Published on Jul 31, 2023 Updated 0 Hours ago

भारतीय सेना के द्वारा देसी तकनीक से हल्के टैंक का विकास जितना तारीफ़ के काबिल है, उतना ही हमें आगे के कंटीले रास्ते के बारे में जागरुक होने की ज़रूरत है.

भारतीय सेना में हल्के वज़न वाले टैंक: फ़ौज की हौसला अफ़ज़ाई के लिये ज़रूरी फ़ैसला
भारतीय सेना में हल्के वज़न वाले टैंक: फ़ौज की हौसला अफ़ज़ाई के लिये ज़रूरी फ़ैसला

3 मार्च 2022 को मोदी सरकार ने भारतीय सेना के लिए हल्के टैंक को विकसित करने का ऐलान किया. ये फ़ैसला 2020 की रक्षा ख़रीद प्रक्रिया (डीपीपी) की निर्माण-I श्रेणी के तहत किया गया और ये निर्णय उस समय लिया गया है जब भारत ने के-9 वज्र मोबाइल होवित्ज़र को हल्के टैंक में परिवर्तित कर लिया है. के-9 वज्र एक 155 मिमी/2 का स्व-संचालित तोप है जो कि 50 किलोमीटर दूर के लक्ष्य पर भी निशाना साध सकता है और इसकी एक टुकड़ी को चीन के साथ जारी गतिरोध के बीच लद्दाख में तैनात किया गया है. के-9 वज्र को भारत-चीन सीमा के दूसरे हिस्सों में भी तैनात किए जाने की संभावना है. हालांकि के-9 वज्र कभी भी एक विशेष तौर पर हल्के टैंक, जिसको सरकार ने अब सैद्धांतिक तौर पर मंज़ूरी दे दी है, की जगह नहीं ले सकता है या उसकी कमी पूरी नहीं कर सकता है. वज्र को तैनात करने का फ़ैसला भारत के द्वारा चीन सीमा पर तात्कालिक सैन्य ज़रूरत को पूरा करने और भारतीय सेना की गोलाबारी की आवश्यकता के कुछ हिस्सों को पूरा करने के लिए लिया गया है. वज़न के मामले में के-9 वज्र 50 टन का एक वाहन है जो लद्दाख में तैनात मुख्य युद्धक टैंकों (एमबीटी) टी-90 और टी-72 से थोड़ा ज़्यादा वज़नी है. टी-90 टैंक का वज़न 48 टन है और पुराने टी-72 टैंक का वज़न 46 टन है. रूस में निर्मित ये दोनों मुख्य युद्धक टैंक 125 मिमी गन से लैस हैं. 

के-9 वज्र एक 155 मिमी/2 का स्व-संचालित तोप है जो कि 50 किलोमीटर दूर के लक्ष्य पर भी निशाना साध सकता है और इसकी एक टुकड़ी को चीन के साथ जारी गतिरोध के बीच लद्दाख में तैनात किया गया है.

मौजूदा तैनाती के बावजूद के-9 वज्र, टी-90 और टी-72 का वज़न भारत-चीन सीमा के ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों में असरदार ढंग से लड़ाई के हिसाब से बहुत भारी है. अगर उनको असरदार कहा भी जाए तब भी उनकी तैनाती भारतीय सेना पर साजो-सामान का बोझ डालती है जबकि सेना पिछले कई वर्षों से साजो-सामान का बोझ कम करने की कोशिश कर रही है. मैकेनाइज़्ड फोर्सेज़ का महानिदेशालय हथियारों के सिस्टम और प्लैटफॉर्म का वज़न कम करने के लिए भरपूर काम कर रहा है. इसके अलावा चीन ने विशेष रूप से एक हल्के टैंक को विकसित किया है जिसे टाइप-15 कहा जाता है और ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों के हिसाब से उपयुक्त होने की वजह से इस टैंक को भारत के ख़िलाफ़ तैनात किया है. चीन के हल्के टैंक टाइप-15 का वज़न 35 टन है और ये 105 मिमी गन से लैस है जिसकी वजह से ये भारतीय सेना के टी-90, टी-72 और के-9 वज्र के मुक़ाबले काफ़ी हल्का है. टाइप-15 पिछले तीन दशकों में बने कुछ गिने-चुने हल्के टैंक में से एक है. भारतीय टैंक के मुक़ाबले छोटे आकार की गन होने के बावजूद टाइप-15 को एक सक्षम बख्तरबंद हथियार माना जाता है. चीन ने टाइप-15 हल्के टैंक को इसलिए बनाया क्योंकि उसने अनुमान लगाया कि ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों में युद्ध के लिए हल्के वज़न के बख्तरबंद हथियार की ज़रूरत पड़ेगी. चीन ने ख़ास तौर पर ये अनुमान लगाया कि भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को देखते हुए भारतीय सेना के ख़िलाफ़ उसकी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को किस तरह की सैन्य ज़रूरत होगी. 

भारतीय सेना यहां तक कैसे पहुंची और आगे की चुनौतियाँ 

इस पृष्ठभूमि में मई 2020 में मौजूदा भारत-चीन सीमा विवाद की शुरुआत के बाद भारत ने रूस के हल्के टैंक स्प्रट एसडीएम1 को ख़रीदने पर विचार किया था. अप्रैल 2021 में मैकेनाइज़्ड फोर्सेज़ के महानिदेशालय ने रक्षा मंत्रालय के तहत 25 टन के वज़न की श्रेणी में 350 हल्के टैंक को ख़रीदने की प्रक्रिया शुरू करते हुए अनुरोध पत्र (रिक्वेस्ट फॉर इंफॉर्मेशन) जारी किया. रूस की पेशकश के बावजूद भारत ने अब हल्के टैंक को आयात करने के बदले स्वदेशी तकनीक से उसे विकसित करने की तरफ़ ध्यान दिया है. इस घटनाक्रम की तारीफ़ की जानी चाहिए लेकिन उन समस्याओं को अधूरा छोड़े बिना जिनका सामना भारतीय सेना कर रही है. आम लोगों को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि हल्के टैंक के लिए भारत की ज़रूरत मौजूदा भारत-चीन सीमा संकट के मद्देनज़र ही उठ खड़ी हुई है. भारत में संकट खड़ा होने के बाद ही विकास की नई पहल को लेकर फ़ैसला लेने की ज़रूरत पर ध्यान जाता है. हल्के टैंक को देश में विकसित करने को लेकर सरकार का फ़ैसला भी इसका अपवाद नहीं है. सरकार की ये सोच भारत के मुख्य शत्रु पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) के ख़िलाफ़ क्षमता और परिचालन चुनौतियों का सामना करने में भारतीय सेना की संकीर्ण दृष्टि का भी नतीजा है. 

चीन के हल्के टैंक टाइप-15 का वज़न 35 टन है और ये 105 मिमी गन से लैस है जिसकी वजह से ये भारतीय सेना के टी-90, टी-72 और के-9 वज्र के मुक़ाबले काफ़ी हल्का है. 

आम तौर पर सेना हल्के हथियारों के मुक़ाबले मध्यम और भारी वज़न के हथियारों को महत्व देती रही है. भारतीय सेना की योजना तैयार करने वालों के दिलो-दिमाग़ में पाकिस्तान ज़रूरत से ज़्यादा जगह लेता रहा है. इसका नतीजा ये हुआ कि हल्के टैंक को विकसित करने पर उस वक़्त तक ध्यान नहीं गया जब तक चीन के साथ मौजूदा गतिरोध पैदा नहीं हुआ. हल्के टैंक को देश में विकसित करने की ख़ूबियों के बावजूद भारत के नीति-निर्माताओं को ये स्वीकार करना होगा कि देश में निर्मित हल्के टैंक का शुरुआती वेरिएंट आने में कम-से-कम पांच साल लग सकते हैं. पांच साल से कम का समय तभी लग सकता है जब हल्के टैंक की परियोजना में संभवत: मुख्य भूमिका निभाने वाले रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ), युद्ध वाहन अनुसंधान और विकास प्रतिष्ठान (सीवीआरडीई), भारी वाहन कारखाना (एचवीएफ) लिमिटेड और शायद निजी क्षेत्र की कुछ कंपनियां पांच साल से कम समय में कोई चमत्कारी सफलता हासिल कर ले. 

रूस की पेशकश के बावजूद भारत ने अब हल्के टैंक को आयात करने के बदले स्वदेशी तकनीक से उसे विकसित करने की तरफ़ ध्यान दिया है.

रूस का विकल्प

उम्मीद करनी चाहिए कि हल्के टैंक को विकसित करने में ज़्यादा लंबा इंतज़ार नहीं करना पड़े. लेकिन हल्के टैंक को विकसित करने में चाहे जितना भी समय लगे, भारतीय सेना को शुरू से इस बात के लिए स्पष्ट रहना चाहिए कि युद्ध के मैदान में प्रदर्शन और तैनाती की ज़रूरतों के हिसाब से हल्के टैंक के लिए तकनीकी ब्यौरा क्या हो ताकि बेकार की देरी को टाला जा सके. ऐसा नहीं होने पर डीआरडीओ और उसके सहयोगी संगठनों के टैंक डिज़ाइनर “अंधेरे” में रहेंगे. हल्के टैंक की परियोजना को अतीत में स्वदेशी बख्तरबंद प्लैटफॉर्म जैसे कि क़रीब 70 टन के अर्जुन मुख्य युद्धक टैंक के विकास के द्वारा प्रभावित नहीं किया जा सकता है. भारतीय सेना के द्वारा प्रदर्शन के मानक में बदलाव का एक उदाहरण अर्जुन मुख्य युद्धक टैंक है जिसे कुछ अनिच्छा और सरकार के निर्देश के तहत सेना ने शामिल किया था. अर्जुन टैंक के एमके1ए वेरिएंट में काफ़ी सुधार के बावजूद ये ज़रूरत से ज़्यादा वज़न वाला टैंक है और इसे भारत-पाकिस्तान सीमा पर कुछ ही “क्षेत्रों” में तैनात किया जा सकता है जैसे कि रेगिस्तान वाले इलाक़े. अर्जुन की लागत में भी काफ़ी ज़्यादा बढ़ोतरी हो चुकी है. देरी से और बिना किसी उत्साह के भारतीय सेना के द्वारा अर्जुन मुख्य युद्धक टैंक के दोनों वेरिएंट- एमके1 और एमके1ए- का एकीकरण भी इस बात की याद दिलाने का काम करता है कि कैसे एक स्वदेशी हल्के टैंक के विकास के साथ आगे नहीं बढ़ना है क्योंकि यह स्वदेशी क्षमता की क़ीमत पर भारतीय सेना और सरकार को हल्के टैंक के आयात के लिए मजबूर कर सकता है. जिस तरह से रूस पर भारी आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए हैं, उसके कारण आने वाले महीनों और वर्षों में रूस से आयात करना बेहद जोख़िम भरा काम होगा. अगर भारत रूस के किसी विकल्प की तरफ़ बढ़ता है तो ये भारत के घरेलू रक्षा उद्योग से सैन्य क्षमता हासिल करने के वर्तमान और भविष्य की किसी सरकार के इरादे के ख़िलाफ़ है क्योंकि ऐसा करने पर भारत को हार्डवेयर भी आयात करना होगा. आख़िर में, भारत के नीति-निर्माताओं को निश्चित रूप से ये सुनिश्चित करना चाहिए कि फंडिंग में किसी तरह की कमी न हो और नज़दीकी तौर पर अनुसंधान एवं विकास (आरएंडडी) और उत्पादन पर नज़र रखना चाहिए. इसमें सभी भागीदारों को शामिल किया जाना चाहिए ताकि एक विश्वसनीय हल्के टैंक की क्षमता हासिल की जा सके. 

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