Published on Sep 27, 2023 Updated 0 Hours ago

डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट में कमी के लिए भारत को अपने फुटप्रिंट की सीमा को स्वीकार करना चाहिए और इसमें कमी लाने के लिए नीतियां बनानी चाहिए.

स्थिरता की तरफ कदम: डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट में कमी

ग्लोबल वार्मिंग  में योगदान देने वाले प्रमुख देशों में कार्बन उत्सर्जन की वृद्धि दर भारत में सबसे ज़्यादा है. हाल के वर्षों में देखा गया है कि लोग सबसे अधिक समय इलेक्ट्रॉनिक  डिवाइस पर खर्च करते हैं. ऐसे में ये ज़रूरी हो गया है कि इसकी वजह से बढ़ते “डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट” का हल किया जाए. डिजिटल इंडिया अभियान के ज़रिए देश को और डिजिटलाइज़ करने की योजना तकनीक के इस्तेमाल के असर से जुड़ी समस्या को हल करने के महत्व को और ज़्यादा बढ़ाती है.

डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट के स्रोत

डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट किसी डिवाइस या सॉफ्टवेयर के पूरे जीवन के दौरान उत्पन्न कुल उत्सर्जन है. इसमें डिवाइस या सॉफ्टवेयर के निर्माण, उपयोग और रख-रखाव के दौरान उत्पन्न उत्सर्जन शामिल है. पहला चरण हार्डवेयर डिवाइस जैसे कि लैपटॉप, फोन और माइक्रोप्रोसेसर का उत्पादन है जब इन्हें तैयार करने वाली मशीनें महत्वपूर्ण मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड पैदा करती हैं.

जो डिवाइस सॉफ्टवेयर के निर्माण, काम करने और रख-रखाव के लिए इस्तेमाल की जाती है, उन्हें भी बिजली की ज़रूरत होती है. चार्जिंग के लिए बिजली के जिस स्रोत की आवश्यकता होती है वो भी कार्बन फुटप्रिंट में योगदान करता है; अगर बिजली का स्रोत रिन्यूएबल है तो हर बार फोन को चार्ज करने के दौरान पैदा उत्सर्जन उसके डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट को बढ़ाता है. 2021 में की गई रिसर्च से पता चला कि दुनिया भर में स्मार्टफोन को चार्ज करने से एक साल में 80 लाख टन से ज़्यादा कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है.

इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी की 2022 की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में कुल इस्तेमाल होने वाली बिजली में से 1-1.5 प्रतिशत बिजली का उपयोग डेटा सेंटर करते हैं जो कि “जर्मनी और जापान के द्वारा मिलाकर खपत की जाने वाली कुल बिजली” के बराबर है.

डिवाइस में इस्तेमाल होने वाले सॉफ्टवेयर को बड़े डेटा सेंटर में स्टोर और मेंटेन किया जाता है. इन डेटा सेंटर में सिस्टम को फेल होने से रोकने के लिए बहुत ज़्यादा और लगातार बिजली सप्लाई की ज़रूरत होती है. इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी की 2022 की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में कुल इस्तेमाल होने वाली बिजली में से 1-1.5 प्रतिशत बिजली का उपयोग डेटा सेंटर करते हैं जो कि “जर्मनी और जापान के द्वारा मिलाकर खपत की जाने वाली कुल बिजली” के बराबर है. इसके अलावा डेटा स्टोर करने की जगह में बड़े पैमाने पर कूलिंग सिस्टम के लिए भी बिजली की आवश्यकता होती है ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि सर्वर और स्टोरेज डिवाइस ठीक ढंग से काम करें.

किसी डिजिटल सामान- हार्डवेयर हो या सॉफ्टवेयर- के पूरे जीवन के दौरान हर कदम पर ऊर्जा की खपत होती है और इसलिए कार्बन फुटप्रिंट बनता है. उदाहरण के लिए, एक बार गूगल सर्च के दौरान 0.2 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है. इस तरह गूगल सर्च को सक्षम बनाने वाले उसके सिस्टम के द्वारा की जाने वाली बिजली की खपत के कारण गूगल सर्च की वजह से हर रोज़ 18,00,000 किलोग्राम कार्बन का उत्सर्जन होता है. गूगल के दफ्तरों, क्लाउड सर्विसेज़ और डिवाइस को मिला दिया जाए तो 2020 में उन्होंने हर रोज़ 10 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड से ज़्यादा का उत्सर्जन किया. गूगल ने हरित (ग्रीन) काम-काज का संकल्प लिया है और 2030 तक उसने “24/7 कार्बन-मुक्त ऊर्जा पर काम करने” का मक़सद रखा है.

एप्पल जैसी कंपनियां भी एनर्जी एफिशिएंसी में सुधार, कम-कार्बन डिज़ाइन के निर्माण और कॉरपोरेट काम-काज के लिए कार्बन न्यूट्रल बनकर 2030 तक अपने ग्लोबल सप्लाई चेन को कार्बन मुक्त करने की दिशा में काम कर रही हैं. इन कोशिशों का नतीजा 2015 से 2022 के बीच कंपनी के द्वारा कार्बन उत्सर्जन में 40 प्रतिशत की कमी में दिखा है. इसके अलावा एप्पलकी कोशिशें उसके इस दावे का साथ देती हैं कि वो 2030 तक 100 प्रतिशत कार्बन-न्यूट्रल सप्लाई चेन तैयार करेगी और अपने उत्सर्जन में 75 प्रतिशत की कमी करेगी. लेकिन किसी एक संगठन के द्वारा इस तरह के प्रयास 2030 तक उत्सर्जन में 45 प्रतिशत की कमी के पेरिस समझौते के लक्ष्य को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.

सरकार का दखल और कानून

कुछ देशों में कानून के ज़रिए उत्सर्जन में कमी को देखते हुए वैश्विक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए सरकारी हस्तक्षेप आवश्यक है. इस तरह की कानूनी अनिवार्यता तकनीकी संगठनों की कोशिशों को तेज़ करते हैं. मिसाल के तौर पर, कार्बन फुटप्रिंट कम करने के लिए एप्पलके प्रयास अमेरिका के नेशनल क्लाइमेट टास्क फोर्स से प्रेरित हैं. ये टास्क फोर्स “2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन को हासिल करने” की दिशा में काम करता है. नीदरलैंड्स ने भी अपने जलवायु कानून में “1990 के स्तर की तुलना में 2030 तक ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में 49 प्रतिशत कमी” की बात कही है. डेनमार्क और यूनाइटेड किंगडम में इसी तरह के कानून और नीतियां कार्बन फुटप्रिंट में कमी की दिशा में काम करती हैं और तकनीकी संगठनों को कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए मजबूर करती हैं.

नीदरलैंड्स ने भी अपने जलवायु कानून में “1990 के स्तर की तुलना में 2030 तक ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में 49 प्रतिशत कमी” की बात कही है. डेनमार्क और यूनाइटेड किंगडम में इसी तरह के कानून और नीतियां कार्बन फुटप्रिंट में कमी की दिशा में काम करती हैं और तकनीकी संगठनों को कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए मजबूर करती हैं.

दूसरी पहल जैसे कि भारत में ऊर्जा मंत्रालय के ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (BEE) के द्वारा निर्धारित पावर सेविंग्स गाइड भी तकनीकी उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य के लिए काम करते हैं. इस कार्यक्रम का एक प्राथमिक हिस्सा है इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के लिए एनर्जी एफिशिएंसी लेबल जो उपभोक्ताओं को ख़रीदते समय पूरी जानकारी के आधार पर उचित फैसला लेने में मदद करता है. अमेरिका की एनवायरमेंट प्रोटेक्शन एजेंसी (EPA) और डिपार्टमेंट ऑफ एनर्जी (DOE) भी इसी तरह का एनर्जी स्टार कार्यक्रम चलाता है. ये सर्टिफिकेशन, जिन्हें इको-लेबल के रूप में जाना जाता है, डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट में कमी लाने के एक व्यापक समाधान, जिसे ‘ग्रीन कंप्यूटिंग’ के नाम से जाना जाता है, का हिस्सा हैं.

ग्रीन कंप्यूटिंग

ग्रीन कंप्यूटिंग ऊर्जा दक्षता को सुधारने और पर्यावरण पर कंप्यूटर सिस्टम के असर को कम करने पर ध्यान देता है ताकि हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर के निर्माण और खपत के लिए कम डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट बन सके.

इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस को चलाने में इस्तेमाल होने वाला बिजली का स्रोत डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट में एक महत्वपूर्ण योगदान देता है. इसलिए उत्सर्जन को कम करने में पूरे देश में सप्लाई होने वाली बिजली में रिन्यूएबल एनर्जी का हिस्सा बढ़ाने के लिए सरकारी पहल अहम है. भारत का नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (NAPCC) कार्बन फुटप्रिंट में योगदान देने वाले इस हिस्से पर ख़ास ध्यान देता है.

उद्योगों की तरफ से ग्रीन कंप्यूटिंग के क्षेत्र में दूसरी पहल भी वैश्विक स्तर पर कम डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट को हासिल करने की दिशा में अहम हैं. मिसाल के तौर पर, ग्रीन सॉफ्टवेयर फाउंडेशन (GSF) कम कार्बन फुटप्रिंट के साथ एप्लिकेशन बनाने के लिए रिसर्च, टूल और कोड मुहैया कराता है.

प्राइवेट सेक्टर भी इस तरह के विकास को आगे बढ़ा रहा है. उदाहरण के लिए, एप्पल का ऑपरेटिंग सिस्टम iOS 16.1 और इसकी एक ख़ासियत जिसे “क्लीन एनर्जी चार्जिंग” कहा जाता है. क्लीन एनर्जी चार्जिंग के ज़रिए आईफोन अपने यूज़र की स्थानीय एनर्जी ग्रिड के द्वारा कार्बन उत्सर्जन का पूर्वानुमान लगाता है और इस पूर्वानुमान का इस्तेमाल करके उस वक़्त आईफोन को चार्ज किया जा सकता है जब मिलने वाली बिजली नवीकरणीय होती है. इस तरह फोन का डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट कम होता है. ये सुविधा वर्तमान में (जुलाई 2023 तक) केवल अमेरिका में उपलब्ध है.

उद्योगों की तरफ से ग्रीन कंप्यूटिंग के क्षेत्र में दूसरी पहल भी वैश्विक स्तर पर कम डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट को हासिल करने की दिशा में अहम हैं. मिसाल के तौर पर, ग्रीन सॉफ्टवेयर फाउंडेशन (GSF) कम कार्बन फुटप्रिंट के साथ एप्लिकेशन बनाने के लिए रिसर्च, टूल और कोड मुहैया कराता है. साथ ही वो ऐसे एप्लिकेशन का निर्माण करने के लिए फ्रेमवर्क की पेशकश करता है जो स्वच्छ, कम कार्बन के स्रोतों से मिलने वाली बिजली होने पर ज़्यादा काम करता है. राष्ट्रीय स्तर पर डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट कम करने में सस्टेनेबल सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर प्रोडक्शन को सक्षम बनाने वाले इन्फॉर्मेशन टूल तक पहुंच मुहैया कराने वाली इस तरह की पहल के लिए सरकार का समर्थन बहुत महत्वपूर्ण है.

एनर्जी स्टार और BEE जैसे इको-लेबल भी डेवलपर्स और यूज़र्स को अपना डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट कम करने के लिए जानकारी मुहैया कराते हैं. सॉफ्टवेयर की सस्टेनेबिलिटी पर केंद्रित इको लेबल के विकास के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक प्रोडक्ट एनवायरमेंटल असेसमेंट टूल (EPEAT) और TCO सर्टिफाइड के साथ प्राइवेट सेक्टर ने महत्वपूर्ण प्रगति हासिल की है. सरकार इन संगठनों का समर्थन कर सकती है या अपने लेबल के साथ इस तरह के लेबल को जोड़ सकती है. इस तरह दोनों को जोड़ने से उपभोक्ताओं को इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस के फुटप्रिंट के बारे में पूरी और सटीक जानकारी प्रदान की जा सकेगी.

अलग-अलग देशों की सरकारों को द ग्रीन ग्रिड (TGG) जैसी पहल के साथ काम करने पर भी विचार करना चाहिए जो डेटा सेंटर के ज़्यादा कार्बन फुटप्रिंट को देखते हुए उनकी ऊर्जा दक्षता में सुधार करने के लिए टूल और तकनीकी विशेषज्ञता मुहैया कराती हैं.

वास्तविकताओं की तरफ ध्यान

संयुक्त राष्ट्र की एनवायरमेंट प्रोग्राम एमिशंस गैप रिपोर्ट 2022 विस्तार से बताती है कि कैसे भारत की कार्बन उत्सर्जन नीति, 2022 तक, उसके कार्बन फुटप्रिंट को कम करने में असरदार नहीं है. इसलिए ज़्यादा डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट की समस्या का समाधान करना और व्यक्तिगत, संगठनात्मक एवं राष्ट्रीय स्तर पर समाधान में निवेश करना सबसे बड़ा काम है.

ग्रीन कंप्यूटिंग सॉल्यूशंस के साथ मुख्य चुनौती बढ़ी हुई लागत है, ऐसे में सरकार को इस व्यवहार में सबसे आगे रहने वाली कंपनियों, जैसे कि माइक्रोसॉफ्ट और IBM, के साथ मिलकर काम करने का लक्ष्य रखना चाहिए.

डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट को कम करने के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रथाओं के मानकीकरण (स्टैंडर्डाइज़ेशन) के उद्देश्य से सरकार प्राइवेट सेक्टर के समाधान का साथ दे सकती है और सरकारी पहल को उद्योग के साथ जोड़ सकती है. कंपनियों के लिए ESG (एनवायरमेंटल, सोशल एंड गवर्नेंस) रिपोर्टिंग में ग्रीन कंप्यूटिंग को रेगुलेट करने से प्राइवेट सेक्टर की ज़िम्मेदारी में सुधार होगा.

इसके अलावा डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट पर शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिए ताकि व्यक्तिगत स्तर पर डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट को कम करने के लिए लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाई जा सके और लोगों की आदत में बदलाव आ सके. मुंबई यूनिवर्सिटी के द्वारा ग्रीन कंप्यूटिंग पर एक कोर्स की शुरुआत को देश भर में लागू किया जाना चाहिए. चूंकि ग्रीन कंप्यूटिंग सॉल्यूशंस के साथ मुख्य चुनौती बढ़ी हुई लागत है, ऐसे में सरकार को इस व्यवहार में सबसे आगे रहने वाली कंपनियों, जैसे कि माइक्रोसॉफ्ट और IBM, के साथ मिलकर काम करने का लक्ष्य रखना चाहिए. इंडस्ट्री रिसर्च एवं डेवलपमेंट और पहले से मौजूद उपभोक्ता समर्थन के साथ पूरी जानकारी साझा करने से लोगों और संगठनों के बीच सर्वश्रेष्ठ प्रथाओं को बढ़ाने के लिए ज़रूरी निवेश में कमी आ सकती है.

भारत के डिजिटल कार्बन फुटप्रिंट की सीमा को स्वीकार करने और इसमें कमी लाने के लिए नीतियां बनाने भर से ही भारत में कार्बन उत्सर्जन को कम करने में महत्वपूर्ण प्रगति हासिल की जा सकती है.


आर्यन कौशल ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के जियोइकोनॉमिक्स प्रोग्राम में इंटर्न हैं.

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