Published on Dec 02, 2021 Updated 0 Hours ago

बहुपक्षीयवाद और बहुसहभागिता को लेकर दो समानांतर नज़रियों से बहुत अच्छे नतीजे नहीं निकल सकते. दोनों को मिलाकर एक व्यापक नज़रिया अपनाने की ज़रूरत है.

MULTILATERALISM: बहुपक्षीय बहुसहभागिता के सहारे वैश्विक प्रशासन के नए स्वरूप की स्थापना

ये लेख कोलाबा एडिट सीरीज़ का हिस्सा है.


कोविड-19 महामारी ने वैश्विक प्रशासन की गंभीर दरारों को ख़ास तौर से संकट से समय, साफ़ तौर पर उजागर कर दिया. महामारी का ये एक ऐसा असर था, जिसकी किसी ने उम्मीद नहीं की थी. महामारी के दौरान, संयुक्त राष्ट्र और उसकी स्वास्थ्य से जुड़ी विशेषज्ञ संस्था, विश्व स्वास्थ्य संगठन की जो आलोचना हुई, वो बिल्कुल वाजिब थी. ये संगठन महामारी के ख़तरों को भांपकर, सही समय पर जोखिम कम करने के क़दम उठाने में पूरी तरह नाकाम रहे. इस महामारी ने एक बार फिर से बहुपक्षीय (multilateralism) संगठनों में सुधार के सवाल को चर्चा के केंद्र में ला दिया है.

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र, दुनिया की बदलती जियोपॉलिटिकल और जियोइकॉनमिक हक़ीक़तों के हिसाब से ख़ुद को ढाल पाने में नाकाम रहा है. इसकी बहुत सी संरचनाएं और प्रक्रियाएं पुरानी पड़ चुकी हैं. इस संगठन का पुर्ननिर्माण बेहद ज़रूरी हो चुका है.

हाल के दौर में वैश्विक प्रशासन से जुड़ी तमाम परिचर्चाओं में दो शब्द ख़ास तौर से हावी रहे हैं: बहुपक्षीयवाद और बहु-सहभागितावाद. ऐसा लगता है कि दोनों का मक़सद एक ही है- वैश्विक प्रशासन में नुमाइंदगी, समानता और जवाबदेही बढ़ाना.

बहुपक्षीयवाद

दूसरे विश्व युद्ध के ख़ात्मे के बाद से ही बहुपक्षीयवाद अंतरराष्ट्रीय संवाद का एक प्रमुख तत्व रहा है और इस प्रक्रिया की अगुवाई संयुक्त राष्ट्र करता आया है. अपने 70 साल से ज़्यादा लंबे अस्तित्व के दौरान संयुक्त राष्ट्र ने संघर्ष ख़त्म करने, शांति बनाए रखने, सामाजिक आर्थिक सुधार की पहल करने और तकनीकी तरक़्क़ी और जटिल जियोपॉलिटिकल और भू-आर्थिक चुनौतियों से निपटने में बहुत सी उपलब्धियां हासिल की हैं. संयुक्त राष्ट्र की कई विशेषज्ञ एजेंसियों ने अपने अपने क्षेत्र में शानदार उपलब्धियां हासिल की हैं. इसके बावजूद, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र, दुनिया की बदलती जियोपॉलिटिकल और जियोइकॉनमिक हक़ीक़तों के हिसाब से ख़ुद को ढाल पाने में नाकाम रहा है. इसकी बहुत सी संरचनाएं और प्रक्रियाएं पुरानी पड़ चुकी हैं. इस संगठन का पुर्ननिर्माण बेहद ज़रूरी हो चुका है.

संयुक्त राष्ट्र की ऐसी किसी मरम्मत के लिए सबसे पहले आज के बहुपक्षीयवाद पर एक नज़र डालनी होगी. क्या ये वास्तविक, समान, सबकी नुमाइंदगी करने वाली एक लोकतांत्रिक और जवाबदेह व्यवस्था है? किसी भी आदर्श बहुपक्षीय व्यवस्था में नियम प्रक्रियाएं ऐसी होनी चाहिए, जो कमज़ोर का पक्ष लें और मज़बूत वर्ग को कमज़ोर तबक़े को मज़बूत बनाने के लिए काम करने के लिए प्रोत्साहन मिले. मगर, अफ़सोस की बात ये है कि दुनिया कोई आदर्श जगह तो है नहीं. यही कारण है कि व्यवस्था में कमियां मौजूद हैं. पर, बड़ा सवाल ये है कि क्या इन कमज़ोरियों को क़ायम रहने दिया जाना चाहिए या फिर व्यवस्था में सुधार किया जाना चाहिए?

इसी मोड़ पर आकर, ‘एक सुधरे हुए बहुपक्षीयवाद’ की अहमियत बढ़ जाती है. इस बात को सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2018 में दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में हुए ब्रिक्स सम्मेलन में अपने संबोधन में उठाया था. 

इसी मोड़ पर आकर, ‘एक सुधरे हुए बहुपक्षीयवाद’ की अहमियत बढ़ जाती है. इस बात को सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2018 में दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में हुए ब्रिक्स सम्मेलन में अपने संबोधन में उठाया था. उसी साल, बाद में उन्होंने अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनेस आयर्स में G-20 देशों के शिखर सम्मेलन में भी ये बात दोहराई थी. उसके बाद से भारत ने इस विचार को लगभग हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर बार-बार उठाया है. लेकिन, ये सुधरा हुआ बहुपक्षीयवाद आख़िर है क्या? क्या ये नई, ज़्यादा समानता वाली, सबकी नुमाइंदगी करने वाली और जवाबदेही भरी व्यवस्था है, जो वाक़ई लोकतांत्रिक है और जहां छोटा हो या बड़ा, अमीर हो या ग़रीब, कमज़ोर हो या ताक़तवर, हर देश को एक बराबर फ़ायदे और ज़िम्मेदारियां मिलेंगे. ये बात सच है कि पश्चिमी लोकतांत्रिक व्यवस्था और बड़ी ताक़तों के बीच होड़ आने वाले लंबे समय तक देखने को मिलती रहेगी. लेकिन, एक सुधरी हुई बहुपक्षीय व्यवस्था, इन तल्ख़ हक़ीक़तों से निपटने में काफ़ी राहत दे सकती है.

एक सुधरी हुई बहुपक्षीय व्यस्था, संयुक्त राष्ट्र के काम-काज पर ध्यान केंद्रित कराती है, जो दुनिया की सबसे बड़ी बहुपक्षीय संस्था है. इसके दो सबसे अहम अंग हैं- संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) और संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA). ये दोनों ही दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण बहुपक्षीय मंच हैं. इनमें और संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद में सुधार की चर्चाएं पिछले तीन दशकों से चली आ रही हैं और इनमें कोई प्रगति नहीं हुई है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थापना दूसरे विश्व युद्ध के बाद हुई थी. उस समय इसके गठन के पीछे तब के हालात के तर्क थे. पिछले 70 वर्षों में दुनिया का मंज़र नाटकीय ढंग से बदल चुका है. आज कई नए और पेचीदा मसले दुनिया के सामने हैं. वीटो के अधिकार वाले पांच स्थायी सदस्यों वाली संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की संरचना बेहद पुरानी पड़ चुकी है. अब दुनिया में ऐसे कई देश उभर चुके हैं- जो सक्षम हैं और- एक ज़िम्मेदारी भरी वैश्विक भूमिका निभाने के लिए तैयार भी हैं. ऐसे देशों को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता से महरूम रखने और विकासशील देशों की नुमाइंदगी न बढ़ाने से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की वैधता को बुरी तरह चोट पहुंचती है. यथार्थवादी राजनीतिक के कट्टर समर्थक, अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर तक ने अपनी किताब वर्ल्ड ऑर्डर में लिखा है कि प्रासंगिक बने रहने के कलिए किसी भी संस्थान को दो शर्तें ज़रूर पूरी करनी चाहिए- कुशलता और वैधता. कुशलता के बग़ैर कोई संगठन शक्तिहीन हो जाता है. वहीं, बिना वैधता वाला कोई भी संस्थान देर-सबेर बिखर ही जाता है.

बहु-सहभागितावाद की परिकल्पना पिछले दो दशकों में उभरी है. इसका मक़सद, बहुपक्षीयवाद के विचार की कमियों को दूर करना है, जो केवल संप्रभु देशों के बीच आपसी संवाद तक सीमित है. 

संयुक्त राष्ट्र महासभा का प्रस्ताव 75/1 ये कहता है कि, ‘संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख अंगों में सुधार करने और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की चर्चाओं में नई जान डालने, महासभा में नई शक्ति डालने और आर्थिक और सामाजिक परिषद को मज़बूत बनाकर इन सभी अंगों को अधिक नुमाइंदगी वाला, असरदार और कुशल और विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व और बढ़ाने’ की बात करता है. ऐसे नेक इरादों के बावजूद ऐसा लगता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार होने में अभी और वक़्त लगेगा. इसीलिए, संयुक्त राष्ट्र महासभा को और शक्तिशाली बनाने की ज़रूरत है. संयुक्त राष्ट्र महासभा आज भले ही सबसे वैध बहुपक्षीय मंच हो. लेकिन, सुरक्षा परिषद की तुलना में ये शक्तिहीन है. महासभा में देशों की नुमाइंदगी और बढ़ाने के साथ-साथ, इसे कुछ और कार्यकारी शक्तियां देकर एक वास्तविभागीदारों’ की भूमिक बहुपक्षीय मंच बनाया जा सकता है, जहां पर सभी सदस्य देश फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में भागीदार बन सकते हैं. इस सुधार को संयुक्त राष्ट्र महासभा और सुरक्षा परिषद के बीच ताक़त की होड़ के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. बल्कि होना ये चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र के ये दोनों अंग, अपने अपने क्षेत्रों में स्वायत्त रूप से अपना काम करते हुए एक दूसरे के पूरक बन सकें.

बहुसहभागितावाद

बहु-सहभागितावाद की परिकल्पना पिछले दो दशकों में उभरी है. इसका मक़सद, बहुपक्षीयवाद के विचार की कमियों को दूर करना है, जो केवल संप्रभु देशों के बीच आपसी संवाद तक सीमित है. इस परिकल्पना में दिलचस्पी बढ़ने के कई कारण हैं- संप्रभु राष्ट्रों के भीतर ही ताक़तवर संस्थाओं जैसे कि सरकारों, प्रांतों और शहरों का उदय होना; निजी कंपनियों की बढ़ती अहमियत; नागरिकों के समुदायों, अधिकार संगठनों, थिंक टैंक और विद्वानों की बढ़ती भूमिका; और आबादी के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करने वाली तकनीकों का प्रभाव.

वैसे तो बहु-सहभागितावाद शब्द बहुत अस्पष्ट और आम सा है, फिर भी ये विचार अभी आकार ले ही रहा है. हैरिस ग्लेकमैन, बहु-सहभागितावाद को इन शब्दों में परिभाषित करते हैं: ‘वैश्विक प्रशासन की एक नई उभरती व्यवस्था जो दुनिया के तमाम किरदारों को एक साथ लाती है और जिसकी किसी भी मसले में ‘भागीदारी’ होती है और जो सभी पक्षों को आपस मिलकर काम करने और मसले का हल खोजने को कहती है.’ इसीलिए, बहु-सहभागितावाद में संप्रभु राष्ट्रों के साथ साथ अन्य ‘भागीदारों’ की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है. हालांकि, जब हम इसके विस्तार में जाते हैं, तो इसके ख़तरे साफ़ हो जाते हैं. पहली समस्या तो यही है कि भागीदारों को किस आधार पर तय किया जाए. क्या इसका कोई ऐसा पैमाना है, जो सबको स्वीकार्य हो? दूसरा सवाल भागीदारों की जवाबदेही का है. अपनी अपनी सीमित भूमिकाओं में भी क्या वो सबकी बराबर से नुमाइंदगी करते हैं? तीसरी समस्या सभी अलग अलग भागीदारों को एक बराबरी का दर्जा देने से जुड़ी है. क्या इस खेल में सबको बराबरी पर लाने की क़ुव्वत है?

बहु-सहभागितावाद को केवल सलाह-मशविरे की प्रक्रिया बनाने तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि इसे फ़ैसले लेने की प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाना चाहिए. 

वैश्विक प्रशासन के कई मसलों, जैसे कि स्थायी विकास के लक्ष्यों (SDGs), जलवायु परिवर्तन और व्यापार नीति से जुड़े फ़ैसले आदर्श रूप में व्यापक विचार विमर्श के बाद लिए जाने चाहिए. लेकिन, कई मामलों में तमाम नेक इरादों के बावजूद, प्रक्रिया में ज़मीनी स्तर के सबसे अहम भागीदार छूट जाते हैं. क्योंकि न तो उनके पास इतनी ताक़त होती है और न ही इतने वित्तीय संसाधन होते हैं कि वो सेमीनारों/ सम्मेलनों/ कार्यशालाओं/ सलाह मशविरों का हिस्सा बन सकें और अपनी आवाज़ बुलंद कर सकें. हां, कई मामलों में हो सकता है कि उनकी नुमाइंदगी कोई अधिकार संगठन या नागरिक समुदाय का कोई एक वर्ग करे. लेकिन, ये बात वैसी नहीं होती, जैसी उस सूरत में होती जब कोई भी वर्ग अपने शब्दों में अपनी बात रखे. इसके अलावा, समय के साथ साथ किसी वर्ग की नुमाइंदगी करने वाले संगठन का एजेंडा प्रभावित लोगों से अलग हो सकता है. बहु-सहभागितावाद को विश्वसनीय और असरदार बनाने के लिए ऐसे सवालों पर लगातार नज़र बनाए रखनी होगी.

व्यवस्था की कमियों के बावजूद, आज की जटिल और वैश्वीकृत दुनिया में बहु-सहभागितावाद की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता है. पिछले दो दशकों में ये परिकल्पना, वैश्विक प्रशासन का हिस्सा बन चुकी है, और बहु-सहभागितावाद के मानक तय करने से जुड़ी कई पहल होते देखी गई हैं. पेचीदा मसलों पर फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में बहु-सहभागितावाद एक अटूट अंग बनता जा रहा है. जलवायु परिवर्तन और स्थायी विकास के लक्ष्यों के मसले पर संयुक्त राष्ट्र लगातार बहु-सहभागितावाद के सिद्धांत को अपना रहा है. जुलाई 2019 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा, स्थायी विकास का 2030 का एजेंडा लागू करने की रफ़्तार तेज़ करने के लिए, कॉरपोरेट सेक्टर के दबदबे वाले विश्व आर्थिक मंच के साथ हुआ भागीदारी समझौता इस बात की एक अच्छी मिसाल है कि किस तरह बहु-सहभागितावाद की परिकल्पना अब मुख्यधारा का हिस्सा बन रही है.

निष्कर्ष

बहु-सहभागितावाद ने ख़ुद को समस्याओं को समाधान के एक जानी-पहचानी परिकल्पना के रूप में स्थापित कर लिया है. इसे ज़्यादा कारगर बनाने के लिए ज़मीनी स्तर पर भागीदारी को सुनिश्चित करना होगा. इसके अलावा, बहु-सहभागितावाद को केवल सलाह-मशविरे की प्रक्रिया बनाने तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि इसे फ़ैसले लेने की प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाना चाहिए. बहुपक्षीयवाद और बहुसहभागिता को लेकर दो समानांतर नज़रियों से बहुत अच्छे नतीजे नहीं निकल सकते. आज ज़रूरत इस बात की है कि ‘बहु-सहभागी बहुपक्षीयवाद’ के एक व्यापक और मिले-जुले नज़रिए को अपनाया जाए, जिससे दोनों ही दृष्टिकोण आपस में आसानी से घुल-मिलकर एक साथ काम कर सकें.

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