Published on Jul 29, 2023 Updated 0 Hours ago

म्यांमार के विस्थापन संकट पर भारत की प्रतिक्रिया ने सरकार को कठिन स्थिति में डाल दिया है क्योंकि वो घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय- दोनों भागीदारों के तुष्टिकरण की कोशिश कर रही है

म्यांमार में सैन्य विद्रोह के बाद भारत में बढ़ता विस्थापन का मुद्दा
म्यांमार में सैन्य विद्रोह के बाद भारत में बढ़ता विस्थापन का मुद्दा

1 फरवरी 2021 को म्यांमार में सैन्य विद्रोह के बाद से सैन्य सरकार की क्रूर कार्रवाई से बचने के लिए एक लाख से ज़्यादा म्यांमार के नागरिक अपना देश छोड़कर या तो भारत चले गए हैं या थाईलैंड. लगभग 16,000 से ज़्यादा म्यांमार के नागरिक जोखिम मोल लेते हुए सुरक्षित आश्रय की तलाश में भारत के चार सीमावर्ती राज्यों- मणिपुर, मिज़ोरम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में चले गए. म्यांमार के ज़्यादातर नागरिकों ने मिज़ोरम में प्रवेश किया है. जुलाई के मध्य में चिन राज्य के मुख्यमंत्री के मिज़ोरम में आने के बाद म्यांमार के 9,247 नागरिक यहां आ चुके थे. 

एक तरफ़ भारत को हर हाल में म्यांमार की सैन्य सरकार के साथ नाज़ुक संतुलन को बरकरार रखना है ताकि वो नाराज़ न हो; दूसरी तरफ़ उसे मिज़ोरम की अलग राय से भी निपटना है.

म्यांमार और मिज़ोरम के बीच 510 किलोमीटर की साझा सीमा अत्याचार से बचने के लिए भागने वाले म्यांमार के नागरिकों के लिए प्राथमिक प्रवेश बिंदु बन गया है. म्यांमार के विस्थापन संकट पर भारत की प्रतिक्रिया ने सरकार को कठिन स्थिति में डाल दिया है क्योंकि वो घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय- दोनों भागीदारों के तुष्टिकरण की कोशिश कर रही है. एक तरफ़ भारत को हर हाल में म्यांमार की सैन्य सरकार के साथ नाज़ुक संतुलन को बरकरार रखना है ताकि वो नाराज़ न हो; दूसरी तरफ़ उसे मिज़ोरम की अलग राय से भी निपटना है. म्यांमार से विस्थापित होकर आने वाले लोगों की और संख्या को आने से रोकने के लिए भारत ने बिना कंटीली तार वाली सीमा के सभी प्रवेश बिंदुओं को सील करने के लिए कहा है. 10 मार्च 2021 को गृह मंत्रालय ने सीमा साझा करने वाले राज्यों को निर्देश दिया कि सीमा पार से लोगों के भीतर घुसने को रोका जाए. गृह मंत्रालय ने अवैध प्रवासियों की पहचान, उनको हिरासत में लेने और वापस भेजने के भी निर्देश दिए. 

लेकिन इस आदेश को लेकर मिज़ोरम के लोगों की प्रतिक्रिया अच्छी नहीं थी क्योंकि यहां के लोग म्यांमार के चिन राज्य के निवासियों के साथ गहरी जातीय और पारिवारिक संबंध साझा करते हैं. म्यांमार के विस्थापित लोगों के मामले से निपटना मिज़ोरम में एक भावनात्मक और संवेदनशील मुद्दा बन गया है. मिज़ोरम का राज्य प्रशासन इस मामले में केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ जा चुका है. मिज़ोरम सरकार ने विस्थापित लोगों के लिए सुरक्षा की मांग की है क्योंकि मिज़ोरम के लोग उन्हें अपने भाई की तरह मानते हैं और चिन समुदाय की साझा जातीय पहचान है. 

चिन समुदाय के लोग उन अल्पसंख्यक जातीय समूहों में से एक हैं जो 1962 से ही म्यांमार की सेना के हाथों व्यापक जातीय और धार्मिक अत्याचार का सामना कर रहे हैं. उन्हें ज़बरन मज़दूरी, बिना किसी वजह के गिरफ़्तारी, अवैध हिरासत और ग़ैर-क़ानूनी हत्याओं का सामना करना पड़ा है.

सीमा और सीमावर्ती प्रदेश 

राजनीतिक सीमा ने एक समान ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत वाले लोगों को अलग करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. मिज़ो और चिन इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं. ये दोनों ज़ो नाम के एक जातीय समूह से आते हैं और इनके पूर्वज और जातीय संबंध एक हैं. इनके अलग-अलग नाम और अंतर्राष्ट्रीय सीमा के दोनों तरफ़ इनका फैलाव ब्रिटिश उपनिवेशवादी नीतियों का नतीजा है जिसके तहत सीमा जातीय आधार के बदले राजनीतिक आधार पर तय की गई. लेकिन इस भावना का सम्मान करते हुए म्यांमार के साथ मणिपुर और मिज़ोरम की सीमा ज़्यादातर बिना कंटीली बाड़ के है ताकि दोनों तरफ़ की जनजातियों के बीच सांस्कृतिक संपर्क को सुरक्षित रखा जा सके. इसके अलावा एक अनूठी व्यवस्था भी है जो मुक्त आवागमन व्यवस्था के रूप में जानी जाती है. इस व्यवस्था के तहत दोनों तरफ़ के निवासी एक-दूसरे के देश में 16 किलोमीटर तक जा सकते हैं और बिना वीज़ा के 14 दिन तक वहां रुक सकते हैं. इसके अतिरिक्त दोनों तरफ़ के लोग शिक्षा या ख़रीदारी के उद्देश्य से भी अचानक यात्रा कर सकते हैं. 

भारत में प्रवेश करने वाले विस्थापितों में से एक बड़ी संख्या क़ानून बनाने वालों, पुलिसकर्मियों और उनके परिवार की है. इसके अलावा कुछ सैन्यकर्मी भी हैं जिन्होंने कथित तौर पर सैन्य शासन का विरोध करने वाले प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था.

ये सब बातें सही हो सकती हैं लेकिन विस्थापन संकट पिछले कुछ दशकों से ज़ोर पकड़ रहा है. चिन समुदाय के लोग उन अल्पसंख्यक जातीय समूहों में से एक हैं जो 1962 से ही म्यांमार की सेना के हाथों व्यापक जातीय और धार्मिक अत्याचार का सामना कर रहे हैं. उन्हें ज़बरन मज़दूरी, बिना किसी वजह के गिरफ़्तारी, अवैध हिरासत और ग़ैर-क़ानूनी हत्याओं का सामना करना पड़ा है. ऐसे बर्ताव की वजह से वो पड़ोस के देशों की तरफ़ बड़ी संख्या में गए हैं. भारत उनका सबसे सामान्य ठिकाना है क्योंकि वो बेहद नज़दीक है और भारत के साथ उनके जातीय संबंध हैं. लेकिन इसके बावजूद उन्हें शरणार्थी का दर्जा नहीं दिया जाता क्योंकि भारत ने 1951 की शरणार्थी संधि या इसके 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं. इसकी वजह से ये लोग मुश्किल स्थिति में हैं. उन्हें कोई क़ानूनी दर्जा नहीं मिला है, उनकी आजीविका, शिक्षा का कोई उचित साधन नहीं है, उन्हें स्वास्थ्य देखभाल मुहैया नहीं कराई गई है.

2021 के सैन्य विद्रोह के बाद और ज़्यादा विस्थापन 

फरवरी 2021 के सैन्य विद्रोह ने हालात और भी बिगाड़ दिए हैं क्योंकि तब से लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ जातीय समूहों के ख़िलाफ़ भी कार्रवाई बढ़ती जा रही है. सैन्य विद्रोह के बाद कुछ हफ़्तों में 900 से ज़्यादा प्रदर्शनकारियों की हत्या हो गई जबकि एक लाख से ज़्यादा या तो घायल हुए या उन्हें हिरासत में लिया गया. म्यांमार के चिन समुदाय से संबंध रखने वाले लोगों के साथ दूसरे जातीय और बहुसंख्यक समूहों से संबंध रखने वाले लोग सैन्य कार्रवाई से बचने के लिए सीमा पार कर मिज़ोरम भागने लगे. भारत में प्रवेश करने वाले विस्थापितों में से एक बड़ी संख्या क़ानून बनाने वालों, पुलिसकर्मियों और उनके परिवार की है. इसके अलावा कुछ सैन्यकर्मी भी हैं जिन्होंने कथित तौर पर सैन्य शासन का विरोध करने वाले प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था. यहां तक कि म्यांमार के चिन राज्य के मुख्यमंत्री सलाई लियान लुआई ने भी पनाह ली है. 

सुरक्षा और भू-राजनीतिक हितों के मामले में भारत का बहुत कुछ म्यांमार में दांव पर है लेकिन भारत पूर्वोत्तर के लोगों की भावनाओं और विचारों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता. इसके अलावा अगर म्यांमार में स्थिति बिगड़ती रही तो विस्थापन का मुद्दा खुली सीमा साझा करने वाले दूसरे राज्यों तक फैल सकता है.

म्यांमार से आने वाले लोगों के लिए ठहरने की जगह और उनके खाने-पीने का सामान सिविल सोसायटी संगठनों और छात्र संगठनों ने मुहैया कराया जबकि कुछ को स्थानीय लोगों ने भी शरण दी. लेकिन जब केंद्र सरकार ने उन अवैध प्रवासियों को वापस भेजने का आदेश जारी किया जिनके पास यात्रा के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ नहीं हैं तो मिज़ोरम के कई ग्राम परिषद प्राधिकरणों ने चिट्ठी और दस्तावेज़ जारी कर दृढ़ता के साथ अपनी इच्छी बताई कि वो इस संकट के मद्देनज़र विस्थापित लोगों को अपने साथ रखने के लिए तैयार हैं. मिज़ोरम के मिज़ो स्टूडेंड्स यूनियन ने राज्य सरकार से अनुरोध किया कि मानवीय आधार पर इन बदनसीब लोगों को शरण मुहैया कराई जाए और उन्हें क़ानूनी दर्जा दिया जाए. 

केंद्र-राज्य असमानता 

म्यांमार के नागरिकों के भारत आने पर मिज़ोरम सरकार और केंद्र की अलग-अलग राय है. सैन्य विद्रोह को लेकर भारत सरकार का रवैया म्यांमार में 1988 की ख़ूनी कार्रवाई, जब सैकड़ों लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ताओं को गोली मार दी गई थी, के बाद की स्थिति से अलग है. उस वक़्त कार्रवाई से बचकर भागने वाले कार्यकर्ताओं के लिए मणिपुर और मिज़ोरम में राहत कैंप खोले गए थे. उन्हें वापस भेजने के किसी दबाव के बिना भारत में रहने की इजाज़त दी गई थी. लेकिन वक़्त बीतने के साथ भारत के अपने सुरक्षा कारणों से म्यांमार के सैन्य शासन का महत्व काफ़ी बढ़ गया है और उसका असर भू-रणनीतिक के साथ-साथ आर्थिक मामलों में भी काफ़ी बढ़ा है. इस प्रकार म्यांमार के सैन्य शासन के लिए एक दोस्ताना रवैया अपनाया गया है ताकि वहां भारत की पहुंच को बढ़ाया जा सके. सैन्य विद्रोह के बाद भारत का दृष्टिकोण इसी गतिशीलता पर आधारित है जहां भारत अपनी रणनीति को लेकर सावधान है और वो संवाद आधारित दृष्टिकोण पर ज़्यादा ध्यान दे रहा है.

लेकिन म्यांमार में सैन्य विद्रोह और सैन्य शासन की कार्रवाई का भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों में बेहद भावनात्मक जवाब आया है. मिज़ोरम के मुख्यमंत्री ज़ोरमथंगा ने भी इसी तरह का जवाब दिया है और उन्होंने प्रधानमंत्री को चिट्ठी भी लिखी है. अपनी चिट्ठी में उन्होंने लिखा है कि भारत इस मानवीय संकट को लेकर आंखें नहीं मूंद सकता. उन्होंने केंद्र से अनुरोध किया है कि वो अपने आदेश की समीक्षा करे. हालांकि, सुरक्षा और भू-राजनीतिक हितों के मामले में भारत का बहुत कुछ म्यांमार में दांव पर है लेकिन भारत पूर्वोत्तर के लोगों की भावनाओं और विचारों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता. इसके अलावा अगर म्यांमार में स्थिति बिगड़ती रही तो विस्थापन का मुद्दा खुली सीमा साझा करने वाले दूसरे राज्यों तक फैल सकता है. इसके अतिरिक्त हाल के महीनों में भारत के द्वारा म्यांमार के सैन्य शासन का तुष्टिकरण पूर्वोत्तर में प्रदर्शन को हवा दे सकता है और शायद भारत विरोधी गतिविधियों में नई जान फूंक सकता है. 

भारत सरकार और राज्य सरकार का अलग-अलग रवैया और म्यांमार के सैन्य शासन के साथ भारत के संबंधों के लिए जटिलता भारत में घरेलू शरणार्थी क़ानूनों की ज़रूरत पर ज़ोर डालते हैं जिसकी वर्तमान में कमी है. चूंकि भारतीय क़ानून इस बात की कोई सही परिभाषा नहीं मुहैया कराते हैं कि शरणार्थी कौन हैं, तो ऐसे में सरकार सभी शरणार्थियों और आश्रय मांगने वालों को “अवैध प्रवासी” घोषित कर सकती है. भारत में घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर औपचारिक क़ानूनी रूप-रेखा की कमी के कारण शरणार्थियों को लेकर एक अस्थायी नीति का पालन करना पड़ता है. म्यांमार का मौजूदा शरणार्थी संकट भारत में शासन व्यवस्था के लिए एक चुनौती है. इसका कारण ये है कि ऐसे शरणार्थी संकट का समाधान करने के लिए कोई एकीकृत क़ानूनी और संस्थागत रूप-रेखा नहीं है. अच्छी तरह से सोच-समझकर बनाया गया राष्ट्रीय शरणार्थी क़ानून किसी भी तरह की विफलता को रोक सकता है और क्षेत्रीय प्रक्रिया के ध्वस्त होने की स्थिति में मानव अधिकार एवं राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच एक संतुलन प्राप्त कर सकता है. ऐसा करते समय घरेलू सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों का भी ध्यान रखा जाएगा. इस तरह की क़ानूनी रूप-रेखा को अपनाने का व्यावहारिक और निर्देशात्मक- दोनों तरह का लाभ होगा. इससे दक्षिण एशिया में नेतृत्व का भारत का लक्ष्य भी पूरा होगा जहां कई तरह की संस्कृति और बहुजातीय समुदाय के लोग रहते हैं. 


तारुषि सिंह रजौरा ओआरएफ़, नई दिल्ली में एक रिसर्च इंटर्न हैं. 

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