राजनाथ सिंह की अगुवाई में रक्षा मंत्रालय ने हाल ही में भारत ने दूसरे स्वदेशी एयरक्राफ्ट कैरियर को बनाने में दिलचस्पी दिखाई है. इसे रक्षा नीति की परिचर्चाओं में भारतीय नौसेना (IN) की बढ़ती हुई भूमिका का संकेत कहा जा रहा है. दक्षिणी चीन सागर में नौसेना के जंगी जहाज़ों की सक्रिय तैनाती, पश्चिमी अरब सागर और अदन की खाड़ी में नौसेना के समुद्री डकैतों के ख़िलाफ़ चलाए गए सफल अभियान और दोस्त देशों के साथ नियमित रूप से नौसैनिक अभ्यास उस सैन्य बल की क्षेत्रीय भूमिका बढ़ाने की महत्वाकांक्षा को दिखाते हैं, जिसकी अब तक अनदेखी की जाती रही थी. भारतीय नौसेना ने निश्चित रूप से ‘सिंड्रेला’ सेवा की अपनी छवि का परित्याग कर दिया है और अब वो ख़ुद को देश की एक्ट ईस्ट नीति और सागर (SAGAR) विज़न के पसंदीदा साझेदार के तौर पर पेश कर रही है. इस मौक़े पर नौसेना की बढ़ती क्षमताओं के पीछे के ऐतिहासिक कारणों का मूल्यांकन करने से हमें भारत में समुद्रों को लेकर बढ़ती जागरूकता को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी. इतिहास पर आधारित विश्लेषण भारत की नौसैनिक रणनीति, हथियारों, अधिग्रहण और नौसेना द्वारा अपनी शक्ति के प्रदर्शन के प्रासंगिक तत्वों को रेखांकित करेंगे. इसमें बाहरी सामरिक माहौल, संगठन की आवश्यकताएं और बजट की सीमाएं भी शामिल होंगी.
भारतीय नौसेना ने निश्चित रूप से ‘सिंड्रेला’ सेवा की अपनी छवि का परित्याग कर दिया है और अब वो ख़ुद को देश की एक्ट ईस्ट नीति और सागर (SAGAR) विज़न के पसंदीदा साझेदार के तौर पर पेश कर रही है.
इस ऐतिहासिक संदर्भ में आज़ादी के बाद से महाद्वीप के मोर्चे पर पाकिस्तान और चीन के ख़तरों को प्राथमिकता देने से सैन्य बलों को कहीं ज़्यादा तरज़ीह दी जाती रही है. इसी के साथ साथ समुद्री मोर्चे पर भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के अहम हितों को कोई बड़ा ख़तरा न होने की वजह से नीति निर्माताओं ने नौसेना की शक्ति बढ़ाने की अनदेखी की. सेक्टर से जुड़े हितों को आगे बढ़ाने के लिए संगठनात्मक ज़रूरतों ने तीनों सैन्य बलों के बीच अधिकतम शक्ति की रणनीति, ताक़त के प्रदर्शन और हथियारों के अधिग्रहण के बजाय उनके बीच होड़ बढ़ाने का ही काम किया. सत्ताधारी राजनीतिक वर्ग के बीच विशेषज्ञता की काफ़ी कमी है. वहीं, आम तौर पर सैन्य और असैन्य तबक़ों के बीच संवाद न होने से भी तीनों सैन्य बलों के बीच दावों का निष्पक्ष निस्तारण करने और तालमेल बिठा पाने में नाकामी को बढ़ावा दिया. आख़िर में नौसैनिक जहाज़ों की ख़रीद में लगने वाली भारी रक़म ने इसकी वजह से उन हथियारों की ख़रीद को प्राथमिकता दी गई, जो सस्ते दाम पर ख़रीदे जा सकते थे. वित्तीय अनुशासन को लेकर सख़्ती और एक को छोड़कर दूसरा विकल्प अपनाने की नीति ही नौसेना के हथियारों की ख़रीद को आकार देती आई है.
भारतीय नौसेना का विस्तार
आज़ादी के बाद 1947-48 में ही भारत के नौसैनिक योजनाकारों और ब्रिटेन के वाइस एडमिरल इन चार्ज एडवर्ड पेरी ने भारतीय नौसेना के विस्तार की महत्वाकांक्षी योजना की परिकल्पना की थी. ब्रिटिश अधिकारी भारतीय नौसेना की शक्तियों को कॉमनवेल्थ की व्यापक रणनीति के साथ जोड़ना चाहते थे. वहीं, भारत के नौसेनिक अधिकारी, इस क्षेत्र में नौसेना की स्वतंत्र भूमिका के पक्षधर थे. हालांकि, वित्तीय संसाधनों के सीमित होने और भारत के नीति निर्माताओं का ज़ोर उत्तरी सीमाओं पर अधिक होने की वजह से 1950 के दशक की शुरुआत में नौसेना के लिए जहाज़ ख़रीदने की योजनाओं को सीमित ही रखा. 1950 में कोरिया में युद्ध भड़काने की वजह से ब्रिटेन की भारत को नौसैनिक जहाज़ देने की अनिच्छा को और बढ़ा दिया. हैरानी की बात ये है कि शीत युद्ध की ज़रूरतों के मुताबिक़ ब्रिटेन के नौसैनिक अधिकारी जो 1958 तक भारतीय नौसेना की कमान संभाल रहे थे, उनका ज़ोर मुख्य रूप से हिंद महासागर में समुद्री संचार की खुली रेखाओं को सोवियत संघ की पनडुब्बियों से मिलने वाली चुनौती की आशंकाओं से निपटने पर ही था. इस वजह से भारतीय नौसेना ने पनडुब्बियों से मुक़ाबला कर सकने की क्षमता का विकास किया. बजट की सीमाओं और विदेशी मुद्रा भंडार के कम होने की वजह से 1950 के दशक में भारतीय नौसेना के साथ अन्याय होता रहा. हालांकि, नौसेना के लिए 1957 में ही ब्रिटेन से एयरक्राफ्ट कैरियर ख़रीदा गया था. इस करियर के लिए बहुत कम संसाधन आवंटित करने का फ़ैसला, नौसेना की संगठनात्मक प्राथमिकताओं और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को लेकर नेहरू की चिंताओं का नतीजा था. 1962 में चीन के साथ युद्ध ने भारत के सामरिक तबक़े का ध्यान उत्तरी थल सीमा पर और भी केंद्रित कर दिया.
हालांकि, 1960 के दशक में हिंद महासागर के बाहरी सामरिक माहौल में आई तब्दीली ने परिचर्चाओं की कुछ गुंजाइश पैदा की. 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध के दौरान, राष्ट्रपति सुकर्णो ने अंडमान और निकोबार द्वीप समूहों पर क़ब्ज़ा करने की धमकी दी थी. जिससे आने वाले समय में पाकिस्तान, चीन और इंडोनेशिया के बीच एक भारत विरोधी गठजोड़ बनने की आशंकाओं की चर्चा होने लगी थी. दूसरा स्वेज़ नहर के पूरब से अपने जंगी जहाज़ वापस बुलाकर ब्रिटेन द्वारा अपनी रणनीति में की गई तब्दीली ने भारत के नौसैनिक रणनीतिकारों को हिंद महासागर क्षेत्र में एक सामरिक शून्य पैदा होने की बात पर बल देने का मौक़ा दिया, ताकि भारतीय नौसेना इस शून्य की भरपाई कर सके. 1967 में स्वतंत्र पार्टी के नेता एन दांडेकर ने संसद में कहा कि नौसेना के एक पूर्वी बेड़े का गठन हो, जिसमें एक या दो एयक्राफ्ट कैरियर हों और इनका अड्डा अंडमान द्वीप समूह हों. हालांकि चीन और पाकिस्तान से भारत को ख़तरे को लेकर दांडेकर की जो समझ थी, उसमें पाकिस्तान के पास भारत की तुलना में बढ़त न होने और भारतीय नौसेना के चीन की तात्कालिक शक्ति से अधिक होने की सच्चाई शामिल नहीं थी.
ब्रिटिश नौसेना द्वारा स्वेज़ के पूरब में तैनात अपने जहाज़ वापस बुला लेने से नौसेना के रणनीतिकारों को अपने संगठनात्मक हितों को आगे बढ़ाने का मौक़ा मिल गया. डिफेंस सर्विसेज़ स्टाफ कॉलेज में तैनात नौसैनिक अधिकारियों के एक समूह की 1969 में आई रिपोर्ट में तर्क दिया गया कि नौसेना को ब्रिटेन द्वारा ख़ाली की गई इस जगह को भरना चाहिए. इस पर ज़ोरदार परिचर्चाएं हुईं. टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय (7 मई 1969) ने हिंद महासागर में चीन की नौसेना के शक्ति प्रदर्शन की बेहद क्षीण आशंका के हवाले से और महाशक्तियों द्वारा हिंद महासागर के इस नौसैनिक शून्य को भरने की संभावनाओं के आधार पर इस रिपोर्ट की आलोचना की. वहीं, मेजर जनरल डी के पाटिल ने इस समूह के सुझावों की ये कहते हुए तीखी आलोचना की कि ये तो नव-उपनिवेशवादी मानसिकता का संकेत है. थल सेना के पक्षकारों के मुताबिक़ नौसेना के लिए सही रणनीति तो तटों और समुद्री किनारों पर अपने इलाक़ों की सुरक्षा की व्यवस्था करने की थी, न कि सुदूर समुद्र में शक्ति प्रदर्शन की. तीनों सेनाओं के बीच छिड़ी ये बहस 1980 के दशक में भी जारी रही. ब्रिगेडियर एन वी ग्रांट ने नौसेना के एयरक्राफ्ट करियर को लेकर जुनून की आलोचना करते हुए एक पत्रिका में लिखा कि, भारत की विशाल तटीय सीमा, अहम समुद्री मार्गों और अंडमान निकोबार द्वीप समूह को देखते हुए तट पर आधारित विमान, मिसाइल नौकाएं और पनडुब्बियां ही भारत के मुख्य समुद्री हितों की रक्षा का मुफ़ीद विकल्प हैं.
हालांकि, भारत की सुरक्षा के उभरते समीकरणों में तीनों सेनाओं के बीच चल रही ये खींचतान ही नौसेना की भूमिका निर्धारित करने का इकलौता कारण नहीं थी. 1970 के दशक में अमेरिका के एयरक्राफ्ट कैरियर USS एंटरप्राइज़ से जुड़ी घटना ने समुद्र में दुश्मन को छकाने की रणनीति के लिए आवश्यक क्षमताओं के विकास की ज़रूरत को रेखांकित किया था. नौसेना के अधिकारियों द्वारा एयरक्राफ्ट करियर पर ही ज़ोर देने और भारत के तुलनात्मक रूप से नाज़ुक आर्थिक हालात की वजह से भारत के नीति निर्माताओं ने अपने क्षेत्र में अमेरिकी जंगी जहाज़ों की मौजूदगी का मुक़ाबला कूटनीतिक दांव पेंच और सोवियत सहायता से किया. 1980 के दशक में जाकर नौसेना के आधुनिकीकरण की शुरुआत हुई और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व में प्रधानमंत्री कार्यालय ने इसकी अगुवाई की. नौसेना, हिंद महासागर में सकल सुरक्षा प्रदाता के तौर पर उभरी और उसने सेशेल्स और मालदीव में अपने जंगी जहाज़ों की तैनाती करने के साथ साथ श्रीलंका में शांति रक्षक बलों की मदद भी की.
नौसेना, हिंद महासागर में सकल सुरक्षा प्रदाता के तौर पर उभरी और उसने सेशेल्स और मालदीव में अपने जंगी जहाज़ों की तैनाती करने के साथ साथ श्रीलंका में शांति रक्षक बलों की मदद भी की.
1990 के दशक में शीत युद्ध की समाप्ति से भारत के लिए अपने आस-पास तुलनात्मक रूप से नरम भू-राजनीतिक माहौल बना. 1990 के दशक में भारत की सुरक्षा के सामने सबसे बड़ी चुनौती पाकिस्तान से होने वाले आतंकी हमलों, सीमा पर युद्ध और परमाणु टकराव की आशंका के रूप में सामने आई. इसी की वजह से नौसेना को अनदेखी का सामना करना पड़ा. 21वीं सदी के पहले दो दशकों के दौरान, उदारवादी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्ता में भारत के अपने व्यापार के लिए समुद्री संचार के अहम वैश्विक मार्गों (SLOCs) पर बढ़ती निर्भरता ने नौसेना की सक्रिय भूमिका के द्वार खोल. इस दौरान नौसेना के आधुनिकीकरण के पीछे समुद्री व्यापारिक मार्गों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का तर्क था.
निष्कर्ष
सत्ता के वित्तरण में संरचनात्मक बदलाव की वजह से अब एक बार फिर से नौसेना पर ध्यान केंद्रित हुआ है. समुद्री संचार के अहम मार्गों की हिफ़ाज़त करने और व्यवस्था की आवश्यकताओं ने हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) में नौसैनिक जहाज़ों की सक्रिय तैनाती को बढ़ावा दिया है. लेकिन, भारत की समुद्री सुरक्षा के समीकरणों में अब हिंद महासागर क्षेत्र में चीन की नौसेना की बढ़ती सक्रियता पर काफ़ी ज़ोर दिया जा रहा है. चीन के जवाब में अब नौसेना ने दक्षिणी चीन सागर जैसे सुदूर इलाक़ों में भी दोस्त देशों की नौसेनाओं के साथ सहयोग बढ़ाना शुरू किया है. भारत के रणनीतिकार अपनी नौसेना की तैनाती के लिए क्षेत्रीय व्यवस्था को बरकरार रखने को तरज़ीह देते हैं. लेकिन, अब भारत की नौसैनिक परिकल्पना में चीन के प्रति भय का माहौल बनाने और बाहरी ताक़तों के साथ तालमेल करने का सामरिक तर्क केंद्रीय भूमिका हासिल कर रहा है.
भारत की समुद्री जागरूकता के विकास को लेकर जो ऐतिहासिक सबक़ मिलते हैं, वो हमें देश की सुरक्षा और समृद्धि दोनों के लक्ष्य हासिल करने में भारतीय नौसेना की बढ़ती हुई केंद्रीय भूमिका बेहतर ढंग से स्वीकार करने का संकेत देते हैं.
आर्थिक विकास के उल्लेखनीय दौर से गुज़रने के बावजूद हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारत की समुद्री ताक़त को बढ़ाने को लेकर अभी भी परिचर्चाएं और आशंकाएं जताई जा रही हैं. जबकि, आर्थिक समृद्धि की वजह से भारत को नौसैनिक ताक़त सक्रियता से प्रदर्शित करने के लिए अब अधिक वित्तीय शक्ति और स्पष्ट भू-राजनीतिक ज़रूरतें साफ़ दिख रही हैं. चीन के साथ सीमा पर टकराव बने रहने का नतीजा हुआ है कि महाद्वीपीय मोर्चे पर फ़ौरी तौर पर तवज्जो दी जाए. वहीं, हिंद महासागर में समुद्री टकराव बढ़ने की आशंका को कम अहमियत वाला सामरिक विकल्प माना जा रहा है. नौसेना के आधुनिकीकरण की योजनाओं के सामने अपनी ही शुरुआती समस्याएं हैं. इनमें हादसे, देरी होना, मूलभूत ढांचे और मानव संसाधनों की कमी शामिल है. इसके बावजूद, इसमें कोई दो राय नहीं है कि जो चलन दिख रहा है, वो देश के सामरिक परिदृश्य में भारतीय नौसेना के प्रभावी उभार का संकेत दे रहा है. भारत की समुद्री जागरूकता के विकास को लेकर जो ऐतिहासिक सबक़ मिलते हैं, वो हमें देश की सुरक्षा और समृद्धि दोनों के लक्ष्य हासिल करने में भारतीय नौसेना की बढ़ती हुई केंद्रीय भूमिका बेहतर ढंग से स्वीकार करने का संकेत देते हैं.
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