Author : Lavanya Mani

Expert Speak Raisina Debates
Published on Nov 07, 2025 Updated 2 Days ago

दुनिया की बदलती राजनीति में अब सिर्फ़ महाशक्तियाँ नहीं बल्कि मध्यम ताक़तवर लोकतांत्रिक देश भी असर डाल रहे हैं. ब्राज़ील, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ़्रीका और मेक्सिको दिखा रहे हैं कि लोकतंत्र कूटनीति की नई ताक़त बन सकता है.

न अमेरिका, न चीन—अब बीच के देश दिखा रहे हैं राह

यह लेख ब्रिक्स (BRICS) और जी-20 (G20) के कुछ बड़े उभरते देशों ब्राज़ील, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ़्रीका और मेक्सिको—पर बात करता है. ये देश लोकतांत्रिक हैं और इनमें कई राजनीतिक दल सक्रिय हैं. लेख यह समझाने की कोशिश करता है कि लोकतंत्र और राजनीतिक विविधता इन देशों के अंतरराष्ट्रीय सहयोग और नीतियों पर कैसे असर डालती है क्योंकि ये देश न तो किसी बड़े गुट के दबाव में हैं, न ही पुराने रिश्तों के बोझ तले, इसलिए इन्हें अपने फैसले खुद लेने की आज़ादी है. यही वजह है कि वे वैश्विक मंच पर बहुपक्षीय सहयोग यानी मल्टीलेटरलिज्म (multilateralism) को आगे बढ़ाने में एक अहम और स्वतंत्र भूमिका निभा सकते हैं.

  • यह लेख ब्रिक्स और जी-20 के कुछ बड़े उभरते देशों ब्राज़ील, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ़्रीका और मेक्सिको—पर बात करता है.

  • मध्यम ताक़तवर देशों में लोकलुभावन या राष्ट्रवादी सरकारें अपनी विदेश नीति के माध्यम से वैचारिक सोच थोपने से बचती हैं और व्यावहारिक नीतियां अपनाती हैं.

2022 के ऑक्सफोर्ड के एक शोध-पत्र से पता चलता है कि अति-दक्षिणपंथी लोकलुभावन सरकारें बहुपक्षवाद से अलग होने का वायदा करती हैं लेकिन बहुलवादी व्यवस्थाओं में, विदेश नीति में तभी बदलाव होता है, जब घरेलू संस्थागत व नौकरशाही स्तर पर सहमति बना ली जाए और किसी बाहरी चुनौती का सामना न करना पड़े, अन्यथा बड़े नतीजे नहीं मिल पाते. कुछ देश दूसरों की तुलना में अधिक बहुलवादी होते हैं और बेशक बहुपक्षवाद के प्रति उनका नज़रिया इस बात पर अधिक निर्भर करता है कि वहां सत्ता में कौन सी सरकार है- रुढ़िवादी, राष्ट्रवादी या कोई उदारवादी, लेकिन उस बदलाव की सीमा अलग-अलग होती है. इनका विश्लेषण बताता है कि राष्ट्रवादी या रुढ़िवादी सरकारें जहां बहुपक्षवाद से पीछे हटती हैं, वहीं उदारवादी सरकारें इसे अधिक अपनाती हैं, ख़ासकर मध्यम ताक़तवर देशों में.

ब्राज़ील

डिल्मा रॉसेफ और लुईस इनासियो ‘लूला’ दा सिल्वा (पिछले दो कार्यकालों में) जैसे उदारवादी नेताओं के नेतृत्व में ब्राज़ील की आधिकारिक नीति ‘सौम्य बहुध्रुवीयता’ थी, जो उभरती अर्थव्यवस्थाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कराने के लिए समावेशी बहुपक्षवाद की वकालत करती थी. फिर चाहे वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधारों की मांग करनी हो, विश्व व्यापार संगठन (WTO) के दोहा विकास एजेंडे में भागीदारी बढ़ाना हो, संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन की जलवायु कूटनीति पर ज़ोर देना हो या फिर न्यू डेवलपमेंट बैंक व आकस्मिक रिजर्व व्यवस्था जैसे ब्रिक्स संस्थानों की स्थापना में मदद करनी हो. इसके विपरीत, रूढ़िवादी जेयर बोल्सोनारो के शासन-काल में ब्राज़ील ने वैश्वीकरण के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन का समर्थन किया. उस सरकार ने विदेश नीति का राजनीतिकरण किया और अमेरिका, इज़रायल व पोलैंड की अन्य रूढ़िवादी सरकारों के साथ द्विपक्षीय वैचारिक संबंध ‘स्वतः’ बनाए. इतना ही नहीं, उसने धर्म से प्रभावित होकर अपना मत बनाया (विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद और महासभा में) और पर्यावरण व मानवाधिकार संबंधी एजेंडे का विरोध किया. हालांकि, ये बदलाव ज़्यादातर प्रतीकात्मक और फिर से बदलने योग्य थे, और ब्राज़ील भी अंततः मुख्य संगठनों (संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन और OECD) के प्रभाव में ही रहा. 

रूसी आक्रमण की आलोचना करने वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने वाला ब्रिक्स का एकमात्र सदस्य देश होने के बावजूद ब्राज़ील ने कीव को गोला-बारूद भेजने के अमेरिकी अनुरोध को भी नकार दिया और युद्ध को लंबा खींचने के लिए नाटो की आलोचना की. यह लूला के पहले के कार्यकालों की तुलना में एक बड़े रणनीतिक बदलाव का संकेत है. 

लूला का अभी तीसरा कार्यकाल चल रहा है, और इसमें उन्होंने पर्यावरण संबंधी मुद्दों को प्राथमिकता दी, पुराने गठबंधनों को फिर से जीवित करने का प्रयास किया, बहुपक्षीय सहयोग पर ज़ोर दिया और रूस-यूक्रेन संघर्ष जैसी महाशक्तियों के मामलों में अधिक संतुलित नज़रिया अपनाया. यह कहीं अधिक व्यावहारिक विदेश नीति है. उदाहरण के लिए, रूसी आक्रमण की आलोचना करने वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने वाला ब्रिक्स का एकमात्र सदस्य देश होने के बावजूद ब्राज़ील ने कीव को गोला-बारूद भेजने के अमेरिकी अनुरोध को भी नकार दिया और युद्ध को लंबा खींचने के लिए नाटो की आलोचना की. यह लूला के पहले के कार्यकालों की तुलना में एक बड़े रणनीतिक बदलाव का संकेत है. उल्लेखनीय है कि पहले के कार्यकालों में वैश्विक मामलों की लूला के प्रयासों की आलोचना की गई थी, क्योंकि पर्याप्त घरेलू समर्थन के बिना उन्होंने ब्राज़ील की क्षमता को बढ़ा-चढ़ाकर बताया था.

2010 के दशक की शुरुआत से ही एक क्षेत्रीय ताक़त के रूप में ब्राज़ील की भूमिका दबावों में रही है. लूला के पहले व दूसरे कार्यकाल के बाद, और रॉसेफ के शासनकाल में ब्राज़ील की क्षेत्रीय सक्रियता कम हुई थी. बोलीविया के एवो मोरालेस और वेनेजुएला के निकोलस मादुरो जैसे लैटिन अमेरिकी नेताओं के प्रति बोल्सोनारो की बुनियादी आशंकाओं और उनके साथ वैचारिक टकराव ने दक्षिण अमेरिकी राष्ट्र संघ (UNASUR) और दक्षिणी साझा बाजार (MERCOSUR) जैसे क्षेत्रीय मंचों से ब्राज़ील की दूरी बढ़ा दी, और उसकी क्षेत्रीय प्राथमिकताओं को कमज़ोर कर दिया. लूला की मौजूदा सरकार में भी क्षेत्रीय आकांक्षाओं के बावजूद, ब्राज़ील का प्रभाव कमज़ोर हुआ है, जैसा कि वेनेजुएला के मादुरो को 2024 के चुनावी जनादेश का सम्मान करने के लिए राजी न कर सकने या संकट का समाधान न ढूंढ़ पाने से स्पष्ट होता है. यह एक ऐसी घटना है, जिसने उसके प्रति क्षेत्रीय धारणा को प्रभावित किया है, यहां तक कि वाशिंगटन की भी.

इंडोनेशिया

इंडोनेशिया में, पूर्व राष्ट्रपति जोको विडोडो (जोकोवी के नाम से लोकप्रिय), जो सेक्युलर राष्ट्रवादी हैं, ने अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति सुसीलो बामबांग युधोयोनो की सक्रिय वैश्विक नीति से पीछे हटकर संरक्षणवादी और परिणाम-उन्मुखी कूटनीति अपनाई, और आसियान की केंद्रीय भूमिका व बहुपक्षीय महत्वाकांक्षा को किनारे करते हुए संप्रभुता पर ज़ोर दिया, जिसका नतीजा था- ग्लोबल मैरीटाइम फुलक्रम (GMF). GMF कूटनीतिक व रणनीतिक उपायों से संतुलित संबंध बनाने वाला ऐसा सिद्धांत है, जिसका उद्देश्य है- हिंद व प्रशांत महासागरों के बीच एक समुद्री ताक़त के रूप में इंडोनेशिया को स्थापित करना. इंडोनेशिया ने चीन के ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ और अमेरिका के नेतृत्व वाली ‘मुक्त व खुली हिंद-प्रशांत नीति’ के बीच बिना किसी स्पष्ट गठबंधन के काम करने की कोशिश की, और संप्रभुता को केंद्र में रखते हुए द्विपक्षीय आर्थिक कूटनीति पर ज़ोर दिया. इस कूटनीति में विदेशी निवेश बढ़ाने और समुद्री सीमाओं की सुरक्षा के लिए प्रमुख शक्तियों के साथ समझौते करना भी शामिल था.

इंडोनेशिया अपने आकार व ताक़त के बल पर आसियान का ‘असल नेता’ बना हुआ है, लेकिन सुबिआंतों के नेतृत्व में एक कमज़ोर और बीमार आसियान की प्राथमिकताएं बाधित हुई है, जिसने थाईलैंड-कंबोडिया संघर्ष, रोहिंग्या शरणार्थियों की दुर्दशा और म्यांमार की बढ़ती अस्थिरता जैसे गभीर क्षेत्रीय मुद्दों पर कम ध्यान दिया है.

हालांकि, जोकोवी के बाद सत्ता में आए रूढ़िवादी राष्ट्रवादी प्रबोवो सुबियांतो ने भले ही क्षेत्रीय सुरक्षा पर ध्यान लगाए रखा है, पर उन्होंने GMF को किनारे करके लेन-देन संबंधी रिश्तों के माध्यम से रक्षा आधुनिकीकरण और भू-रणनीतिक संबंधों पर ज़ोर दिया है. यह जोकोवी से बिल्कुल अलग सोच है. सुबियांतो ने बेशक जोकोवी के व्यावहारिक संबंध को मोल-भाव वाले यथार्थवादी संबंध में बदल दिया है, लेकिन वास्तव में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है. ऐसा इसलिए, क्योंकि दोनों नेताओं ने आसियान की केंद्रीय भूमिका को कमतर आंका और रूस-यूक्रेन संघर्ष जैसे महाशक्तियों से जुड़े मसलों पर एक संतुलित कूटनीतिक रवैया अपनाए रखा. हालांकि, यह सुबियांतो की ही उपलब्धि है कि इंडोनेशिया जनवरी 2025 में ब्रिक्स का पूर्ण सदस्य बन गया और रूस के साथ उसने अपने संबंधों को मज़बूत बनाया है, यहां तक कि रूस में आयोजित सेंट पीटर्सबर्ग अंतरराष्ट्रीय आर्थिक मंच में भाग लेने के लिए 2025 के जी-7 शिखर सम्मेलन में भी राष्ट्रपति ने भाग नहीं लिया.

इंडोनेशिया अपने आकार व ताक़त के बल पर आसियान का ‘असल नेता’ बना हुआ है, लेकिन सुबिआंतों के नेतृत्व में एक कमज़ोर और बीमार आसियान की प्राथमिकताएं बाधित हुई है, जिसने थाईलैंड-कंबोडिया संघर्ष, रोहिंग्या शरणार्थियों की दुर्दशा और म्यांमार की बढ़ती अस्थिरता जैसे गभीर क्षेत्रीय मुद्दों पर कम ध्यान दिया है. अब देखना यह है कि इन सबका इंडोनेशिया के क्षेत्रीय प्रभाव पर कितना असर पड़ता है, हालांकि अभी वह एक ताक़त ज़रूर है.

दक्षिण अफ़्रीका

दक्षिण अफ़्रीका इस मामले में अनोखा है कि वहां 1994 के बाद से, जब से रंगभेद का अंत हुआ है, एक ही पार्टी- अफ़्रीकी नेशनल कांग्रेस (ANC) सत्ता में है. इस कारण यहां तीन दशकों से भी ज़्यादा समय से कमोबेश एकदलीय व्यवस्था बनी हुई है. मौजूदा राष्ट्रपति सिरिल रामफोसा और उनसे पहले के जैकब ज़ूमा, दोनों ANC के नेता हैं, पर उनके बीच अंतर यह है कि ज़ूमा की छवि लोकलुभावनवादी थी, तो रामफोसा की सुधारवादी. हालांकि, दोनों ने अफ़्रीका में दक्षिण अफ़्रीकी नेतृत्व की वकालत की और ब्रिक्स व जी-20 जैसे मंचों पर भी आवाज़ उठाया. मगर ज़ूमा की सबसे बड़ी उपलब्धि थी- 2011 में दक्षिण अफ़्रीका को ब्रिक्स की सदस्यता दिलाना, साथ ही, बहुपक्षवाद के प्रति सुधारवादी नज़रिये में पश्चिम-विरोध और आधिपत्य-विरोध की आवाज़ उठाना. उन्होंने ‘ग्लोबल साउथ’ (वैश्विक दक्षिण), ब्रिक्स और अफ़्रीकी संघ द्वारा किए जाने वाले सुधारों पर भी अपना ध्यान लगाया और रूस व चीन के साथ मज़बूत संबंध बनाने पर ज़ोर दिया. दूसरी ओर, रामफोसा ने विश्व में व्यावहारिक व सुधारवादी जुड़ाव की रणनीति अपनाई, जो पूर्व और पश्चिम के बीच अफ़्रीका की स्थिति को संतुलित करता है. ज़ूमा के विपरीत, रामफोसा ने जलवायु सहयोग पर ज़ोर दिया. उनकी नीति की इसलिए भी प्रशंसा होनी चाहिए, क्योंकि ज़ूमा की लोकलुभावन सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर दक्षिण अफ़्रीका की साख़ को गिरा दिया था.

मेक्सिको ने भले ही 2020-21 में ‘लैटिन अमेरिकी व कैरेबियाई देशों का समुदाय’ (CELAC) का नेतृत्व किया और इसके शिखर सम्मेलन की मेज़बानी की, लेकिन इसके बाद अर्जेंटीना में हुए शिखर सम्मेलन में ओब्रेडोर ने हिस्सा नहीं लिया. रूस-यूक्रेन संघर्ष जैसे महाशक्तियों के मुद्दों पर भी उन्होंने उदासीनता दिखाई और मास्को पर प्रतिबंध लगाने या कीव को हथियार भेजने जैसे मसलों पर चुप्पी साध ली. इसके लिए उन्होंने ‘एस्ट्राडा सिद्धांत’ का हवाला दिया

ज़ूमा के शासनकाल में क्षेत्र में दक्षिण अफ़्रीका का प्रभाव कमज़ोर हो गया था. लीबिया में नाटो के दख़ल पर नीति पलटने (शुरुआत में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का समर्थन करने के बाद), कोटे डी आइवर में 2010-11 के चुनावी संकट को दूर करने में विफल रहने और 2008 में जिम्बॉब्वे में दक्षिण अफ़्रीका समर्थित वैश्विक राजनीतिक समझौते के टूटने से इसका संकेत मिलता है. इसके विपरीत, रामफोसा के शासनकाल में दक्षिण अफ़्रीका की क्षेत्रीय स्थिति को बहाल करने के प्रयास किए गए हैं, जैसा कि 2023 में ब्रिक्स की उसकी अध्यक्षता से पता चलता है, जिसकी थीम थी- ब्रिक्स और अफ़्रीका- पारस्परिक रूप से त्वरित विकास, सतत विकास और समावेशी बहुपक्षवाद के लिए साझेदारी. 2024-25 की जी-20 अध्यक्षता, जो किसी अफ़्रीकी देश के लिए पहला मौक़ा था, और 2023 में जी-20 में अफ़्रीकी संघ को शामिल करना भी इसी की अगली कड़ी थी. जी-20 और ब्रिक्स के एजेंडा को दक्षिण अफ़्रीका के अनुरूप माना जाता है, क्योंकि वे एक-दूसरे को मज़बूत बनाते हैं.

दक्षिण अफ़्रीका के बहुपक्षीय रुख़ की जो विशेषता है, वह ANC के स्थायी राजनीतिक प्रभुत्व में देखी जा सकती है. रामफोसा के नेतृत्व में गठबंधन सरकार के बावजूद- जो ख़ास तौर से ज़ूमा के भ्रष्टाचार संबंधी घोटालों के कारण ANC के घटते प्रभाव का संकेत है, अब भी यही पार्टी विदेशी नीति तय करती है. यह गठबंधन के प्रभाव को सीमित रखती है और दक्षिण अफ़्रीका को राजनीतिक अस्थिरता व नीतिगत सुस्ती के ख़तरों के प्रति आगाह करती है.

मेक्सिको

दक्षिणपंथी, वैश्वीकरण समर्थक और बहुपक्षवादी नेता एनरिक पेना नीटो (जिनकी पहले सरकार थी) के विपरीत, वामपंथी लोकप्रिय नेता आंद्रेस मैनुअल लोपेज़ ओब्रेडोर (जिन्हें AMLO के नाम से जाना जाता है) ने मेक्सिको के लिए बहुपक्षीय मंचों पर सीमित भूमिका निभाते हुए साम्राज्यवाद-विरोधी और अमेरिका-विरोधी नीति अपनाई. ओब्रेडोर 2018 से 2024 तक मेक्सिको के राष्ट्रपति रहे और उनकी विदेश नीति की आलोचना हुई, क्योंकि उस दौरान मेक्सिको लैटिन अमेरिकी क्षेत्र का नेतृत्व करने के प्रयासों में जुटा रहा. उदाहरण के लिए, मेक्सिको ने भले ही 2020-21 में ‘लैटिन अमेरिकी व कैरेबियाई देशों का समुदाय’ (CELAC) का नेतृत्व किया और इसके शिखर सम्मेलन की मेज़बानी की, लेकिन इसके बाद अर्जेंटीना में हुए शिखर सम्मेलन में ओब्रेडोर ने हिस्सा नहीं लिया. रूस-यूक्रेन संघर्ष जैसे महाशक्तियों के मुद्दों पर भी उन्होंने उदासीनता दिखाई और मास्को पर प्रतिबंध लगाने या कीव को हथियार भेजने जैसे मसलों पर चुप्पी साध ली. इसके लिए उन्होंने ‘एस्ट्राडा सिद्धांत’ का हवाला दिया, जो किसी दूसरे देश के मसले में दख़ल न देने की मेक्सिको की पुरानी नीति है. ओब्रेडोर ने दावा किया कि मेक्सिको ‘अपने रास्ते पर आगे बढ़ रहा है’ और अमेरिका के साथ मज़बूत संबंध बनाने के बजाय ‘ग्लोबल साउथ’ के साथ जुड़ना पसंद करता है.

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि कोई भी मध्यम ताक़तवर देश जितना अधिक राजनीतिक रूप से स्थिर, बहुलवादी और क्षेत्रीय रूप से सक्रिय होगा, उतना ही अधिक प्रभावी ढंग से वह क्षेत्रीय व वैश्विक, दोनों मंचों का लाभ उठा सकता है और दक्षिण-दक्षिण और उत्तर-दक्षिण बहुपक्षवाद के बीच एक केंद्र-बिंदु बन सकता है.

मौजूदा राष्ट्रपति क्लाउडिया शीनबाम, जो आब्रेडोर की ही राजनीतिक पार्टी से हैं, राष्ट्रीय हितों पर ज़ोर देने का प्रयास लगातार करती रही हैं, लेकिन उन्होंने कहीं अधिक संतुलित व रणनीतिक रुख़ अपनाया है. इस कारण मेक्सिको का विभिन्न पक्षों से जुड़ाव बढ़ा है. उदाहरण के लिए- अमेरिका के साथ बढ़ते व्यापारिक तनाव के कारण मेक्सिको ने 2025 के ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में एक पर्यवेक्षक देश के रूप में भाग लिया. शीनबाम ने प्रमुख मंचों पर व्यक्तिगत प्रयासों द्वारा और अधिक बहुपक्षीय मिलनसार रुख़ अपनाकर जी-20 में मेक्सिको की भागीदारी फिर से सुनिश्चित की, जो ओब्रेडोर के गैर-मिलनसार नज़रिये से बिल्कुल अलग है, क्योंकि ओबेड्रोर ने शिखर सम्मेलनों में भाग नहीं लिया था. वह किसी अन्य छोटे देश को अपना प्रतिनिधि घोषित कर दिया करते थे और अपनी संप्रभुता पर ज़्यादा ज़ोर देते थे.

गैर-ब्रिक्स मध्य ताक़तवर देश होने के नाते मेक्सिको का ख़ास महत्व है. यह अमेरिका के पड़ोस में स्थित है और दोनों आर्थिक रूप से एक-दूसरे पर निर्भर हैं. उनकी सुरक्षा चिंताएं भी काफी अधिक परस्पर मिली हुई हैं. यह बहुपक्षीय मामलों में मेक्सिको की रणनीतिक आजादी को प्रभावित करती है. उदाहरण के लिए, अमेरिका, मेक्सिको और कनाडा के बीच के मुक्त व्यापार समझौते (USMCA) में एक ऐसा प्रावधान है, जो मेक्सिको के लिए ‘अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने’ जैसा है. यह प्रावधान उसे उन देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौता करने से रोकता है, जहां की सरकारें अपनी आर्थिक गतिविधियों को काफी ज़्यादा नियंत्रित करती हैं. इस कारण मेक्सिको चाहकर भी चीन के साथ अपने आर्थिक संबंधों को बहुत नहीं बढ़ा सकता. 

मध्यम ताक़तों की नई कूटनीति

मध्यम ताक़तवर देशों में लोकलुभावन या राष्ट्रवादी सरकारें अपनी विदेश नीति के माध्यम से वैचारिक सोच थोपने से बचती हैं और व्यावहारिक नीतियां अपनाती हैं, जबकि उनको किसी भी प्रकार की किसी बड़ी बाहरी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ता. वे बहुपक्षवाद को आगे बढ़ाने के लिए कहीं अधिक लचीला रुख़ दिखाती हैं, जैसे इंडोनेशिया में देखा गया है. इसके विपरीत, मेक्सिको भले ही बहुलवादी देश है और अब वहां एक व्यावहारिक राष्ट्रवादी सरकार है, पर अमेरिका के साथ उसकी नज़दीकी, विशेष रूप से वाशिंगटन पर उसकी गहरी आर्थिक निर्भरता, उसकी पक्षधरता को प्रभावित करती है. इतना ही नहीं, यह बहुपक्षवाद संबंधी उसकी सोच में सुधार की संभावना को भी सीमित करती है. रही बात ब्राज़ील की, तो यह इस मामले में एक अलग उदाहरण है कि बहुलवाद और क्षेत्रीय क्षमता के बावजूद, घरेलू अस्थिरता और अधिक महत्वाकांक्षी होने के कारण विफल हो जाने से वहां अस्थिर बहुपक्षवाद का जन्म हुआ है. दक्षिण अफ़्रीका की समस्या इन सबसे अलग है. वहां ऐसा स्थिर राजनीतिक पारिस्थितिकी तंत्र है, जो वैश्विक अवसरों (जैसे- ब्रिक्स का नेतृत्व) के मिलने पर भी अपनी उम्मीदों और उसके अनुरूप बनने की इच्छाओं को सीमित कर देता है. कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि कोई भी मध्यम ताक़तवर देश जितना अधिक राजनीतिक रूप से स्थिर, बहुलवादी और क्षेत्रीय रूप से सक्रिय होगा, उतना ही अधिक प्रभावी ढंग से वह क्षेत्रीय व वैश्विक, दोनों मंचों का लाभ उठा सकता है और दक्षिण-दक्षिण और उत्तर-दक्षिण बहुपक्षवाद के बीच एक केंद्र-बिंदु बन सकता है.


(लावण्या मणि ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं)

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