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इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव ख़ारिज होने से पाकिस्तान और गहरी सियासी अराजकता के दलदल में फंस गया है.
पाकिस्तान की इमरान ख़ान सरकार के ख़िलाफ़ विपक्षी दलों द्वारा लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान से एक दिन पहले, ये चर्चा गर्म थी कि सत्ताधारी पार्टी कोई ग़लत क़दम उठा सकती है और संवैधानिक प्रक्रिया को रोक सकती है. इमरान ख़ान लगातार पत्रकारों से ये कह रहे थे कि उनके पास एक ऐसा दांव है, जिससे सबके सब हैरान रह जाएंगे. ज़्यादातर विश्लेषकों का ये मानना था कि सत्ताधारी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (PTI) सरकार, अवामी असेंबली (NA) के भीतर हंगामा करके स्पीकर को सदन की कार्यवाही स्थगित करने के लिए मजबूर कर देगी. जब इमरान ख़ान ने अपने समर्थकों से ये अपील की कि वो अविश्वास प्रस्ताव के ख़िलाफ़ राजधानी इस्लामाबाद कूच करें, तो ये अटकलें भी लगाई जा रही थीं कि बवाल इस्लामाबाद की सड़कों तक फैल जाएगा. लेकिन, सुरक्षा बलों ने इमरान ख़ान की इस योजना पर पानी फेर दिया. अविश्वास प्रस्ताव से पहले इस्लामाबाद में सुरक्षा के ज़बरदस्त बंदोबस्त किए गए थे, ताकि क़ानून व्यवस्था को बिगाड़ने की कोई भी कोशिश नाकाम कर दी जाए. लेकिन, आख़िर में पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में जो कुछ हुआ, वो ऐसा भौंडा नाटक था, जिसने इमरान ख़ान के आलोचकों तक को सदमे में डाल दिया. पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में जिस बेशर्मी से संवैधानिक प्रक्रिया और संसदीय नियमों, नैतिकता, परंपराओं और क़ायदों को कुचला गया, उससे पूरा मुल्क सदमे में आ गया.
रविवार तीन अप्रैल को, विपक्षी दलों के पास 176 सांसद थे- जबकि इमरान ख़ान को सत्ता से बेदख़ल करने के लिए उन्हें सिर्फ़ 172 सांसदों की ज़रूरत थी. इसके अलावा पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ के लगभग दो दर्जन सांसद भी अवामी असेंबली में मौजूद नहीं थे. सत्ता पक्ष के समर्थन में महज़ 140 सांसद थे.
इमरान ख़ान के पास बहुमत नहीं है, ये बात कई दिनों से बिल्कुल साफ़ हो गई थी. सत्ताधारी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ के बाग़ियों के बग़ैर भी, विपक्षी दलों के पास इमरान ख़ान को सत्ता से बेदख़ल करने के लिए पर्याप्त सांसदों का समर्थन था. रविवार तीन अप्रैल को, विपक्षी दलों के पास 176 सांसद थे- जबकि इमरान ख़ान को सत्ता से बेदख़ल करने के लिए उन्हें सिर्फ़ 172 सांसदों की ज़रूरत थी. इसके अलावा पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ के लगभग दो दर्जन सांसद भी अवामी असेंबली में मौजूद नहीं थे. सत्ता पक्ष के समर्थन में महज़ 140 सांसद थे. जब सदन की कार्यवाही शुरू हुई तो क़ानून मंत्री फ़वाद चौधरी ने खड़े होकर पाकिस्तान के संविधान की धारा 5 का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि, ‘मुल्क के प्रति वफ़ादारी हर शहरी का बुनियादी फ़र्ज़ है’. फ़वाद चौधरी ने दावा किया कि सरकार के पास इस बात के सबूत हैं कि एक विदेशी ताक़त- यहां उनकी मुराद अमेरिका से थी- ने पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन की साज़िश रची है, और विपक्ष द्वारा लाया गया अविश्वास प्रस्ताव भी उसी भयानक साज़िश का एक हिस्सा है. फ़वाद चौधरी ने विपक्षी दलों पर इल्ज़ाम लगाया कि वो भी विदेशी ताक़त की इस साज़िश में शामिल हैं और इसलिए, अविश्वास प्रस्ताव की पूरी प्रक्रिया ही संविधान की धारा 5 का उल्लंघन करती है. इसके बाद फ़वाद चौधरी ने स्पीकर से कहा कि पहले वो इस बात का फ़ैसला करें कि इन पर्दाफ़ाशों के बाद क्या विपक्ष द्वारा लाया गया अविश्वास प्रस्ताव वाजिब है.
उस वक़्त सदन की सदारत डिप्टी स्पीकर कर रहे थे, जिन्होंने बिना कोई वक़्त गंवाए पहले से तैयार भाषण पढ़ते हुए कहा कि उन्होंने इस पूरे मामले की पड़ताल की है और ये पाया है कि सरकार का तर्क बिल्कुल सही है. डिप्टी स्पीकर ने फ़ैसला सुनाया कि विपक्ष का अविश्वास प्रस्ताव असंवैधानिक है. इसके बाद उन्होंने सदन की कार्यवाही स्थगित कर दी. इसके बाद तयशुदा कार्यक्रम के तहत ऐलान किया गया कि वज़ीर-ए-आज़म इमरान ख़ान मुल्क से ख़िताब करेंगे. कुछ ही मिनटों के भीतर इमरान ख़ान टीवी के कैमरों के सामने थे और इमरान ख़ान ने ऐलान किया कि उन्होंने राष्ट्रपति को सलाह दी है कि वो नेशनल असेंबली को भंग कर दें और नए सिरे से चुनाव कराएं. इमरान ख़ान ने कहा कि विपक्ष ने सरकार के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय साज़िश का हिस्सा बनकर, देश के सामने जो संकट खड़ा कर दिया है उससे निकलने का यही एक रास्ता बचता है. कुछ ही मिनटों के बाद राष्ट्रपति ने अवामी असेंबली को भंग करने की घोषणा कर दी.
इमरान ख़ान ने ऐलान किया कि उन्होंने राष्ट्रपति को सलाह दी है कि वो नेशनल असेंबली को भंग कर दें और नए सिरे से चुनाव कराएं. इमरान ख़ान ने कहा कि विपक्ष ने सरकार के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय साज़िश का हिस्सा बनकर, देश के सामने जो संकट खड़ा कर दिया है उससे निकलने का यही एक रास्ता बचता है.
साफ़ है कि अगर कोई साज़िश थी, तो वो इमरान ख़ान ने अपने सबसे क़रीबी लोगों के साथ मिलकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री आवास या दफ़्तर में बैठकर रची थी. पाकिस्तान के विश्लेषकों के मुताबिक़ इस साज़िश की पटकथा मुख्य रूप से इमरान ख़ान के संसदीय मामलों के सलाहकार बाबर अवान; क़ानून और सूचना मंत्री फ़वाद चौधरी; और शायद अटॉर्नी जनरल ख़ालिद जावेद ख़ान ने मिलकर लिखी थी. ऐसी अटकलें लगाई जा रही हैं कि इस साज़िश की ख़बर शायद प्रधानमंत्री के विशेष सहायक शहबाज़ गिल; सीनेटर फ़ैसल जावेद ख़ान; और योजना मंत्री असद उमर को भी थी. इस षडयंत्र के लिए बुनियादी मसविदा विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने मुहैया कराया था. पाकिस्तानी मीडिया की ख़बरों के मुताबिक़, अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत ने एक कूटनीतिक मेमो इस्लामाबाद भेजा था. पाकिस्तान के विदेश विभाग ने राजदूत के भेजे गए इस मेमो को ही तड़का लगाकर इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय साज़िश के तौर पेश किया. इसके बाद इस मेमो का इस्तेमाल पाकिस्तान के अवाम के बीच इमरान ख़ान के लिए समर्थन जुटाने के लिए किया गया. इस मेमो के हवाले से इमरान को एक ऐसे वज़ीर-ए-आज़म के तौर पर पेश किया गया, जिसे शैतान अमेरिका और उसके पाकिस्तानी पिट्ठू मिलकर पटख़नी देने की कोशिश कर रहे थे. मगर, तमाम कोशिशों के बाद भी जब पाकिस्तान के अवाम ने इमरान सरकार के इन दावों को तवज़्ज़ो नहीं दी. सड़कों पर सरकार के समर्थन में भीड़ नहीं उतरी, तो इसी साज़िश का बहाना बनाकर संविधान का मखौल उड़ाया गया और फिर रविवार को पाकिस्तान की अवामी असेंबली में वो सब हुआ, जिसका किसी को अंदेशा नहीं था.
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ ने संविधान का मख़ौल सिर्फ़ इसलिए उड़ाया, जिससे कि इमरान ख़ान के अहंकार की तुष्टि की जा सके. जब ये बिल्कुल साफ़ हो गया कि इमरान ख़ान, अविश्वास प्रस्ताव में विपक्ष को शिकस्त नहीं दे सकेंगे, तो उन्होंने पाकिस्तान की फ़ौज से मदद मांगी. फ़ौज ने इमरान ख़ान को बताया कि उनके पास तीन विकल्प हैं: वो इस्तीफ़ा दे दें, अविश्वास प्रस्ताव का सामना करें या फिर नए चुनाव करा लें. इमरान ख़ान को पहले दो विकल्प मंज़ूर नहीं थे. क्योंकि, इसका मतलब ये होता कि उन्होंने विपक्ष के हाथों अपनी हार स्वीकार कर ली. इमरान ख़ान हमेशा से बेहद ख़राब हारने वाले खिलाड़ी रहे हैं. फिर चाहे वो सियासत का मैदान हो या क्रिकेट का. इसी वजह से उन्होंने तीसरा विकल्प चुना. समस्या ये थी कि नेशनल असेंबली में विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया था और वो सदन को भंग नहीं कर सकते थे. विपक्षी दल, अपना अविश्वास प्रस्ताव वापस लेकर इमरान ख़ान को इतनी इज़्ज़त बख़्शने को तैयार नहीं थे कि वो इसके बदले में सदन को भंग कर दें. इसी वजह से इमरान ख़ान के चापलूस दरबारियों ने ये क़ानूनी तरीक़ा निकाला और कुछ अफ़वाहों के आधार पर अविश्वास प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया, जिसके बाद इमरान ख़ान ने इज़्ज़त गंवाए बग़ैर अवामी असेंबली भंग कर दी. वैसे तो पाकिस्तान के वज़ीर-ए-दाख़िला शेख़ रशीद ने ये दावा किया कि इस पूरी योजना में पाकिस्तानी फ़ौज भी शरीक थी. मगर, पाकिस्तान आर्मी के प्रवक्ता ने इस दावे को सिरे से ख़ारिज कर दिया. पाकिस्तान की तीनों सेनाओं की मीडिया विंग के महानिदेश (DG-ISPR) ने कुछ टीवी चैनलों से कहा कि सरकार के इस अराजक बर्ताव में फ़ौज ने कोई भी भूमिका नहीं निभाई है. प्रवक्ता ने कहा कि पाकिस्तानी फ़ौज इस बदमज़ा हरकत में ख़ुद को घसीटा जाना क़तई पसंद नहीं करेगी.
फ़ौज ने इमरान ख़ान को बताया कि उनके पास तीन विकल्प हैं: वो इस्तीफ़ा दे दें, अविश्वास प्रस्ताव का सामना करें या फिर नए चुनाव करा लें. इमरान ख़ान को पहले दो विकल्प मंज़ूर नहीं थे. क्योंकि, इसका मतलब ये होता कि उन्होंने विपक्ष के हाथों अपनी हार स्वीकार कर ली.
पाकिस्तान का ये सियासी विवाद अब वहां के सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका है. लेकिन, मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले की सुनवाई के लिए जो बेंच गठित की है, उससे इस बात की उम्मीद नहीं की जा सकती कि पाकिस्तान की न्यायपालिका कोई इंसाफ़ करेगी. अदालत ने सभी को नोटिस जारी कर दिया है और सरकार के सभी प्रतिष्ठानों को निर्देश दिया है कि वो कोई भी असंवैधानिक क़दम न उठाएं. अदालत ने पाकिस्तान के संविधान की धारा 5 के उस आधार पर भी सवाल उठाया है, जिसका हवाला देकर डिप्टी स्पीकर ने नेशनल असेंबली में अविश्वास प्रस्ताव को ख़ारिज किया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के सामने मोटे तौर पर दो ही विकल्प हैं और दोनों ही मामलों में पहले की मिसालें मौजूद हैं. पहला विकल्प ये है कि अदालत ये फ़ैसला दे कि स्पीकर का क़दम असंवैधानिक और अवैध था. कोर्ट, नेशनल असेंबली को बहाल करे और संवैधानिक प्रक्रिया यानी अविश्वास प्रस्ताव पर उसी तरह मतदान कराने का निर्देश दे, जैसा होना चाहिए था. दूसरा विकल्प ये है कि अदालत ये फ़ैसला सुनाए कि भले ही स्पीकर का फ़ैसला असंवैधानिक और अवैध था, मगर अवामी असेंबली को बहाल नहीं किया जाएगा और ऐसे हालात में सबसे अच्छा विकल्प यही है कि जनता की अदालत में जाया जाए. दूसरे शब्दों में कहें कि अदालत भविष्य के लिए भले ही एक मिसाल क़ायम कर दे, मगर अभी वो नए सिरे से चुनाव कराने के पक्ष में ही फ़ैसला दे. इमरान सरकार ये उम्मीद लगा रही है कि अदालत दूसरे विकल्प का चुनाव करेगी.
पाकिस्तान के संविधान के मुताबिक़, अवामी असेंबली भंग किए जाने के आठ दिनों के भीतर देश में कार्यवाहक सरकार की नियुक्त कर दी जानी चाहिए. इसके लिए प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता के बीच तीन दिन सलाह मशविरा होना चाहिए. जिसके बाद दोनों ही लोगों को दो नामों का प्रस्ताव करना होता है; अगर ये दोनों मिलकर कार्यवाहक प्रधानमंत्री का फ़ैसला नहीं कर पाते हैं, तो फिर ये मामला संसदीय आयोग के पास जाता है, जहां सरकार और विपक्ष दोनों के पास बराबर सदस्य होते हैं. इस आयोग के पास प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता द्वारा सुझाए गए चार नामों में से एक पर आम सहमति से फ़ैसला करने के लिए तीन दिन का वक़्त होता है. अगर संसदीय आयोग भी कार्यवाहक प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं कर पाता है, तब अगले दो दिनों के भीतर चुनाव आयोग को एक व्यक्ति का चुनाव करना होता है. जब कार्यवाहक प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया जाता है, तो उसके 90 दिनों के भीतर चुनाव कराए जाने होते हैं. कार्यवाहक प्रधानमंत्री चुनने की प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है और अगर सुप्रीम कोर्ट अगले एक दो दिनों में इस संवैधानिक संकट पर कोई फ़ैसला नहीं सुनाता है, तो इस बात की पूरी संभावना है कि पाकिस्तान में नए सिरे से आम चुनाव होंगे.
पाकिस्तान के संविधान के मुताबिक़, अवामी असेंबली भंग किए जाने के आठ दिनों के भीतर देश में कार्यवाहक सरकार की नियुक्त कर दी जानी चाहिए. इसके लिए प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता के बीच तीन दिन सलाह मशविरा होना चाहिए. जिसके बाद दोनों ही लोगों को दो नामों का प्रस्ताव करना होता है
ये विडंबना ही है कि मुख्य विपक्षी दल पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ (PML-N) हमेशा से ही जल्द चुनाव कराए जाने के हक़ में थी. लेकिन, इमरान ख़ान ने संविधान का मख़ौल उड़ाने वाला जो नाटक खेला है, वो किसी भी विपक्षी दल को मंज़ूर नहीं है. अगर इमरान ख़ान के इस खेल को चुनौती नहीं दी गई तो इसका मतलब ये होगा कि अविश्वास प्रस्ताव (जो किसी भी संसदीय व्यवस्था का अभिन्न अंग है) की प्रक्रिया बेमानी हो जाएगी. किसी भी सूरत में, विपक्ष ये चाहता था कि एक बार इमरान ख़ान सत्ता से बेदख़ल हो जाएं, तो फिर वो सरकारी तंत्र से उनके वफ़ादारों, चापलूसों और समर्थकों को निकाल बाहर करेंगे और तब देश में नए चुनाव कराए जाएंगे. लेकिन, इसमें कई और पेचीदगियां हैं. वैसे तो प्रांतीय विधानसभाओं और नेशनल असेंबली के चुनाव अलग अलग कराने पर कोई संवैधानिक प्रतिबंध नहीं है. लेकिन, पाकिस्तान में पारंपरिक रूप से दोनों ही चुनाव साथ साथ कराए जाते रहे हैं. हालांकि, इस बार अब तक ये साफ़ नहीं है कि नेशनल असेंबली के साथ सूबों की विधानसभाओं के चुनाव भी कराए जाएंगे. या फिर, विधानसभा चुनाव तय वक़्त पर यानी अगले साल ही कराए जाएंगे.
अब चाहे अवामी असेंबली और प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव साथ साथ हों या अलग अलग, इस बात की संभावना कम ही है कि इमरान ख़ान इनमें से कोई भी चुनाव जीतेंगे. सच तो ये है कि भले ही आज पूरे मुल्क को चौंकाकर वो इतराते फिर रहे हों, मगर जहां तक बात उनके सियासी मुस्तकबिल की है, तो सच यही है कि उन्होंने अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली है. इमरान ख़ान यही सोचते हैं कि अपने कट्टर अमेरिकी विरोध, राष्ट्रवाद और ख़ुद को इस्लाम का सबसे सच्चे अनुयायी बताकर उन्होंने अपने समर्थकों में नई जान डाल दी है. उनके समर्थकों को इस बात का यक़ीन है कि हाल ही में ख़ैबर पख़्तूनख़्वा सूबे में हुए स्थानीय निकायों के चुनाव के नतीजे इस बात का सबूत हैं कि इमरान ख़ान अभी भी अवाम के बीच बहुत लोकप्रिय हैं और अगले चुनाव में वो और भी बड़े बहुमत के साथ सत्ता में लौटेंगे.
हालांकि, ज़मीनी हक़ीक़त, ख़्वाबों की उस दुनिया से बिल्कुल उलट है, जिसमें इमरान और उनके समर्थक जीते हैं. सबका यही मानना है कि पंजाब और ख़ैबर पख़्तूनख़्वा के एक बड़े हिस्से में पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ को भारी बहुमत हासिल होगा. सिंध पर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का क़ब्ज़ा बने रहने की संभावना है. हो सकता है कि कराची और हैदराबाद में मुत्तहिदा क़ौमी मूवमेंट (MQM), 2018 से बेहतर प्रदर्शन करे. ख़ैबर पख़्तूनख़्वा (KP) में मौलाना फ़ज़लुर रहमान की अगुवाई वाली जमीयत उलेमा इस्लाम, पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी, अवामी नेशनल पार्टी और दूसरे दल चुनाव जीत सकते हैं. बलोचिस्तान में मिले जुले नतीजे रहने की संभावना है और सूबे में उसी तरह की खिचड़ी सरकार एक बार फिर बनने की उम्मीद है, जैसी वहां की परंपरा रही है. चुनाव से पहले ऐसे नतीजों की अटकलों को पाकिस्तान की सियासत की एक और ज़मीनी हक़ीक़त से भी बल मिलता है. पाकिस्तान में जो भी दल सत्ता से बाहर हो जाता है, वो फ़ौरन बाद होने वाले चुनाव में कभी भी सत्ता में वापस नहीं आता.
आज जब पाकिस्तान को अपनी नैया डूबने से बचाने के लिए पश्चिमी देशों से मदद और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाज़ार तक पहुंच बनाने की सख़्त दरकार है, तब वो अमेरिका को नाराज़ करने का जोख़िम कतई मोल नहीं ले सकता है. अगर इमरान ख़ान अगले कुछ महीनों में दोबारा सत्ता में आते हैं, तो अमेरिका के साथ दूरी बढ़नी तय है
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ के मामले में तो एक और बात भी लागू होती है. इस पार्टी को एक और चुनाव जीतकर फिर से अगली सरकार बनाने की इजाज़त क़तई नहीं दी जा सकती है. इमरान ख़ान ने अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ पाकिस्तान के रिश्तों को टूट के कगार पर पहुंचा दिया है. इस नुक़सान की भरपाई के लिए पाकिस्तान के आर्मी चीफ को इस्लामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग्स में अपने भाषण का सहारा लेना पड़ा. आज जब पाकिस्तान को अपनी नैया डूबने से बचाने के लिए पश्चिमी देशों से मदद और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाज़ार तक पहुंच बनाने की सख़्त दरकार है, तब वो अमेरिका को नाराज़ करने का जोख़िम कतई मोल नहीं ले सकता है. अगर इमरान ख़ान अगले कुछ महीनों में दोबारा सत्ता में आते हैं, तो अमेरिका के साथ दूरी बढ़नी तय है. लेकिन, इमरान ख़ान ने सिर्फ़ अमेरिका से ही पाकिस्तान के रिश्ते ख़राब नहीं किए हैं. सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात भी उनके नख़रों से काफ़ी नाराज़ हैं, और चीन भी उन्हें कुछ ख़ास पसंद नहीं करता. ज़ाहिर है भारत तो उनसे दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं रखना चाहेगा.
सच तो ये है कि अगर इमरान ख़ान दोबारा सत्ता में आते हैं, तो ये भारत के लिए फ़ायदे का ही सौदा होगा. क्योंकि इमरान ने अपनी ऊल-जलूल हरकतों से पाकिस्तान को गर्त में पहुंचा दिया है. उनकी तबाही लाने वाली आर्थिक नीतियां, तमाम देशों से रिश्ते ख़राब करने वाली विदेश नीति के साथ साथ पाकिस्तान की फ़ौज के साथ तालमेल से काम कर पाने में उनकी नाकामी के चलते, अगर इमरान ख़ान दोबारा सत्ता में आते भी हैं, तो फ़ौज के साथ उनका लगातार टकराव होता ही रहेगा. बदक़िस्मती से भारत की ये मन्नत पाकिस्तान की जनता पूरी कर नहीं सकती है, क्योंकि उसे साढ़े तीन साल की तबाही लाने वाली इमरान हुकूमत में बहुत तकलीफ़ें बर्दाश्त करनी पड़ी हैं. पाकिस्तान का सैन्य तंत्र भी नहीं चाहेगा कि इमरान ख़ान दोबारा प्रधानमंत्री बनें, क्योंकि उसे पता है कि इस वक़्त मुल्क के हालात कितने नाज़ुक हैं.
आने वाले वक़्त में पाकिस्तान में क्या होगा, इसकी तस्वीर अगले कुछ हफ़्तों में साफ़ हो जाएगी. लेकिन, ये बात बिल्कुल साफ़ है कि अगले कुछ महीनों के दौरान पाकिस्तान और अधिक अस्थिरता की ओर बढ़ रहा है. ये दौर पाकिस्तान के लिए बहुत अहम है. क्योंकि, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था डूब रही है और रुपया भी तबाह हो रहा है. विदेशी मुद्रा का भंडार लगातार घटता जा रहा है और चालू खाते का घाटा ऐसे हालात में पहुंच गया है, जिसे बर्दाश्त कर पाना मुश्किल है. क़र्ज़ का बोझ भी बढ़ रहा है, और तय वक़्त पर क़र्ज़ लौटा पाने में भी पाकिस्तान को दिक़्क़तें आ रही हैं. अर्थव्यवस्था को डूबने से बचाने की अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की योजना भी मझधार में है और उसकी मदद और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से पूंजी हासिल किए बग़ैर पाकिस्तान, अन्य बहुपक्षीय वित्तीय संस्थानों से मदद नहीं ले पाएगा. वैश्विक संस्थाओं से पूंजी की आमद रुक जाएगी. पाकिस्तान का वित्तीय घाटा बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है. राजनीतिक अस्थिरता और अनिश्चितता से पाकिस्तान की आर्थिक चुनौतियां और बढ़ जाएंगी. जून के मध्य तक हुकूमत को बहुत सख़्त बजट लाना होगा. लेकिन, अभी ये साफ़ नहीं है कि तब तक सत्ता में कोई चुनी हुई सरकार आ भी पाएगी या नहीं. उधर, पाकिस्तान की अफ़ग़ानिस्तान से लगने वाली सीमा पर भी हालात बिगड़ने लगे हैं.
पाकिस्तान का वित्तीय घाटा बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है. राजनीतिक अस्थिरता और अनिश्चितता से पाकिस्तान की आर्थिक चुनौतियां और बढ़ जाएंगी. जून के मध्य तक हुकूमत को बहुत सख़्त बजट लाना होगा. लेकिन, अभी ये साफ़ नहीं है कि तब तक सत्ता में कोई चुनी हुई सरकार आ भी पाएगी या नहीं.
इस बीच पाकिस्तान की फ़ौज भी ख़ुद को एक बड़ी मुश्किल में उलझा हुआ पा रही है. फ़ौज का इमरान प्रोजेक्ट बुरी तरह नाकाम साबित हुआ है. लेकिन, इस प्रयोग से जो तबाही वाले नतीजे निकले हैं, उससे फ़ौज की मदद से सरकार चलाने के योजनाकार भी सदमे में हैं. आज जब पाकिस्तान चुनौतियों के भयंकर चक्रवात के सामने खड़ा है, तो इमरान ख़ान ने एक और सियासी बवाल खड़ा करके ख़ुद ही मुल्क में आग लगा दी है. अगर इमरान ख़ान को ये सब करने की छूट दे दी जाती है तो उनके बाद आने वाले भी ऐसे ही दिलेर क़दम उठाएंगे और अपने फ़ायदे के लिए मुल्क में नई सियासी आग भड़काएंगे. लेकिन, इमरान ख़ान को हटाने का मतलब, नवाज़ और ज़रदारी जैसे नेताओं के दौर में वापस जाना होगा, जो फ़ौज को क़तई पसंद नहीं है. आज पाकिस्तान और उसकी फ़ौज जिस दोराहे पर खड़े हैं, उसे देखकर अगर भारत के कट्टर पाकिस्तान विरोधी भी अफ़सोस जता रहे हैं, तो इसमें किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए.
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Sushant Sareen is Senior Fellow at Observer Research Foundation. His published works include: Balochistan: Forgotten War, Forsaken People (Monograph, 2017) Corridor Calculus: China-Pakistan Economic Corridor & China’s comprador ...
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