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भले ही आज की नई नई तकनीकें इंसान की अक़्ल की बराबरी करने का दावा करें. मगर, परमाणु हथियारों का इस्तेमाल और उनकी तैनाती पूरी मज़बूती के साथ इंसान के ही हाथों में रहनी चाहिए और किसी उन्नत तकनीकी शाहकार के हवाले नहीं की जानी चाहिए.
ये लेख हमारी सीरीज़, पोखरण के 25 साल: भारत के एटमी सफर की समीक्षा का एक हिस्सा है.
उभरती हुई तकनीकें- ऐसी व्यापक परिभाषा है जिसके दायरे में एक दूसरे से बेहद अलग तकनीकें, जैसे कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI), क्वांटम कंप्यूटिंग, क्लाउड कंप्यूटिंग, 3D प्रिंटिंग (एडिटिव मैन्युफैक्चरिंग) और ऑटोनॉमस या ख़ुद से चलने वाली मशीनें- शामिल हैं. इनके इस्तेमाल और उपयोगिताओं को या तो पारंपरिक युद्ध के हालात में इस्तेमाल करने या फिर ‘ग्रे ज़ोन’ कहे जाने वाले मामलों में किसी देश की ताक़त बढ़ाने में इस्तेमाल करने के नज़रिए से देखा जाता है. अगर कुछ दुर्लभ अपवादों को छोड़ दें उभरती हुई तकनीकों का किसी देश के परमाणु हथियारों पर क्या असर पड़ेगा, इसे लेकर शायद ही सुरक्षा मामलों के अध्ययनों में कोई परिचर्चा हो रही हो. इस विश्लेषण का मक़सद दोनों क्षेत्रों, ख़ास तौर से परमाणु हथियारों और AI, क्वांटम कंप्यूटिंग और स्वायत्त व्यवस्थाओं के मेल-मिलाप की पड़ताल करना और इन संभावनाओं का पता लगाना है कि भविष्य में इन दोनों के बीच किस तरह का तालमेल देखने को मिल सकता है.
इस सिद्धांत में स्ट्रैटेजिक फोर्सेज़ कमान (SFC) के कमांडर इन चीफ (C-in-C) की नियुक्ति का भी ज़िक्र है. इस कमान की ज़िम्मेदारी सामरिक बलों का प्रबंधन और प्रशासन करने की होगी. कमान और नियंत्रण के ढांचे, तैयार रहने की स्थिति, जवाबी हमले के लिए निशाना तय करने की रणनीति और एलर्ट रहने से लेकर जवाबी हमला शुरू करने तक, संचालन की अलग अलग प्रक्रियाओं का भी भारत की न्यूक्लियर डॉक्ट्रिन में विस्तार से ज़िक्र किया गया है.
भारत की एटमी डॉक्ट्रिन, या कम से कम 4 जनवरी 2003 को सार्वजनिक रूप से जारी किए गए संस्करण में आठ मुख्य तत्व हैं. इनमें सबसे अहम ‘पहले इस्तेमाल न करने (NFU) का एटमी नज़रिया’; दुश्मन को भयभीत करने के लिए क्रेडिबल मिनिमल डेटरेंस; पहला वार होने के बाद ‘दुश्मन को तबाह करने वाला’ भयंकर पलटवार, और; न्यूक्लियर कमान प्राधिकरण के ज़रिए जवाबी परमाणु हमले की मंज़ूरी केवल असैन्य राजनीतिक नेतृत्व के हाथों में होना है. इस सिद्धांत में स्ट्रैटेजिक फोर्सेज़ कमान (SFC) के कमांडर इन चीफ (C-in-C) की नियुक्ति का भी ज़िक्र है. इस कमान की ज़िम्मेदारी सामरिक बलों का प्रबंधन और प्रशासन करने की होगी. कमान और नियंत्रण के ढांचे, तैयार रहने की स्थिति, जवाबी हमले के लिए निशाना तय करने की रणनीति और एलर्ट रहने से लेकर जवाबी हमला शुरू करने तक, संचालन की अलग अलग प्रक्रियाओं का भी भारत की न्यूक्लियर डॉक्ट्रिन में विस्तार से ज़िक्र किया गया है. भारत के एटमी सिद्धांत की सार्वजनिक और आधिकारिक रूप से उपलब्ध ये जानकारियां एक ऐसी बुनियाद मुहैया कराती हैं, जिसके ऊपर कंप्यूटर की उन्नत तकनीक यानी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कंप्यूटिंग और ऑटोनॉमस सिस्टम का ढांचा खड़ा किया जाएगा.
दुनिया का पहला प्रोग्रामेबल, इलेक्ट्रॉनिक, सामान्य काम में इस्तेमाल होने वाला कंप्यूटर या इलेक्ट्रॉनिक न्यूमेरिकल इंटीग्रेटर ऐंड कंप्यूटर दिसंबर 1945 में बनकर तैयार हुआ था. शुरुआत में इसका मक़सद तोपखाने से दाग़े जाने वाले गोलों की दिशा की गणना करना था. सबसे पहले इस कंप्यूटर का इस्तेमाल, तीन आंशिक रूप से अलग अलग समीकरणों को हल करने के लिए किया गया था, जिससे ट्राइटियम की वो मात्रा तय होती जिससे काल्पनिक हाइड्रोजन फ्यूज़न बम ‘सुपर’ में धमाका किया जाना था. हाइड्रोजन बम का ये मॉडल एडवर्ड टेलर ने तैयार किया था. शुरुआत से ही कंप्यूटिंग और परमाणु शक्ति एक दूसरे से जुड़े रहे हैं. आंकड़ों, प्रतिभाओं और संस्थानों के साथ साथ कंप्यूटिंग यानी गणना करना, पूरी दुनिया में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के विकास की धुरी रहे हैं. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के मशीन लर्निंग या डीप लर्निंग संस्करणों में डेटा और कंप्यूट दोनों ही बेहद ज़रूरी हैं. क्योंकि AI बेहद ताक़तवर ग्राफिक्स प्रॉसेसिंग यूनिट्स (GPU) चिप पर आधारित होते हैं, जो समानांतर प्रॉसेसिंग और बड़ी तादाद में डेटा में से उन्हें आपस में जोड़ने वाले संपर्क सूत्र ढूंढ निकालते हैं, और फिर उससे निपटने की प्रक्रिया ईजाद करते हैं. जहां पर ऐसे डेटा उपलब्ध नहीं होते या उन्हें हासिल करना दुश्वार होता है. मिसाल के तौर पर कंप्यूटर पर युद्ध के मंज़र की नक़ल करना या फिर वास्तविक युद्ध से डेटा हासिल करना. वहां पर, रिसर्च करने वाले तमाम संभावित आपात स्थितियों से निपटने का नुस्खा तलाशने के लिए, गेम के सिद्धांत वाले मंज़र का इस्तेमाल करते हैं. इससे दो सामान्य व्यवहार करने वाले पक्षों के बीच बराबर की या असमान लड़ाई के मॉडल तैयार करने में मदद मिलती है. आज की बहुध्रुवीय दुनिया में इन मॉडलों से देशों को अपनी एटमी रणनीति की योजना बनाने में मदद मिलती है. सैटेलाइट तस्वीरों और ओपेन सोर्स इंटेलिजेंस (OSINT) के आंकड़ों और उन्हें मानवीय, सांकेतिक और जियो-स्पैटियल इंटेलिंजेस के साथ मिलाकरे, AI की मदद से दुश्मन के पारंपरिक और परमाणु हथियारों और बलों की संपूर्ण तस्वीर तैयार की जा सकती है.
युद्ध के मंज़रों की कल्पना के अलावा, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का उपयोग, नए नए एटमी पदार्थों की रचना में भी किया जा सकता है. जिन्हें सामान्य और हाइड्रोजन परमाणु बमों में इस्तेमाल किया जा सके. ये परमाणु बम छोटे आकार के मगर अधिकतम असर के बीच वाली स्थिति में होते हैं. इस समय AI के एक औज़ार पर आधारित अल्फाफोल्ड नाम का न्यूरल नेटवर्क का प्रयोग प्रोटीनों की तीन आयामों की मुड़ सकने वाली संरचना की भविष्यवाणी करने में किया जा रहा है. इसमें कंप्यूटिंग के उस तरीक़े का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसमें प्रोटीन की संरचना के ‘भौतिक और जैविक ज्ञान को (…) डीप लर्निंग एल्गोरिद्म की डिज़ाइन का हिस्सा बनाया जाता है.’ भविष्य में अगर ये प्रक्रिया नहीं, तो कम से कम इसके विचार को नए तत्वों या उनके मिश्रण का प्रयोग अधिकतम उत्पादन के लिए किया जा सकता है. इसी तरह आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और 3D प्रिंटिंग की तकनीकों का प्रयोग पेचीदा प्रक्रियाओं की डिज़ाइन और कुशलता को बढ़ाने के लिए भी किया जा सकता है. इनमें आउटेज शेड्यूलिंग, इन-कोर फ्यूल मैनेजमेंट और फ्यूल साइकल पैरामीटर्स जैसी बातें शामिल हैं. एक और पहलू जिसकी महत्ता बढ़ती जा रही है, वो है प्रेडिक्टिव मेंटेनेंस के लिए डिजिटल ट्विन्स का प्रयोग करना. AI का इस्तेमाल किसी परमाणु रिएक्टर (फिर चाहे वो फिशन हो या फ्यूज़न उपकरण) का हू-ब-हू डिजिटल संस्करण या फिर किसी भी डिलिवरी प्लेटफॉर्म यानी एटमी हथियार दाग़ने के मंच और उनके रख-रखाव के चक्र को बनाने में भी किया जा सकता है. ये काम या तो वास्तविक समय या फिर अधिक रफ़्तार (दो, तीन, पांच, 10 या इससे भी अधिक गुना) से किया जा सकता है, ताकि ऐसी संरचनात्मक चुनौतियों का पता लगाया जा सके, जिससे टूट-फूट होने की आशंका हो. फिर इसे टालने की व्यवस्था शुरुआती चरण में ही लागू की जा सकती है. सैन्य क्षेत्र में, ब्रिटेन ने एक महत्वाकांक्षी परियोजना शुरू की है, जिससे नई पीढ़ी के हवाई युद्ध की व्यवस्था बनाई जा सके. इसका नाम प्रोजेक्ट टेम्पेस्ट रखा गा है, जिसमें किसी लड़ाकू विमान का डिजिटल जुड़वां तैयार किया जाएगा, और फिर सारे बदलावों का प्रयोग उसी पर किया जाएगा.
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और क्वांटम कंप्यूटिंग, सेना के लिए निशाना साधने की चुनौती का समाधान करने में भी मददगार साबित हो सकते हैं. वैसे तो कई सैन्य विशेषज्ञों ने लिखा है कि हो सकता है कि भारत भी काउंटरफोर्स के विकल्प तलाश रहा हो. लेकिन, भारत की परमाणु नीति पूरी तरह से नो फर्स्ट यूज़ (NFU) पर डटी हुई है.
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और क्वांटम कंप्यूटिंग, सेना के लिए निशाना साधने की चुनौती का समाधान करने में भी मददगार साबित हो सकते हैं. वैसे तो कई सैन्य विशेषज्ञों ने लिखा है कि हो सकता है कि भारत भी काउंटरफोर्स के विकल्प तलाश रहा हो. लेकिन, भारत की परमाणु नीति पूरी तरह से नो फर्स्ट यूज़ (NFU) पर डटी हुई है. हालांकि, अगर हालात बदलते हैं तो, स्ट्रैटेजिक फोर्स कमान (SFC) को ऐसे लक्ष्यों की सूची बनाने को कहा जा सकता है, जिन पर निशाना साधा जा सके. चुनौती दोहरी है: लक्ष्यों के हिसाब से वेपन सिस्टम की अतिरिक्त या वैकल्पिक तैनाती की ज़रूरत का पता लगाना. दोनों ही सूरतों में क्वांटम कंप्यूटिंग और AI से मदद मिल सकती है- आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस तमाम आपात स्थितियों को समानांतर प्रक्रिया का उपयोग करके अराजकता के मॉडल तैयार करने में मदद कर सकता है. वहीं, क्वांटम कंप्यूटिंग ‘अशुद्ध जानकारी’ के ज़रिए प्राथमिकता तय करने वाले सेंसर इनपुट के मेल से एक साथ कई क़दम उठाने वाले विकल्प सुझा सकता है. क्वांटम कंप्यूटिंग का इस्तेमाल, ट्रैफिक ऑप्टिमाइज़ेशन के मसलों (जब भारत के दूर-दराज़ के इलाक़ों से सैन्य टुकड़ियों को बुलाया जाता है, तो ये व्यवहारिक समस्या हमेशा खड़ी होती है) या फिर हमेशा मुश्किल रहने वाली ट्रैवेलिंग सेल्समैन प्रॉब्लम (TSP) के हल में भी काम आ सकती है. क्योंकि ये लक्ष्य और प्लेटफ़ॉर्म संबंधी चुनौतियों के जैसी ही हो सकती हैं.
ऑटोनॉमस हथियारों को युद्ध का भविष्य कहा जा रहा है. इसकी बड़ी वजह है एंटी एक्सेस और एरिया डिनायल वेपंस (A2/AD) प्लेटफॉर्म, जैसे कि एंटी शिप मिसाइलों, लंबी दूरी के तोपखाने, और ज़मीन से हवा में मार करने वाली जटिल मिसाइलों (SAMs) का विस्तार है. इलेक्ट्रॉनिक युद्ध के हथियार और साइबर हथियार, इन हथियारों के पूरक का काम करते हैं. ये सब मिलकर, ‘अपने इलाक़े में घुसपैठ न करने देने के माहौल’ जैसे कि GPS-denied माहौल. अपने आप निशाने की पहचान, चुनाव और ख़त्म करने की क्षमता से लैस ऑटोनॉमस सिस्टम भविष्य के हथियार होंगे, जिसमें इंसान या तो इस पूरी व्यवस्था में निगरानी या फिर मूक-दर्शक की भूमिका में होगा. हालांकि, इससे अपनी एक अलग तरह की चुनौती खड़ी होगी. इसमें सबसे अहम तो युद्ध के इंसानों के बीच लड़े जाने की परिकल्पना ही होगी. हो सकता है कि कुछ लोग इस चिंता को नैतिकता की फ़िक्र कहकर ख़ारिज करें. लेकिन, ये विशुद्ध तर्क का सवाल है. अगर युद्ध मानव समाज के दायरे में (एक सामाजिक कृत्य) रहता है, तो इसमें अनुपात, नैतिकता, मानव अधिकारों और सबसे मानवीय पहलू, मोल-भाव जैसे मसलें शामिल रह सकते हैं. लेकिन, अगर इंसानों की तरफ़ से मशीनें युद्ध लड़ेंगी- और ख़ास तौर से परमाणु हथियारों का डर दिखाकर दूसरों की पहुंच रोक देने वाले माहौल में युद्ध होगा- तो अधिकतम प्रभाव, नतीजों और ज़्यादा से ज़्यादा नुक़सान करने जैसी बातें हावी रहेंगी. ऑटोनॉमस हथियार वो फ़ैसले कभी नहीं ले सकती हैं, जो 1983 में लेफ्टिनेंट कर्नल स्टानिस्लाव पेट्रोव ने लिया था.
अगर युद्ध मानव समाज के दायरे में (एक सामाजिक कृत्य) रहता है, तो इसमें अनुपात, नैतिकता, मानव अधिकारों और सबसे मानवीय पहलू, मोल-भाव जैसे मसलें शामिल रह सकते हैं. लेकिन, अगर इंसानों की तरफ़ से मशीनें युद्ध लड़ेंगी- और ख़ास तौर से परमाणु हथियारों का डर दिखाकर दूसरों की पहुंच रोक देने वाले माहौल में युद्ध होगा- तो अधिकतम प्रभाव, नतीजों और ज़्यादा से ज़्यादा नुक़सान करने जैसी बातें हावी रहेंगी.
उभरती हुई तकनीकों का इस्तेमाल किसी देश के परमाणु हथियारों का भय दिखाने की क्षमता, आकार के कुशलता और रख-रखाव के मानकों की संभावनाओं के अधिकतम उपयोग में किया जा सकता है. लेकिन, परमाणु हथियारों का इस्तेमाल और उनकी तैनाती पूरे तौर पर इंसानों के हाथों में ही होनी चाहिए और उसे कभी भी किसी भी तकनीकी आविष्कार के हाथों में नहीं देना चाहिए, फिर चाहे वो मशीन कितनी भी क़ाबिल क्यों न हो, इंसान की कितनी ही अच्छी नक़ल क्यों न कर लेती हो.
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Lt Col Akshat Upadhyay is a Research Fellow at MP-IDSA. He is a serving army officer who has written for a number of print publications ...
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