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Published on Aug 22, 2025 Updated 0 Hours ago

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का सैन्य क्षेत्र में उपयोग उनके नैतिक और क़ानूनी मसलों से निपटने की बहुपक्षीय रूप-रेखा बनाने के मुक़ाबले कहीं तेज़ी से उभर रहा है

AI के सैन्य उपयोग को लेकर बहुपक्षीय कोशिशें

Image Source: Getty Images

कनाडा में G7 का 2025 का शिखर सम्मेलन ऐसे वक़्त में आयोजित किया गया था, जब दुनिया में भू-राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती जा रही हा और तकनीकी परिवर्तन की रफ़्तार बहुत तेज़ हो गई है. G7 का सम्मेलन ऐसे वक़्त में हुआ, जब संयुक्त राष्ट्र ने साल 2025 को क्वांटम साइंस और तकनीक का वर्ष घोषित किया था. ऐसे में कनाडा की अगुवाई वाले इस शिखर सम्मेलन के एजेंडे में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) और क्वांटम तकनीक और उनके आर्थिक और सामाजिक लाभ देने के विषय पर और चर्चा करने का वादा किया गया.

 

वैसे तो 2023 से पहले G7 की AI और क्वांटम तकनीक को लेकर चर्चा, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के ख़तरों पर ज़्यादा केंद्रित रहती थी. लेकिन, 2025 के शिखर सम्मेलन में इस परिचर्चा के सुर में एक सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिला, जिसमें तकनीक को कारोबारियों की मददगार और सार्वजनिक क्षेत्र की कुशलता बेहतर करने के औज़ार के तौर पर देखा गया. अब इस विषय पर परिचर्चा सुरक्षा के जोखिमों से हटकर AI के वास्तविक दुनिया में ऐसे उपयोग पर केंद्रित हो गई है, जिससे आर्थिक विकास को रफ़्तार दी जा सके. इसके लिए 1 करोड़ कनाडाई डॉलर (CAD) के लक्ष्य आधारित फंड का भी एलान किया गया है, जिसका इस्तेमाल आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और ऊर्जा संबंधी समाधानों के लिए किया जाएगा और साथ ही साथ तमाम डेटा सेंटर्स और इससे जुड़े मूलभूत ढांचे में ऊर्जा के अधिकतम उपयोग पर भी बल दिया जाएगा. सार्वजनिक क्षेत्र में सुगमता से AI को अपनाने के लिए इस शिखर सम्मेलन ने एक फ़ैसला ‘G7 GovAI ग्रैंड चैलेंज’ करने की योजना बनाने का भी किया.   

G7 का सम्मेलन ऐसे वक़्त में हुआ, जब संयुक्त राष्ट्र ने साल 2025 को क्वांटम साइंस और तकनीक का वर्ष घोषित किया था. ऐसे में कनाडा की अगुवाई वाले इस शिखर सम्मेलन के एजेंडे में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) और क्वांटम तकनीक और उनके आर्थिक और सामाजिक लाभ देने के विषय पर और चर्चा करने का वादा किया गया.

इस शिखर सम्मेलन में स्टार्टअप को भी कंप्यूटिंग के उन्नत मूलभूत ढांचे तक पहुंच देने का वादा किया गया. वहीं, G7 के सदस्य देश अपने अपने AI एजेंडा को भी आगे बढ़ाने में जुटे हुए हैं. मिसाल के तौर पर यूरोपीय संघ (EU) ने तकनीक के विनियमन के लिए दुनिया के सबसे व्यापक AI क़ानून को अपनाया है. वहीं दूसरी तरफ़, कनाडा ने आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को तमाम जनसेवाओं का हिस्सा बनाने की घोषणा की है. जबकि ब्रिटेन ने सार्वजनिक क्षेत्र में AI पर आधारित प्रशासन के ज़रिए सालाना 45 अरब पाउंड की बचत का अनुमान लगाया है. फिर भी ये पहलें आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के सैन्य उपयोग से जुड़े सुरक्षा के व्यापक आयामों से निपटने के मामले में अपर्याप्त साबित हुए हैं.

 

युद्ध के मोर्चे पर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस

आज जब तमाम देश आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस में अपनी क्षमताओं के विकास की होड़ लगा रहे हैं, तो AI सैन्य योजना निर्माण, निगरानी की व्यवस्थाओं और स्वचालित हथियारों के साथ तेज़ी से जुड़ता जा रहा है. बहुत से देश मौजूदा संघर्ष के बीच AI से संचालित तकनीकों का परीक्षण करके उन्हें युद्ध में इस्तेमाल कर रहे हैं, जिससे युद्ध संचालन के सिद्धांतों में बुनियादी तौर पर तब्दीली आ रही है. मौजूदा भू-राजनीतिक परिदृश्य अब AI से लैसे हथियारों की होड़ से पैदा होने वाले ख़तरों की तरफ़ संकेत नहीं करते, बल्कि इस बात की पुष्टि करते हैं कि ये होड़ शुरू हो चुकी है. ग़ज़ा पट्टी से लेकर काला सागर तक युद्ध के मैदान में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल अब एक ज़िंदा सच्चाई है.

 

युद्ध के मैदान में AI का सबसे शुरुआती इस्तेमाल 2021 में मध्य पूर्व में देखा गया था, जब ख़बरों के मुताबिक़ इज़राइल ने ग़ज़ा पट्टी में एक संघर्ष के दौरान हबसोरा AI सिस्टम का इस्तेमाल किया था. ये सिस्टम गोपनीय जानकारी वाले डेटा के विशाल भंडार का इस्तेमाल करके हवाई हमलों के लिए लक्ष्य निर्धारित करता है, जिससे आम लोगों की सुरक्षा के लिए गंभीर चिंताएं पैदा होती हैं और साथ ही साथ लक्ष्यों का चुनाव करके उन पर हमला करने की ज़िम्मेदारी स्वचालित सिस्टम के हवाले करने से नैतिकता के कई सवाल भी खड़े होते हैं. इज़राइल द्वारा लगातार AI सिस्टम जैसे कि लैवेंडर और डैडी का इस्तेमाल, लक्ष्य की पहचान सटीक तरीक़े से करने में असफल रहे थे और इसी वजह से बाद में युद्ध के मैदान में AI के इस्तेमाल को लेकर नैतिकता के प्रश्न खड़े हुए थे.

 

हाल के वर्षों में मध्य पूर्व में लगातार चल रहे भू-राजनीतिक तनाव, यूक्रेन और रूस का युद्ध और हाल ही में भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य संघर्ष ने AI की मदद से युद्ध लड़ने के बढ़ते इस्तेमाल को रेखांकित किया है. ख़ास तौर से ड्रोन और दूसरी स्वचालित तकनीकों के मामले में, जो बड़ी तेज़ी से आधुनिक सैन्य रणनीति में केंद्रीय भूमिका में आते जा रहे हैं.

 

रूस और यूक्रेन का युद्ध आंशिक रूप से आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की मदद से ड्रोन युद्ध से संचालित हो रहा है और ये जंग इस तकनीक के परीक्षण की प्रयोगशाला बन गई है. दोनों ही पक्ष युद्ध में दबदबा क़ायम करने वाले नए नए मानवरहित विमानों का आविष्कार करने की रोज़मर्रा की होड़ में जुटे हैं, जो जल, थल और आसमान में उन्हें बढ़त दिला सकें. युद्ध के दौरान यूक्रेन के नौसैनिक ड्रोन्स ने रूस के जंगी जहाज़ों को निशाना बनाया है. इनमें इवान खुर्स, सर्गेई कोटोव और औलेनेगोर्सकी गोर्नियाक शामिल हैं, और युद्ध को रूस के बहुत भीतर तक की जल सीमा में ले गए हैं.

 

इस साल के भारत- पाकिस्तान संकट के दौरान पहली बार दोनों देशों ने पारंपरिक सैन्य रणनीति से आगे बढ़कर सीमा के पार अपने अभियानों में ड्रोन का इस्तेमाल किया. ये संघर्ष भारत और पाकिस्तान की सैन्य शक्ति में एक अहम बदलाव लाने वाला साबित हुआ, जिसमें इज़राइल से हासिल हारोप ड्रोन और भारत के स्वदेश में विकसित नागास्त्र 1 जैसे ड्रोन्स का इस्तेमाल तुर्की में बने कामीकाज़े ड्रोन को नष्ट करने के लिए किया गया, जिनसे पाकिस्तान ने हमला किया था. भारत ने अपनी पहले की विदेशी सहायता पर आधारित UAV के मुक़ाबले इस बार स्वदेशी ड्रोन सिस्टम बनाने पर काफ़ी ज़ोर दिया है. हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) के CATS WARRIOR और स्वार्म सिस्टम जैसे प्लेटफॉर्म ने भारतीय सेना को आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की अगुवाई में युद्ध लड़ने की क्षमता विकसित करने में मदद की है.

 

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और बहुपक्षीय प्रयास

वास्तविक समय पर तैनाती और मानवता से जुड़ी बढ़ती चिंताओं के बावजूद, बहुपक्षीय मंचों ने AI के सैन्य इस्तेमाल का व्यापक स्तर पर सामना करने में एक सीमित भूमिका ही अदा की है. यहां तक कि यूरोपीय संघ के जिस AI एक्ट की बहुत तारीफ़ की जा रही है, वो भी रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में AI के इस्तेमाल को लेकर ख़ामोश है.

 

आज जब आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, पारंपरिक युद्ध की व्यवस्थाओं में क्रांतिकारी बदलाव ला रहा है, तो ये परिवर्तन ज़्यादातर एक नीतिगत शून्य में विकसित हो रहे हैं जिनकी न तो कोई निगरानी हो रही है और न ही उनके लिए कोई बहुपक्षीय रूप-रेखा ही उपलब्ध है. इसकी वजह से ऐसे हथियारों की तैनाती के नैतिक पहलू पर चोट लग रही है. G7 जैसे बहुपक्षीय मंच अभी भी स्वचालित हथियारों (AWS) के क़ानूनी और नैतिक आयामों पर अर्थपूर्ण परिचर्चा करके उनका प्रतिउत्तर नहीं दे सके हैं.

2024 में समिट ऑफ दि फ्यूचर में स्वीकार किए गए पैक्ट फॉर द फ्यूचर में भी उभरती तकनीकों को हथियार के तौर पर इस्तेमाल से बचने के क़दम सुझाए गए थे और कहा गया था कि AI के सैन्य इस्तेमाल से जुड़े जोखिम का नियमित रूप से मूल्यांकन होते रहना चाहिए.

हो सकता है कि प्राथमिक रूप से एक आर्थिक समूह होने की वजह से G7 शायद आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के सैन्य आयामों के विनियमन का सबसे उचित मंच न हो. फिर भी, दुनिया के कुछ सबसे ताक़तवर देशों का समूह होने की वजह से G7, AI के विनियमन के कुछ मौजूदा पहलों को आगे बढ़ा सकता है. जो मौजूदा वैश्विक पहले हैं जैसे कि पेरिस में AI एक्शन शिखर सम्मेलन, जिसमें AI के इस्तेमाल पर परिचर्चा होती है, और संयुक्त राष्ट्र के निरस्त्रीकरण पर अनुसंधान करने वाले संस्थान (UNIDIR) की भूमिका पर विचार किया जा सकता है. ख़ास तौर से 2023 में नीदरलैंड्स में सेना में AI के उत्तरदायी इस्तेमाल पर हुए शिखर सम्मेलन और उसके बाद सिओल में 2024 में हुए इसी तरह के सम्मेलन ऐसे अहम मंच थे, जिनमें AI के बढ़ते सैन्य इस्तेमाल पर काफ़ी ज़ोर दिया गया था. 

 

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने सदस्य देशों से कहा है कि वो 2026 तक स्वचालित हथियारों को लेकर स्पष्ट नियम और प्रतिबंध तय करें. सितंबर 2024 में समिट ऑफ दि फ्यूचर में स्वीकार किए गए पैक्ट फॉर द फ्यूचर में भी उभरती तकनीकों को हथियार के तौर पर इस्तेमाल से बचने के क़दम सुझाए गए थे और कहा गया था कि AI के सैन्य इस्तेमाल से जुड़े जोखिम का नियमित रूप से मूल्यांकन होते रहना चाहिए. ऐसी परिचर्चाओं से अनुपस्थित रहने के बजाय, G7 जैसे बहुपक्षीय ढांचों को चाहिए कि वो इन पहलों को समर्थन दें और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के सैन्य क्षेत्र में इस्तेमाल के विनियमन की कमज़ोरियों और अन्य कमियों को दूर करने के लिए काम करें.

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