ये लेख रायसीना क्रॉनिकल्स-2024 सीरीज़ का हिस्सा है.
2016 में पहली बार रायसीना डायलॉग का आयोजन हुआ लेकिन उसके बाद के छोटे से समय में ही ये ख़ुद को भू-राजनीति, भू-अर्थशास्त्र और भू-तकनीक़ के मुद्दे पर एक प्रमुख वैश्विक मंच के रूप में स्थापित कर चुका है. इसका एक प्रमुख कारण बेशक वैश्विक बातचीत में भारत की आवाज़ का बढ़ता वज़न है क्योंकि भारत दुनिया में सबसे ज़्यादा आबादी वाला देश और सबसे बड़ा लोकतंत्र है. 2023 में भारत के द्वारा कुशलता से G20 की अध्यक्षता की ज़िम्मेदारी निभाने से वैश्विक मंच पर उसके महत्व का पता चला. ये सारी बातें अहम हैं लेकिन मुझे लगता है कि रायसीना डायलॉग की प्रगति का मुख्य कारण ये है कि रायसीना डायलॉग अपनी तुलना के योग्य किसी भी अन्य अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के मुकाबले शायद दुनिया के व्यापक हिस्से की आवाज़ों की एक विस्तृत श्रृंखला को आकर्षित करने में सफल रहा है.
हम जिस समय में रह रहे हैं वो चुनौतीपूर्ण है. इस दौरान दुनिया को बांटने वाले भू-राजनीतिक तनावों और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अधिक सामंजस्यपूर्ण प्रतिक्रिया की मांग करने वाली वैश्विक चुनौतियों का एक साथ उदय हुआ है.
हम जिस समय में रह रहे हैं वो चुनौतीपूर्ण है. इस दौरान दुनिया को बांटने वाले भू-राजनीतिक तनावों और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अधिक सामंजस्यपूर्ण प्रतिक्रिया की मांग करने वाली वैश्विक चुनौतियों का एक साथ उदय हुआ है. वैसे तो सामूहिक कार्रवाई के ज़रिए अधिक हासिल करने की सख़्त आवश्यकता है लेकिन ऐसा करने की हमारी क्षमता तेज़ी से ख़तरे में पड़ रही है. मौजूदा भू-राजनीतिक चुनौतियों की वजह से दरार साफ है. यूरोप में रूस ने यूक्रेन को अपना भविष्य चुनने के अधिकार से वंचित करने और ग्रेटर रशियन साम्राज्य के नए रूप में मिलाने के स्पष्ट लक्ष्य के साथ बड़े पैमाने पर आक्रमण की शुरुआत की है. एशिया में अधिक आक्रामक चीन अपनी सैन्य ताकत का निर्माण कर रहा है, वो उम्मीद करता है कि दूसरे देश उसकी इच्छा के आगे झुक जाएं. वहीं अमेरिका अपनी सैन्य सर्वोच्चता की स्थिति को ख़तरे में देख रहा है. ऐसे में कोई भी कदम और उसके जवाब में उठाया गया कदम तनावों में बढ़ोतरी करता है.
अब बहुध्रुवीय बन चुके विश्व में शक्ति के बदलते संतुलन ने मौजूदा बहुराष्ट्रीय संस्थानों और संरचनाओं के लिए चुनौतियां पैदा की हैं और नए संघर्षों के सामने आने की गुंजाइश खोली है. हमने देखा है कि फिलिस्तीन का मुद्दा ज़्यादा हिंसा के साथ फिर से सामने आया है. इसने इस महत्वपूर्ण क्षेत्र के भविष्य की राह को लेकर कई धारणाओं पर सवाल खड़े किए हैं. इस बीच अफ़ग़ानिस्तान का मुद्दा सुर्खियों से गायब हो गया है लेकिन आगे भी क्या यही स्थिति रहती है या फिर ये मुद्दा ज़्यादा हिंसा के साथ वापसी करता है- ये उन सवालों में शामिल है जिनका सामना हमें आने वाले दिनों में करना है. भू-राजनीतिक तनावों में बढ़ोतरी ने स्थायी शांति और स्थिरता की तरफ एक सामूहिक प्रतिक्रिया को भी ख़तरे में डाल दिया है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद एक के बाद एक संकट का काम-काजी समाधान करने में निष्क्रियता का सामना करते हुए अभी भी 1945 की तरह की स्थिति में है. इसका कारण सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों के बीच असहमति है. सुरक्षा परिषद पर कुछ स्थायी सदस्यों के राजनीतिक हितों के कब्ज़े ने इस वैश्विक संस्थागत संरचना के काम करने और महत्वपूर्ण क्षेत्रों को अस्थिर करने की संभावना रखने वाले संघर्षों का समाधान निकालने की क्षमता को छीन लिया है. पश्चिम एशिया में विनाशकारी संघर्ष ने भू-राजनीतिक दरारों को पाटने में हमारे संस्थानों के उपयुक्त नहीं होने की सोच को और बढ़ाया है.
भू-अर्थशास्त्र की वापसी
भू-अर्थशास्त्र ने भी वैश्विक परिदृश्य पर अपनी वापसी की है. पिछले कुछ दशकों के दौरान चीन की शानदार आर्थिक प्रगति ने काफी हद तक वैश्विक अर्थव्यवस्था को बदल दिया है. यहां तक कि बढ़ती आर्थिक कठिनाइयों के समय में भी वैश्विक अर्थव्यवस्था में कुल विकास का लगभग एक-तिहाई हिस्सा चीन की देन है. ये बंटवारे और अधिक संरक्षणवाद की मांग के ख़िलाफ़ वैश्विक सप्लाई चेन को मज़बूत बनाए रखने की दिशा में वैश्विक अर्थव्यवस्था के सामने मौजूद ख़तरे को दिखाता है. वैश्विक व्यापार समझौतों को लेकर तेज़ी से काम करने पर ध्यान बढ़ाने की ज़रूरत है जो अधिक जुड़ी हुई और विविध वैश्विक सप्लाई चेन की सुविधा देगा. चूंकि इस समय हम कम विकास के चरण में हैं, ऐसे में सप्लाई चेन की कोई भी कमज़ोरी अलग-अलग देशों की संभावनाओं पर बहुत ज़्यादा असर डालेगी, विशेष रूप से उभरते और कम विकसित अर्थव्यवस्थाओं की संभावनाओं पर. साथ ही इससे UN में सहमत सतत विकास लक्ष्यों (SDG) को पूरा करने की तरफ बढ़ने में प्रभावशाली प्रगति के कई दशक भी बेकार हो जाएंगे.
इंटरनेट पहले ही दुनिया भर में एक बड़ी आबादी के रोज़ाना की ज़िंदगी के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में ख़ुद को जोड़ चुका है और हम तेज़ी से उस दौर में जा रहे हैं जहां आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हर जगह मौजूद होगा
इस बीच नई तकनीकों का उदय आर्थिक प्रगति की अनगिनत संभावनाओं का समृद्ध क्षेत्र पेश करता है. जैसे-जैसे हम पिछले दो दशकों के दौरान दबदबा रखने वाले औद्योगिक युग को धीरे-धीरे छोड़ रहे हैं, एक डिजिटल युग हमारे दरवाज़े पर मज़बूती के साथ खड़ा है और ये हमारे भविष्य को इस तरह से आकार देने के लिए तैयार है जिसके बारे में हम अभी भी पूरी तरह से कल्पना नहीं कर सकते हैं. इंटरनेट पहले ही दुनिया भर में एक बड़ी आबादी के रोज़ाना की ज़िंदगी के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में ख़ुद को जोड़ चुका है और हम तेज़ी से उस दौर में जा रहे हैं जहां आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हर जगह मौजूद होगा, क्वॉंटम कंप्यूटिंग क्रांतिकारी नई संभावनाएं लाएगी और सिंथेटिक बायोलॉजी हमारे जीवन के मूलभूत पहलुओं को बदलना शुरू कर सकती है. इन तकनीकों में दबदबा हासिल करना अब सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के एजेंडे में शामिल है. अभी तक अमेरिका इनोवेशन के मामले में प्रमुख ताकत है लेकिन अब उसे न केवल चीन बल्कि इनोवेशन के वैश्विक नेटवर्क से भी चुनौती मिल रही है जहां भारत जैसे उभरते देशों की ताकत बढ़ना तय है. जो देश अपने लोगों की प्रतिभा को बढ़ाते हैं, ख़ुद को रिसर्च एंड डेवलपमेंट के लिए प्रतिबद्ध करते हैं और एक खुली उद्यमशीलता (एंटरप्रेन्योरियल) की संस्कृति को विकसित करते हैं, वो ही हमारे सामने आने वाले दशकों में सबसे ज़्यादा संभावनाओं का लाभ उठाएंगे.
नई तकनीकों में वर्चस्व की तरफ छलांग लगाने की दिशा में बढ़ते इनोवेशन की रफ्तार से मेल खाने के लिए समन्वित नीतिगत संरचना की आवश्यकता होती है. निश्चित रूप से ऐसे मुद्दे सामने आएंगे जिन्हें हम मौजूदा समय में नहीं देख सकते हैं. इसकी वजह से तेज़ तकनीकी आधुनिकता के युग की तरफ आसान बदलाव के लिए नीतिगत सामंजस्य बनाना अनिवार्य हो जाता है. जैसे-जैसे AI क्रांति तेज़ होती जा रही है, वैसे-वैसे AI के इर्द-गिर्द मानक, सिद्धांत और सीमाएं तय करने के लिए एक साझा वैश्विक रूप-रेखा या ढांचे पर सहमति की तलाश का पता लगाने की संभावना को लेकर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सवाल उठने लगे हैं. इस बात की ज़रूरत को लेकर बहुत कम असहमति है लेकिन ये कैसे और किसके द्वारा होगा, इसको लेकर बहुत कम सहमति है.
तेज़ नीतिगत प्रतिक्रिया को आसान बनाने के लिए इसी तरह की संस्थागत अयोग्यता हमारी वैश्विक स्वास्थ्य संरचना में उस समय दिखी जब दुनिया भर में लाखों लोगों की जान लेने वाली कोविड-19 महामारी के शुरुआती दौर में जान बचाने वाली वैक्सीन की हर किसी तक उपलब्धता बनाने में हम नाकाम रहे. हम भाग्यशाली थे कि हमें उस रफ़्तार से वैक्सीन मिली जो पहले नहीं देखी गई थी. इसकी वजह वैज्ञानिक प्रगति थी जिसने उत्पादन की ज़रूरी क्षमता के तेज़ विकास को आसान बनाया लेकिन वैक्सीन को बांटने में बराबरी के मामले में हमारी प्रतिक्रिया उतनी अच्छी नहीं थी जितनी हमारी वैज्ञानिक उपलब्धि. इस बात की संभावना नहीं है कि कोविड-19 महामारी आख़िरी होगी. अगली महामारी भी उतनी ही संक्रामक और काफी अधिक घातक हो सकती है. वैश्विक स्वास्थ्य सहयोग के नियमों एवं संरचनाओं को अपडेट करने और वैक्सीन की समानता जैसे विवादित मुद्दों पर चर्चा करने के लिए तेज़ी से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काम चल रहा है लेकिन ये तैयारी अगली महामारी के हिसाब से पर्याप्त होगी या नहीं, ये पूरी तरह से एक खुला सवाल है.
ग्लोबल संवाद
इन आवश्यकताओं में निश्चित रूप से जलवायु परिवर्तन की चुनौती भी शामिल होनी चाहिए. पेरिस समझौते के तहत तापमान में बढ़ोतरी 1.5 डिग्री तक सीमित करने के निर्धारित लक्ष्य को पूरा करने के लिए जिस चीज़ की आवश्यकता है वो सदियों तक औद्योगिक विकास को बढ़ाने वाले जीवाश्म ईंधन से दूर जाने से कम नहीं है और ये लक्ष्य सिर्फ कुछ ही दशकों में प्राप्त करना है. उभरती अर्थव्यवस्थाओं के सामने चुनौतियां असाधारण हैं और मानवता के सामने तो और भी ज़्यादा चुनौतियां हैं. अमेरिका और यूरोप जैसी पुरानी शक्तियां वातावरण में पहले से जमा ज़्यादातर उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं लेकिन चीन और भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्थाएं मौजूदा समय और आने वाले दशकों के उत्सर्जन के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी उठाती हैं. वैश्विक अर्थव्यवस्था की संरचना और अरबों लोगों के ईंधन की खपत के पैटर्न में बहुत बड़े बदलाव की आवश्यकता है. इसमें तनाव भी रहेगा. संरक्षणवाद पर ध्यान देने वाला अलग-थलग आर्थिक नज़रिया एक तेज़ और किफायती हरित परिवर्तन की दिशा में मनमुटाव पैदा करता है.
हम भाग्यशाली थे कि हमें उस रफ़्तार से वैक्सीन मिली जो पहले नहीं देखी गई थी. इसकी वजह वैज्ञानिक प्रगति थी जिसने उत्पादन की ज़रूरी क्षमता के तेज़ विकास को आसान बनाया
इलेक्ट्रिक व्हीकल (EV) और फोटोवोल्टिक सेल जैसी हरित तकनीकों (ग्रीन टेक्नोलॉजी) का उत्पादन करने वाली अर्थव्यवस्थाओं और आक्रामक ढंग से हरित ऊर्जा की दिशा में बदलाव को देख रही अर्थव्यवस्थाओं के बीच मतभेदों को दूर करने का प्रतिरोध एक चुनौती है जो वैश्विक नीतिगत प्रतिक्रिया की राह को तय करेगी. गैर-नवीकरणीय ऊर्जा से दूर जाने की तरफ बदलाव, जिसने कॉप28 (संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन) में दुबई सर्वसम्मति उत्पन्न की, पर समन्वित प्रयास क्या इन मुद्दों पर पर्याप्त वैश्विक सहयोग प्राप्त करेंगे, ये अनुमान इस समय लगाना मुश्किल है.
ये सभी ऐसे मुद्दे हैं जो पिछले कुछ वर्षों के दौरान रायसीना डायलॉग के एजेंडे में प्रमुखता से शामिल रहे हैं और इस दौरान की चर्चा में दुनिया भर से अलग-अलग दृष्टिकोणों को जमा किया गया है. ये सिर्फ भारत का डायलॉग नहीं है बल्कि वास्तव में एक वैश्विक संवाद है जहां दुनिया भर की युवा आवाज़ों को भी प्रमुख भूमिका दी जाती है. भू-राजनीतिक, भू-आर्थिक और भू-तकनीकी दरारों की चुनौतियों का सामना कर रही दुनिया में रायसीना डायलॉग 2024 में और भी दिलचस्प होने की सभी संभावनाएं हैं क्योंकि हम और भी अधिक चुनौतीपूर्ण दुनिया का सामना कर रहे हैं और वैश्विक सहयोग की आवश्यकता सर्वोच्च हो गई है.
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