Published on Sep 16, 2021 Updated 0 Hours ago

चूंकि भारत खुद को रक्षा निर्माण के एक केंद्र के रूप में विकसित करने के लिए दृढ़ संकल्पित है, ऐसे में यह ब्रह्मोस की बिक्री को वह कैसे संभालता है, यह हिंद-प्रशांत में क्षेत्रीय सुरक्षा प्रदाता के रूप में इसके संभावित उभार में एक महत्वपूर्ण कारक साबित होगा.

भारत द्वारा निर्मित ब्रह्मोस क्रूज़ मिसाइल के विस्तार के लिये बाज़ार ढूंढने की क़वायद

इस साल के शुरुआती मार्च महीने में भारत और फिलीपींस ने रक्षा सामग्री और उपकरणों की ख़रीद को लेकर एक ‘क्रियान्वयन समझौते’ (Implementing Arrangement) पर हस्ताक्षर किए हैं. इस समझौते से रक्षा उपकरणों की बिक्री का ज़मीनी काम पूरा होता है. इसके ज़रिए ही बेहद अहम ब्रह्मोस (BrahMos) क्रूज़ मिसाइल को सरकार के ज़रिए बेचने का रास्ता साफ़ होता है. फिलीपींस के राष्ट्रीय रक्षा सचिव ने सार्वजनिक रूप से अपने द्वीपीय देश की ओर से इस मिसाइल को ख़रीदने की इच्छा जतायी है, वहीं नौ सेना प्रमुख ने इसे एक आदर्श हथियार क़रार दिया है. इस तरह मिसाइल के लिए संभावित निर्यात समझौता एक और क़दम आगे बढ़ गया है. यह सौदा कई कारणों से बेहद अहम साबित होगा. वैसे मिसाइल ख़रीद की प्रक्रिया लगातार आगे बढ़ रही है, लेकिन इसमें आगे कई तरह की चुनौतियां हैं.

प्रक्षेप पथ (The trajectory)

ब्रह्मोस क्रूज़ मिसाइल के शोध और विकास का काम 1990 के दशक के अंतिम सालों में शुरू हुआ. इसका निर्माण ब्रह्मोस एयरोस्पेस लिमिटेड करता है, जो भारत के रक्षा अनुसंधान और शोध संगठन (डीआरडीओ) और रूस के एनपीओ मैशिनोस्त्रोयेनिया(Mashinostroyeniya) यानी एनपीओएम का एक संयुक्त उपक्रम है. यह पहली सुपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल है, जिसे भारतीय सेना इस्तेमाल करती है. यह 2.8 मैक की स्पीड (करीब-करीब ध्वनि की गति से तीन गुना) से वार करने के सक्षम है. इसका रेंज कम से कम 290 किलोमीटर है. इस वेग से वार करने की क्षमता का मतलब है कि ब्रह्मोस जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलों से युक्त किसी हवाई सुरक्षा प्रणाली (air defence systems) की पकड़ में नहीं आएगा, जबकि उसके (ब्रह्मोस) के लिए चीन के जे20 जैसे अत्याधुनिक लड़ाकू विमानों, जिनकी स्पीड 2 मैक से कम है, को मार गिराना आसान काम है. इतना ही नहीं आगे के संस्करण में मिसाइल की स्पीड और दायरा बढ़ाने की कोशिश की जा रही है. इसकी स्पीड 5 मैक के बराबर या उससे अधिक और रेंज 1500 किलोमीटर करने का लक्ष्य तय किया गया है. वर्ष 2016 में भारत को मिसाइल टेक्नलॉजी कंट्रोल रीजीम (MTCR) की मिली सदस्यता ने इस क्षमता के विकास में अहम भूमिका निभाई है.

इस वेग से वार करने की क्षमता का मतलब है कि ब्रह्मोस जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलों से युक्त किसी हवाई सुरक्षा प्रणाली (air defence systems) की पकड़ में नहीं आएगा, जबकि उसके (ब्रह्मोस) के लिए चीन के जे20 जैसे अत्याधुनिक लड़ाकू विमानों, जिनकी स्पीड 2 मैक से कम है, को मार गिराना आसान काम है.

पहले ही ब्रह्मोस के नौसैनिक और थल सैनिक संस्करण की सेवा ली जा रही है. भारतीय नौसेना में इसे 2005 और थल सेना में 2007 में शामिल किया गया था. इसके बाद हवा से वार करने वाले संस्करण (air-launched variant) का नवंबर 2017 में सफल परीक्षण किया गया. यह परीक्षण भारतीय वायुसेना ने सुखोई-30 एमकेआई लड़ाकू विमान से किया. इस तरह यह मिसाइल तीनों सेनाओं के लिए अहम् बन गई है.

ब्रह्मोस की ये अत्याधुनिक और शक्तिशाली क्षमताएं न केवल भारतीय सेना को ताकतवर बनाती है बल्कि अन्य देशों के लिए इसे एक बेहद वांछित उत्पाद बनाती हैं. ऐसे में एक दशक से अधिक समय से इस सिस्टम को निर्यात करने का मामला एक एजेंडा बना हुआ है. ऐसा होने से भारत की एक रक्षा निर्यातक के रूप में विश्वसनीयता को मज़बूती मिलेगी. इससे 2025 तक पांच अरब डॉलर के रक्षा निर्यात के लक्ष्य को हासिल किया जा सकेगा. इसके साथ ही भारत की हैसियत एक क्षेत्रीय ताकत के रूप में बढ़ेगी. वियतनाम, फिलीपींस, इंडोनेशिया, सिंगापुर, संयुक्त अरब अमीरात, अर्जेंटीना, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका ने अभी तक इस सिस्टम को ख़रीदने  में रुचि दिखाई है.

फिलीपींस को बिक्री

फिलीपींस के ब्रह्मोस आयात करने वाला पहला देश बनने के निहितार्थ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में व्यापक और परिणामी हो सकते हैं. सबसे पहले तो यह चीन को सावधान करेगा, जिसके साथ फिलीपींस का दक्षिण चीन सागर में एक क्षेत्रीय संघर्ष चल रहा है. यह बीजिंग के आक्रामक रुख़ के लिए एक प्रतिरोधक के रूप में कार्य करेगा. वास्तव में यही कारण है कि चीन आसियान देशों को ब्रह्मोस जैसे सुरक्षा उपकरण ख़रीदने  को लेकर चेताता रहा है. दूसरी तरह, वे देश जो चीन की युद्धदशा से भयभीत हैं वे ब्रह्मोस को अपने शास्त्रागार में शामिल करने के लिए आगे आ सकते हैं. इससे भारत की अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा. क्षेत्र में भारत की नरम और कड़क छवि बनेगी. इन देशों को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक मजबूत और भरोसेमंद ताकत का सहारा मिल जाएगा, जिसके साथ वे अपनी सम्प्रभुता और सीमा की रक्षा कर सकेंगे.

 वियतनाम, फिलीपींस, इंडोनेशिया, सिंगापुर, संयुक्त अरब अमीरात, अर्जेंटीना, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका ने अभी तक इस सिस्टम को ख़रीदने  में रुचि दिखाई है.    

आगे आने वाली बाधाएं

भारत सरकार ने देश को रक्षा विनिर्माण क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने को प्राथमिकता दी है और खुद को एक अहम रक्षा निर्यातक के रूप में स्थापित कर रही है. दूसरी तरफ फिलीपींस ने अपनी भौगोलिक और सामरिक ज़रूरतों को देखते हुए ब्रह्मोस को ख़रीदने  का फैसला किया है. हालांकि, मनीला को ब्रह्मोस की आपूर्ति करने में अब भी दो बड़ी बाधाएं हैं.

पहली बाधा अमेरिका का प्रतिबंध अधिनियम के माध्यम से अमेरिका के विरोधियों का मुकाबला (Countering America’s Adversaries Through Sanctions Act) यानी सीएएटीएसए है. इसे 2017 में कानून का शक्ल दिया गया. इसके तहत उन व्यक्तियों और संस्थाओं को प्रतिबंधित करने का प्रावधान है जो एक सूचीबद्ध संस्था के साथ एक ‘अहम लेनदेन’ करते हैं. अभी तक तुर्की और चीन को रूस से एस-400 ट्रिंफ हवाई रक्षा प्रणाली ख़रीदने  के लेकर सीएएटीएसए के तहत दंडित किया गया है. ब्रह्मोस एयरोस्पेश लिमिटेड में 49.5 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाली कंपनी एनपीओ मैशिनोस्त्रोयेनिया (NPO Mashinostroyeniya) यानी एनपीओएम एक सूचीबद्ध रूसी कंपनी है. यही कंपनी ब्रह्मोस में इस्तेमाल होने वाले 65 फीसदी उपकरण, जिसमें रैमजेट इंजन और रडार भी शामिल हैं, उपलब्ध करवाती है. ऐसे में इस मिसाइल सिस्टम के निर्यात में प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है. यह ध्यान देने वाली बात है कि अमेरिका, जो भारत का एक अहम रक्षा साझेदार है, उसका इस बात को लेकर रुख़ अस्पष्ट है कि क्या वह भारत द्वारा एस-400 की ख़रीद, एके 203 एसॉल्ट राइफल के लाइसेंस के तहत उत्पादन और ब्रह्मोस के निर्यात पर प्रतिबंध लगाएगा या नहीं. खुद के प्रतिबंधित होने की आशंका के कारण कई देश ब्रह्मोस को ख़रीदने  से पीछे हट सकते हैं. हालांकि, यहां भारत के लिए इस सीएएटीएसए से छूट पाने का एक अच्छा मौका है. ख़ासकर ब्रह्मोस को लेकर, जो एक टकराव वाले चीन को रोकने में मददगार साबित हो सकता है.

ब्रह्मोस के एक रेजिमेंट की ख़रीद पर करीब 27.5 करोड़ डॉलर यानी क़रीब 2000 करोड़ रुपये का खर्च आता है. इस एक रेजिमेंट में एक मोबाइल कमान पोस्ट, चार मिसाइल लॉन्चर, कई मिसाइल कैरियर और 90 मिसाइलें शामिल हैं. कोविड-19 महामारी की मार झेल रहे कई देशों, जो ब्रह्मोस को ख़रीदने के इच्छुक हैं, उन्हें वित्तीय दिक्कत आ सकती है.

दूसरा मुद्दा वित्त से जुड़ा है. ब्रह्मोस के एक रेजिमेंट की ख़रीद पर करीब 27.5 करोड़ डॉलर यानी क़रीब 2000 करोड़ रुपये का खर्च आता है. इस एक रेजिमेंट में एक मोबाइल कमान पोस्ट, चार मिसाइल लॉन्चर, कई मिसाइल कैरियर और 90 मिसाइलें शामिल हैं. कोविड-19 महामारी की मार झेल रहे कई देशों, जो ब्रह्मोस को ख़रीदने के इच्छुक हैं, उन्हें वित्तीय दिक्कत आ सकती है. फिलीपींस और वियतनाम के साथ एक सौदे तक पहुंचने में इस सिस्टम की लागत एक बड़ी बाधा है. इस समस्या के समाधान के लिए भारत ने वियतनाम और फिलीपींस को क्रमशः 50 करोड़ डॉलर और 10 करोड़ डॉलर के उधार का प्रस्ताव दिया है. वहीं फिलीपींस ब्रह्मोस की कम मात्रा (केवल एक बैटरी), जिसमें तीन मिसाइल लॉन्चर्स और 2-3 मिसाइलें हों, उसे ख़रीदने के बारे में विचार कर रहा है.

इसके अलावा भारत को अन्य निर्माताओं और निर्यातकों से मिलने वाली प्रतिस्पर्धा के बारे में भी सोचना चाहिए. जहां तक वियतनाम की बात है तो कहा जा रहा है कि वह रूस से ब्रह्मोस जैसी ही मिसाइल इससे कम कीमत में ख़रीदने को लेकर बातचीत कर रहा है. उधर, भारत अपने अन्य घरेलू रक्षा उत्पादों जैसे आकाश हवाई रक्षा प्रणाली, हवा से हवा में मार करने वाली एस्ट्रा मिसाइल, एचएएल के ध्रूव यूटिलिटी हेलीकॉप्टर को निर्यात के लिए बाज़ार में उतारना चाहता है. ऐसे में उसे एक सुव्यवस्थित और प्रभावी निर्यात व्यवस्था को बनाने पर फोकस करना चाहिए. जैसा कि भारत खुद को एक रक्षा निर्माता केंद्र के रूप में विकसित करने के लिए दृढ़ संकल्पित है, ऐसे में वह किस तरह से ब्रह्मोस की बिक्री को संभालता है, यह हिंद-प्रशांत में एक क्षेत्रीय सुरक्षा प्रदाता के रूप में उसके संभावित उभार को तय करने में एक अहम कारक साबित होगा.

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