाना भी दुश्वार हो गया है. ऐसे में लोगों के पास सड़कों पर उतरने के सिवा कोई और रास्ता बचा नहीं है. इसके पीछे एक और वजह ये भी है कि सरकार और जनता को आपस में जोड़ने वाली जो सामाजिक कड़ी होती है, वो भी टूट के कगार पर है. जब कोई देश कमज़ोर पड़ जाता है और वो जनता की बुनियादी सामाजिक ज़रूरतें तक पूरी करने में नाकाम रहता है और लोगों की मांगों की अनदेखी करता है, तो लोग ये सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि उनके पास हिंसा के सिवा कोई और चारा नहीं बचा है. पाकिस्तान में लंबे वक़्त से प्रशासन का मॉडल यही रहा है कि डंडा चलाओ और हर चीज़ और हर शख़्स अपने आप सीधा हो जाएगा. लेकिन, जैसा कि PoJK में विद्रोह से ज़ाहिर है कि अब ये पुराना मॉडल काम नहीं कर रहा है. अब लोग पाकिस्तानी फौज और क़ानून व्यवस्था संभालने वाली दूसरी संस्थाओं के हुक्म को भी आंखें दिखा रहे हैं और जैसा कि पाक अधिकृत जम्मू कश्मीर में दिखा भी कि जनता ने हुकूमत को उसके घुटनों पर ला दिया. परेशानी बढ़ाने वाली बात ये भी है कि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) और पश्तून राष्ट्रवादी भी PoJK की जनता के पक्ष में खड़े हो गए हैं.

 

गहरी खाई

 

पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर की घटनाएं बेहद असाधारण रही हैं. जिन राजनीतिक आकांक्षाओं और आर्थिक ज़रूरतों ने इस बग़ावत की आग को भड़काया, उसने PoJK भारत के जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित क्षेत्र के बीच की गहरी होती भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक खाई को भी उभार दिया है. ये इस तथ्य से ज़ाहिर होता है कि प्रदर्शनकारियों ने खुलेआम एलान किया कि वो स्थानीय पुलिसकर्मियों से तो सख़्ती नहीं करेंगे. लेकिन, वो इस इलाक़े में भेजे जा रहे पाकिस्तान रेंजर्स और पाकिस्तानी पंजाब की पुलिस का डटकर मुक़ाबा करेंगे. और, प्रदर्शनकारियों ने इनकी कुछ टुकड़ियों को पीछे हटने को भी मजबूर कर दिया और कई जगह तो उनके साथ आमने सामने का मुक़ाबला भी किया. इस विद्रोह के दौरान पाकिस्तान को लेकर गहरी नफ़रत, निराशा, मोहभंग और अविश्वास भी देखने को मिले. ये बातें न केवल प्रदर्शनकारियों की मांगों में नज़र आई, बल्कि इस सच्चाई में भी कि प्रदर्शनकारी ज़बानी और यहां तक कि लिखकर दिए गए वादों पर भी भरोसा करने के लिए तैयार नहीं थे. आख़िर में, पाकिस्तान सरकार के सख़्त रवैया, जैसे कि भीड़ पर पाकिस्तान रेंजर्स का फायरिंग करना- आगे चलकर दोनों पक्षों के बीच अविश्वास को बढ़ाने ही वाला है.

 पाकिस्तान को सबसे ज़्यादा चिंता इस बात की होनी चाहिए कि उसके प्रति तेज़ी से बढ़ रहा मोहभंग, पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर के बहुत से लोगों को अपने विकल्पों का फिर से मूल्यांकन करने को मजबूर करेगा कि क्या वो दिवालिया पाकिस्तान के शिकंजे में बने रहें या फिर पुरानी रियासत का हिस्सा बनकर भारत की ऊर्जावान अर्थव्यवस्था का लाभ उठाएं.

सबसे बड़ी बात तो ये है कि पाकिस्तान को सबसे ज़्यादा चिंता इस बात की होनी चाहिए कि उसके प्रति तेज़ी से बढ़ रहा मोहभंग, पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर के बहुत से लोगों को अपने विकल्पों का फिर से मूल्यांकन करने को मजबूर करेगा कि क्या वो दिवालिया पाकिस्तान के शिकंजे में बने रहें या फिर पुरानी रियासत का हिस्सा बनकर भारत की ऊर्जावान अर्थव्यवस्था का लाभ उठाएं. हाल ही में भारत के विदेश मंत्री डॉक्टर एस. जयशंकर से PoK के बारे में सवाल किया गया था कि इसके दोबारा भारत का हिस्सा बनने की कितनी संभावनाएं हैं. उनका बयान आंखें खोलने वाला था. जयशंकर ने कहा कि जब 2019 में जम्मू कश्मीर में संवैधानिक सुधार किए गए थे, तो किसी ने नहीं सोचा था कि ऐसा करना संभव होगा. कुल मिलाकर भारत, बड़ी बारीक़ी से PoJK और गिलगित बाल्टिस्तान के हालात पर नज़र बनाए रहेगा और अगर मौक़ा आता है, तो भारत के इलाक़े पर पाकिस्तान के अवैध क़ब्ज़े को ख़त्म करने पर विचार किया जाएगा.

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Author

Sushant Sareen

Sushant Sareen

Sushant Sareen is Senior Fellow at Observer Research Foundation. His published works include: Balochistan: Forgotten War, Forsaken People (Monograph, 2017) Corridor Calculus: China-Pakistan Economic Corridor & China’s comprador   ...

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