Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

सुरक्षा प्रदान करने के मामले में ‘कोलंबो सुरक्षा कॉन्क्लेव’ (सीएससी) की प्रासंगिकता, सीमा और चुनौतियों की पड़ताल. 

#Indian Ocean Region: हिंद महासागर के क्षेत्र में सुरक्षा नेटवर्क की तरफ़ बढ़ते क़दम
#Indian Ocean Region: हिंद महासागर के क्षेत्र में सुरक्षा नेटवर्क की तरफ़ बढ़ते क़दम

मालदीव की राजधानी माले में ‘कोलंबो सुरक्षा कॉन्क्लेव’ (सीएससी) के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों (एनएसए) की पांचवीं बैठक मॉरिशस को पूर्णकालिक सदस्य के तौर पर शामिल करने के लिए याद रखी जाएगी. इसी बैठक में बांग्लादेश और सेशेल्स के पर्यवेक्षक के दर्जे को जारी रखा गया जिनके बाद में इसमें शामिल होने की उम्मीद है. 2011 में इसकी शुरुआत के समय से सावधानीपूर्वक छोटे-छोटे क़दम उठाकर ये बहुराष्ट्रीय क्षेत्रीय व्यवस्था इस स्थिति तक पहुंची है जो भविष्य की संभावनाओं की तरफ़ इशारा करती है. 2020 के कोलंबो सत्र के दौरान इसका नाम ‘समुद्री सुरक्षा व्यवस्था’ से बदलकर ‘समुद्री और सुरक्षा व्यवस्था’ किया गया था. 

क्षेत्रीय समीकरणों की जटिलता को देखते हुए सीएससी के अस्तित्व में आने से पहले भारत ने पड़ोस के हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) में एक ज़रूरी ताक़त के तौर पर सामरिक और सुरक्षा संबंधों को द्विपक्षीय रखा था.

क्षेत्रीय समीकरणों की जटिलता को देखते हुए सीएससी के अस्तित्व में आने से पहले भारत ने पड़ोस के हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) में एक ज़रूरी ताक़त के तौर पर सामरिक और सुरक्षा संबंधों को द्विपक्षीय रखा था. दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के द्वारा घोषणापत्र में किए गए वादे के बावजूद द्विपक्षीय मुद्दों को दूर रखने में मिली नाकामी ने दक्षिण एशिया पर केंद्रित बहुपक्षीय संगठनों को लेकर भारत को ख़बरदार कर दिया था. लेकिन शीत युद्ध के बाद दक्षिण एशिया पर केंद्रित भू-राजनीतिक और भू-रणनीतिक व्यवस्थाओं ने इसके उलट चीज़ें की हैं. ये बात कॉन्क्लेव के दूसरे सदस्यों और पर्यवेक्षकों के लिए भी सही है. भारत ने पहले ही कह दिया था कि वो इस क्षेत्र में ‘सुरक्षा प्रदान करने वाला’ बनेगा. ये ऐसी प्रतिबद्धता है जिसे भारत को बनाए रखना होगा लेकिन इस प्रतिबद्धता को केवल सर्वसम्मति के दृष्टिकोण से ही भारत रख सकता है और रखना भी चाहिए जैसा कि सीएससी भी अब संकेत दे रहा है. 

सर्वसम्मति से ही समाधान

सीएससी की शुरुआत भारत और मालदीव के कोस्ट गार्ड के बीच साल में दो बार होने वाले ‘दोस्ती’ अभ्यास के साथ हुई. ‘दोस्ती’ अभ्यास मालदीव के न्योते पर भारत के सैन्य हस्तक्षेप ‘ऑपरेशन कैक्टस’ के बाद शुरू हुआ. 1988 में मालदीव के तत्कालीन राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम के ख़िलाफ़ भाड़े के सैनिकों द्वारा की गई बग़ावत को ख़त्म करने के लिए भारत ने ‘ऑपरेशन कैक्टस’ को अंजाम दिया था. ‘दोस्ती’ अभ्यास के मूल उद्देश्य से चाहे जो भी संकेत मिलता रहा हो लेकिन ये ग़ैर-परंपरागत सुरक्षा मुद्दों जैसे मानवीय सहायता और समुद्री प्रदूषण को लेकर था. श्रीलंका में जारी जातीय युद्ध की वजह से उसके शामिल होने में देरी हुई लेकिन सीएससी का विस्तार अब ग़ैर-परंपरागत सुरक्षा की सीमा से बढ़कर हो गया है. मगर इसमें सावधानीपूर्वक किसी क्षेत्रीय रक्षा सहयोग की संधि की तरह परंपरागत सुरक्षा मुद्दों और सहयोग से दूरी बनाई गई है. 

श्रीलंका में जारी जातीय युद्ध की वजह से उसके शामिल होने में देरी हुई लेकिन सीएससी का विस्तार अब ग़ैर-परंपरागत सुरक्षा की सीमा से बढ़कर हो गया है. मगर इसमें सावधानीपूर्वक किसी क्षेत्रीय रक्षा सहयोग की संधि की तरह परंपरागत सुरक्षा मुद्दों और सहयोग से दूरी बनाई गई है.

इसकी वास्तविक शुरुआत भारत के बाहर हुई जब 2005 में श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनाव से पहले प्रतिस्पर्धी उम्मीदवारों यानी उस वक़्त के प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे और उनके पूर्ववर्ती रानिल विक्रमसिंघे ने पारस्परिक विचार-विमर्श के बिना अपने देश की साझा सुरक्षा प्राथमिकताओं का संकेत दिया. श्रीलंका में ये सर्वसम्मति उभरती भू-रणनीतिक वास्तविकताओं और अपने देश को शीत युद्ध के समय के गुटों से अलग रखने की आवश्यकता पर केंद्रित थी ताकि इस क्षेत्र से दूर की शक्तियों को अपने समुद्र से बाहर रखा जा सके. 

शीत युद्ध के शुरुआती दशकों में हिंद महासागर को ‘शांति का क्षेत्र’ कहकर प्रशंसा करने वाले और इसके लिए अभियान चलाने वाले देश के रूप में श्रीलंका की राजनीतिक स्थिति को समझा जा सकता था. फिर भी तत्कालीन परिस्थितियों में विस्तृत भारतीय पड़ोसियों के साथ श्रीलंका ‘रक्षा सहयोग समझौता’ करने का इच्छुक नहीं था लेकिन 2009 में जातीय युद्ध ख़त्म होने से पहले ये इसका कारण बन गया. वैसे तो भारत के सामरिक जानकारों ने उस वक़्त कोई ध्यान नहीं दिया जब राजपक्षे सरकार ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर बोली कि सुरक्षा के मुद्दों पर साझेदार के रूप में भारत उसकी एकमात्र पसंद है लेकिन उस वक़्त से अब तक भारत की आधिकारिक सोच में बदलाव हो गया है. भारत की चिंता इस बात पर केंद्रित थी कि श्रीलंका ने विकास परियोजनाओं की फंडिंग के लिए चीन को चुना है, ख़ास तौर पर दक्षिणी हंबनटोटा बंदरगाह को लेकर. श्रीलंका की एक-के-बाद-एक सरकारों ने हंबनटोटा बंदरगाह की परियोजना को भारत को देने की पेशकश की थी. भारत ने सही दलील दी थी कि ये परियोजना आर्थिक तौर पर नुक़सान का सौदा साबित होगी. लेकिन इसके बावजूद श्रीलंका रुका नहीं. अपने इतिहास और विरासत की वजह से श्रीलंका पर इस परियोजना को शुरू करने की धुन सवार हो गई. 

दूसरी परिस्थितियों में भी सीएससी का फ़ैसला भारत ने नहीं थोपा था. श्रीलंका में जो एकतरफ़ा सर्वसम्मति बनी थी वो एक साझा पड़ोसी- मालदीव- को साथ लेकर एक द्विपक्षीय सर्वसम्मति में बदल गई, ठीक उसी तरह की रूप-रेखा और तर्क के आधार पर 2004 में सुनामी के बाद के हालात में भारत जिस तरह से मालदीव और श्रीलंका में राहत और पुनर्वास के काम में शामिल हुआ, अपने नुक़सान के बावजूद जिस तरह भारत ने मालदीव और श्रीलंका को प्राथमिकता दी और जिस तेज़ी से सैनिकों को वहां भेजा, उसी तेज़ी से उन्हें वापस बुलाया- इन बातों की वजह से भारत को लेकर वहां भरोसा बना. इस घटनाक्रम के कारण मालदीव और श्रीलंका में ये शक भी दूर हुआ कि भारत वहां पर अपना स्थायी सैन्य अड्डा बनाने की फिराक में है. श्रीलंका में भारतीय शांति सेना (आईपीकेएफ) की तैनाती के दौरान भी कुछ लोगों ने इसी तरह सोचा था. 

भारत ने बांग्लादेश में समय-समय पर आने वाले विनाशकारी चक्रवाती तूफ़ान और नेपाल में ज़ोरदार भूकंप के बाद भी वहां मदद पहुंचाई है. लेकिन ये सभी मिशन द्विपक्षीय थे. इस पृष्ठभूमि में श्रीलंका में 2019 के कायरतापूर्ण ‘ईस्टर सीरियल धमाकों’ को लेकर भारत के द्वारा खुफिया जानकारी साझा करने को लेकर स्पष्टता नहीं है कि ये द्विपक्षीय मामला है या सीएससी की पहल. इसी तरह की अस्पष्टता साझा समुद्र में व्यापक पैमाने पर ड्रग की तस्करी को लेकर छापेमारी के मामले में तीनों देशों के सहयोग को लेकर भी है. 

भारत की चिंता

जिस क्षेत्र को समुचित रूप से ‘भारत की चिंता’ कहा जा सकता है, उसके लिए भारत के दृष्टिकोण की शुरुआत विदेश मंत्रालय के द्वारा एक अलग हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) के डिवीज़न की शुरुआत के साथ हुई. ये डिवीज़न नज़दीक के पड़ोसियों मालदीव और श्रीलंका पर ध्यान देगा. बाद में इसमें मॉरिशन और सेशेल्स को भी जोड़ा गया. 2019 में कॉमरोस, मेडागास्कर और फ्रेंच रियूनियन आइलैंड, जो मॉरिशस और सेशेल्स के साथ मिलकर हिंद महासागर का ‘मुहाना’ बनाते हैं, को भी आईओआर डिवीज़न में शामिल किया गया. अब कोई भी कॉमरोस और मेडागास्कर के कोलंबो सुरक्षा कॉन्क्लेव (सीएससी) में शामिल होने की चर्चा नहीं कर रहा है. फिर भी भारत के अंडमान और लक्षद्वीप के बग़ल में होने और दोस्त की तरह अमेरिकी सैन्य अड्डा डिएगो गार्सिया के होने (फ्रेंच रियूनियन पर फ्रांस की संप्रभुता को नहीं भूलिए) की वजह से इस क्षेत्र की रक्षा के लिए एक सुरक्षा जाल तैयार हो रहा है. लेकिन इस तरह के दृष्टिकोण की एक सीमा है क्योंकि क्षेत्र से बाहर की शक्तियों को शामिल करने से सीएससी के मूल उद्देश्य में रुकावट पैदा होने की आशंका है. 

हिंद महासागर क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर भारत का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है लेकिन मालदीव को भारत की सहायता का वहां के विपक्षी राजनीतिक दल ग़लत मतलब लगा रहे हैं. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के नेतृत्व में विपक्ष ने ‘इंडिया आउट’ अभियान चला रखा है जिसमें भारतीय सैन्य मौजूदगी की तरफ़ विशेष रूप से इशारा किया गया है.

फिर भी अमेरिका के नेतृत्व वाले क्वॉड या ऑकस के मुक़ाबले सीएससी सीमित संभावनाओं और लक्ष्यों के साथ क्षेत्रीय भलाई के लिए एक पहल बनी रहेगी. अगर सदस्य देशों की संख्या या एजेंडे का विस्तार करने की ज़रूरत है तो इसे केवल संप्रभु देशों को शामिल करके सर्वसम्मति की प्रक्रिया से ही हासिल किया जा सकता है. सीएससी के सबसे बड़े सदस्य देश भारत समेत सभी देश इस समूह की हदों से परिचित हैं. उन्हें ये भी मालूम है कि अगर कोई एक देश या कई देश तय एजेंडे से बाहर जाते हैं तो सीएससी पूरी तरह नाकाम हो सकता है. 

संसाधनों की कमी

शीत युद्ध के बाद पल-पल बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य में साझा चिंताओं के अलावा हिंद महासागर क्षेत्र और दूसरे इलाक़ों के छोटे देश अपने संसाधनों की ज़रूरतों का समाधान करने में ख़ुद को कमज़ोर और बदक़िस्मत पाते हैं. इसका एक अच्छा उदाहरण मालदीव है. 21वीं शताब्दी के सुरक्षा परिप्रेक्ष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने में कमी के मामले में दूसरे देशों का भी यही हाल है. 

9 मार्च 2022 को माले सत्र में मेज़बान के रूप में मालदीव की रक्षा मंत्री मारिया दीदी ने कहा, “मालदीव के क्षेत्रफल के 97.5 प्रतिशत हिस्से में महासागर है.” वैसे तो मालदीव की रक्षा मंत्री ने इस बात का ज़िक्र नहीं किया लेकिन मालदीव के पास न सिर्फ़ वित्तीय संसाधनों की कमी है बल्कि अपने खुले समुद्र के विशाल क्षेत्र की रक्षा करने के लिए मानव संसाधन भी उसके पास नहीं है. हाल के एक आधिकारिक आंकड़े के अनुसार सघन आबादी वाली राजधानी माले, जिसका मालदीव की कुल आबादी 4,50,000 में 40 प्रतिशत हिस्सा है, में जन्म दर घट रही है. इस तरह बाहरी सहायता अनिवार्य हो जाती है.  

हिंद महासागर क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर भारत का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है लेकिन मालदीव को भारत की सहायता का वहां के विपक्षी राजनीतिक दल ग़लत मतलब लगा रहे हैं. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के नेतृत्व में विपक्ष ने ‘इंडिया आउट’ अभियान चला रखा है जिसमें भारतीय सैन्य मौजूदगी की तरफ़ विशेष रूप से इशारा किया गया है. रक्षा मंत्री मारिया दीदी और उनकी सरकार के दूसरे मंत्रियों ने इस अभियान के मुद्दों, जो कि ज़्यादातर बिना किसी सबूत के हैं, से पूरी तरह इनकार किया है. इसी तरह की भारत विरोधी भावनाओं को बांग्लादेश जैसे देशों में भी उठाया जाता था जहां 74 वर्ष की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना का कोई लोकप्रिय उत्तराधिकारी या कोई लोकप्रिय विरोधी भी नहीं है. इस तरह भविष्य में बांग्लादेश में ‘नेतृत्व का खालीपन’ वास्तविकता में बदल सकता है. 

तब भी कोलंबो सुरक्षा कॉन्क्लेव (सीएससी) के अनाम मार्गदर्शक के रूप में भारत को ख़बरदार रहने की ज़रूरत है ताकि भविष्य में सीएससी का प्रयोग नाकाम नहीं हो जैसा कि मालदीव में यामीन के राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान (2013-18) ज़्यादातर समय तीन देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक बाधित होती रही. ये सीएससी व्यवस्था का सबसे चुनौतीपूर्ण और पेचीदा हिस्सा है और द्विपक्षीय एवं संस्थागत प्रक्रियाओं के माध्यम से इस तरह के सामयिक घरेलू बदलावों पर विजय हासिल करना मौजूदा व्यवस्था की लंबी उम्र और सफलता को निर्धारित करेगा. ऐसा होने पर ही सीएससी की मौजूदा व्यवस्था से बढ़कर भविष्य में विश्वास और निरंतरता के साथ देखा जा सकता है ताकि ‘क्षेत्र से इतर’ शक्तियों को शामिल किए बिना साझा समुद्र को सुरक्षित किया जा सके. 

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