हालिया वैश्विक महामारी और आपूर्ति श्रृंखला में रुकावटों से भरी दुनिया में हमने 75वां विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाया. मौजूदा साल अस्थिरता से भरे इस वक़्त में “सबके लिए स्वास्थ्य” की विषय-वस्तु रखी गई है. इस लक्ष्य को ज़मीन पर उतारने के लिए राष्ट्रीय मेडिकल भंडारण की परिकल्पना पर नए सिरे से नज़र डाले जाने की ज़रूरत होगी. वैसे तो इस पर गाहे-बगाहे परिचर्चा होती रही है, लेकिन मौजूदा परिदृश्य में गतिशील भंडारण के एक नए मॉडल का इस्तेमाल कर इस क़वायद को आगे बढ़ाए जाने की दरकार है.
घरेलू तौर पर जमा किए जाने का विकल्प आकर्षक दिखाई देता है, लेकिन अहम दवाओं के उत्पादन से जुड़ी समूची प्रक्रिया (APIs से लेकर मेडिकल प्रौद्योगिकी और टीकों से लेकर तैयार दवाओं तक) को दोबारा भारत में आधार देना नामुमकिन है. ऐसे में आपात परिस्थितियों से निपटने के लिए राष्ट्रीय भंडारण की ज़रूरत दिखाई देती है.
भंडारण तंत्र की आवश्यकता
पहली दो लहरों के दौरान कोविड-19 से जुड़े हालात ने कई मसलों को बेपर्दा कर दिया. भारत के संदर्भ में PPE के अपर्याप्त उत्पादन के साथ-साथ दवाओं के सक्रिय घटकों (APIs) और कच्चे मालों को लेकर आयात पर निर्भरता जैसे मसले इनमें शामिल हैं. कोरोना की तीसरी लहर की आशंका में जून 2021 तक केंद्र और राज्य सरकारों ने नाज़ुक और अहम मेडिकल सामानों को भंडारित कर लिया था. इसके साथ ही APIs और तैयार दवाओं की आपूर्ति बढ़ाने के लिए विनिर्माताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम भी शुरू कर दिया गया था. हालांकि इन तमाम क़वायदों को महज़ अल्पकाल के लिए ही अंजाम दिया गया था. भविष्य में स्वास्थ्य के मोर्चे पर किसी तरह का आपातकाल आने पर इन भंडारणों का कोई भी हिस्सा वजूद में है या नहीं, इस बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. घरेलू तौर पर जमा किए जाने का विकल्प आकर्षक दिखाई देता है, लेकिन अहम दवाओं के उत्पादन से जुड़ी समूची प्रक्रिया (APIs से लेकर मेडिकल प्रौद्योगिकी और टीकों से लेकर तैयार दवाओं तक) को दोबारा भारत में आधार देना नामुमकिन है. ऐसे में आपात परिस्थितियों से निपटने के लिए राष्ट्रीय भंडारण की ज़रूरत दिखाई देती है.
सार्वजनिक स्वास्थ्य के मोर्चे पर किसी भी तरह की आपात परिस्थिति से निपटने की क्षमता तैयार करने में दीर्घकालिक राष्ट्रीय भंडारण एक अहम घटक है. इससे महामारी/स्थानीय स्तर पर फैले संक्रमणों के शुरुआती दिनों को आसान बनाने में मदद मिलती है. ग़ौरतलब है कि ऐसी आपात परिस्थितियों में तत्कालीन तौर पर मौजूद सीमित आपूर्ति हासिल करने की होड़ मच जाती है, जबकि इनके उत्पादक, उत्पादन बढ़ाने के लिए तमाम ज़रूरी औज़ार जुटाने की जद्दोजहद कर रहे होते हैं.
भंडारणकर्ता की श्रेणियां
मोटे तौर पर मेडिकल भंडारण की चार मुख्य श्रेणियां हैं: विनिर्माता के स्तर का भंडारण, प्रयोगकर्ता के स्तर का भंडारण, राज्य-स्तरीय भंडारण और राष्ट्रीय-स्तर का भंडारण.
विनिर्माता के स्तर का भंडारण
ये कोई आदर्श स्थिति नहीं है. इसकी वजह ये है कि आपूर्ति-श्रृंखला से जुड़ी रुकावटों के ख़िलाफ़ राष्ट्र हित में बचावकारी क़वायद के तौर पर दवा निर्माताओं (दवाओं, टीकों और उपकरणों समेत) को कच्चे मालों का एक निर्धारित स्तर बनाए रखने को कहा जा सकता है. हालांकि तैयार उत्पादों के मामले में ये आदर्श स्थिति नहीं होगी. ऐसा करने से लागत बढ़ जाएगी, जिससे उनकी प्रतिस्पर्धी क्षमता को चोट पहुंचेगी. ज़ाहिर तौर पर मध्यम से दीर्घकाल में ये व्यवस्था ग़ैर-टिकाऊ हो जाएगी. इससे जुड़ा एक प्रसंग 2017 में अमेरिका में सामने आया था. उस साल अमेरिकी सामरिक राष्ट्रीय भंडारण ने विक्रेताओं द्वारा प्रबंधित अपने तमाम भंडारों को ख़त्म कर दिया था. विक्रेताओं को उत्पादों के भंडारण के लिए भुगतान किए गए थे, साथ ही ख़राब होने की तारीख़ से पहले उन उत्पादों की बिक्री की छूट भी दे दी गई थी. लागत-प्रतिस्पर्धा से जुड़ी चिंताओं और पर्याप्त तैयारी और तैनाती कर पाने में नाकामी के चलते ऐसे क़दम उठाए गए थे.
प्रयोगकर्ता/अस्पताल-स्तरीय भंडारण
ये एक आसान समाधान लगता है, क्योंकि भंडारण का भार सीधे तौर पर अंतिम-प्रयोगकर्ता के कंधों पर जाता है. संक्रमण का प्रकोप फैलने की शुरुआती परिस्थितियों में किल्लतों के सामने आने की आशंका रहती है. हालांकि ये क़वायद अपने साथ नियामक कार्रवाइयों का भारी बोझ लाती है, जिसके चलते तमाम तरह के मसले पैदा होते हैं. आकलनों के मुताबिक 2019 में भारत में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के अस्पतालों की कुल तादाद 69,000 थी. इन तमाम अस्पतालों में उचित रूप से सेवा योग्य/प्रयोग के लायक़ और समापन की तिथि से पहले वाली भंडारण व्यवस्था सुनिश्चित करना नियामकों के लिए बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होगी.
इसके साथ ही अस्पतालों/प्रयोगशालाओं द्वारा गोदाम वाली जगहों को ढूंढने और वस्तुओं के लिए परिवर्तनशील भंडारण हालातों को पूरा करने की लागत बढ़ जाएगी. वैसे तो इस मसले पर प्रामाणिक जानकारियां दुर्लभ रही हैं, फिर भी पाकिस्तान के लाहौर स्थित 195 बिस्तरों वाले कैंसर अस्पताल के आकलन के मुताबिक ऑक्सीजन, PPE, दवाओं और प्रयोगशाला से जुड़े तत्वों के भंडारण की लागत 2 लाख अमेरिकी डॉलर रहने का आकलन लगाया गया है. साथ ही इसकी मासिक लागत 430 अमेरिकी डॉलर होने का अनुमान जताया गया है. अक्सर ख़बरें आती हैं कि भारत में तमाम निजी अस्पताल वित्तीय मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. साथ ही उन्हें नियामक क़वायदों का बोझ भी झेलना पड़ता है. ऐसे में अस्पतालों के स्तर पर आधारभूत, "तेज़ी से बदलते" उपकरणों, जैसे N95 मास्क, सिरिंज आदि के भंडारणों को अनिवार्य बनाना विशाल और बेहतर रूप से वित्त-पोषित अस्पतालों के लिए ही मुमकिन हो सकेगा.
राज्य-स्तरीय भंडारण
चूंकि "सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता" भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची में है, लिहाज़ा उपयुक्त भंडारण स्थापित करने में राज्यों को अगुवा भूमिका निभानी चाहिए. भारत विशाल देश है, साथ ही जलवायु और आर्थिक रूप से विविधताओं से भरा है. ऐसे में राज्यों के स्तर पर भंडारण की सुविधाएं स्थापित किए जाने से स्थानीय स्वास्थ्य ज़रूरतों को पूरा करने में आसानी होगी. मिसाल के तौर पर हैजे के ज़्यादा मामलों वाले पश्चिम बंगाल में हैजे के टीके के भंडारण की क़वायद हिमाचल प्रदेश (जहां हैजे के मामले कम है) से कहीं ज़्यादा मूल्यवान होगी. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (NDMP), 2019 के मुताबिक "संक्रामक रोगाणुओं से मुक्त करने की पर्याप्त प्रणालियों, क्रिटिकल केयर ICUs और आइसोलेशन वार्ड की स्थापना" के साथ-साथ "जैविक आपात परिस्थितियों से निपटने की क़वायद में लगे तमाम स्वास्थ्य कर्मियों के लिए पर्याप्त PPE" मुहैया कराने के लिए राज्यों को ज़िम्मेदार बनाया गया है.
साल 2008 में राष्ट्रीय आपदा राहत बल द्वारा सामने रखी गई एक रिपोर्ट में इस बात की तस्दीक़ की गई थी कि PPEs, दवाओं और अन्य अहम मेडिकल साज़ोसामानों के लिए राज्य-स्तर पर किसी तरह का भंडारण मौजूद नहीं था. ये परिस्थिति अब भी जस की तस है. राज्यों के कमज़ोर वित्त और भारी कर्ज़ों को देखते हुए इसमें बड़े पैमाने पर किसी तरह के बदलाव के आसार भी नहीं हैं. दूसरी ओर राजनीतिक फ़ायदा उठाने की होड़ के चलते राज्यसत्ता के सीमित संसाधनों को दीर्घकालिक भंडारण में निवेश करने किए जाने को वरीयता दिए जाने की कोई संभावना दिखाई नहीं देती. इतना ही नहीं राजनीतिक विरोध और ख़रीद-फरोख़्त की सियासत के मायने ये हैं कि सभी राज्यों में ऐसी ज़रूरतों को आगे बढ़ाना एक विशालकाय चुनौती बन जाएगी. कार्यकारी भंडारणों की स्थापना के लिए सभी राज्यों को रज़ामंद कर लेना एक आदर्श स्थिति होगी. हालांकि इन हालातों में भी सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी राष्ट्रीय आपदा के दौरान राज्यों के बीच तालमेल बनाने की क़वायद में कई तरह के मसले पैदा हो सकते हैं. इसका मतलब यही है कि ये व्यवस्था राष्ट्रीय-स्तर के भंडारण की जगह नहीं ले सकती. दरअसल NDMP 2019 में साफ़ तौर पर ये कहा गया है कि “दीर्घकालिक T3” मियाद में “टीकों और एंटीबायोटिक्स आदि ज़रूरी मेडिकल आपूर्तियों का भंडारण” “ज़िम्मेदारी केंद्र” के मातहत आता है.
राष्ट्रीय मेडिकल भंडारण: एक पहेली
अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम (UK), कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और फ़िनलैंड जैसे देशों में राष्ट्रीय मेडिकल भंडारण पर अमल किया गया है. इन देशों के अनुभवों से कुछ प्रासंगिक समस्याएं सामने आई हैं. सबसे बड़ी समस्या ये है कि राष्ट्रीय भंडारणों की ये व्यवस्था खुले तौर पर पीढ़ियों में एक बार सामने आने वाली घटनाओं के हिसाब से तय की गई है. ये पूरी प्रक्रिया इस विचार पर आधारित है कि ऐसे हालात उभरने तक तमाम चिकित्सा साज़ोसामानों को अनिश्चित काल (या जब तक उनका इस्तेमाल हो सके) के लिए संजोकर रखा जाना चाहिए. इन्हीं वजहों से भंडारणों की इस व्यवस्था को सामान्य वक़्त में वित्त-पोषण के हिसाब से निम्न वरीयता दी जाने लगती है. इससे निपटने के लिए ये तमाम तरह की नीतियां अपनाते हैं. इनमें ख़राब होने की तिथि का विस्तार (स्थिरता और गुणवत्ता परीक्षण के ज़रिए), ख़राब हो चुके भंडार की वापसी और भंडार को उलट-पुलट करना शामिल हैं.
NDMP 2019 में साफ़ तौर पर ये कहा गया है कि “दीर्घकालिक T3” मियाद में “टीकों और एंटीबायोटिक्स आदि ज़रूरी मेडिकल आपूर्तियों का भंडारण” “ज़िम्मेदारी केंद्र” के मातहत आता है.
बहरहाल ये क़वायद बेअसर रही है. कई समीक्षाओं से ज़ाहिर हुआ है कि ऐसे भंडारणों के संदर्भ में ख़राब हो चुके/अनुपयोगी पदार्थों (जिन्हें बदला नहीं गया है) के रूप में बड़ी समस्याएं सामने आती हैं. साथ ही मेडिकल साज़ोसामानों, चिकित्सकीय तौर-तरीक़ों और दवाओं में उन्नति की रफ़्तार से क़दम से क़दम मिलाने में नाकामयाबी भी सामने आई है. इस सिलसिले में इन्फ्लूएंजा महामारी के ख़तरे पर ज़रूरत से ज़्यादा तवज्जो दी गई और उसी हिसाब से भंडारणों को आगे बढ़ाया गया. ये भंडार कोविड-19 जैसे एक अलग तरह के ख़तरे के लिए उपयोगी नहीं हैं.
गतिशील भंडारण: समाधान की अहम कड़ी
इनमें से कुछ मसलों को दूर करने के लिए हम ‘गतिशील भंडारण’ वाली व्यवस्था अपना सकते हैं. इसमें सरकार अहम वस्तुओं के लिए ख़ासतौर से ‘न्यूनतम आवश्यक ज़रूरत’ (जैसे सालाना मास्क उपभोग का X प्रतिशत) तय कर सकती है.
इसके बाद वो मास्क के लिए नियमित और बड़े सौदे कर सकती है. इसके लिए घरेलू विनिर्माताओं को वरीयता दी जा सकती है. इन्हें नियमित रूप से क़िस्तों में इनकी डिलिवरी करने को कहा जा सकता है. इस कड़ी में कुल ऑर्डर एक वक़्त पर ‘न्यूनतम आवश्यक ज़रूरतों’ से ज़्यादा हो सकते हैं. ऑर्डर का आकार बड़ा होने पर सरकार बड़े पैमाने पर रियायतों के लिए सौदेबाज़ी कर सकती है. जैसे-जैसे मास्कों की हरेक क़िस्त निर्देशित भंडारण से ऊपर प्राप्त होती जाती है, पहले से रखे पुराने भंडारों की बिक्री या नीलामी (घरेलू या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर) की जा सकती है. बाज़ार क़ीमतों पर, या अगर व्यावहारिक हो तो उससे भी निम्न मूल्य पर इसे अंजाम दिया जा सकता है. इन क़िस्तों को बिक्री के लिए छोटी-छोटी इकाइयों में बांटा जा सकता है. इस प्रकार ‘गतिशील भंडारण’ अनेक फ़ायदों के साथ परिवर्तनकारी क़वायदों को आगे बढ़ाता है.
पहला, नियमित रूप से बेचे जाने से ये सुनिश्चित होगा कि कोई भी साज़ोसामान एक्सपायर ना हो. सरकार द्वारा उपकरणों की दोबारा बिक्री की मियाद साफ़-साफ़ बताए जाने से अंतिम उपयोगकर्ता इसे अपने ख़रीद कार्यक्रम के साथ एकीकृत कर पाने में कामयाब रहेंगे. मुमकिन है कि इस तरह उन्हें बाज़ार के मुक़ाबले बेहतर क़ीमत भी हासिल हो जाए.
दूसरा, सौदों के नियमित नवीकरण से ये सुनिश्चित हो सकेगा कि भंडारित किए सामान, बाज़ार मानकों के हिसाब से हों. सरकार द्वारा समय-समय पर अपनी ज़रूरतों पर पुनर्विचार किए जाने से ये क़वायद मुमकिन हो सकेगी. विनिर्माता भी इस मोर्चे पर सरकार पर दबाव डाल सकेंगे ताकि पुराने पड़ चुके उत्पादों की उत्पाद श्रृंखला को आगे जारी रखने से परहेज़ किया जा सके.
तीसरा, सरकार द्वारा ख़रीद पर थोक में रियायतें हासिल किए जाने के मद्देनज़र बाज़ार क़ीमतों पर या उससे कम में दोबारा बिक्री से उसे ख़रीद की पूरी लागत संभालने में कामयाबी मिल जाएगी. इतना ही नहीं, क़ीमत के हिसाब से वो आंशिक रूप से या पूरी तरह से भंडारण लागतों से पार पा लेगी. हालांकि विनिर्माताओं को साथ जोड़ने के लिए प्रोत्साहन कारी क़वायदों के तौर पर मुनाफ़ा-साझा करने वाले मॉडल पर काम किए जाने की दरकार होगी. इससे लागत मूल्य के ऊपर अतिरिक्त मुनाफ़ा सुनिश्चित किया जा सकेगा. इससे भंडारण लागतों के विस्तार को रोका जा सकेगा. अगर सरकार चिकित्सा से जुड़ी विशाल इकाइयों के साथ दीर्घकालिक पुनर्बिक्री समझौतों पर दस्तख़त करती है तो वित्तीय जोख़िमों को और घटाना मुमकिन हो सकेगा. यक़ीनन मूल्य में उतार-चढ़ावों के चलते हमेशा ही जोख़िम बने रहेंगे. हालांकि उपयुक्त बचाव व्यवस्था और कम से कम आंशिक लागतों को बाज़ार द्वारा संभाले जाने की क़वायदों के ज़रिए इसकी रोकथाम की जा सकती है. भले ही ये रकम ख़रीद मूल्य से नीचे ही क्यों ना हो!
सरकार द्वारा समय-समय पर अपनी ज़रूरतों पर पुनर्विचार किए जाने से ये क़वायद मुमकिन हो सकेगी. विनिर्माता भी इस मोर्चे पर सरकार पर दबाव डाल सकेंगे ताकि पुराने पड़ चुके उत्पादों की उत्पाद श्रृंखला को आगे जारी रखने से परहेज़ किया जा सके.
सौ बात की एक बात ये है कि कच्चे माल का आपात भंडार बरक़रार रखने के लिए दवा कंपनियों और चिकित्सा साज़ोसामान विनिर्माताओं के बीच आपस में जुड़ी आवश्यकता-सूची बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है. मिसाल के तौर पर बड़े अस्पतालों के लिए मेडिकल ऑक्सीजन और मास्क का सुरक्षित भंडार क़ायम रखना निहायत ज़रूरी है. इसी तरह राज्यों के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य के संदर्भ में प्रासंगिक वस्तुओं का भंडारण अनिवार्य हो जाता है. हालांकि इन तमाम क़वायदों के नतीजतन राष्ट्रीय चिकित्सा भंडारण (केंद्र सरकार की निगरानी में) की ज़रूरत से हमारा ध्यान नहीं हटना चाहिए. इस भंडार को स्थानीय संक्रमणों/महामारियों से लेकर आपूर्ति श्रृंखला में रुकावटों जैसे परिवर्तनशील मसलों के हिसाब से वितरित किया जा सकता है. गतिशील भंडारण को शामिल किए जाने से सरकार इनमें से कई मसलों (जिनका दूसरे देश सामना कर रहे हैं) से बचकर निकलने में कामयाब हो जाएगी. इस तरह कार्यकारी रूप से पहले से कहीं ज़्यादा तत्पर और वित्तीय रूप से मज़बूत राष्ट्रीय मेडिकल भंडारण व्यवस्था तैयार हो सकेगी.
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