Author : Arya Roy Bardhan

Published on Jan 24, 2024 Updated 0 Hours ago
मोटे अनाज: भारत की खाद्य सुरक्षा और जलवायु के लिए लाभकारी समाधान

संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर अंतर्सरकारी पैनल (IPCC) के मुताबिक़, अगले दो दशकों में वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस या इससे भी ज़्यादा गर्मी के स्तर तक पहुंच सकता है. मौसम में आ रहे इस बदलाव से निपटने के लिए जो उपाय अभी किए जा रहे हैं, ऐसे में ऐसी आपातकालीन नीतियां लागू करने की ज़रूरत है जो हमें ग्लोबल वार्मिंग से सुरक्षा दे सकें. ग्लोबल वार्मिंग का दूरगामी असर न केवल पानी की उपलब्धता पर पड़ेगा, बल्कि ये कृषि और खाद्य सुरक्षा पर भी असर डालेगा. भूगर्भ जल का 89 प्रतिशत हिस्सा अकेले कृषि क्षेत्र ही उपयोग करता है. ऐसे में खेती बाड़ी के तरीक़ों में ऐसे बदलाव करने होंगे, जिससे पोषण और पीने के पानी की सुरक्षा सुनिश्चित हो और इसकी सामाजिक क़ीमत भी कम से कम चुकानी पड़े.

भारत पानी की भयंकर क़िल्लत वाली अर्थव्यवस्था है. यहां दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी रहती है, मगर कुल वैश्विक जल संसाधनों का केवल 4 प्रतिशत ही भारत में है. लंबे समय से भूगर्भ जल संसाधनों के दोहन की वजह से इसमें भारी कमी आ गई है, इससे बदलाव की ऐसी नीतियों को तुरंत लागू करने की ज़रूरत रेखांकित होती है, जिससे भूगर्भ जल का उचित प्रबंधन किया जा सके. वैसे तो अटल भूजल योजना जैसे कार्यक्रम भूगर्भ जल के प्रबंधन को कुशल बनाने के लिए तो आवश्यक हैं ही. लेकिन, खेती में पानी की खपत कम करने पर भी ज़ोर दिया जाना चाहिए. कुछ अनाजों की फसलें, जिन्हें उगाने में बहुत पानी लगता है, उनकी बाज़ार में सबसे अधिक हिस्सेदारी है. इससे खाद्य सुरक्षा और पानी की उपलब्धता में से एक के चुनाव की चुनौती पैदा होती है. खाने और पानी के बीच चुनाव की इस चुनौती से बचने में मिलेट जैसी सूखी फसलों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. इस परिचर्चा का मक़सद ये रेखांकित करना है कि किस तरह भारत में खेती के तरीक़ों को वैश्विक स्तर पर लागू किया जा सकता है.

खाने और पानी के बीच चुनाव की इस चुनौती से बचने में मिलेट जैसी सूखी फसलों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. इस परिचर्चा का मक़सद ये रेखांकित करना है कि किस तरह भारत में खेती के तरीक़ों को वैश्विक स्तर पर लागू किया जा सकता है.

भारत में मोटे अनाजों से दूरी

धान, गेहूं और गन्ने की फ़सलें पानी पर सबसे अधिक निर्भर होती हैं और भारत की लगभग 90 प्रतिशत उपज इन्ही फ़सलों की होती है. भारत, चावल का सबसे बड़ा निर्यातक देश है. हर एक किलो चावल उगाने में लगभग 3,500 लीटर पानी लगता है. इससे धान के उत्पादन की सामाजिक क़ीमत में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हो जाती है. दुनिया में मीथेन गैस के उत्सर्जन के 10 फ़ीसद हिस्से के लिए चावल ही ज़िम्मेदार है और दक्षिण एशिया में 30 प्रतिशत मीथेन गैस का उत्सर्जन इसी की वजह से होता है. इसके बावजूद, चावल और गेहूं की खेती को बढ़ावा देने वाली भारत की हरित क्रांति ने किसानों की ज़मीनों और खाने वालों की प्लेट से मिलेट का सफाया कर दिया है.

धरती के बढ़ते तापमान और घटते जलस्तर को देखते हुए खाने के मुख्य अनाज के तौर पर मोटे अनाजों का चलन दोबारा बढ़ाने की ज़रूरत को स्वीकार किया जा रहा है. चावल की तुलना में ज्वार, बाजरा और रागी जैसे मोटे अनाजों को उगाने में बारिश की ज़रूरत तक कम होती है. वैश्विक तापमान में हो रही बढ़ोत्तरी को देखते हुए गेहूं की खेती अव्यवहारिक होने वाली है. ऐसे में मोटे अनाज एक टिकाऊ विकल्प बन सकते हैं, जो सूखे और अधिक तापमान वाले हालात में भी उगाए जा सकते हैं. ये भी पाया गया है कि चावल से तुलना की जाए, तो मोटे अनाजों में 30 से 300 प्रतिशत तक अधिक पोषक तत्व होते हैं. यानी अगर मोटे अनाज उगाए जाते हैं, तो जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद तो मिलेगी ही, पोषण की सुरक्षा से भी कोई समझौता नहीं करना पड़ेगा.

Table 1: भारत में 2010-11 से 2019-20 के दौरान भारत में मोटे अनाजों का क्षेत्र (1000 हेक्टेयर) में, उत्पादन (1000 टन में) और उपज (किलोग्राम प्रति हेक्टेयर)

भारत के नीतिगत क्षेत्र में उठाए जा रहे क़दम

2011-12 में मोटे अनाजों के उत्पादन के लिए उपलब्ध उन्नत तकनीकों को दिखाने और ग्राहकों की मांग बढ़ाने के लिए इनिशिएटिव फॉर न्यूट्रिशनल सिक्योरिटी थ्रू इंटेंसिव मिलेट्स प्रोडक्शन की शुरुआत की गई थी. नेशनल मिशन फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर जो ‘पानी के इस्तेमाल में कुशलता’ और ‘पोषण प्रबंधन’ पर बहुत अधिक केंद्रित है, वो भी किसानों को तमाम वित्तीय प्रोत्साहनों के ज़रिए मिलेट्स की खेती को बढ़ावा देता है. 2013 में बनाए गए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून (NFSA) में मोटे अनाजों के वितरण का निर्देश दिया गया था. लेकिन इसमें मिलेट्स के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं किया गया था. सरकार केवल ज्वार, बाजरा और रागी ही ख़रीदती है. इससे कम बोए जाने वाले मोटे अनाजों के उत्पादन को कोई सुरक्षा ढांचा उपलब्ध नहीं है. हालांकि, 2018 में मोटे अनाजों को ‘पोषक अनाज’ माना गया और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अंतर्गत उनको प्रोत्साहन दिया जाने लगा, जिसके बाद साल 2018 को राष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष घोषित किया गया.

2021 में भारत ने ज्वार और रागी की ख़रीद का समय क्रमश: छह से 9 और 10 महीने के लिए बढ़ा दिया था. सरकार ने माना कि मोटे अनाजों को केवल शहरी समुदाय के बीच प्रचारित करने भर से ठोस रूप से इन अनाजों को तरज़ीह देने की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता है, और एक व्यापक बदलाव की ज़रूरत है, जिसे केवल वितरण और ख़रीद की योजनाओं के ज़रिए ही हासिल किया जा सकता है. यही नहीं अंतरराष्ट्रीय प्राथमिकताओं के साथ दोबारा तालमेल बनाने और मिलेट्स की खेती को बढ़ावा देने के लिए अंतरराष्ट्रीय बाज़ार की ज़रूरत भी होगी, तभी फ़सल को लाभकारी बनाया जा सकेगा. भारत ने मोटे अनाजों को भविष्य के अनाज के तौर पर प्रचारित करने की ज़रूरत की पहचान की और भारत के प्रस्ताव की वजह से ही संयुक्त राष्ट्र ने 2023 को इंटरनेशनल ईयर ऑफ दि मिलेट्स घोषित किया. 2021-22 से ही खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय द्वारा चलाए जा रहे प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव के अंतर्गत सरकार, मोटे अनाजों से तैयार ‘रेडी टू कुक’ उत्पादों को प्रोत्साहित करने के लिए 800 करोड़ रुपए आरक्षित करती रही है.

अंतरराष्ट्रीय प्राथमिकताओं के साथ दोबारा तालमेल बनाने और मिलेट्स की खेती को बढ़ावा देने के लिए अंतरराष्ट्रीय बाज़ार की ज़रूरत भी होगी, तभी फ़सल को लाभकारी बनाया जा सकेगा.

मांग को दोबारा बढ़ाने के लिए ग्राहकों को मोटे अनाजों की पोषण संबंधी गुणवत्ता से परिचित कराने की ज़रूरत है. ग्लूटेन मुक्त होने के अलावा, मिलेट्स आयरन, कैल्शियम और ज़िंक से भरपूर होते हैं. ग्लाइसेमिक इंडेक्स में निचले स्तर पर होने के कारण ये आकलन किया गया है कि मोटे अनाज, दुनिया भर में डायबिटीज़ की रोकथाम और शरीर का वज़न और हाइपरटेंशन को नियंत्रित करने में काफ़ी कारगर साबित हो सकते हैं. यही नहीं, मोटे अनाजों में लगभग 65 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट पॉलीसैकराइड्स और पोषक फाइबर होते हैं. ऐसे में जो लोग नियमित रूप से मोटे अनाज खाते हैं, उनमें दिल की बीमारियां होने की आशंका कम हो जाती है. चावल की तुलना में मोटे अनाजों में कैल्शियम की मात्रा ज़्यादा होती है और इनमें आयरन तो गेहूं और चावल से भी अधिक होता है.

भारत की मूल्य संवर्धित श्रृंखला को मज़बूत करना

भारत दुनिया में मोटे अनाजों का सबसे बड़ा उत्पादक और दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है. पिछले पांच दशकों में भारत में कृषि लायक़ ज़मीन 56 प्रतिशत घट गई है. मगर बढ़ी हुई उत्पादकता और उन्नत तकनीक की वजह से देश में मिलेट्स का उत्पादन 1.13 करोड़ टन से बढ़कर 1.69 करोड़ टन पहुंच गया. भारत द्वारा मोटे अनाजों को बढ़ावा देने के प्रयासों, नीतिगत ढांचे और इनकी खेती से जुड़ी जानकारी को भी प्रचारित किया जाना चाहिए, ताकि इन्हें कहीं और भी अपनाया जा सके.

पिछले पांच दशकों के दौरान भारत के रिसर्च की वजह से लगभग 80 से 200 तक बेहतर उपज वाली प्रजातियों का राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर आविष्कार किया गया है. इन नस्लों से अनाज भी अधिक होता है और इनकी जैविक और अजैविक प्रतिरोधक क्षमता भी अधिक है. चारे के लिए उगाई जाने वाली ज्वार की नई प्रजाति के अनाज को पचाना भी आसान होता है और ये सायनोजेन से भी सुरक्षित हैं और पुरानी प्रजातियों की तुलना में इनकी फ़सलों को नुक़सान भी कम होता है. वहीं दूसरी तरफ़, कमज़ोर किसानों को खाना, पोषक और आर्थिक सुरक्षा देने के लिए बायोफोर्टिफाइड बाजरे को विकसित किया गया है. बाजरा पोषक तत्वों से भरपूर होता है और उस पर मौसम की मार भी कम पड़ती है. इससे उन सूखे और अर्धशुष्क क्षेत्रों के किसानों के लिए इसकी फ़सल महत्वपूर्ण हो जाती है, जहां पर जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव पड़ने वाला है.

Table 2: भारत के प्रमुख राज्यों में छोटे मिलेट्स की खेती का क्षेत्रफल, उत्पादन और उत्पादकता (2019-20)

बाजरे की संभावना का पूरी तरह दोहन करने के लिए अच्छी गुणवत्ता की लागत ज़रूरी होती है. इसको मानक वाले बीजों के उत्पादन की तकनीकों से सुनिश्चित किया जा सकता है. रागी, कुटकी, कंगनी, कोदो, सांवां, चीना और कोराले जैसे छोटे मिलेट्स परिवार के सदस्यों को भी ख़रीद के दायरे में लाने की ज़रूरत है.

भारत द्वारा मोटे अनाजों को बढ़ावा देने के प्रयासों, नीतिगत ढांचे और इनकी खेती से जुड़ी जानकारी को भी प्रचारित किया जाना चाहिए, ताकि इन्हें कहीं और भी अपनाया जा सके.

क्या किया जाना चाहिए?

खाद्य सुरक्षा और संसाधनों के दोहन की मौजूदा दुविधा से निपटने के लिए मोटे अनाज एक कुशल समाधान उपलब्ध कराते हैं. हालांकि, मिलेट्स उद्योग का उत्पादन बढ़ाने के लिए बाज़ार को पूरी तरह संचालित होने से पहले उचित नीतियां बनाने की ज़रूरत है. छोटे मिलेट्स की बेहतर उपज वाली प्रजातियां विकसित करने के लिए प्रभावी रिसर्च ज़रूरी है क्योंकि किसानों को इनको बोने के कारण उत्पादकता की चुनौती का सामना करना पड़ता है, जिससे उनके मुनाफ़े में काफ़ी कमी आ जाती है. इन फ़सलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और सब्सिडी की शक्ल में किसानों को सहायता दी जा सकती है. इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स का इस्तेमाल वैश्विक स्तर पर प्राथमिकताओं को ढालने और उनको मिलेट्स से मिलने वाले पोषण और टिकाऊ विकास के लाभों से भी परिचित कराया जाना चाहिए. आख़िर में, तेज़ी से गर्म होती दुनिया में दूसरे देशों की सरकारों को मोटे अनाजों का उत्पादन करने और इनकी खपत बढ़ाने के लिए, मिलेट्स के जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलेपन की ख़ूबी पर ज़ोर दिया जाना चाहिए.

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