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भारतीय नागरिकों द्वारा स्वास्थ्य देखभाल और चिकित्सा आदि में किए जाने वाले ख़र्च को लेकर पिछले दशक में किए गए शोध अध्ययनों के मुताबिक़ स्वास्थ्य में आउट-ऑफ-पॉकेट खर्च (OOPE) यानी अपनी जेब से किए जाने वाले ख़र्च ने लोगों की आर्थिक सेहत ख़राब की है. अध्ययनों के अनुसार इस वजह से हर साल 3 से 7 प्रतिशत भारतीय परिवार ग़रीबी रेखा के नीचे जाने पर विवश हो जाते हैं. इसके अलावा, देश के ऐसे राज्यों में जहां ग्रामीण आबादी अधिक है और ग़रीबी ज़्यादा है, वहां इसका प्रभाव अधिक दिखाई देता है. ज़ाहिर है कि वंचित समूह के लोगों पर स्वास्थ्य के लिए अपनी जेब से पैसे ख़र्च करने पर सबसे अधिक वित्तीय बोझ पड़ता है. यही वजह है कि हाल-फिलहाल में भारत की स्वास्थ्य नीति में यह ऐसा मुद्दा बनकर उभरा है, जिस पर सबसे अधिक तवज्जो दी गई है. भारत सरकार ने 25 सितंबर 2024 को वर्ष 2020-21 और 2021-22 की अवधि के दौरान भारत के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा (NHA) अनुमानों को जारी किया है. ज़ाहिर है कि यही वो साल हैं, जिनमें भारत के हेल्थ सेक्टर में निवेश में बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. इस वर्षों के आंकड़ों से पता चलता है कि स्वास्थ्य में आउट-ऑफ-पॉकेट खर्च में तेज़ कमी दिखाई दी है.
NHA के वर्ष 2021-22 के लिए जो ताज़ा अनुमान जारी किए गए हैं, उन पर अगर नज़र डाली जाए तो पिछले दशक के दौरान स्वास्थ्य से संबंधित गतिविधियों को वित्तपोषित करने के मामले में ज़बरदस्त बदलाव दिखाई देता है.
NHA के वर्ष 2021-22 के लिए जो ताज़ा अनुमान जारी किए गए हैं, उन पर अगर नज़र डाली जाए तो पिछले दशक के दौरान स्वास्थ्य से संबंधित गतिविधियों को वित्तपोषित करने के मामले में ज़बरदस्त बदलाव दिखाई देता है. वर्ष 2013-14 और 2021-22 (चित्र 1) के बीच, स्वास्थ्य के लिए OOPE में यानी निजी खर्च में अच्छी-ख़ासी कमी दिखती है. यानी वर्ष 2013-14 में स्वास्थ्य में जो आउट-ऑफ-पॉकेट खर्च 64.2 प्रतिशत था, वो वर्ष 2021-22 में घटकर 39.4 प्रतिशत हो गया है. सरकार द्वारा वर्ष 2021-22 के ताज़ा आंकड़े जारी किए गए हैं और यह वही वर्ष जब कोरोना महामारी की वजह से सरकार द्वारा स्वास्थ्य पर किए जाने वाले ख़र्च में बढ़ोतरी की ज़रूरत थी. लेकिन सरकारी स्वास्थ्य खर्च के जो आंकड़े जारी किए गए हैं, वो बताते हैं पूरे दशक के दौरान कमोवेश यही स्थिति रही है, यानी सरकार की ओर से हेल्थ सेक्टर में निवेश लगातार बढ़ाया गया है. आंकड़ों से स्पष्ट हैं कि इस दौरान सरकारी स्वास्थ्य खर्च (GHE) 28.6 प्रतिशत से बढ़कर 48.0 प्रतिशत हो गया. ज़ाहिर है कि OOPE का लगातार कम होना और GHE का लगातार बढ़ना भारत की हेल्थ पॉलिसी के लिहाज़ के बेहद ऐतिहासिक उपलब्धि है और कई सालों की कोशिशों के बाद इस प्रकार की सकारात्मक स्थिति बन पाई है.
स्रोत: भारत सरकार की अलग-अलग NHA रिपोर्टों के आधार पर लेखक द्वारा जुटाए गए आंकड़े
पिछले दशक के दौरान ऐसा भी देखने को मिला है, जब सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के प्रतिशत के रूप में कुल स्वास्थ्य खर्च (THE) में कमी आई (चित्र 2). कहने का मतलब यह है कि देश में राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा हेल्थ सेक्टर में अधिक खर्च किया गया, जिससे स्वास्थ्य से जुड़े कामकाजों के लिए वित्तपोषण में बढ़ोतरी हुई है और इससे कहीं न कहीं भारतीय परिवारों पर स्वास्थ्य देखभाल के लिए अपनी ओर से ख़र्च करने में भारी कमी दर्ज़ की गई. इतना ही नहीं, सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में निवेश बढ़ाने के बावज़ूद आम नागरिकों द्वारा स्वास्थ्य देखभाल के लिए अपनी जेब से किए जाने वाले खर्च का प्रतिशत 39.4 बना हुआ है, जिसे आने वाले वर्षों में कम करना एक बड़ी नीतिगत चुनौती बनी हुई है. अगर 2021-22 के आंकड़ों पर नज़र डालें तो भारत को अभी भी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (NHP) 2017 के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए बहुत कुछ करने की ज़रूरत है. इस नीति का लक्ष्य वर्ष 2025 तक स्वास्थ्य पर होने वाले सरकारी खर्च को सकल घरेलू उत्पाद के 2.5 प्रतिशत तक पहुंचाना है.
स्रोत: भारत सरकार की अलग-अलग NHA रिपोर्टों के आधार पर लेखक द्वारा संकलित.
देखा जाए तो सरकारों की तरफ से स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए जो भी ख़र्च किया जाता है, उसका लगभग दो-तिहाई हिस्सा राज्य सरकारों द्वारा और एक-तिहाई हिस्सा केंद्र सरकार द्वारा वहन किया गया है. चित्र 3 में दिए गए आंकड़ों से साफ पता चलता है कि महामारी के दौरान केंद्र सरकार द्वारा स्वास्थ्य पर होने वाले ख़र्च में वृद्धि की गई थी. यह भी देखने में आया है कि वर्ष 2022 के बाद से केंद्र सरकार द्वारा स्वास्थ्य के क्षेत्र के लिए आवंटित किए जाने वाले बजट का पूरा इस्तेमाल ही नहीं हो पाया. इसी वजह से बजट अनुमानों की तुलना में साल के आख़िर में बड़ी धनराशि बगैर उपयोग के बाक़ी रह गई. देखने में यह भी आया है कि बजट में हेल्थ सेक्टर के लिए आवंटित की जाने वाली राशि को ख़र्च करने में तमाम बाधाओं और उसके बैगर उपयोग के बचे रहने के बावज़ूद एवं महामारी की वजह से स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए आपातकालीन फंडिंग की ज़रूरत कम होने के बाद भी केंद्र सरकार द्वारा हेल्थ सेक्टर के लिए बजट आवंटन में कोई कमी नहीं की गई है. इतना ही नहीं, महामारी के दौरान स्वास्थ्य क्षेत्र के बजट में जो वृद्धि की गई थी, वो बरक़रार है. सरकार के इन क़दमों से यह भी संभावना है कि भविष्य में स्वास्थ्य के लिए लोगों द्वारा अपनी जेब से ख़र्च करने में और कमी आएगी. केंद्र सरकार द्वारा 70 साल से अधिक उम्र के सभी नागरिकों को आयुष्मान भारत – प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना यानी AB-PMJAY में शामिल करने के निर्णय के साथ ही इस योजना में सरकारी अस्पतालों को सार्वजनिक प्रणाली में धन वापस डालने का प्रस्ताव दिया गया है. ज़ाहिर है कि इससे सरकार द्वारा स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए दिए जाने वाले बजट के बगैर उपयोग के बचे रह जाने की संभावना समाप्त हो जाएगी.
स्रोत: भारत सरकार की अलग-अलग NHA रिपोर्टों के आधार पर लेखक द्वारा इकट्ठे किए गए आंकड़े.
ऐसे में यह ज़रूरी है कि भारत में राज्यों की सरकारें एवं केंद्र सरकार इस बात का विशेष ध्यान रखें कि देश में सरकारी स्वास्थ्य खर्च किसी भी सूरत में महामारी काल के पहले के स्तर पर नहीं पहुंचे, यानी इसमें गिरावट नहीं आए. ज़ाहिर है कि ऐसा होने पर ही भारत 2025 तक स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च को जीडीपी के 2.5 प्रतिशत तक पहुंचाने के राष्ट्रीय लक्ष्य को हासिल कर सकता है. कुल मिलाकर, इसके लिए स्वास्थ्य सुविधाओं पर सरकारी खर्च को लगातार बढ़ाने की ज़रुरत होगी और इसके लिए राज्य सरकारों एवं केंद्र सरकार, दोनों को ही अपने स्तर पर प्रयास करने होंगे. संवैधानिक दृष्टि से देखा जाए तो स्वास्थ्य राज्यों का मसला होता है, यानी लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराना राज्य सरकारों की प्रमुख ज़िम्मेदारी होती है. उम्मीद थी कि जिस प्रकार से केंद्र सरकार द्वारा कर वसूली से प्राप्त धनराशि में राज्यों की हिस्सेदारी को उन्हें सौंपने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं, उससे उन्हें अधिक धन मिलेगा, जिससे वे स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार में अधिक राशि ख़र्च कर पाएंगे. ज़ाहिर है कि 13वें वित्त आयोग ने वर्ष 2010-2014 के दौरान साझा करने योग्य केंद्रीय करों की शुद्ध आय में से राज्यों को 32 प्रतिशत हिस्सा देने की बात कही थी, वहीं 14वें वित्त आयोग वर्ष 2015-2019 की अवार्ड अवधि के दौरान राज्यों की हिस्सेदारी को 42 प्रतिशत तक करने की सिफ़ारिश की थी. लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि राज्यों को मिलने वाली इस रकम को स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं में बढ़ोतरी के लिए खर्च नहीं किया जा सका. गौरतलब है कि आमतौर पर महामारी के बाद दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा जाती हैं, उम्मीद है कि भारत का हेल्थ सिस्टम उस दुष्चक्र में नहीं फंसेगा.
भारत में एक तरफ हेल्थ सेक्टर में निवेश को बढ़ाया गया है, साथ ही ऐसी कई सारी पहलों की भी शुरुआत की गई है, जो स्वास्थ्य और चिकित्सा आदि पर आउट-ऑफ-पॉकेट खर्च (OOPE) को कम करने में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बेहद कारगर हैं. ऐसी सरकारी पहलों में AB-PMJAY सबसे चर्चित है. नागरिकों को मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा देने वाली इस योजना को केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा मिलकर संचालित किया जाता है. इसकी शुरुआत वर्ष 2018 में की गई थी और इस योजना के अंतर्गत अब तक 6.9 करोड़ लोगों का अस्पतालों में मुफ्त इलाज किया जा चुका है. ऐसी ही एक दूसरी पहल प्रधानमंत्री राष्ट्रीय डायलिसिस कार्यक्रम (PMNDP) है, जिसकी शुरुआत वर्ष 2016 में की गई थी. इस योजना की चर्चा कम होती है, लेकिन इससे अब तक 25 लाख ग़रीबों को लाभ मिल चुका है. इस योजना के अंतर्गत देश भर के 748 जिलों में 1530 केंद्र स्थापित किए गए हैं, जहां 10,000 से अधिक हेमोडायलिसिस मशीनों से ग़रीबों को मुफ्त डायलिसिस की सुविधा प्रदान की जा रही है. इसी प्रकार से भारत में 2018 में आयुष्मान आरोग्य मंदिर (AAMs को पहले आयुष्मान भारत स्वास्थ्य एवं कल्याण केंद्र कहा जाता था) योजना शुरू की गई थी. इसके तहत देश भर में, ख़ास तौर पर ग्रामीण इलाक़ों में 1.75 लाख आयुष्मान आरोग्य मंदिर कार्यरत हैं, जहां व्यापक स्तर पर लोगों को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं.
ऐसी ही एक दूसरी पहल प्रधानमंत्री राष्ट्रीय डायलिसिस कार्यक्रम (PMNDP) है, जिसकी शुरुआत वर्ष 2016 में की गई थी. इस योजना की चर्चा कम होती है, लेकिन इससे अब तक 25 लाख ग़रीबों को लाभ मिल चुका है.
AAM योजना के अंतर्गत ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में मौज़ूदा उप-स्वास्थ्य केंद्रों (एसएचसी) और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) को उन्नत किया जाता है. इसके साथ ही AAM में मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य देखभाल के अलावा, गैर-संचारी रोगों का उपचार एवं निवारक, उपचारात्मक और पुनर्वास सेवाएं, दांतों से जुड़ी बीमारियों का इलाज, आंखों का उपचार एवं ईएनटी चिकित्सा सेवाएं और मानसिक स्वास्थ्य उपचार, आपात स्थिति में प्राथमिक स्तर की देखभाल जैसी विभिन्न स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं. आयुष्मान आरोग्य मंदिरों में मरीज़ों को ज़रूरी दवाएं भी मुफ्त में प्रदान की जाती हैं, साथ ही तमाम स्वास्थ्य जांच भी की जाती हैं. देखा जाए तो कई मरीज़ तबीयत बहुत ख़राब होने पर ही अस्पतालों का रुख करते हैं. ज़ाहिर है कि अगर ग्रामीण इलाक़ों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का बेहतर बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर मौज़ूद हो, तो मरीज़ों के गंभीर स्थित तक पहुंचने से पहले की कई बीमारियों का इलाज हो सकता है. गौरतलब है कि घर के नज़दीक अगर सभी चिकित्सा सुविधाओं से युक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र मौज़ूद हों, तो न केवल ऐसी गंभीर परिस्थितियों से बचा जा सकता है, बल्कि चिकित्सा के लिए परिवारों के ख़र्च को भी कम किया जा सकता है, साथ ही अस्पतालों में मरीज़ों की बढ़ती भीड़ पर भी काबू पाया जा सकता है. चित्र 4 में दिए गए आंकड़ों पर नज़र डालें, तो पता चलता है कि देश में 80 प्रतिशत से अधिक सरकारी स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर यानी उप-स्वास्थ्य केंद्रों एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का आयुष्मान आरोग्य मंदिर के रूप में उन्नयन पहले ही किया जा चुका है. यह प्राथमिक स्तर की स्वास्थ्य सेवाओं को सशक्त करने की दिशा में सरकार के अभूतपूर्व प्रयासों को प्रदर्शित करता है.
स्रोत: विभिन्न सरकारी स्रोतों से लेखक द्वारा जुटाए गए आंकड़े.
इसी प्रकार से आमजन को किफ़ायती दरों पर दवाएं उपलब्ध कराने वाली केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना (PMBJP) भी है. इस योजना के अंतर्गत नागरिकों को काफ़ी कम क़ीमत पर दवाएं मिलती हैं, जिससे बीमारी के इलाज में उन पर आर्थिक बोझ कम पड़ता है. एनडीए सरकार की PMBJP ख़ास तौर पर ग़रीब तबके के लोगों के लिए बेहद फायदेमंद साबित हो रही है. देखा जाए तो इस योजना को पूर्व की यूपीए सरकार ने वर्ष 2008 में शुरू किया था और वर्ष 2015 तक इसके अंतर्गत देश भर में सिर्फ़ 80 मेडिकल स्टोर ही खोले गए थे. हाल के वर्षों में पूरे देश में केंद्र सरकार की इस योजना का बहुत तेज़ी से विस्तार हुआ है (चित्र 5), जिससे नागरिकों को किफ़ायती दरों पर दवाएं मिल रही हैं और परिवारों का हज़ारों करोड़ रुपया बच रहा है. इन्हीं सब सरकारी पहलों की वजह से पिछले दशक के दौरान स्वास्थ्य पर होने वाले लोगों के निजी ख़र्च में कमी दर्ज़ की गई है.
स्रोत: भारत सरकार के PMBJP पोर्टल से लेखक द्वारा इकट्ठे किए गए आंकड़े
भारत में सरकार द्वारा प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर किए जाने ख़र्च एवं प्रति व्यक्ति ओओपीई के आंकड़ों पर नज़र डालें तो सारी तस्वीर समझ में आ जाती है. (चित्र 6) इन आंकड़ों के मुताबिक़ वर्ष 2004-05 से 2021-22 के दौरान भारत में सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं पर किए जाने वाले खर्च में अभूतपूर्व बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. वर्ष 2004-05 में प्रति व्यक्ति जो सरकारी स्वास्थ्य खर्च 465 रुपये था, वो वर्ष 2021-22 में बढ़कर प्रति व्यक्ति 2018 रुपये तक पहुंच गया. इससे साफ पता चलता है कि हेल्थ सेक्टर में सरकारी निवेश में लगातार निवेश बढ़ा है और लोगों तक सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच में भी बढ़ोतरी हो रही है. इस सबके पीछे देश में हुआ आर्थिक विकास और हेल्थ सेक्टर के लिए संसाधनों में बढ़ोतरी करना है, साथ ही महामारी जैसे हालातों से निपटने के लिए स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए बजट आवंटन में बढ़ोतरी है. देश में OOPE हालांकि अभी भी बहुत अधिक बना हुआ है. आंकड़ों के मुताबिक़ वर्ष 2015-16 में स्वास्थ्य पर जेब से होने वाला खर्च यानी आउट-ऑफ-पॉकेट खर्च प्रति व्यक्ति 2,063 रुपये था, जो कि सबसे अधिक था. बाद के वर्षों में इसमें गिरावट आनी शुरू हुई और वर्ष 2021-22 तक आते-आते यह 1,657 रुपये प्रति व्यक्ति रह गया. इसके अलावा, प्रति व्यक्ति OOPE और GHE के बीच का अंतर भी समय के साथ कम होता गया है. वर्ष 2021-22 में OOPE की तुलना में प्रति व्यक्ति सरकारी स्वास्थ्य खर्च अधिक हो गया. इससे साफ पता चलता है कि लोगों द्वारा स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाओं पर किए जाने वाले निजी ख़र्च में कमी आई है और इससे इस दिशा में सरकारों द्वारा किए गए उल्लेखनीय प्रयासों के लाभ भी प्रकट होते हैं. इस लेख में पहले चर्चा की गई है कि देश में स्वास्थ्य पर किए जाने वाले समग्र ख़र्च में OOPE की हिस्सेदारी आज भी बहुत अधिक बनी हुई है और यह कुल स्वास्थ्य खर्च का लगभग 40 प्रतिशत है. ज़ाहिर है कि इस OOPE को और कम करना एक मुश्किल चुनौती बनी हुई है.
स्रोत: भारत सरकार द्वारा विभिन्न NHA रिपोर्टों से जुटाई गई जानकारी के आधार पर लेखक द्वारा की गई गणना
हेल्थ सेक्टर में सरकार द्वारा वर्तमान में जिस गति से निवेश किया जा रहा है, उसे बरक़रार रखे जाने की बहुत अधिक ज़रूरत है, क्योंकि ऐसा करके ही जीडीपी के 2.5 प्रतिशत का सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ख़र्च करने के लक्ष्य को हासिल करने के क़रीब पहुंचा जा सकता है. स्वास्थ्य में OOPE को और कम करने के लिए सरकार द्वारा हाल-फिलहाल में कई क़दम उठाए गए हैं, लेकिन फिर भी इस दिशा में चुनौतियां क़ायम हैं. उदाहरण के तौर पर भारत में जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता के लिए एक सशक्त वितरण प्रणाली तो स्थापित हो चुकी है, लेकिन देश में अभी भी गुणवत्तापूर्ण दवाओं की उपलब्धता एक बड़ी चुनौती है, साथ ही दवा निर्माण से जुड़े नियम-क़ानून को सख़्त करने का काम भी लटका हुआ है. देश में नकली दवाओं के निर्माताओं की आज भी सरकारी अस्पतालों में दवाओं की आपूर्ति प्रणाली में घुसपैठ है. हाल ही में महाराष्ट्र में ऐसा ही मामला सामने आया था, जिसमें सरकारी अस्पतालों में आपूर्ति करने वाले नकली दवाओं के रैकेट का पर्दाफ़ाश हुआ था. AB-PMJAY जहां द्वितीय एवं तृतीय श्रेमी यानी कम गंभीर और अधिक गंभीर स्थिति में स्वास्थ्य देखभाल एवं उपचार पर ध्यान केंद्रित करती है, वहीं AAM योजना प्राथमिक स्तर पर व्यापक चिकित्सीय देखभाल पर आधारित है. यह दोनों की योजनाएं आगे बढ़ रही हैं और लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान कर रही हैं, लेकिन इनकी क़ामयाबी के लिए यानी लोगों को अच्छी से अच्छी चिकित्सा सुविधा के लिए सरकारी और निजी अस्पतालों के बीच हर स्तर पर बेहतर तालमेल में फिलहाल कई खामियां, जिन्हें दूर करने की सख़्त ज़रूरत है. इसके अलावा, दुर्लभ किस्म की बीमारियों का इलाज भी भारत में एक बड़ी समस्या है और लोगों की आवश्यकताओं के लिहाज़ से इस बारे में नीतिगत क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है.
हेल्थ सेक्टर में सरकार द्वारा वर्तमान में जिस गति से निवेश किया जा रहा है, उसे बरक़रार रखे जाने की बहुत अधिक ज़रूरत है, क्योंकि ऐसा करके ही जीडीपी के 2.5 प्रतिशत का सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ख़र्च करने के लक्ष्य को हासिल करने के क़रीब पहुंचा जा सकता है.
पूरी दुनिया के सामने महामारी ने यह सिद्ध कर दिया है कि स्वास्थ्य के विषय को कतई हल्के से नहीं लिया जा सकता है और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज़ से स्वास्थ्य का मुद्दा बेहद महत्वपूर्ण है. भारत में हेल्थ सेक्टर में निवेश अभी भी बहुत अधिक नहीं हो रहा है, ऐसे में एक हिसाब से दरकिनार कर दिए गए स्वास्थ्य क्षेत्र को अगर सुधारना है, तो स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता, स्वच्छता एवं लोगों के लिए आवास उपलब्ध कराने पर ध्यान दिए जाने और इसके लिए पूंजीगत खर्च को बढ़ाने की ज़रूरत है. ज़ाहिर है कि अगर इस तरह की कोशिशें क़ामयाब होती हैं, तो भारत न केवल स्वास्थ्य में होने वाले आउट-ऑफ-पॉकेट खर्च में अभूतपूर्व कमी लाने में सफल होगा, बल्कि पूरी दुनिया के सामने एक उदाहरण बनकर भी उभरेगा. ऐसा होने पर भारत की सफलता से दुनिया भर के विकासशील देश सबक लेंगे और भारत द्वारा उठाए गए क़दमों को अपने यहां लागू करेंगे.
ओमन कुरियन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो और हेल्थ इनीशिएटिव के प्रमुख हैं.
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