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ऐसे दौर में जब #मीटू आंदोलन अर्थव्यवस्था के विविध क्षेत्रों में प्रबल हो रहा है, तो किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के गांवों में इस अभियान का नामों निशां तक नहीं है।
ऐसे में दौर में जब #मीटू आंदोलन अर्थव्यवस्था के विविध क्षेत्रों में प्रबल हो रहा है, तो किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के गांवों में इस अभियान का नामों निशां तक नहीं है। ये मध्य और उच्च मध्य वर्ग की शिक्षित और सबल महिलाएं ही हैं, जिनमें कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न करने वालों के नाम सामने लाने की हिम्मत है। दूसरी ओर, हजारों ग्रामीण महिलाओं तथा छोटे कस्बों में रहने वाली महिलाओं को आए-दिन यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। उनकी जिंदगी का ताना-बाना लम्बे अर्से से मौजूद स्त्री द्वेष और मौजूदा भारत में गहरे जड़े जमाई पितृसत्ता में उलझा हुआ है। वे ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं और उनका मानना है कि इस तरह के यौन उत्पीड़न और प्रताड़ना सामान्य हैं। हरियाणा जैसे कुछ राज्यों में आज भी दहेज के लिए महिलाओं की हत्या कर दी जाती है और देश के कुछ हिस्सों में कन्या भ्रूण हत्या आज भी जारी है। परिवार की इज्जत के नाम पर भी लड़कियों की हत्या कर दी जाती है और लड़के-लड़कियों का अनुपात इतना बढ़ चुका है कि युवकों के लिए दुल्हन अन्य राज्यों से तलाशनी पड़ रही है।
आखिरकार गांव की रहने वाली कुम्हार जाति की गरीब भंवरी देवी ही थीं, जिनकी वजह से उच्चतम न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ फैसला सुनाया था। भंवरी देवी ने राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्र में सरकारी विभाग में काम करते समय बाल विवाह पर ऐतराज जताया था। सदियों पुरानी प्रथा को चुनौती देने के दुस्साहस की वजह से उनके साथ सामंती जमींदारों ने सामूहिक दुष्कर्म किया था। उनका मामला महिलाओं के हक के लिए आवाज उठाने वाले संगठन विशाखा ने 1997 में उठाया था और उसके बाद उच्चतम न्यायालय ने यह ऐतिहासिक फैसला सुनाया था।
दुर्भाग्यवश, ग्रामीण महिलाओं की परवरिश ही इस सोच के साथ की जाती है कि वे पुरुषों से हीन हैं और शादी के बाद उनके पति उन्हें पीटेंगे और उनके साथ बदसलूकी करेंगे। लड़के—लड़कियों में भेदभाव बहुत छोटी उम्र से शुरु हो जाता है और परिवार की माताएं और अन्य महिलाएं पितृसत्ता को मजबूत बनाती हैं और स्पष्ट तौर पर बेटियों से ज्यादा तरजीह अपने बेटों को देती हैं। दुखद बात यह है कि नवीनतम राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार सर्वेक्षण के अनुसार, 54.4 प्रतिशत ग्रामीण महिलाओं का मानना है कि घरों में होने वाला र्दुव्यवहार और हिंसा सामान्य बात है जबकि 46.8 प्रतिशत शहरी महिलाओं की भी यही सोच है।
जैसा कि हाल की मीडिया रिपोर्ट्स में छोटे कस्बों की कुछ महिलाओं ने बताया है कि यौन उत्पीड़न के बगैर आप काम नहीं कर सकतीं, क्योंकि नियोक्ता महिलाओं को रोजगार देने के एवज में इसी तरह की उम्मीदे रखते हैं। जिलों के छोटे सरकारी कार्यालयों में काम करने वाली महिलाओं को भी आए दिन क्लर्क और अधिकारियों की प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। अपने नियोक्ता की ओर से किए जा रहे यौन उत्पीड़न का विरोध करने वाली छोटे कस्बों की ज्यादातर महिलाओं को अपनी नौकरी गंवानी पड़ती है। जिनके पास आमदनी का कोई और जरिया नहीं होता, वे इस तरह के उत्पीड़न को सहने के लिए बाध्य होती हैं। बहुत सी ग्रामीण महिलाओं को सार्वजनिक परिवहन में होने वाले उत्पीड़न के कारण काम छोड़ना पड़ता है। वे उत्पीड़न करने वालों का मुकाबला करने और उन्हें अदालत में चुनौती देने से डरती हैं।
पुलिस और न्याय प्रणाली पर ज्यादा भरोसा नहीं होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे शहरों की कुछेक महिलाएं ही पुलिस के पास जाती हैं। ज्यादातर महिलाएं पुलिस के पास जाने से बचना चाहती हैं, क्योंकि वे उसे असंवेदनशील मानती हैं तथा इससे जुड़ी प्रक्रिया पर बहुत सा समय और संसाधन खर्च होते हैं और आखिर में लड़की या महिला की छवि को ही नुकसान पहुंचता है, जो गांवों और छोटे कस्बों में बहुत मायने रखती है। लड़कियों को अपनी तकलीफें छुपाने और तो और अपने करीबी रिश्तेदारों को भी न बताने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। वे जीवन भर दबी हुई और मानसिक तौर पर परेशान रहती हैं, क्योंकि गांवों में ज्यादातर यौन उत्पीड़न (यौन उत्पीड़न और प्रताड़ना के कुल मामलों में से 27%) रिश्तेदारों द्वारा ही किया जाता है जिनसे निपट पाना और अपने बचाव के लिए मदद मांग मान पाना महिलाओं के लिए मुश्किल होता है।
शिक्षा ने महिलाओं को कुछ साहसी बनाया है। स्कूली शिक्षा प्राप्त नहीं करने वाली 16 प्रतिशत महिलाओं ने घर या कार्यस्थल पर शारीरिक हिंसा की रिपोर्ट दर्ज कराई है जबकि ऐसी रिपोर्ट दर्ज कराने वाली स्कूली शिक्षा प्राप्त महिलाओं की संख्या 38 प्रतिशत है। निर्माण क्षेत्र में, 78 प्रतिशत पीड़िताएं यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट दर्ज नहीं करातीं।
लेकिन हकीकत यह है कि भारत की आबादी का आधा हिस्सा महिलाएं हैं, लेकिन जीडीपी में उनका योगदान केवल 17.1 प्रतिशत है। उनका आर्थिक योगदान वैश्विक औसत के आधे से भी कम है। चीन में, महिलाएं जीडीपी में 40 प्रतिशत योगदान देती हैं। विश्व बैंक के अनुसार, यदि भारत में 50 प्रतिशत महिलाएं श्रमशक्ति का हिस्सा बन जाएं, तो भारत की विकास दर में 1.5 प्रतिशत से 9 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी हो सकती है। लेकिन यदि महिलाएं, विशेषकर छोटे शहरों और गांवों की महिलाएं बदसलूकी और उत्पीड़न का शिकार होती रहेंगी, तो वे श्रमशक्ति का हिस्सा नहीं बनेंगी। मैकिंस्की ग्लोबल इंस्टीट्यूट द्वारा कराए गए एक अध्ययन के अनुसार, यदि ज्यादा महिलाएं श्रमशक्ति में योगदान देने लगें, तो भारत 2025 तक अपने जीडीपी में 60 प्रतिशत या 2.9 ट्रिलियन डॉलर तक की वृद्धि कर सकता है। श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी में कमी आ रही है और यह 1990 में 34.4 प्रतिशत से घटकर 2016 में 27 प्रतिशत रह गई। यह सरकार के लिए किसी तरह की उपलब्धि नहीं है, क्योंकि देश भर में महिलाओं की साक्षरता दर बढ़ने के बावजूद हजारों महिलाएं श्रमशक्ति से बाहर हो रही हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, प्रधानमंत्री मोदी ने सबके सामाजिक विकास का वादा किया है और महिलाओं पर केंद्रित कल्याण कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया है, लेकिन सुधारों के बावजूद, वह महिलाओं को श्रमशक्ति का हिस्सा बनने के लिए समर्थ बनाने में विफल रहे हैं, जो सुदृढ़ अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है।
महिलाएं श्रमशक्ति से बाहर होती जा रही हैं, इसलिए भारत की बेरोजगारी दर में वृद्धि हो रही है। सीएमआईई के अनुसार, नोटबंदी के दौरान महिलाएं श्रमशक्ति से बाहर हो गईं, लेकिन उसके बाद काम पर नहीं लौटीं। इनमें से ज्यादातर घरेलु नौकरानी, कैजुअल खेतीहर मजदूर या निर्माण स्थल पर काम करने वाली महिलाएं थीं। आए दिन होने वाले यौन उत्पीड़न के कारण वे शायद काम पर लौटने की इच्छुक नहीं हैं। राष्ट्रीय दैनिकों में आए दिन घरेलू नौकरानियों से होने वाले र्दुव्यवहार की खबरें छपती हैं। इनमें ज्यादातर झारखण्ड या मध्य प्रदेश जैसे गरीब राज्यों से महानगरों में आने वाली प्रवासी मजदूर होती हैं। यौन उत्पीड़न के बाद वे अपने घर लौट जाती हैं और कभी लौट कर नहीं आतीं।
उच्च आर्थिक वृद्धि और विश्व की तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था होने को लेकर हो रहे प्रचार पर विचार करें, तो थॉमसन रॉयटर्स द्वारा हाल ही कराए गए ग्लोबल परसेप्शन पोल का निष्कर्ष बेहद शर्मनाक हैं जिसमें कहा गया है कि भारत महिलाओं के लिए दुनिया का सबसे असुरक्षित देश है — जहां यौन हिंसा, सांस्कृतिक और परम्परागत प्रथाओं से होने वाला उत्पीड़न और मानव तस्करी का रिकॉर्ड बहुत खराब है। कार्यस्थलों, सार्वजनिक परिवहन और गांवों तथा शहरों में सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।
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Jayshree Sengupta was a Senior Fellow (Associate) with ORF's Economy and Growth Programme. Her work focuses on the Indian economy and development, regional cooperation related ...
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