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तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने के बाद आशंका इस बात की है कि अगले 25 साल तक कोई भी राजनीतिक दल कृषि सुधारों के मुद्दे को छुएगा भी नहीं
कृषि सुधारों (agricultural reforms) पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के यू-टर्न लेने के पांच निहितार्थ निकलते हैं. ये भारत के इतिहास में एक ऐसा यू-टर्न है, जिस पर इतना कुछ दांव पर लगा था, जैसा भारत ने कभी नहीं देखा था. 19 नवंबर 2021 को प्रधानमंत्री मोदी ने एलान किया कि देश के किसानों को सशक्त करने वाले तीन कृषि सुधार क़ानून- कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) क़ानून 2020; आवश्यक वस्तु संशोधन क़ानून 2020; और, कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर क़रार क़ानून 2020 को सरकार रद्द करेगी. जैसा कि मोदी के सभी एलानों के साथ होता रहा है, इस घोषणा के लिए भी बिल्कुल सही वक़्त चुना गया. प्रधानमंत्री ने कृषि क़ानून वापस लेने की घोषणा गुरू नानक जयंती पर की, जिसने उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनावों से पहले इसे एक धार्मिक रंग भी दे दिया.
अब अगली एक सदी तक देश का कोई भी राजनीतिक दल इन सुधारों को छूने तक का साहस नहीं कर सकेगा. ये भारत का बहुत बड़ा नुक़सान है.
पहली बात तो ये कि वस्तु और सेवा कर (GST) के बाद, ये मोदी का सबसे बड़ा और दूरगामी नतीजे देने वाला सुधार था. जहां GST ने भारत में अप्रत्यक्ष करों में आमूल-चूल बदलाव कर डाला है, और उन्हें आसान और सरल बना डाला है (हालांकि अभी इसकी प्रक्रिया और सुधारने की ज़रूरत है). ठीक उसी तरह, कृषि सुधार के इन क़ानूनों से देश में खेती करने का ढर्रा और स्वरूप भी पूरी तरह बदल जाना था, और इससे उन किसानों को सबसे ज़्यादा फ़ायदा होता, जिनके पास बहुत पूंजी और ज़मीन नहीं है. 1991 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के औद्योगिक नीति पर बयान का जो असर, सेवाओं और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर हुआ था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कृषि सुधारों का वही असर खेती पर देखने को मिल सकता था. कृषि सुधारों पर इस यू-टर्न की सबसे अफ़सोसनाक बात ये है कि भारत का कृषि क्षेत्र अब पूरी एक पीढ़ी के लिए अमीर किसानों, व्यापारियों और बिचौलियों के क़दमों तले कुचले जाने को अभिशप्त हो गया है. अब अगली एक सदी तक देश का कोई भी राजनीतिक दल इन सुधारों को छूने तक का साहस नहीं कर सकेगा. ये भारत का बहुत बड़ा नुक़सान है.
ऐसा नहीं है कि लंबे समय से ज़रूरी इन सुधारों का विरोध करने वाले- ज़्यादातर किसान नेता और उनके पीछे पीछे लगी कांग्रेस थी- वो इतने भर से संतुष्ट हो जाने वाले हैं. अब वो करदाताओं से और बलि की मांग की मांग करेंगे.
दूसरी बात ये कि जिन लोगों ने इन तीन कृषि क़ानूनों का समर्थन किया था, उन्हें दग़ा दे दिया गया है. न केवल मंत्रिमंडल और संसद सदस्य, बल्कि बीजेपी के ज़मीनी कार्यकर्ता भी अब प्रधानमंत्री मोदी के एलान को लेकर अब ज़्यादा सशंकित होंगे और उन्हें शक की निगाह से देखेंगे. बीजेपी के नेतृत्व को अपने कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए और ताक़त लगानी पड़ेगी. अभी तो ऐसा लगता है कि उनकी बलि चढ़ा दी गई है. इनमें से बहुत से कार्यकर्ता इस चोट को झाड़कर उठ खड़े होंगे और नए सिरे से शुरुआत करेंगे. लेकिन, इस बार उन्हें पता है कि ये रास्ता उन्हें राजनीतिक गड्ढे में डालने वाला हो सकता है. अब वो सतर्क रहेंगे और सावधानी से क़दम उठाएंगे. बीजेपी के ज़मीनी कार्यकर्ता अब ब्लॉक स्तर पर सवालों के जवाब किस तरह से देंगे, ये देखना अभी बाक़ी है.
तीसरी बात ये कि जिन लोगों ने इन तीनों क़ानूनों का विरोध किया था, उन्हें एक नई ताक़त मिल गई है और अब उनकी मांगें और बढ़ेंगी. ऐसा नहीं है कि लंबे समय से ज़रूरी इन सुधारों का विरोध करने वाले- ज़्यादातर किसान नेता और उनके पीछे पीछे लगी कांग्रेस थी- वो इतने भर से संतुष्ट हो जाने वाले हैं. अब वो करदाताओं से और बलि की मांग की मांग करेंगे. अमीर किसान, आढ़तिए और बिचौलिए अब ज़्यादा रिटर्न की मांग करेंगे. न्यूनतम समर्थन मूल्य को सुरक्षा कवच देने वाले क़ानून की मांग करेंगे. वो चाहेंगे कि तयशुदा फ़सलों पर उन्हें ज़्यादा मूल्य मिले, जो महंगाई के हिसाब से बढ़ता रहे. जबकि हो सकता है कि देश ऐसी फ़सलों का आयात करे तो ज़्यादा सस्ता पड़े. अब पंजाब और उत्तर प्रदेश के इन अमीर और अकुशल ज़मींदारों की रईसाना ज़िंदगी का ख़र्च करदाताओं को उठाना पड़ेगा.
चौथा मतलब ये कि क्या इस यू-टर्न से पंजाब और उत्तर प्रदेश के चुनावों में राजनीतिक लाभ मिलेगा? इसकी उम्मीद कम है. इसका चुनावी लाभ उन नेताओं को मिलेगा, जो विरोध प्रदर्शन की अगुवाई कर रहे थे. वो आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों को भुनाएंगे. उन्हें शहीद बताएंगे और उनकी मौत को तोड़-मरोड़कर पेश करेंगे, जिससे उन्हें और फ़ायदा हो सके. हो सकता है कि बीजेपी फिर भी यूपी में विधानसभा चुनाव जीत जाए. लेकिन, इस यू-टर्न ने राज्य में विपक्षी दलों को नई ताक़त दे दी है, और शायद मतदाताओं के ज़हन में बीजेपी के अजेय होने को लेकर शक का बीज बो दिया है. कृषि क़ानून रद्द किए जाते या नहीं, पंजाब में बीजेपी के लिए कोई उम्मीद नहीं थी और अगर बीजेपी को वहां बहुमत मिलता है, तो ये हैरानी की बात होगी. यहां याद रखना चाहिए कि कृषि क़ानून वापस किए बग़ैर ही, बीजेपी को इसी साल असम में दोबारा जीत मिली थी. इसलिए क़ानून और वोट, अर्थशास्त्र और राजनीति के बीच कोई सीधा संबंध है नहीं; ये एक और चुनावी आयाम होगा.
क्या इस यू-टर्न से पंजाब और उत्तर प्रदेश के चुनावों में राजनीतिक लाभ मिलेगा? इसकी उम्मीद कम है. इसका चुनावी लाभ उन नेताओं को मिलेगा, जो विरोध प्रदर्शन की अगुवाई कर रहे थे.
पांचवीं बात ये कि जिन लोगों का ताल्लुक़ इन कृषि सुधारों से नहीं था, उन्हें अब एक ऐसी टूलकिट मिल गई है, जिसकी मदद से वो मोदी द्वारा किए जाने वाले हर सुधार का विरोध कर सकेंगे. जैसे भीष्म ने कुरुक्षेत्र के रण में युधिष्ठिर को ख़ुद बता दिया था कि उन्हें रणक्षेत्र में कैसे पराजित किया जा सकता है, उसी तरह मोदी ने भी विपक्ष को अपनी कमज़ोरी का राज़ बता दिया है. मोदी ने इस यू-टर्न के ज़रिए विपक्ष को बता दिया है कि हिंसा और भीड़ कारगर होती है. मोदी ने विपक्ष को ये भरोसा दे दिया है कि वो चुनाव जीतने और सड़क पर उतरे लोगों के साथ शांति के लिए ख़ामोश बहुमत की अनदेखी की क़ीमत अदा कर सकते हैं. मोदी ने हिंसा करने वालों की जीत सुनिश्चित कर दी है और उन किसानों को अब कृषि उपज मंडी समितियों के भरोसे पर छोड़ दिया है, जो अमीर नहीं हैं, जबकि कृषि की स्थायी समिति (2018-19) के मुताबिक़, मंडी समितियां, ‘राजनीति, भ्रष्टाचार और आढ़तियों व बिचौलियों के खेल का अड्डा बन चुकी हैं.’
ये समझ से परे है कि आख़िर मोदी- जो 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से मज़बूत इच्छाशक्ति के साथ एक के बाद एक सुधार करते आए हैं, और जिन्होंने नोटबंदी, जीएसटी, कोविड-19 के प्रबंधन और इससे जुड़े अर्थशास्त्र पर कड़े फ़ैसले लेते आए हैं- ने कृषि सुधारों पर ऐसी तबाही वाला यू-टर्न क्यों लिया, जिन सुधारों से किसान सशक्त होते और भारत में खेती-बाड़ी पूरी तरह से बदल जाती. अगर नरेंद्र मोदी नागरिकता संशोधन क़ानून (CAA) पर तब पीछे नहीं हटे, तो अब कृषि सुधार क़ानूनों पर उन्होंने पैर पीछे क्यों खींचे? क्या ये नागरिकता संशोधन क़ानून पर क़दम पीछे खींचने की आहट है? क्या उनकी लोकप्रियता कम हो रही है? इसका फ़ैसला भारत 2024 में करेगा.
जिन लोगों को अब तक इन क़ानूनों के बारे में नहीं पता, वो जान लें कि ये तीन कृषि क़ानून आज़ादी के बाद कृषि क्षेत्र में किए गए सबसे बड़े सुधार थे. वो एक सुधारक के तौर पर नरेंद्र मोदी की छवि का एक हिस्सा थे. ये कृषि सुधार क़ानून 20 वर्षों के वाद-विवाद, परिचर्चाओं और संसद में संवाद के बाद लाए गए थे (इसके लिए ‘भारत के तीन नए कृषि क़ानूनों की बौद्धिक जीवनी’ यहां देखें).
कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों के दौरान उन किसानों के हित लगातार नदारद रहे थे, जो अमीर नहीं हैं और जिनके पास ज़्यादा खेत नहीं हैं. इस यू-टर्न के ज़रिए मोदी ने उन्हें एक और पीढ़ी तक आर्थिक ग़ुलामी करने के लिए अभिशप्त कर दिया है. इससे छोटे और ग़रीब किसानों का तिहरा नुक़सान हुआ है. पहला तो ये कि वो अपनी उपज मंडियों के बाहर बेहतर दामों पर बेचने के अवसर से वंचित कर दिए गए हैं. दूसरा ये कि छोटे किसान एक बार फिर क़ीमतों के नियंत्रण के दौर की ओर लौट गए हैं, और उन्हें अपनी उपज को जल्द ख़राब होने से बचाने के लिए गोदामों में रखने की भारी क़ीमत भी चुकानी होगी. तीसरा नुक़सान ये है कि उन्हें संस्थानों से लेन-देन के दौरान कोई संरक्षण भी हासिल नहीं होगा.
ये किसानों के लिए बहुत अफ़सोस का दिन है; कृषि सुधारों के लिए आने वाली एक चौथाई सदी अफ़सोसनाक साबित होने वाली है.
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Gautam Chikermane is Vice President at Observer Research Foundation, New Delhi. His areas of research are grand strategy, economics, and foreign policy. He speaks to ...
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