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आर्थिक विकास के लिए व्यापार घाटा कम करना ज़रूरी है. बेहतर नीति निर्धारण इस लक्ष्य को पूरा करने में आख़िर तक सहायक हो सकती है.
भारत में मुद्रास्फीति के दर में कमी आने और यूक्रेन संकट के थोड़े ठंडे पड़ने के बाद इस बात की आशंका है कि अगले वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में (भारतीय रिज़र्व बैंक -आरबीआई- अनुमान), सुस्त वृद्धि दर की समस्या सामने आएगी. आबादी के शीर्ष दो वर्ग की बढ़ती आय से अलग स्थायी, घरेलू मांग में वृद्धि की कमी एक स्थायी चिंता का विषय बना हुआ है.
तो क्यों ना इस मंदी (2022-2025) से बाहर निकलने का रास्ता निर्यात में ढूंढा जाए, जब तक कि आबादी के शीर्ष दो वर्ग के बीच वास्तविक आय में सुधार हो सकता है, जो 2025 से 2030 तक विकास की रफ्तार को बनाए रखे ?
बेशक निर्यात के कंधे पर अर्थव्यवस्था की तरक्की की रफ्तार का बोझ डालने का यह सही वक़्त है. क्योंकि यूक्रेन संकट के बाद दुनिया असहज रूप से तीन वर्गों में विभाजित हो गई है. सबसे पहले, पश्चिमी गठबंधन जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस), उसके सहयोगी और यूरोपीय संघ बनाम रूस और चीन के अपने संबंधित सहयोगियों के साथ नए समूह शामिल हैं और अंत में, अन्य जो रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखना पसंद करते हैं. भारत तीसरी श्रेणी में आता है क्योंकि देश का आकार, स्थान और राजनीतिक व्यवस्था किसी भी अन्य दृष्टिकोण को अव्यवहारिक बना देता है.
चीन की सीमा से हम सबसे करीब हैं, जो दुनिया में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए कॉलेजियल सह-अस्तित्व को नकारता है. हम क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी में भाग लेने से होने वाले फायदों से ख़ुद को दूर रखने की क़ीमत पर “चीन को मैनेज” करते हैं – जो दुनिया के सबसे तेजी से बढ़ते क्षेत्र को नियंत्रित करने वाला व्यापार समझौता है.
लोकप्रिय धारणा के विपरीत भारत का प्रदर्शन वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात को लेकर बेहतर है – अगर कुदरती संसाधन निर्यात-आधारित अर्थव्यवस्थाओं (जिनका निर्यात सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 70 प्रतिशत से अधिक हो सकता है) को तुलनात्मक सेट से हटा दिया जाता है जिसमें संभावित रूप से हमारी घरेलू अर्थव्यवस्था का बड़ा आकार भी शामिल है.
साल 2021 में भारत 20.8 प्रतिशत के सकल घरेलू उत्पाद में निर्यात हिस्सेदारी के साथ, चीन से 20 प्रतिशत पर 0.8 प्रतिशत अंक आगे था. हालांकि यह ध्यान रखना अहम है कि 2021 के आंकड़े चीन में गंभीर कोरोना महामारी के चलते सप्लाई बाधाओं को भी दर्शा सकते हैं, जिससे चीन के निर्यात प्रभावित हो सकते हैं. साल 2008 में, जब चीन में जीडीपी में निर्यात का हिस्सा 31.2 प्रतिशत पर पहुंच गया तो भारत 26 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ 10 प्रतिशत अंक पीछे था.
भारत को 29.1 प्रतिशत के सकल घरेलू उत्पाद में निर्यात के विश्व औसत हिस्सेदारी के करीब बढ़ने की ज़रूरत है. भारत 2013 में 25.4 प्रतिशत के साथ शीर्ष पर था और भारत के लिए कदमों को वापस लेना निर्यात हिस्सेदारी की वसूली का एक तरीक़ा हो सकता है.भारत को 29.1 प्रतिशत के सकल घरेलू उत्पाद में निर्यात के विश्व औसत हिस्सेदारी के करीब बढ़ने की ज़रूरत है. भारत 2013 में 25.4 प्रतिशत के साथ शीर्ष पर था और भारत के लिए कदमों को वापस लेना निर्यात हिस्सेदारी की वसूली का एक तरीक़ा हो सकता है. भारत की छवि मार्जिनल एक्सपोर्टर की है और इसमें सुधार किया जाना चाहिए. निर्यात को बढ़ाना एक तरह से दीर्घकालिक एज़ेंडा है – बेहतर बुनियादी ढ़ांचे के ज़रिए ल़ॉजिस्टिक की लागत को कम करना और इससे भी ख़ास बात यह है कि कर और निर्यात नियंत्रण प्रक्रियाओं को सरल बनाने के लिए प्रक्रियाओं में सुधार लाना आवश्यक है. इसके अलावा, लक्षित निर्यात बाज़ारों में एक सतत ब्रांडिंग की कोशिश के साथ -साथ कारोबार और आर्थिक भागीदारी में सक्रियता भी आवश्यक है.
विशेष आर्थिक क्षेत्र
चीन के विपरीत, दशकों से घरेलू अर्थव्यवस्था में कम वेतन, कुशल कार्यबल और सप्लाई चेन के तुलनात्मक फाय़दे का इस्तेमाल करते हुए, भारतीय निर्यात सामान्य तौर पर औद्योगिक और सेवा क्षेत्र की प्रतिस्पर्द्धात्मकता का एक हिस्सा है.
चीन के एन्क्लेव्ड एक्सपोर्ट प्रमोशन की नकल करने के प्रयास मामूली रूप से सफल रहे हैं. 1980 से 2007 तक चीन के विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड), औद्योगिक पार्कों और क्षेत्रों (5000 से अधिक की संख्या) ने निर्यात का 60 प्रतिशत, सकल घरेलू उत्पाद का 22 प्रतिशत, और 30 मिलियन को रोजगार दिया. भारतीय अनुभव लंबा (1965 से) है लेकिन कम उत्पादक है. 2005 में सहायक कानून में समाप्त होने वाली नीतिगत पहल, केवल 268 निर्यात-परिचालन परिक्षेत्रों का समर्थन करती है, जो कि 112.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर या 2019–20 में 526.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर के कुल माल और सेवाओं के निर्यात का 21 प्रतिशत है. लगभग 300 अधिसूचित एसईजेड (कुछ अभी तक चालू नहीं हैं) 41,970 हेक्टेयर क्षेत्र के भीतर स्थित हैं. अधिकांश औद्योगिक समूह हैं बजाए समुदाय, शहर या क्षेत्रों के, जैसा कि चीन में है.राजनीति, पार्टियां, और भागीदारी
भारत और चीन की रणनीतियों में दो महत्वपूर्ण अंतर है. सबसे पहले भारत में राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा ज़्यादा होने से केंद्र सरकार अक्सर ऐसी निर्यात सुविधाओं में निवेश करती है और उनका प्रबंधन करती है. जबकि चीन में, प्रांतों और शहरों को निजी क्षेत्र के सहयोग से ऐसे परिक्षेत्रों के गठन और प्रबंधन में नेतृत्व करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.
निर्यात के लिए एक दूसरी कमजोरी लेवल प्लेयिंग फील्ड का नहीं होना है जिसकी वज़ह “मज़बूत भारतीय रुपया (आईएनआर)” के लिए वरीयता है. भारत को 2011 से 2013 तक सकल घरेलू उत्पाद के 7 प्रतिशत से थोड़ा कम वार्षिक व्यापार घाटा हुआ जिसके परिणामस्वरूप आईएनआर का तेजी से अवमूल्यन हुआ.
भारत में केंद्रीय राजनीतिक नेतृत्व सक्रिय रूप से राजनीतिक प्रभाव और सार्वजनिक विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए उनके साथ जुड़ी परियोजनाओं और कार्यक्रमों को आगे बढ़ाता है. यह वैसा ही है जैसे चीन में अन्य नेताओं के मुक़ाबले राष्ट्रपति शी जिनपिंग को अपने लिए एक विशेष स्थान बनाने की आवश्यकता है. यह एक कारण है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के समग्र प्रबंधन के भीतर विकेंद्रीकृत कार्यान्वयन का भारत में सीमित महत्व है.मैक्रो-इकोनॉमिक लक्ष्यों का मुक़ाबला करना
दूसरा, भारत द्वारा मैक्रोइकोनॉमी के लिए अपनाए जाने वाले फ्रेमवर्क में निर्यात को अवशिष्ट के रूप में माना जाता है, जबकि इसके विपरीत चीन में निर्यात पर मुख्य फोकस है. भारत में, राजनीतिक अर्थव्यवस्था मेट्रिक्स जैसे मुद्रास्फीति से उपभोक्ता संरक्षण, और सस्ते आयात से उत्पादकों के लिए सुरक्षा को अधिक महत्व दिया जाता है.
औद्योगिक उदारीकरण के चार दशक बाद सक्रिय औद्योगीकरण नीति का फिर से प्रकट होना, आत्मनिर्भर भारत, घरेलू उत्पादकों को लाभों को हस्तांतरित करके सब्सिडी प्रदान करता है जो उपभोक्ताओं को सस्ते आयात से आयातित प्रतिस्पर्द्धा के अभाव में उच्च कीमतों को चार्ज करने की क्षमता के ज़रिए मिलता है.
औचित्य यह है कि घरेलू मूल्यवर्धन सस्ते आयात से कहीं बेहतर है क्योंकि यह रोज़गार पैदा करता है. हालांकि यह कम समय में किसी ख़ास मामले में सच हो सकता है जबकि आयात बाधाएं क्लोज इकोनॉमी इको सिस्टम के लिए दक्षता को नुकसान पहुंचाती हैं, जो आयात आधारित प्रतिस्पर्द्धा के लिए उपयोग नहीं की जाती हैं. टेस्ला जैसी कार निर्माता कंपनी का भारत में निवेश करने को लेकर उचित टैरिफ पर अपनी कारों का टेस्ट-आयात करने पर जोर देना ऐसा ही एक उदाहरण है.मैक्रोइकोनॉमिक स्टैबिलिटी में निर्यात, केवल अवशिष्ट
निर्यात के लिए एक दूसरी कमजोरी लेवल प्लेयिंग फील्ड का नहीं होना है जिसकी वज़ह “मज़बूत भारतीय रुपया (आईएनआर)” के लिए वरीयता है. भारत को 2011 से 2013 तक सकल घरेलू उत्पाद के 7 प्रतिशत से थोड़ा कम वार्षिक व्यापार घाटा हुआ जिसके परिणामस्वरूप आईएनआर का तेजी से अवमूल्यन हुआ. 2014-17 के दौरान व्यापार घाटा जीडीपी के 1 से 2 प्रतिशत के बीच कम हो गया क्योंकि आयातित तेल की क़ीमत घट गई. यह 2019-20 (अंतिम सामान्य, पूर्व-महामारी वर्ष) तक बाद के वर्षों में जीडीपी के 3 प्रतिशत से अधिक हो गया, क्योंकि तेल की क़ीमत में मज़बूती आई थी.
इस अंतर को पूंजी प्रवाह से पूरा किया जाता है – या तो रेमिटेंसेज, पोर्टफोलियो या प्रत्यक्ष विदेशी निवेश. इसके परिणामस्वरूप मौद्रिक नीति भारतीय रूपए को मज़बूत करने के लिए, आवक पूंजी प्रवाह के प्रोत्साहन को संरक्षित करने के लिए घरेलू ब्याज दरों में पर्याप्त गतिशीलता बनाए रखने का प्रयास करती है. भारतीय स्टॉक्स के महंगे रहने का एक कारण यह भी है कि वे आरबीआई से उम्मीद करते हैं कि वह भारतीय रुपए का अवमूल्यन नहीं होने देगा. 2019 के बाद से भारतीय रुपए की नाममात्र विनिमय दर में लगभग 10 प्रतिशत गिरावट के बावज़ूद भारतीय रूपए की वास्तविक विनिमय दर के साथ अंतर ज़्यादा हो गया है क्योंकि रुपए की नाममात्र विनिमय दर में मुद्रास्फीति का समायोजन नहीं किया गया है.
यह रणनीति आयातित मुद्रास्फीति से बचने में मदद करती है (यूक्रेन संकट से पहले भी वैश्विक तेल और गैस की क़ीमतों में मज़बूती के रुझान को आंशिक रूप से बेअसर करके) लेकिन निर्यात के लिए हानिकारक है जो अप्रतिस्पर्द्धी हो जाता है. यह फॉलबैक, रक्षात्मक रणनीति, पूंजी प्रवाह के लिए सब्सिडी के माध्यम से विदेशी मुद्रा असंतुलन को कम करती है. हालांकि यह निर्यात पर एक कर के रूप में भी कार्य करता है जो इसके बजाय व्यापार घाटे (निर्यात और आयात के बीच का अंतर) को बढ़ाता है.जल्द ही चीन राजनीतिक वर्चस्व के मुक़ाबले आर्थिक दक्षता को प्राथमिकता देने पर मज़बूर होगा. आर्थिक मज़बूरियां फिर से अपना सिर उठाएंगी और महान रणनीतिकार डेंग शियाओपिंग को ग़लत तरीक़े से उल्लेख करने का ख़ामियाज़ा उठाना होगा.
निर्यात को प्रतिस्पर्द्धी बनाना अर्थव्यवस्था के लिए मध्यम अवधि का लक्ष्य है जो टारगेटेड रिसर्च और विकास के लिए अधिक सब्सिडी, उद्योग और स्किल फॉर बिज़नेस के लिए टारगेटेड सब्सिडी, प्रोसेस अपग्रेड्स, दक्षता और क्वालिटी स्टैंडर्ड नहीं पालन करने पर दंडात्मक कर, और बेहतर बुनियादी ढांचा जैसा कि कम लॉजिस्टिक लागत और स्थिर मैक्रोइकॉनॉमिक स्थितियों से प्रमाणित होता है, इसमें शामिल है.निवेशकों को आकर्षित कर चीनी वस्तुओं के जुनून से दूर करना
”हाल के दिनों में विदेशी निवेश को चीन से और भारत में निर्यात के लिए एक वैश्विक केंद्र में बदलने की संभावना को “लो-हैंगिंग फ्रूट” बताया जाता रहा है. यह धारणा बेहद मासूम लगती है, क्योंकि चीन में मौज़ूदगी के लिए कारोबारी मजबूरी में – विदेशी निवेश, प्रौद्योगिकी और निर्यात हासिल करने के लिए अधिक प्रतिस्पर्द्धी बड़ी अर्थव्यवस्था – जिसके रातोंरात ग़ायब होने की संभावना नहीं है, शामिल है. अगर ऐसा हो भी जाता है तो भारत मुश्किल से “फ्रेंड-शोरिंग” के लिए योग्य होता है “नियर-शोरिंग” के लिए तो बिल्कुल भी नहीं.
एक अंतर्मुखी चीन का अपनी ही बाहरी और घरेलू प्रतिबद्धताओं के बोझ तले दबने का जोख़िम बढ़ता जा रहा है. वर्चस्व बढ़ाने और बड़े व्यवसायों को छोटा करने के लिए मौज़ूदा राजनीतिक मज़बूरियों के बावज़ूद, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी नागरिकों को तेज आर्थिक विकास का फायदा करके अपनी सियासी वैधता को सुनिश्चित करने के लिए बाध्य है. इसे जोख़ीम में डालकर, वे उस सामाजिक अनुबंध को जोख़िम में डालते हैं जिस पर चीन काम करता है.
जल्द ही चीन राजनीतिक वर्चस्व के मुक़ाबले आर्थिक दक्षता को प्राथमिकता देने पर मज़बूर होगा. आर्थिक मज़बूरियां फिर से अपना सिर उठाएंगी और महान रणनीतिकार डेंग शियाओपिंग को ग़लत तरीक़े से उल्लेख करने का ख़ामियाज़ा उठाना होगा. इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसा होने पर वैश्विक कारोबार चीन के साथ लाभदायक सहयोग फिर से शुरू कर सकता है.
आर्थिक तरक्की के लिए ख़ुद को नष्ट करने वाले एक प्रतियोगी पर भरोसा करना ख़ुद को धोखा देने जैसा है. चीन के प्रबंधन में व्यापार और निवेश के मुद्दों को भू-राजनीति और सुरक्षा से अलग करना बेहद ज़रूरी है. इस संदर्भ में वोलोदिमिर ज़ेलेंस्की की तुलना में एंजेला मर्केल बनना ज़्यादा बेहतर है.
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Sanjeev S. Ahluwalia has core skills in institutional analysis, energy and economic regulation and public financial management backed by eight years of project management experience ...
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