Author : Saberi Mallick

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Published on Jun 21, 2024 Updated 0 Hours ago

भारत में कॉम्प्रिहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन (CSE) को बनाए रखने के लिए सामुदायिक भागीदारी, मज़बूत नीतिगत समर्थन और तकनीकी आविष्कार को प्राथमिकता देने वाले समावेशी नज़रिए की ज़रूरत है.

भारत में व्यापक तौर ‘सेक्सुअलिटी’ शिक्षा: सांस्कृतिक संवेदनाओं को समझते हुए इन्हें लागू करने की चुनौतियां!

भारत में कॉम्प्रिहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन (CSE) एक अहम मोड़ पर खड़ी है. आज शिक्षा के प्रगतिशील लक्ष्यों और गहरी सांस्कृतिक जड़ों वाली संवेदनाओं के बीच तालमेल बनाया जा रहा है. इस लेख में हम भारत में CSE के बहुआयामी मंज़र की पड़ताल कर रहे हैं, जिसमें इसकी सफलताओं, झटकों और इसे किशोरों की पढ़ाई का मज़बूत और प्रभावी तत्व बनाने के लिए ज़रूरी संतुलित प्रयासों का विश्लेषण किया गया है.

 

सेक्सुअल हेल्थ की सटीक और समावेशी जानकारी की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता है. 2019 में किए गए एक अध्ययन में कहा गया था कि तमिलनाडु में कॉलेज के छात्र सेक्स को लेकर अपने समकक्षों से मिलने वाली जानकारी के भरोसे रहते हैं. यही नहीं, इस मामले में महिलाओं और लड़कियों पर विशेष रूप से असर डालने वाली सूचना का असंतुलन भी होता है; पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के मुताबिक़, 30.7 फ़ीसद पुरुषों की तुलना में केवल 21.6 प्रतिशत महिलाओं को ही एचआईवी एड्स के बारे में व्यापक जानकारी थी.

सेक्स, लैंगिकता, भूमिकाओं, सेक्सुअल पसंद-नापसंद, आनंद, अंतरंगता और प्रजनन के बारे में अहम जानकारी देकर CSE, जानकारी की इस खाई को पाट सकती है.

सेक्स, लैंगिकता, भूमिकाओं, सेक्सुअल पसंद-नापसंद, आनंद, अंतरंगता और प्रजनन के बारे में अहम जानकारी देकर CSE, जानकारी की इस खाई को पाट सकती है. 2021 में स्कूल पर आधारित सेक्स एजुकेशन को लेकर 80 लेखों की एक संस्थागत साहित्य समीक्षा में पाया गया था कि इसकी वजह से छात्रों के बीच लैंगिकता और इससे जुड़े नियमों की समझ बढ़ती है; जानकारी और ऐसे कौशल में बढ़ोत्तरी होती है, जो स्वस्थ संबंधों में मददगार बनती है और डेटिंग और अंतरंग संबंधों के साझीदारों से जुड़ी हिंसा में भी कमी आती है.

 

चुनौती इस बात की है कि CSE को ऐसे सामाजिक ढांचे के साथ जोड़ा जाए, जो अक्सर सेक्सुअलिटी को लेकर खुली परिचर्चाओं का विरोध करता है. सामाजिकता बढ़ाने के अहम संस्थान के तौर पर स्कूल ऐसे संवादों को प्रभावी ढंग से पहुंचा सकते हैं, जिनसे CSE देकर यौन स्वास्थ्य को बेहतर बनाया जा सकता है. सेक्सुअल हेल्थ के समर्थकों ने अधिकारों पर आधारित यौन शिक्षा का तरीक़ा लागू करने की मांग की है, जिसमें यौन स्वास्थ्य को लेकर सूचना ओर सेवाओं तक किशोरों की पहुंच के अधिकार को स्वीकार किया जाए. UNFPA के इंटरनेशनल टेक्निकल गाइडेंस ऑन सेक्सुअलिटी एजुकेशन (2018) में CSE को शिक्षा का पाठ्यक्रम पर आधारित प्रक्रिया माना है, जिसके दायरे में सेक्सुअलिटी के हर क्षेत्र पर व्यापक परिचर्चा शामिल है. इसका मक़सद सम्मानजनत रिश्तों और बच्चों को लेकर सोच-समझकर फ़ैसले लेने को प्रोत्साहन देना है.

 

भारत में स्कूल पर आधारित यौन शिक्षा नीति और कार्यक्रम

 

भारत में एड्स की शिक्षा के लिए कार्यक्रम (SAEP) सबसे पहले 2002 में शुरू किया गया था, ताकि यौन स्वास्थ्य, गर्भ निरोध और यौन संबंधों से होने वाली बीमारियों (STIs) की रोकथाम को लेकर भारत की राष्ट्रीय एड्स नीति का पालन करने वाली नीति लागू करने के लिए उपयोगी जानकारी और सलाह की सेवाएं मुहैया कराई जा सकें. 2006 में भारत सरकार ने रिप्रोडक्टिव चाइल्ड हेल्थ (RCH II) कार्यक्रम के तहत एडॉलसेंट रिप्रोडक्टिव ऐंड सेक्सुअल हेल्थ (ARSH) की महत्ता को स्वीकार किया था. उसी साल किशोरों को एचआईवी के संक्रमण के ख़तरों से निपटने के लिए जानकारी देने और इसी से जुड़ी सेक्सुअल और प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य की चिंताओं का सामना करने के लिए एडॉलसेंट एडुकेशन कार्यक्रम (AEP) को लागू किया गया था. 2010 में UNFPA से मोटे तौर पर सकारात्मक रिपोर्ट मिलने के बाद से, AEP का स्वतंत्र रूप से कोई और मूल्यांकन नहीं किया गया है.

 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति ने रिप्रोडक्टिव और सेक्सुअल हेल्थ का दायरा बढ़ाकर कम कैलोरी लेने, पोषण के स्तर और तकनीक के दुरुपयोग से जुड़ी मनोवैज्ञानिक समस्याओं को भी इसमें शामिल किया गया था. हालांकि, इसमें सेक्सुअलिटी का विषय शामिल नहीं किया गया.

RMNCH+A कार्यक्रम (रिप्रोडक्टिव, मैटरनल, न्यूबॉर्न, चाइल्ड ऐंड एडॉलसेंट हेल्थ) के अंतर्गत स्थापित की गई एडॉलसेंट फ्रेंडली हेल्थ क्लिनिक्स (AFHC) में सेक्स, लैंगिकता, शादी और गर्भधारण में देरी को लेकर सलाह मशविरा देने के साथ साथ, गर्भ निरोध और यौन संक्रामक/ एचआईवी की रोकथाम के लिए भी स्कूल के बाहर शिक्षा दी जाती है. 2014 में राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम के अंतर्गत शुरू किए गए राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम (RKSK) ने समकक्षों के द्वारा किशोरों की सेहत से जुड़े पांच अहम तत्वों की जानकारी देनी की ज़िम्मेदारी तय करके ARSH को मज़बूती दी. 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति ने रिप्रोडक्टिव और सेक्सुअल हेल्थ का दायरा बढ़ाकर कम कैलोरी लेने, पोषण के स्तर और तकनीक के दुरुपयोग से जुड़ी मनोवैज्ञानिक समस्याओं को भी इसमें शामिल किया गया था. हालांकि, इसमें सेक्सुअलिटी का विषय शामिल नहीं किया गया.

 

कॉम्प्रिहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन (CSE) को लेकर आम सहमति का निर्माण

 

रूढ़िवादियों के विरोध की वजह से AEP को 2007  में रोक दिया गया था. इस विरोध में यौन शिक्षा के विरोध के साथ साथ, पाठ्यक्रम के एक ख़ास हिस्से पर रोक लगाने से लेकर पाठ्यक्रम पूरी तरह ख़त्म करने की मांग भी शामिल थी.

 

अपने ऐतिहासिक अध्ययन ‘दि डिवीज़न ऑफ लेबर इन सोसाइटी’ (1893) में दुर्ख़ीम ने तर्क दिया है कि सामाजिक संस्थान साझा मूल्यों को बढ़ाते हैं, जो सामाजिक एकजुटता को बढ़ाता है. एक अहम सामाजिक संस्था के तौर पर स्कूलों से अपेक्षा की जाती है कि वो छात्रों में नियमों के मुताबिक़ व्यवहार और नज़रियों को मज़बूत बनाएं. ऐसे में CSE को यथास्थिति के लिए चुनौती माना जाता है क्योंकि इससे छात्रों को रिश्तों, परिवारों और लैंगिक भूमिकाओं से जुड़े नियमों को चुनौती देने के लिए शक्ति प्राप्त होती है. क्योंकि मूल्यांकनों से पता चलता है कि जिन छात्रों को CSE प्राप्त होती है, उनका लैंगिकता और समलैंगिकता को लेकर नज़रिया अधिक प्रगतिशील होता है. भारत में CSE के विरोध को हम सेक्सुअलिटी को लेकर आम तौर पर माने जाने वाले सांस्कृतिक नियमों और CSE द्वारा प्रोत्साहित किए जाने वाले स्वायत्तता के सिद्धांतों के टकराव के तौर पर समझ सकते हैं.

  स्कूल पर आधारित यौन शिक्षा से जुड़े कलंक को देखते हुए, अध्यापकों और सुविधाएं देने वालों को ऐसा कठिन प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए जिससे उनकी ग़लत अवधारणाओं का भी मूल्यांकन हो और इस तरह से वो छात्रों के सीखने के लिए खुला और सुरक्षित माहौल बनाने में सहायक बने.

इसके बावजूद, स्कूलों में यौन शिक्षा को लेकर कई मामलों में काफ़ी स्वीकार्यता देखने को मिली है. दक्षिण भारत के तटीय इलाक़ों में किशोर उम्र बच्चों के 233 अलग अलग वर्गों के अभिभावकों के ऊपर किए गए अध्ययन में पाया गया था कि अकादेमिक पाठ्यक्रम में सेक्स शिक्षा को आम तौर पर स्वीकार किया जा रहा था. सेक्स एजुकेशन के ऐसे कार्यक्रमों की सफलता के लिए समुदायों के साथ संपर्क बेहद अहम है: झारखंड में उड़ान का साहित्य और पाकिस्तान में सेक्सुअलिटी को लेकर व्यापक शिक्षण कार्यक्रमों में नियमित बैठकों,  सलाह मशविरों के सत्रों और आम सहमति बनाने के लिए सामुदायिक स्तर की गतिविधियों को काफ़ी महत्वपूर्ण मानते हुए उन पर ज़ोर दिया गया है. जिस सांस्कृतिक संदर्भ में सेक्स और सेक्सुअलिटी को जाना समझा जाता है, सेक्स शिक्षा के कार्यक्रमों को उस रूप-रेखा से अलग करके लागू करना संभव नहीं है. जहां पर सेक्सुअल और प्रजनन संबंधी चुनाव सामुदायिक स्तर पर होते हैं, वहां CSE के कार्यक्रमों को अलग अलग पीढ़ियों के बीच संवाद के समावेशी तरीक़े को बढ़ावा देने की कोशिश करनी चाहिए, न कि समुदाय से अलग केवल वैज्ञानिक तथ्य पढ़ाने चाहिए.

 

CSE लागू करने की प्रशासनिक और नीतिगत चुनौतियां

 

आम सहमति के अभाव के अतिरिक्त सेक्स एजुकेशन को प्रभावी तरीक़े से लागू करने में प्रशासनिक चुनौतियां भी बाधा बनती हैं. AEP को बढ़ावा देने वालों को प्रशिक्षित करना तो अनिवार्य है. लेकिन, दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता, प्रशिक्षित किए जाने वाले अध्यापकों और इस कार्यक्रम से लाभ उठाने वाले छात्रों की संख्या को लेकर स्थिति अस्पष्ट रहती है. स्कूल पर आधारित यौन शिक्षा से जुड़े कलंक को देखते हुए, अध्यापकों और सुविधाएं देने वालों को ऐसा कठिन प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए जिससे उनकी ग़लत अवधारणाओं का भी मूल्यांकन हो और इस तरह से वो छात्रों के सीखने के लिए खुला और सुरक्षित माहौल बनाने में सहायक बने.

 

सरकारी विभागों, NGOs और सामाजिक संगठनों के बीच निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की साझेदारी के तहत NGO के संसाधनों का उपयोग करके कार्यक्रमों को ज़्यादा टिकाऊ बनाया जा सकता है. यही नहीं, कार्यक्रम का स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन करने में भी NGO अहम भूमिका निभा सकते हैं. इस वक़्त निगरानी का अधिक ज़ोर प्रशासनिक सूचकांकों- जैसे कि प्रशिक्षण के कितने सत्र चलाए गए और कितने छात्र शामिल हुए- पर केंद्रित होता है. भागीदारों से सलाह मशविरे के साथ साथ प्रभाव का सख़्ती से मूल्यांकन किए जाने से सेवाओं और इस तरह के कार्यक्रमों की गुणवत्ता पर काफ़ी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हो सकती है. भारत में किशोरों के स्वास्थ्य से जुड़े कार्यक्रमों की फ़ुर्ती से की गई समीक्षा में पता चलता है कि संगठित ढांचों के अभाव में विभागों के बीच सहयोग करा पाना मुश्किल होता है. इस समीक्षा में एक औपचारिक रणनीति विकसित करने का सुझाव दिया गया है, जिसमें स्पष्ट व्यवस्थाएं, भूमिकाएं और ज़िम्मेदारियां तय हों, ताकि अर्थपूर्ण संपर्क बनाए जा सकें.

 

किशोरों की शिक्षा के कार्यक्रम (AEP) के प्रशिक्षण के संसाधनों की 2014 में की गई समीक्षा में पाठ्यक्रम के बेअसर डिज़ाइन को रेखांकित किया गया था. इससे प्रतीकात्मक जुमलों जैसे कि ‘जीवन के कौशल की शिक्षा’ का इस्तेमाल करके यौन शिक्षा में सेक्स पर पर्दा डालने की तरफ़ इशारा किया गया था. इसके अलावा, इस समीक्षा में पाया गया था कि सेक्स को गर्भ धारण और प्रजनन तक सीमित कर दिया गया था. किशोरों की सेहत को लेकर बाद में शुरू किए गए कार्यक्रमों (RKSK 2014 और NHP 2017) में भी इसी तरह सेक्सुअलिटी, सेक्सुअल विविधता, संबंधों और संचार के ज़िक्र से परहेज़ किया गया था, जबकि ये तो CSE के ज़रूरी तत्व हैं.

 भारत में कॉम्प्रिहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन (CSE) को बढ़ावा देने के लिए ख़ुद को ढाल लेने वाले ऐसे समावेशी नज़रिए की ज़रूरत है, जो सामुदायिक भागीदारी, मज़बूत नीतिगत समर्थन और तकनीकी आविष्कारों को अपनाने को प्रोत्साहन दे.

वैसे तो सेक्स एजुकेशन को सेक्स से बचने की शिक्षा तक सीमित रखने की मांग की जाती रही है. लेकिन, 2021 में की गई एक संस्थागत समीक्षा में पाया गया था कि जिन कार्यक्रमों में सेक्स से दूरी बनाने की वकालत की गई थी, वो सेक्स संबंधों की शुरुआत की उम्र और सेक्स के मामले में जोख़िम भरे व्यवहार, दोनों को कम कर पाने में नाकाम रहे थे. पाठ्यक्रम में सेक्सुअलिटी, गर्भ निरोधकों तक पहुंच को शामिल करने और स्वस्थ एवं सम्मानजनक रिश्ते बनाने जैसे बुनियादी मसलों पर स्पष्ट और खुली परिचर्चा को शामिल किया जाना ज़रूरी है. यही नहीं, कोर्स के मैटेरियल को लैंगिक और सेक्सुअल अल्पसंख्यों के लिए भी समावेशी बनाया जाना चाहिए.

 

सेक्स एजुकेशन देने में तकनीक को जोड़ने पर काफ़ी ज़ोर दिया जा रहा है. इसके अलावा किशोरों के आगे ऑनलाइन दुनिया में सेक्सुअलिटी से जुड़े कंटेंट की बाढ़ और सच्ची जानकारी की कमी की चुनौती भी है. भारत में 2023 में इंटरनेट की पहुंच की दर रिकॉर्ड स्तर पर थी. फिर भी ऑनलाइन उपलब्ध जानकारी की विश्वसनीयता किशोरों के यौन स्वास्थ्य के लिए एक चिंता बनी हुई है. इसी के साथ साथ, तकनीक पर आधारित कार्यक्रम जो टेक्स्ट मैसेज या मोबाइल और कंप्यूटर के ऐप का इस्तेमाल करते हों, उन्हें भी सेक्लुअल हेल्थ की व्यापक और निजी शिक्षा कुशलता से देने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. यहां वहां से चुने गए नमूनों के एक नियंत्रित परीक्षण में संकेत मिला था कि जो लोग यौन शिक्षा के वेब पर आधारित कार्यक्रमों से जुड़े थे, उनमें यौन स्वास्थ्य और सुरक्षित यौन संबंधों की जानकारी बढ़ी हुई दिखी थी.

भारत में कॉम्प्रिहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन (CSE) को बढ़ावा देने के लिए ख़ुद को ढाल लेने वाले ऐसे समावेशी नज़रिए की ज़रूरत है, जो सामुदायिक भागीदारी, मज़बूत नीतिगत समर्थन और तकनीकी आविष्कारों को अपनाने को प्रोत्साहन दे. इन रणनीतियों को अपनाकर भारत CSE की ऐसी रूप-रेखा विकसित कर सकता है, जो युवाओं के बीच यौन संबंधों को लेकर स्वस्थ, जानकारी भरे और सम्मानजनक संबंधों को बढ़ावा देता हो.

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