Published on Sep 10, 2021 Updated 0 Hours ago

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) में सरकारी हिस्से की बिक्री से मौजूदा जारी विनिवेश योजना के तहत जो धन जुटाने का लक्ष्य रखा गया है और जो परिसंपत्तियों को लीज़ पर देने के बाद धन जुटाने का नया लक्ष्य है

छह लाख करोड़ रुपये की नेशनल मॉनेटाइज़ेशन पाइपलाइन – वास्तव में ऐसा होगा क्या?

मोदी सरकार ने पूरे चकाचौंध के साथ नई पहल की शुरुआत की है. 23 अगस्त को नेशनल मॉनेटाइजेशन पाइपलाइन (एनएमपी) की घोषणा की गई जो निराश नहीं करती है. इसका लक्ष्य चार वर्षों के दौरान (वित्तीय वर्ष 2022 से 2025 तक) सार्वजनिक क्षेत्र की चालू या चल रही संपत्तियों को लीज़ पर देकर 6 लाख करोड़ की पूंजी जुटाना है.

इस साल के लिए लक्ष्य, जबकि अब महज छह महीने ही बचे हैं, 0.9 ट्रिलियन रुपये जुटाने का है जबकि विनिवेश प्राप्तियां 0.75 ट्रिलियन रुपये की प्रस्तावित बज़ट का महज 10 फ़ीसदी ही है. वित्तीय वर्ष 2024 के लिए लक्ष्य, जो आम चुनाव से पहले का दौर होगा, इससे भी ज़्यादा 1.9 ट्रिलियन रुपये का है, जबकि वित्तीय  वर्ष 2025 में यह लक्ष्य 1.7 ट्रिलियन रुपये का रखा गया है.

इसके साथ भविष्य में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) में सरकारी हिस्से की बिक्री से मौजूदा जारी विनिवेश योजना के तहत जो धन जुटाने का लक्ष्य रखा गया है और जो परिसंपत्तियों को लीज़ पर देने के बाद धन जुटाने का नया लक्ष्य है, उससे गैर ऋण पूंजी प्राप्तियों से दोगुना होने की संभावना बढ़ जाती है जो वित्तीय वर्ष 2021 से 2024 के दौरान प्रति वर्ष जीडीपी का करीब 1 फ़ीसदी हो सकता है.

एनएमपी को इस तरह डिज़ाइन किया गया है कि साल 2019 में दूसरे महत्वपूर्ण ढांचागत व्यवस्था को विकसित करने की योजना के लिए सरकारी राजस्व के संसाधनों को बढ़ावा मिले, जहां केंद्र और राज्य सरकार मिलकर वित्तीय वर्ष 2025 तक 111 ट्रिलियन रुपये की अनुमानित व्यय के लिए 45 फ़ीसदी राशि की मदद करेंगे, जबकि शेष 55 फ़ीसदी राशि का इंतजाम ऋण वित्तपोषित होगा. 

एनएमपी को इस तरह डिज़ाइन किया गया है कि साल 2019 में दूसरे महत्वपूर्ण ढांचागत व्यवस्था को विकसित करने की योजना के लिए सरकारी राजस्व के संसाधनों को बढ़ावा मिले, जहां केंद्र और राज्य सरकार मिलकर वित्तीय वर्ष 2025 तक 111 ट्रिलियन रुपये की अनुमानित व्यय के लिए 45 फ़ीसदी राशि की मदद करेंगे, जबकि शेष 55 फ़ीसदी राशि का इंतजाम ऋण वित्तपोषित होगा. नेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) के तहत कुल 8160 परियोजनाएं हैं, जिनमें 23 फ़ीसदी परियोजनाओं पर काम हो चुका है, हालांकि अभी भी इसमें उम्मीद के मुताबिक तेजी नहीं आई है.

एनआईपी का लक्ष्य सार्वजनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर निवेश को दोगुना करने के साथ ही इसे जीडीपी के 10 फ़ीसदी तक ले जाने का है जो 12 वीं पंचवर्षीय योजना 2012 -17 के दौरान, जिसमें यूपीए और मोदी सरकार के शुरुआती साल भी शामिल हैं, अभी 5.8 फ़ीसदी तक ही पहुंचा है  (जबकि लक्ष्य 9 फ़ीसदी का है).

लेकिन चिंता की बात यह है कि अतीत के संकेत बहुत ज़्यादा मददगार नहीं हैं. दो दशकों से इन्फ्रास्ट्रक्चर निवेश स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के दौरान जीडीपी (2002-2007) के 5.2 फ़ीसदी से लेकर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के तहत जीडीपी (2007-2012) के 7.2 फ़ीसदी के बीच नीचे ऊपर होती रही है. वैश्विक अनिश्चितताओं और मंदी के मद्देनजर इस संकेत से प्रमुख तौर पर अलग होते हुए या तो अतिमहत्वाकांक्षी होने के चलते नाकाम हो सकते हैं या फिर अगर इसे प्राप्त कर लिया जाता है तो यह वास्तव में परिवर्तनकारी साबित हो सकता है.

आर्थिक पहलू


जैसा कि एनएमपी ने प्रदर्शन किया, एनआईपी की शुरुआत के दो साल बाद और महामारी के दौरान, यह साफ है कि यह एक रणनीति के तहत लिया गया फैसला था जो घरेलू आर्थिक मंदी के अचानक और प्रतिकूल वित्तीय नतीजों से निपटने के लिए लिया गया था, जो कोरोना महामारी के चलते आई वैश्विक मंदी के कारण और बढ़ गया जिसका नतीजा यह हुआ कि पहले से गिरी हुई जीडीपी के आंकड़ों में और कमी आई, जिससे राजकोषीय घाटा और सार्वजनिक ऋण के स्तर में बढ़ोतरी हुई.

चल रहीं सार्वजनिक संपत्तियों का मॉनेटाइजेशन बेहद ज़रूरी गैरऋण बज़टीय पूंजी प्राप्तियों का स्रोत है जो वित्तीय तौर पर तर्कसंगत है, और कॉरपोरेट द्वारा ऋण कम करने की योजना के लिए लागू की जाती है, जिससे मांग से जुड़ी आर्थिक मंदी से निपटा जा सके.

मॉनेटाइजेशन की ओर कदम बढ़ाने की बड़ी वजह पहले दो वित्तीय पहल की रफ़्तार का सुस्त रहना है. एक तो निजीकरण है – सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में ज़्यादातर सरकारी हिस्सेदारी की बिक्री जिसमें मैनेजमेंट नियंत्रण का हस्तानांतरण शामिल है – जिसे लेकर 1999 से कोशिशें जारी हैं लेकिन  जिसकी रफ़्तार कुछ कामयाबी के बाद धीमी पड़ गई . ख़ास कर तब जब इसे लेकर राजनीतिक विरोध- जिसमें बीजेपी भी शामिल थी, बढ़ता गया.

एनएमपी की शुरुआत करने के दौरान बार-बार वित्त मंत्री द्वारा यह भरोसा दिलाना कि कुछ भी बेचा नहीं जा रहा है, इस बात की ओर इशारा करता है कि “खानदानी गहने” बेचने को अभी भी राजनीतिक रूप से आत्महत्या करने जैसा माना जाता है, मतलब “आर्थिक सुधारों को अंजाम देना” राजनीतिक ताने-बाने से बंधा हुआ है.

दूसरा कदम पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) का था जिसे साल 2010 में शुरू किया गया, लेकिन जो सरकारी व्यवस्था के समर्थन के बगैर औंधे मुंह गिर पड़ा, सख़्त कॉन्ट्रैक्ट और नियम जिनका मकसद सरकार के फैसलों में “ज़ीरो रिस्क” को बढ़ावा देना था, जिसने सार्वजनिक और व्यापारिक गतिविधियों के रास्ते में बाधा खड़ी कर दी. 2015 की केलकर कमेटी की रिपोर्ट अब अपनी उपयोगिता खो चुकी है जिसमें मॉनेटाइजेशन समेत सुधारात्मक कई सुझाव दिये गए थे.

मई 2020 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने निवेश के एक विकल्प के तौर पर गैर-रणनीतिक महत्व वाले सार्वजनिक उपक्रमों के “निजीकरण” के प्रति ज़बर्दस्त दिलचस्पी दिखाई. लेकिन एयर इंडिया का निजीकरण भी कोरोना महामारी संबंधित आर्थिक अवरोधों की भेंट चढ़ गया.

एनएमपी की शुरुआत करने के दौरान बार-बार वित्त मंत्री द्वारा यह भरोसा दिलाना कि कुछ भी बेचा नहीं जा रहा है, इस बात की ओर इशारा करता है कि “खानदानी गहने” बेचने को अभी भी राजनीतिक रूप से आत्महत्या करने जैसा माना जाता है, मतलब “आर्थिक सुधारों को अंजाम देना” राजनीतिक ताने-बाने से बंधा हुआ है.

नएमपी – वित्तीय संसाधन को बढ़ावा देने का उदार राजनीतिक विकल्प

मॉनेटाइजेशन राजनीतिक रूप से एक सुरक्षित विकल्प है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि “कम शेयरों का विनिवेश” करना “खानदानी गहने को बेचने” की राजनीतिक लक्ष्मण रेखा को पार करना नहीं माना जाता है.

मॉनेटाइजेशन के तहत ख़ास परिसंपत्तियों को 15 से 30 साल तक निजी निवेशकों को लीज़ पर देने का प्रस्ताव है, जो या तो इन संपत्तियों को कॉरपोरेट के तहत रख सकते हैं या फिर ख़ास तौर पर बनाये गये निवेश ट्रस्ट (InvIT), जो कि सेबी से मान्यता प्राप्त होंगे, उसके साथ इसे रख सकते हैं और कुछ शेयरों को लोगों के लिए जारी कर सकते हैं. निवेश ट्रस्ट ख़ास तौर पर लंबे समय के लिए उन निवेशकों को आकर्षित करते हैं जो सुरक्षित और पेशेवर तरीके से व्यवस्थित विकल्पों की ओर देखते हैं.

सरकार को सालाना लीज़ रेंट मिलने या पट्टेदार द्वारा इसे बेहतर मानने से फायदा होता है, जो लाभ के उस हिस्से को दिखाता है जितना लाभ कमाने की उम्मीद पट्टेदार द्वारा की जाती है.

पट्टे के माध्यम से मॉनेटाइजेशन के अतिरिक्त लाभ

सरकार द्वारा प्राप्त मूल्य के संबंध में मॉनेटाइजेशन “अल्पसंख्यक शेयरों के विनिवेश” को पीछे कर देता है. लेकिन “निजीकरण” के मुकाबले यह छोटा विकल्प है. उन्हीं परिसंपत्तियों के अंतर मूल्यांकन का संबंध मैनेजमेंट नियंत्रण के स्तर से होता है जो सरकार द्वारा सत्तान्तरित किया जाता है – लेकिन विनिवेश में कुछ नहीं, निजीकरण में पूरा और पट्टा देने में पूरा लेकिन अस्थायी होता है.

अगर ठीक से किया गया तो मॉनेटाइजेशन मध्यम आकार के इन्फ्रास्ट्रक्टर उद्यमियों का एक नया वर्ग तैयार कर सकता है. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम को खरीदना मुख्यतौर पर पैसों का खेल है. लेकिन कुछ संपत्तियां अगर पट्टे पर उपलब्ध होंगी, तो नये उद्यमी जिनके पास कुल पूंजी बहुत ज़्यादा नहीं है वो भी इंफ्रास्ट्रक्चर से संबंधित परिसंपत्तियों में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित कर पायेंगे. 

निवेशक मैनेजमेंट नियंत्रण को काफी महत्व देते हैं, क्योंकि लाभ को बढ़ाने में इसकी काफी भूमिका होती है. पूर्ण मैनेजमेंट नियंत्रण के महत्व को बढ़ाने का असर सूची में शामिल सार्वजनिक उपक्रमों की बाज़ार की पूंजी के अंतर में आई तेजी पर होता है. अगस्त 2011 से बीएसई सार्वजनिक उपक्रम इंडेक्स को बाज़ार  पूंजीकरण में नुकसान हुआ – यहां तक कि सूची में शामिल निजीकरण योग्य सार्वजनिक उपक्रम जैसे मारुति ने अपनी बाज़ार पूंजीकरण को 6 गुना बढ़ाया जिससे बीएसई सेंसेक्स में 3 गुना तेजी आई.

आने वाली पीढ़ी के लिए मध्य आकार के इंफ्रास्ट्रक्चर उद्यमियों के लिए मदद

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की उत्पादकता को बगैर उद्यमों के मालिकाना प्रोफाइल बदले मॉनेटाइजेशन के जरिये कारोबार को पुर्नगठित कर बढ़ाया जा सकता है. विकास के लिए पूंजी पैदा करने के अलावा उत्पादन को बढ़ाने के लिए ख़ास हिस्से के लिए रणनीति तैयार करने में मदद करता है जिसमें कारोबार के किसी ख़ास हिस्से को पट्टे पर देना शामिल होता है. इसमें बाय बैक की भी गारंटी होती है – यह सेवा क्षेत्र में कारोबारी प्रक्रिया को आउटसोर्स करने जैसा ही होता है.

अगर ठीक से किया गया तो मॉनेटाइजेशन मध्यम आकार के इन्फ्रास्ट्रक्टर उद्यमियों का एक नया वर्ग तैयार कर सकता है. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम को खरीदना मुख्यतौर पर पैसों का खेल है. लेकिन कुछ संपत्तियां अगर पट्टे पर उपलब्ध होंगी, तो नये उद्यमी जिनके पास कुल पूंजी बहुत ज़्यादा नहीं है वो भी इंफ्रास्ट्रक्चर से संबंधित परिसंपत्तियों में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित कर पायेंगे. एकाधिकार की स्थिति बनाने से दूर एनएमपी नई पीढ़ी के इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश करने वालों का एक नया वर्ग तैयार करेगा.

निजी प्रबंधन और पूंजी के द्वारा सार्वजनिक परिसंपत्तियों को पुनर्जीवित करने के लिए एक योजना लंबे समय के लिए स्थिर रिटर्न – इंश्योरेंस कंपनियां, पेंशन और स्वतंत्र पूंजी निधि समेत निवेशकों को आकर्षित कर सकती है. विस्तार  किये गए प्रतिस्पर्द्धी कीमत तक पहुंच, दीर्घकालीन पूंजी निवेश, सरकारी संसाधनों को जोड़ने के बाद एनआईपी खर्च के अंतर को 55 फ़ीसदी(60 ट्रिलियन रुपए)तक पहुंचा सकती है.

मॉनेटाइजेशन के नुक़सान के प्रति सावधानी

यह सच है कि निजीकरण की तरह ही सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार को लेकर व्यवधान पैदा होंगे. क्योंकि पट्टेदार प्रमुख मैनेजरों की नियुक्ति के लिए स्वतंत्र रहना चाहेगा, हालांकि कुशल कर्मचारी कंपनी के अंदर बने रहेंगे. एक विकल्प साकर्मिक (कर्मचारियों समेत) पट्टे का है, जिसमें पट्टेदार संपत्ति को लेता तो है लेकिन रोजगार की सुरक्षा की गारंटी भी देता है. इससे पट्टे के किराये का भुगतान कम करना पड़ेगा,लेकिन जब बेहतर नौकरियां कम हैं तो ये एक अच्छा विकल्प है.

क्या सेवाओं के लिए ली जाने वाली कीमत में बदलाव से ग्राहकों को आघात पहुंचता है?  ऐसा दो वजहों से नहीं होता है. पहला, ज़्यादातर परिचालित इन्फ्रास्ट्रक्चर संपत्तियां (ऊर्जा ट्रांसमिशन लाइन्स, प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम पाइपलाइन्स, पोर्ट जेटर्स, एयरपोर्ट)नियंत्रित शुल्क के साथ आती हैं जो कीमत के आधार पर तय होती हैं या फिर प्रतिस्पर्धात्मक बिडिंग के जरिये सेवा के लाइसेंस के दौरान प्राप्त होता है. रेलवे के जिन सेवाओं को लीज़ पर दिया जायेगा उनकी प्रतिस्पर्द्धा, शुल्क नियंत्रण, सरकार के स्वामित्व वाली रेल सेवाओं से होगी. पट्टेदार द्वारा किसी अतिरिक्त विकास या पुनर्स्थापन करने की शर्तें सेक्टर को नियंत्रण करने वाली संस्था या फिर संबंधित प्रशासनिक सरकारी विभाग तय करेगा जैसा कि गोदामों को लेकर होता है.

टेलिकॉम और हवाई यातायात से संबंधित सेवाओं के निजीकरण होने से ग्राहकों के लिए इसकी कीमतों में कमी आई है. उपभोक्ता कीमतों में बढ़ोतरी नहीं करने से पट्टेदार के लिए कारोबार में नुकसान उठाने का जोख़िम बना रहता है. ख़ास कर पट्टे पर दी गई परिसंपत्तियों और नियंत्रकों की अनिश्चितता को लेकर निजी निवेशकों से किये जाने वाले भेदभाव भी इसके लिये जिम्मेदार होते हैं.

 सीधे तौर पर निजीकरण ना कर सार्वजनिक संपत्तियों का मॉनेटाइजेशन करना दूसरा सबसे बेहतर विकल्प है. पट्टेदारी बदलाव समझौते को ख़त्म करना दुखदायी हो सकता है

मॉनेटाइजेशन अगर गलत तरीके से होता है तो इससे क्रोनी कैपिटिलिज्म को बढ़ावा मिलता है जो उद्योगपतियों के समूह द्वारा अपने-अपने क्षेत्रों में नियंत्रण बढ़ाने का नतीजा होता है. लेकिन एकाधिकार को भी नियंत्रित किया जा सकता है. संविदात्मक आकस्मिक ख़र्च से निपटने के लिए बिजली, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस, एयरपोर्ट और पोर्ट समेत प्रशासनिक विभाग जैसे रेलवे, कोयला एवं खनिज, ज़मीन से यातायात और भारत के प्रतिस्पर्द्धा कमीशन को आम लोगों के हितों के प्रति सावधान रहने की ज़रूरत है.

ठीक से डिज़ाइन किए गए संविदा स्पेक्ट्रम, ऊर्जा संवर्धन और कोयला खनन में सफल रहे हैं. अच्छे तरीके से डिज़ाइन किए गए संविदाओं में ज़्यादा संविदा भरने वालों की भागीदारी सुनिश्चित की जाती है ना कि सरकार को फायदा पहुंचाने या क्षमता विस्तार के जरिए अप्रत्यक्ष आर्थिक फायदे को लेकर बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं. मॉनेटाइजेशन को पट्टे पर दी गई संपत्तियों से बढ़ी हुई सरकारी प्राप्तियों से पहले एक परीक्षण से गुजरना चाहिए. एक विकल्प मात्र इस संभावना को लेकर है कि मौजूदा परिचालित नुकसान को कम कर सकता है जैसा कि एयर इंडिया के साथ  हुआ है.

सीधे तौर पर निजीकरण ना कर सार्वजनिक संपत्तियों का मॉनेटाइजेशन करना दूसरा सबसे बेहतर विकल्प है. पट्टेदारी बदलाव समझौते को ख़त्म करना दुखदायी हो सकता है. हालांकि मौजूदा प्रभावी विनिवेश प्रक्रिया को लेकर यह ज़्यादा बेहतर विकल्प है — सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में सरकारी अल्पसंख्यक हिस्सेदारी की बिक्री – सीधे बज़टीय प्राप्तियों और विकास पर अप्रत्यक्ष सकारात्मक आर्थिक असर के साथ कर राजस्व और रोजगार के मद्देनजर यह ठीक है. दरअसल यह वो विचार है जिसका समय अब आ चुका है.

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