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रासायनिक या केमिकल हथियारों को सामूहिक विनाश (डब्ल्यूएमडी) का हथियार माना जाता है. ये मानव स्वास्थ्य को तो प्रभावित करते ही हैं, साथ ही पर्यावरण के नुकसान का कारण बन सकते हैं. मानव इतिहास में इनके इस्तेमाल से ना सिर्फ बड़े पैमाने पर तबाही हुई है, बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों को भी नुकसान पहुंचा है. सामाजिक, राजनीतिक और भौगोलिक कमज़ोरियों की वजह से इस समुदाय के लोग अक्सर इन भयानक हमलों का खामियाजा भुगतते हैं. हालांकि रासायनिक हथियार और उनके उपयोग की संभावना कम है, लेकिन इनका प्रभाव अधिक है. महिलाओं, बच्चों, गरीबों, बेघरों या दूसरे तरीकों से हाशिए पर रहने वाले लोगों और कमज़ोर समुदायों पर इसका ज़्यादा असर दिखता है, जैसा कि हमने ऊपर रासायनिक हमलों के प्रभाव के उदाहरणों में देखा था.
रासायनिक हथियार और रासायनिक गैसों के रिसाव का इतिहास
युद्ध में रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल का सबसे ताज़ा उदाहरण ग़ाज़ा और यूक्रेन में दिखा. इजरायली सेना ने ज़मीनी सैनिकों के लिए दृश्यता को सीमित करने के मक़सद से सफेद फॉस्फोरस का उपयोग किया. चूंकि सफेद फॉस्फोरस का इस्तेमाल विषाक्तता (टॉक्सीसिटी) के लिए नहीं किया जाता, इसलिए इसे रासायनिक हथियार नहीं माना जाता है. लेकिन ये गैस इंसान के देखने की शक्ति को प्रभावित करती है. सांस लेने में जलन और कठिनाई पैदा कर सकती है. 2023 में, रूस पर यूक्रेनी सैनिकों के खिलाफ क्लोरोपिक्रिन का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया गया.
युद्ध में रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल का सबसे ताज़ा उदाहरण ग़ाज़ा और यूक्रेन में दिखा. इजरायली सेना ने ज़मीनी सैनिकों के लिए दृश्यता को सीमित करने के मक़सद से सफेद फॉस्फोरस का उपयोग किया.
हालांकि, आधुनिक युद्ध में रासायनिक हथियारों का उपयोग एक दुर्लभ (लेकिन अनदेखी नहीं) घटना है. फिर भी इसके उपयोग के ऐतिहासिक उदाहरण हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण मार्च 1988 में दिखा. ईरान-इराक युद्ध के आखिरी दिनों के दौरान सद्दाम हुसैन की सरकार ने कुर्द शहर हलाब्ज़ा पर मस्टर्ड गैस और सरीन समेत रासायनिक हथियारों से हमला किया था. नरसंहार की इस घटना में इराक में एक अल्पसंख्यक जातीय समूह को निशाना बनाया. इस हमले में करीब पांच हज़ार कुर्द मारे गए और हजारों घायल हुए. पीड़ितों में 75 प्रतिशत महिलाएं और बच्चे थे. इसके अलावा, जो लोग मौत से बच गए हैं, उनमें सांस और आंखों संबंधी समस्याएं पैदा हुईं.
2013 के बाद से, सीरिया के गृहयुद्ध के दौरान, रासायनिक हथियारों के उपयोग, विशेष रूप से सरीन और क्लोरीन गैस की ख़बरें कई बार सामने आई हैं. सीरियाई सरकार की तरफ से किए गए हमलों में विद्रोहियों के कब्जे वाले इलाकों को निशाना बनाया गया था, जहां गरीब और विस्थापित नागरिकों के घर थे.
युद्ध के अलावा रासायनिक विषाक्तता से कमज़ोर समुदायों पर इनका प्रभाव औद्योगिक रासायनिक गैस रिसाव और दुर्घटनाओं के माध्यम से भी देखे जाते हैं. इसके उदाहरण कई जगह देखे जा सकते हैं. इसमें अमेरिका के लुइसियाना शहर का एक इलाका भी शामिल है. इसे "कैंसर एली" या कैंसर कॉरिडोर कहा जाता है. अमेरिका में कैंसर पीड़ितों लोगों की संख्या देखें तो कैंसर एली के नागरिकों में इस रोग की उच्चतम दर देखी जा सकती है. इस आंकड़े का सीधा रिश्ता लंबे समय तक औद्योगिक प्रदूषकों के संपर्क से जुड़ा हुआ है. इस इलाके में रहने वाली महिलाओं में गर्भपात और प्रजनन स्वास्थ्य के जुड़े मुद्दों की उच्च दर देखी जा सकती है. इससे भी ये दिखता है कि पर्यावरण में ज़हरीले पदार्थों का असर महिलाओं पर ज़्यादा पड़ता है. इसी तरह का एक उदाहरण अमेरिका के मिशिगन इलाके में दिखता है. इसे 2014 में फ्लिंट जल संकट के रूप में जाना जाता है. यहां एक परियोजना में लागत में कटौती की कोशिश के कारण रिसाव हुआ, जिससे शहर की जल आपूर्ति दूषित हो गई. यहां भी प्रभावितों में ज़्यादा संख्या अश्वेत आबादी की थी. इनमें से अधिकतर लोग कम आय वाले थे. जब तक इनके बचाव के पर्याप्त उपाय किए जाते, उससे पहले ही ये लोग कई महीनों तक दूषित पानी के संपर्क में रह गए थे.
जब भोपाल गैस हादसा हुआ, उस दौरान प्रभावित क्षेत्र की गर्भवती महिलाओं के पर इस बहुत ज़्यादा असर पड़ा. गर्भ में ही भ्रूण की मौत हो गई. प्रभावित लोगों में से ज़्यादातर गरीब और निम्न जाति के समुदायों से थे.
हालांकि, भारत ने अब तक कभी रासायनिक हमले का अनुभव नहीं किया है, लेकिन 1984 का भोपाल गैस रिसाव त्रासदी भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के इतिहास में सबसे खराब औद्योगिक दुर्घटनाओं में से एक थी. करीब 3,45,000-5,00,000 लोगों पर गैस रिसाव का असर पड़ा. दस हज़ार लोगों की मौत हो गई, जबकि हज़ारों अन्य लोग सांस संबंधी समस्याओं, अंधापन और प्रजनन संबंधी विकारों जैसे दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभावों से पीड़ित थे. जब भोपाल गैस हादसा हुआ, उस दौरान प्रभावित क्षेत्र की गर्भवती महिलाओं के पर इस बहुत ज़्यादा असर पड़ा. गर्भ में ही भ्रूण की मौत हो गई. प्रभावित लोगों में से ज़्यादातर गरीब और निम्न जाति के समुदायों से थे. ये लोग कारखाने के आसपास अस्थायी आवास में रहते थे. हादसे में जो लोग बच गए, उनके भी लंबे समय तक अनदेखी की गई, उन्हें इलाज मुहैया नहीं कराया गया. इसकी वजह से कई लोग अब भी स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं से पीड़ित हैं. इससे ये ज़ाहिर होता है कि औद्योगिक आपदाओं के बाद गरीब और कमज़ोर समुदायों को राहत पहुंचाने में प्रशासन अपेक्षित गंभीरता नहीं दिखाता.
कमज़ोर समुदायों के लिए कितना ज़ोखिम?
रासायनिक आपदाओं में महिलाएं, विशेष रूप से अल्पसंख्यक और कम आय वाले समुदायों से जुड़ी, ज़्यादा ज़ोखिम का सामना करती है. इसकी सबसे बड़ी वजह जैविक कमज़ोरियों और सामाजिक असमानताओं में खोजी जा सकती है. महिलाओं से ये उम्मीद की जाती है कि वो बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल करें. इनकी देखरेख में होने वाली मेहनत और संघर्ष की वजह से महिलाएं जैविक और शारीरिक रूप से कमज़ोर हो जाती हैं. इसकी नतीजा ये होता है कि रासायनिक आपदाओं से पैदा होने वाले स्वास्थ्य ज़ोखिमों से वो बच नहीं पाती हैं. इसके अलावा, हानिकारक रसायनों का असर प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य पर भी पड़ता है. इससे महिलाओं और भविष्य की पीढ़ियों दोनों के लिए ख़तरा पैदा होता है. अगर हम भोपाल, हलाब्जा और कैंसर कॉरिडोर जैसी आपदाओं को देखें तो ये कहा जा सकता है कि जो महिलाएं गर्भावस्था के दौरान रासायनिक विषाक्तता से गुजरती हैं, उनमें आवश्यक गर्भपात और जन्मजात विकलांगता की घटनाएं ज्यादा दिखती हैं. दुख की बात ये है कि इन ज़ोखिमों के बावजूद, महिलाओं पर रासायनिक ख़तरों के प्रभाव को संबोधित करने वाले अनुसंधान और नीतियों नहीं बनती. इससे महिलाओं की स्वास्थ्य देखभाल और सेहत की पर्याप्त बहाली नहीं हो पाती.
कम आय वाले कमज़ोर समुदायों पर रासायनिक हथियार के उपयोग और औद्योगिक रिसाव का ज़्यादा असर होता है. ये शहरों में हाशिए पर रहने वाले समुदायों और पर्यावरणीय नस्लवाद के लंबे समय से स्थापित पैटर्न को दिखाता है. इन समुदायों के लोग आम तौर पर औद्योगिक क्षेत्रों या संघर्ष क्षेत्रों के आसपास रहते हैं. वो राजनीतिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर होते हैं. यही वजह है कि उन्हें रासायनिक हमलों के ज़ोखिम से बचाने या आपदाओं के बाद ठीक होने के लिए कम संसाधनों के साथ छोड़ दिया जाता है. क्षेत्र के आधार पर प्रभावित समुदाय अलग-अलग हो सकते हैं. ग्लोबल नॉर्थ में जब कमज़ोर समुदायों की बात की जाती है तो उसका अर्थ अक्सर अप्रवासियों या अल्पसंख्यक जाति समूहों से होता है. बात अगर ग्लोबल साउथ की करें तो ये व्यवस्थित जाति उपेक्षा के रूप में प्रकट होता है, जैसा कि भोपाल गैस त्रासदी के परिणामों में देखा जा सकता है. इन लोगों से अक्सर वर्ग के आधार पर भेदभाव होता है.
रासायनिक हथियारों को नियंत्रित करने वाला कानूनी तंत्र
केमिकल वेपन कन्वेंशन (सीडब्ल्यूसी) रासायनिक हथियारों के खिलाफ़ अंतरराष्ट्रीय कानूनी ढांचे का आधार है. ये एक बहुपक्षीय संधि है, जो रासायनिक हथियारों के विकास, उत्पादन, अधिग्रहण, भंडारण, इसे रखने, हस्तांतरण या उपयोग पर प्रतिबंध लगाती है. साल 2024 तक 193 देश इस पर अपनी सहमति दे चुके हैं. इस हिसाब से देखें तो सीडब्ल्यूसी वैश्विक स्तर पर व्यापक रूप से पालन किए जाने वाले हथियार नियंत्रण समझौतों में से एक है. सीडब्ल्यूसी ने संधि के पालन को सुनिश्चित करने के लिए रासायनिक हथियार निषेध संगठन (ओपीसीडब्ल्यू) की स्थापना की. ये संगठन निरीक्षण करता है, रासायनिक हथियारों के विनाश की देखरेख करता है, और उनके उपयोग के आरोपों की जांच करता है. इतना ही नहीं 1925 में हुआ जिनेवा प्रोटोकॉल युद्ध में रासायनिक और जैविक हथियारों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाता है.
इनके अलावा, रासायनिक हथियारों के उपयोग के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करने में अंतर्राष्ट्रीय कानूनी उपकरणों और संस्थानों का एक जटिल परस्पर क्रिया शामिल है. जब किसी देश या नॉन स्टेट एक्टर पर रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल का आरोप लगाया जाता है, तो इसके लिए कई जवाबदेही तंत्र लागू किए जा सकते हैं:
- अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय (आईसीसी): आईसीसी के पास युद्ध अपराधों पर फैसलों का अधिकार क्षेत्र है, जिसमें युद्ध की एक तरीके के रूप में रासायनिक हथियारों का उपयोग शामिल है. हालांकि शुरू में रोम अधिनियम के तहत इसे प्रतिबंधित किया गया था, लेकिन अगर रासायनिक हथियारों का उपयोग नागरिक आबादी के खिलाफ़ या 'अनावश्यक' पीड़ा पैदा करने के साधन के रूप में किया जाता है को अब युद्ध अपराध का मुकदमा चलाया जा सकता है. इन दस्तावेज़ों में अनावश्यक पीड़ा की परिभाषा अस्पष्ट है, लेकिन इसमें शामिल कम प्रतिनिधित्व वाले समुदायों की पीड़ा और पीड़ा की लंबी अवधि जवाबदेही तंत्र की वैधता बढ़ाने में मदद कर सकती है.
- एडहॉक ट्राइब्यूनल और हाइब्रिड कोर्ट: कुछ मामलों में, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने रासायनिक हथियारों के उपयोग के विशिष्ट उदाहरणों को संबोधित करने के लिए एडहॉक ट्राइब्यूनल और हाइब्रिड कोर्ट की स्थापना की है. उदाहरण के लिए, पूर्व यूगोस्लाविया के लिए अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायाधिकरण (आईसीटीवाई) ने बाल्कन संघर्षों के दौरान रासायनिक हथियारों से जुड़े मामलों पर मुकदमा चलाया. इसी तरह, सीरिया में रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल पर अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय कानून के संयोजन वाली हाइब्रिड अदालतों का प्रस्ताव दिया गया है. ऐसी अदालतों को इस बात पर प्राथमिकता देना चाहिए कि रासायनिक हमलों का नागरिकों, कमज़ोर समुदायों और दीर्घकाल तक इससे प्रभावित लोगों पर क्या असर पड़ा.
फिलहाल ये जवाबदेही तंत्र प्रभावित आबादी को एक मोनोलिथ (एक विशाल समूह) के रूप में देखते हैं. एक ऐसा समूह जिनमें रासायनिक विषाक्तता के दीर्घकालिक प्रभाव तो मौजूद हैं, लेकिन जिन्हें मौजूदा सम्मेलनों (कानून) के तहत नहीं माना जाता है. अब ज़रूरत इस बात की है कि इन जवाबदेही तंत्रों को बढ़ाने पर विचार किया जाए. इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों और राष्ट्रीय अनुप्रयोगों को प्रभाव पर विचार करने के लिए सिर्फ भंडारण, विकास और रिपोर्टिंग तंत्र पर काम करना चाहिए. रासायनिक हथियारों के प्रभाव के मूल्यांकन, आपदा शमन और रासायनिक निवारण की कोशिशों में निम्नलिखित प्रक्रियाओं को शामिल किया जा सकता है.
- हाशिए पर रहने वाले समुदाय आर्थिक रूप से कमज़ोर होते हैं. यही वजह है कि रासायनिक हथियारों की घटनाओं के लिए तैयार होने, उस पर प्रतिक्रिया देने और उससे उबरने की इन समुदायों की क्षमता सीमित हो जाती है.
- हाशिए के समुदायों को रासायनिक ख़तरों और आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रोटोकॉल के बारे में जानकारी प्राप्त करने में अक्सर बाधाओं का सामना करना पड़ता है. इसलिए इसके ख़तरों के प्रति सचेत करने के अभियान में महिलाओं और छोटे समुदायों के नेताओं को शामिल करने और इनके ज़रिए सूचना फैलाने से त्रासदी के समय प्रतिक्रिया समय और कार्यों को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है.
- यह समावेशन सिर्फ जानकारी साझा करने तक सीमित नहीं होना चाहिए. अल्पसंख्यक समुदायों के ज्ञान और उनके वास्तविक अनुभव का उपयोग से रिपोर्टिंग तंत्र स्थापित करने, योजना बनाने और निर्णय लेने में मदद मिल सकती है. ये दीर्घकालिक पर्यावरणीय न्याय हासिल करने के लिए महत्वपूर्ण है, फिर भले ही कोई रासायनिक त्रासदी ना हो.
- तैयारी, प्रतिक्रिया और त्रासदी से निपटने के लिए संसाधनों के आवंटन में हाशिए के समुदायों को प्राथमिकता देनी चाहिए. संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित करना चाहिए. रासायनिक हथियारों की घटनाओं से प्रभावित समुदायों के लिए स्वास्थ्य निगरानी कार्यक्रमों को लागू करना चाहिए. इससे रासायनिक हमलों या त्रासदी के दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभावों की पहचान करने और और उनका समाधान खोजने में मदद मिल सकती है. इसे लेकर किए जाने वाले शोध को सीमांत आबादी में रासायनिक ज़ोखिमों के विशिष्ट स्वास्थ्य परिणामों को समझने और इन प्रभावों को कम करने के लिए रणनीति विकसित करने पर केंद्रित करना चाहिए.
आखिरकार ये बात याद रखनी चाहिए कि रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल मौलिक मानवाधिकारों का उल्लंघन और वैश्विक सुरक्षा का अपमान है. इसके खिलाफ़ जवाबदेही तंत्र और कानूनी ढांचे को मज़बूत बनाया जाना चाहिए.
रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल पर जवाबदेही को मजबूत करने के लिए, अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ओपीसीडब्ल्यू और आईसीसी जैसे संस्थानों के अधिकारों को बढ़ाना चाहिए. उन्हें रासायनिक हथियार के उपयोग की गिनती पर ही नहीं बल्कि गुणात्मक परिणामों पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहिए. यानी अलग-अलग आबादी इससे कैसे पीड़ित हैं, कब से पीड़ित हैं और कब तक पीड़ित रहेंगे. आखिरकार ये बात याद रखनी चाहिए कि रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल मौलिक मानवाधिकारों का उल्लंघन और वैश्विक सुरक्षा का अपमान है. इसके खिलाफ़ जवाबदेही तंत्र और कानूनी ढांचे को मज़बूत बनाया जाना चाहिए. इसके लिए सिर्फ भू-राजनीतिक विश्व व्यवस्था ही नहीं बल्कि मानव प्रभाव पर भी विचार करना होगा, तभी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय रासायनिक हथियारों के उपयोग को बेहतर ढंग से रोक सकता है.
(श्रविष्ठा अजयकुमार ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर सिक्योरिटी, स्ट्रैटजी एंड टेक्नोलॉजी में एसोसिएट फेलो हैं.)
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