2019 में संयुक्त राष्ट्र (UN) लीडर्स वीक के दौरान ताज़ा आलोचनाओं का शिकार बने ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने वैश्वीकरण के विचार पर अपना ग़ुस्सा उतारा था. Lowy इंस्टीट्यूट में भाषण देते हुए उन्होंने “बग़ैर सरहद वाले वैश्विक समुदाय द्वारा अक्सर ग़लत रूप से परिभाषित और ज़ोर-ज़बरदस्ती वाला नकारात्मक विश्ववाद थोपे जाने” का इल्ज़ाम लगाया था. साथ ही उन्होंने “ग़ैर-जवाबदेह अंतरराष्ट्रीयतावादी अफ़सरशाही” को बदतर क़रार दिया था. मॉरिसन ने दो टूक कहा था कि दुनिया का कामकाज तभी बेहतरीन ढंग से चलता है जब “अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा एक जैसे नियमों के पालन की मांग किए जाने” के बजाए “स्वतंत्र राष्ट्रों की ख़ूबियों और ख़ासियतों की हिफ़ाज़त होती है.” आगे चलकर इस पूरे घटनाक्रम को ऑस्ट्रेलिया द्वारा बहुपक्षीयवाद से किनारा किए जाने के तौर पर प्रचारित किया गया.
दरअसल, दुनिया के सभी देश बहुपक्षीय, क्षेत्रीय, द्विपक्षीय और छोटे समूहों वाले जुड़ावों के मिले-जुले स्वरूप का इस्तेमाल करते हैं. मुमकिन है कि जलवायु और मानव अधिकारों पर ऑस्ट्रेलिया के रिकॉर्ड को लेकर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की धौंस से मॉरिसन चिढ़ गए हों. इसके बावजूद बहुपक्षीय संस्थाओं से ऑस्ट्रेलिया का जुड़ाव क़ायम है और अपने हितों को आगे बढ़ाने में वो उनका इस्तेमाल करता रहेगा.
ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री द्वारा वैश्वीकरण के विचार की आलोचना किए जाने के अभी तीन साल पूरे नहीं हुए हैं. इस बीच 24 फ़रवरी 2022 को रूस ने यूक्रेन पर धावा बोल दिया. इस घटना के 12 दिनों बाद मॉरिसन ने एक बार फिर उसी संस्था में संबोधन किया. इस बार उनके भाषण में “अंतरराष्ट्रीय सद्भाव,” “अंतरराष्ट्रीय सहयोग,” “नियमों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था,” और “स्वतंत्र वाणिज्य और वित्त की वैश्विक व्यवस्था” का बार-बार ज़िक्र हुआ. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि “सभी देशों पर एक समान नियम लागू होते हैं.” तो क्या इस कालखंड में ऑस्ट्रेलिया के अंतरराष्ट्रीय व्यवहार में बड़ा बदलाव आ गया? ऐसा बिल्कुल नहीं लगता. इतना ज़रूर है कि इस बदलाव से इस मसले पर इधर या उधर की सोच से जुड़ी चूक की झलक मिलती है: वो चूक है बहुपक्षीयवाद के “साथ” या “ख़िलाफ़” खड़ा होना.
दरअसल, दुनिया के सभी देश बहुपक्षीय, क्षेत्रीय, द्विपक्षीय और छोटे समूहों (minilateral) वाले जुड़ावों के मिले-जुले स्वरूप का इस्तेमाल करते हैं. मुमकिन है कि जलवायु और मानव अधिकारों पर ऑस्ट्रेलिया के रिकॉर्ड को लेकर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की धौंस से मॉरिसन चिढ़ गए हों. इसके बावजूद बहुपक्षीय संस्थाओं से ऑस्ट्रेलिया का जुड़ाव क़ायम है और अपने हितों को आगे बढ़ाने में वो उनका इस्तेमाल करता रहेगा. बहरहाल, ग़ौर करने वाली बात ये है कि दुनिया के देश कब और क्यों इन साधनों में से अपने मतलब के विकल्प का चुनाव करते हैं.
अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में चीन के एक ज़िम्मेदार किरदार बन जाने को लेकर अमेरिका की पिछली सोच अब धुंधली हो चुकी है. अमेरिका को लगने लगा है कि चीन और दूसरी एकाधिकारवादी राज्यसत्ताएं अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में गहरी पैठ बना रही हैं.
बहुपक्षीयवाद के रास्ते की चुनौतियां
हाल के दिनों में बहुपक्षीयवाद पर दुनिया में रूखा रवैया नज़र आया है. पिछले 2 वर्षों में कोविड-19 संकट ने बहुपक्षीय संस्थाओं की कमज़ोरियां बेपर्दा कर दी हैं. वैश्विक स्वरूप वाली इस समस्या को लेकर सीमित अंतरराष्ट्रीय सहयोग दिखा है. इस दौरान ऐसा लगा कि हर देश अपनी अलग राह पर चल रहा है- आपूर्तियों को अपने देश की सरहदों तक सीमित रख रहा है, सीमाओं को बंद कर रहा है और व्यापक रूप से बाक़ी दुनिया की अनदेखी कर रहा है.
एक लंबे अर्से से अंतरराष्ट्रीय और आंतरिक, दोनों ताक़तों के चलते बहुपक्षीयवाद पर दबाव बनता जा रहा है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई शक्तियों के उभार ने वैश्विक राजनीति की तस्वीर बदल डाली है. बहुपक्षीयवाद को सुधारने और नई ताक़तों के उभार की झलक देने के लिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से जोड़ने की चंद कोशिशें हुई हैं. हालांकि, पश्चिमी देशों की ओर से आगे बढ़ाई गई पटकथा में प्रमुख रूप से नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में कमज़ोरी को लेकर ज़ाहिर की गई चिंताएं ही शामिल रही हैं. अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में चीन के एक ज़िम्मेदार किरदार बन जाने को लेकर अमेरिका की पिछली सोच अब धुंधली हो चुकी है. अमेरिका को लगने लगा है कि चीन और दूसरी एकाधिकारवादी राज्यसत्ताएं अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में गहरी पैठ बना रही हैं. ऑस्ट्रेलिया के शिक्षाविद् हेंग वांग ने इसे बहुपक्षीय संगठनों को चुनिंदा तरीक़े से नया आकार देने और अंतरराष्ट्रीय मानकों को बदलने की क़वायद क़रार दिया है. उनके मुताबिक चीन इस काम के लिए बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव जैसे विरोधी मॉडलों का सहारा ले रहा है. अमेरिका और चीन के बीच नज़रियों से जुड़े तनाव और मतभेद पिछले साल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बहुपक्षीयवाद पर हुई खुली बहस के दौरान भी दिखाई दिया था.
शीत युद्ध जैसे मुश्किल हालात में भी बहुपक्षीयवाद कुछ हद तक सक्रिय रहा था. दरअसल उस समय भी ऐसे तमाम मसले थे जिनपर एक सार्वभौम संस्था के ज़रिए तालमेल क़ायम करने की दरकार थी. बहुपक्षीयवाद हमेशा से बेहद कठिन क़वायद रही है, लेकिन इसका कोई विकल्प भी नहीं है.
बहुपक्षीयवाद के विचार पर घरेलू ताक़तों का भी गहरा प्रभाव रहा है. मिसाल के तौर पर ट्रंप प्रशासन के मातहत अमेरिका बहुपक्षीय संस्थानों और समझौतों से ज़्यादातर कटा-कटा ही रहा. इस तरह वो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय उदारवादी व्यवस्था के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं से दूर चला गया था. ब्रूकिंग्स के विशेषज्ञ थॉमस राइट के मुताबिक लोकलुभावनी नीतियां और राष्ट्रवाद कई देशों में मज़बूत ताक़त बन गए हैं. ऐसे में बहुपक्षीयवाद का समर्थन करने वाले नेताओं के लिए घरेलू समर्थन जुटाना ज़्यादा कठिन हो गया है. वैश्विक चुनौतियों से निपटने में समावेशी बहुपक्षीयवाद के लिए सकारात्मक दलीलों की सियासी तौर पर सीमित स्वीकार्यता दिखाई देती है. ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन का कार्यकाल बेहद अहम है. स्थापित व्यवस्था के लिए लोकलुभावने राष्ट्रवाद के मुक़ाबले उदारवादी बहुपक्षीयवाद को बेहतर रणनीति के तौर पर दिखाने का ये आख़िरी बेहतरीन मौक़ा साबित हो सकता है.
फ़रवरी 2022 में यूक्रेन पर रूसी चढ़ाई से पूरी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था ही एक अलग रूप में नज़र आने लगी. संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव में मज़बूत आवाज़ में रूस से पीछे हटने की मांग की गई. प्रतिबंधों को लेकर कार्रवाइयों में ज़बरदस्त तालमेल दिखा. संबंधित देशों की ओर से समान सोच वाले दूसरे देशों को साझा रुख पर रज़ामंद करने के लिए संपर्क साधा गया. इसके बाद दूसरे मुल्कों को भी साथ आने के लिए तैयार किया गया. रूस को अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग सिस्टम SWIFT से अलग किए जाने के साथ-साथ उसपर निजी तौर पर प्रतिबंध भी लगाए गए. इन तमाम कार्रवाइयों का मिलाजुला असर ज़ोरदार रहा है. रूसी प्रवक्ता ने तो इसे “संपूर्ण युद्ध” ठहरा दिया है.
इससे पता चलता है कि बहुपक्षीयवाद के ख़ात्मे से जुड़ी आशंकाएं शायद बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई हैं. अच्छी ख़बर ये है कि बहुपक्षीयवाद इस तरह के नाटकीय लम्हों और चुनौतियों का पहले भी कामयाबी से सामना कर चुका है. शीत युद्ध जैसे मुश्किल हालात में भी बहुपक्षीयवाद कुछ हद तक सक्रिय रहा था. दरअसल उस समय भी ऐसे तमाम मसले थे जिनपर एक सार्वभौम संस्था के ज़रिए तालमेल क़ायम करने की दरकार थी. बहुपक्षीयवाद हमेशा से बेहद कठिन क़वायद रही है, लेकिन इसका कोई विकल्प भी नहीं है. रज़ामंद नहीं होने वाले देशों के लिए सीमित रूप से सामूहिक कार्रवाइयों कर पाने की गुंजाइश से जुड़ी ज़रूरतें हमेशा बनी रहेगी.
छोटे-छोटे समूह बनाने का चलन
दुनिया के देश सिर्फ़ बहुपक्षीयवाद पर ही निर्भर नहीं हैं. वो अपने मक़सदों के लिए द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और छोटे-छोटे समूहों वाले तौर-तरीक़े भी प्रयोग में लाते हैं. फ़िलहाल हिंद-प्रशांत जिस दौर से गुज़र रहा है उसमें छोटे-छोटे समूहों (minilateralism) या साझा लक्ष्यों पर साथ काम करने वाले देशों का गठबंधन देखने को मिल रहा है. वैसे इस तरह के गठजोड़ महज़ भौगोलिक स्थितियों की बुनियाद पर ही नहीं होते. ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है?
सिंगापुर के शिक्षाशास्त्री सारा टेओ ने क्षेत्रीय बहुपक्षीयवाद की व्याख्या की है. इस सिलसिले में उन्होंने ख़ासतौर से दक्षिणपूर्व एशियाई देशों के संगठन (आसियान) पर केंद्रित समूहों की चर्चा की है. उनके मुताबिक ये समूह क्षेत्रीय समस्याओं का निपटारा कर पाने में तथाकथित नाकामी के चलते लगातार दबाव में आते जा रहे हैं. पिछले दशक में बहुपक्षीय ढांचे में आसियान की भूमिका को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. बड़ी ताक़तों द्वारा संचालित कार्यक्रमों और ग़ैर-आसियान केंद्रित व्यवस्थाओं से ऐसी चुनौतियां पेश आती रही हैं.
छोटे-छोटे समूहों वाली इस क़वायद से कुछ ऐसे फ़ायदे मिलते हैं जो द्विपक्षीय, क्षेत्रीय या बहुपक्षीय व्यवस्थाओं से हासिल नहीं होते. बहुपक्षीय समूहों की तुलना में ऐसे मंच आकार में छोटे, अधिक समावेशी, लचकदार और कारगर होते हैं. सदस्यों की तादाद कम होने से समान सोच वाले इस तंत्र में निर्णय लेने की प्रक्रिया तेज़ी से आगे बढ़ सकती है. इसके लिए बहुपक्षीय स्तर पर आम सहमति बनने तक इंतज़ार नहीं करना होता. ग़ौरतलब है कि बहुपक्षीय व्यवस्था में आम सहमति बनाने की प्रक्रिया मुश्किल होने के चलते साझा तौर पर सहमति के बेहद कम नतीजे सामने आए हैं. दूसरी ओर छोटे-छोटे समूहों वाली क़वायद के ख़ास स्वभाव के चलते सिर्फ़ एक बड़ी ताक़त पर केंद्रित पहल से उस ताक़त को छोटे हिस्सेदार देशों पर खुलकर अपना दबदबा जमाने की आज़ादी मिल जाती है.
छोटे-छोटे समूहों वाली इस क़वायद से कुछ ऐसे फ़ायदे मिलते हैं जो द्विपक्षीय, क्षेत्रीय या बहुपक्षीय व्यवस्थाओं से हासिल नहीं होते. बहुपक्षीय समूहों की तुलना में ऐसे मंच आकार में छोटे, अधिक समावेशी, लचकदार और कारगर होते हैं. सदस्यों की तादाद कम होने से समान सोच वाले इस तंत्र में निर्णय लेने की प्रक्रिया तेज़ी से आगे बढ़ सकती है.
ऑस्ट्रेलिया छोटे-छोटे समूहों वाली इस क़वायद का बड़ा हिमायती रहा है. पहले, क्वॉड्रिलैटरल सिक्योरिटी डायलॉग से ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका एक दूसरे के क़रीब आए. ऑस्ट्रेलिया की ओर से सबसे ताज़ा मिसाल अमेरिका और यूनाइडेट किंगडम के साथ मिलकर बनाया गया AUKUS है. ये त्रिपक्षीय सुरक्षा भागीदारी की एक उन्नत व्यवस्था है. बहरहाल AUKUS को लेकर इस इलाक़े में मिली-जुली प्रतिक्रियाएं दिखी हैं. इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे देशों की ओर से निश्चित रूप से विरोध के स्वर सुनाई दिए हैं. ऐसे समूहों के साथ ख़तरा ये है कि इन्हें ऑस्ट्रेलिया द्वारा तनाव को हवा देने और स्थिरता को कमज़ोर करने की क़वायद के तौर पर देखा जा सकता है. इसे चीन को चुनौती देने की अमेरिकी कोशिश का हिस्सा समझा जा सकता है. मलेशियाई थिंक टैंक के विशेषज्ञ शाहरिमन लॉकमैन का मानना है कि ये ऑस्ट्रेलिया के लिए हमेशा ही एक कारक बना रहेगा: “दक्षिणपूर्व एशिया के देश शायद कभी भी ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के बीच के रिश्तों की गहराई नहीं समझ सकेंगे. लिहाज़ा वो ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के बारे में जल्दबाज़ी में नतीजे निकालते रहेंगे.”
इलाक़े से बाहर की ताक़तों के साथ अपने रिश्तों के चलते ऑस्ट्रेलिया के लिए आसियान देशों के साथ साझा हितों का विमर्श बनाने में समस्याएं खड़ी हो जाती हैं. इंडोनेशिया के शिक्षाविद एवी फ़िटरियआनी की दलील है कि मुश्किल हालातों में मुल्कों द्वारा यथार्थवादी क़दम उठाए जाने के आसार होते हैं. उन परिस्थितियों में वो भरोसेमंद भागीदारों का ही हाथ थामेंगे. ऐसे में ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया जैसे देशों ने पाया है कि वो “एक-दूसरे के भरोसेमंद साथियों की श्रेणी में नहीं आते.”
इस पूरी क़वायद से मोटे तौर पर एक सबक़ सामने आया है– छोटे समूह बनाने की पहल से आसियान की केंद्रीय भूमिका कमज़ोर होती है. हालांकि, इसपर ऑस्ट्रेलिया ने प्रतिक्रिया के तौर पर हैरानी ही जताई है. साफ़ तौर पर ऐसा लगता है कि आसियान की केंद्रीय भूमिका पर सकारात्मक रूप से भरोसा करते हुए ऐसी पहलों को आगे बढ़ाना मुमकिन है.
हिंद-प्रशांत कूटनीति
ऊपर की चर्चा से कूटनीति के अलग-अलग रुख़ों को एकीकृत करने की ज़रूरत का इशारा मिलता है. बहुपक्षीय, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और छोटे समूहों से जुड़ी क़वायदों को इस तरह इस्तेमाल में लाना होगा कि वो एक-दूसरे को कमज़ोर न करें. एक साथ कई साधनों के इस्तेमाल के दौरान स्पष्ट उद्देश्यों और साफ़-साफ़ संदेश भेजने की प्रक्रिया की दरकार है. “नकारात्मक वैश्वीकरण” से जुड़े अपने संबोधन में मॉरिसन ने वैश्विक संस्थाओं और नियम-तैयार करने की प्रक्रियाओं में ऑस्ट्रेलिया के जुड़ावों की व्यापक पड़ताल करने का ऐलान किया था. विदेश मंत्री मेरिज़ पेन ने इस पड़ताल के निष्कर्ष सामने रखे. इसमें दो टूक कहा गया कि “बहुपक्षीय संगठन ख़ासतौर से मानक तय करने वाले अंतरराष्ट्रीय निकाय नियम तय करते हैं, जो ऑस्ट्रेलिया की सुरक्षा, हितों, मूल्यों और समृद्धि के लिहाज़ से बेहद अहम हैं.” इस तफ़्तीश में ऑस्ट्रेलिया द्वारा बहुपक्षीयवाद से बाहर निकलने को लेकर किसी तरह का कोई सुझाव नहीं दिया गया. उलटे ये कहा गया कि: “बहुपक्षीयवाद से दूर हटने और वैश्विक व्यवस्था को आकार देने के काम को दूसरों के भरोसे छोड़ देने से ऑस्ट्रेलिया के हित पूरे नहीं होंगे.”
इंडोनेशिया के शिक्षाविद एवी फ़िटरियआनी की दलील है कि मुश्किल हालातों में मुल्कों द्वारा यथार्थवादी क़दम उठाए जाने के आसार होते हैं. उन परिस्थितियों में वो भरोसेमंद भागीदारों का ही हाथ थामेंगे.
मॉरिसन ने भी इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा है कि “कूटनीतिक मोर्चे पर कड़ी मेहनत” का मक़सद “जुड़ावों का जाल” और रिश्ते तैयार करना है, ताकि हमारे सामरिक वातावरण को आकार दिया जा सके. इसके मायने “बहुस्तरीय रुख़ अपनाने और हमारे द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और बहुपक्षीय जुड़ावों को गहरा” करने के तौर पर सामने आते हैं. ज़ाहिर है आपस में बारीक़ी से जुड़े दुनिया के देश अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाते रहेंगे.
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