Expert Speak India Matters
Published on Mar 29, 2025 Updated 0 Hours ago

रासायनिक सुरक्षा और संरक्षा के बीच अंतर को उजागर करते हुए भोपाल गैस त्रासदी अभी भी भारत में सुरक्षित रासायनिक अभियान को मज़बूत करने के लिए एक चेतावनी के रूप में काम कर रही है. 

भोपाल त्रासदी से सबक: रासायनिक संरक्षा और सुरक्षा के बीच समन्वय बनाना

Image Source: Getty

भोपाल गैस त्रासदी के चार दशकों के बाद जनवरी 2025 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने अंतत: आपदा की जगह पर छूटे ख़तरनाक कचरों को हटाने का आदेश दिया. भोपाल गैस त्रासदी दिसंबर 1984 में हुई थी और इसे दुनिया में सबसे प्रमुख औद्योगिक आपदाओं में से एक माना गया है. यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के एक कीटनाशक प्लांट से मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) गैस के रिसाव की वजह से हज़ारों लोग ज़हरीले रसायन के एक ख़तरनाक बादल के संपर्क में आ गए जिसका नतीजा अनुमानित रूप से 3,787 लोगों की मौत के रूप में निकला. अगले कुछ वर्षों के दौरान 15,000 लोगों की मौत का कारण भी इसी गैस के रिसाव को बताया गया. इसके अलावा 5,00,000 से ज़्यादा लोग ज़हरीले गैस के संपर्क में आए जिसके कारण उनके सांस लेने, देखने, न्यूरोलॉजिकल हालात और प्रजनन पर दीर्घकालिक नुकसानदेह असर हुआ. 

भोपाल गैस त्रासदी दिसंबर 1984 में हुई थी और इसे दुनिया में सबसे प्रमुख औद्योगिक आपदाओं में से एक माना गया है.

इस दुर्घटना के समय भोपाल इस तरह की आपदा से निपटने के लिए तैयार नहीं था. स्वच्छ पानी तक सीमित पहुंच और बिना सीवेज सिस्टम के साथ भोपाल में सार्वजनिक स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा कमज़ोर था. बड़े अस्पतालों में प्रशिक्षित डॉक्टर और बेड की कमी थी और आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रणाली (इमरजेंसी रिस्पांस सिस्टम) भी उसी तरह ख़राब थी. भोपाल आपदा के बाद सबसे बड़ी चुनौती व्यापक स्तर पर शुद्धिकरण (डिकॉन्टेमिनेशन) के काम को अंजाम देने में कठिनाई थी. इलाके के लगातार दूषित होने से यहां रहने वाले लोग बीमार होते रहे

भारतीय न्यायपालिका से समझौते के तहत UCC ने आपदा के लिए नैतिक ज़िम्मेदारी को स्वीकार किया और 3,000 लोगों की मौत और 1,02,000 स्थायी दिव्यांगता के दावे के आधार पर दावेदारों को देने के लिए भारत सरकार को 470 मिलियन अमेरिकी डॉलर का भुगतान करने के लिए तैयार हुई. लेकिन ये मुआवज़ा भारत में हुए नुकसान की तुलना में कम था. साथ ही UCC के द्वारा दूसरे मामलों में दिए गए मुआवज़े से भी कम था. कंपनी ने कभी भी ज़हरीले बादल में मौजूद सामग्री का सटीक खुलासा नहीं किया और सबूतों से पता चलता है कि इसमें न केवल MIC बल्कि सायनाइड का ज़हर भी शामिल था. ये लीक हुए टैंक के तापमान और UCC के द्वारा प्रमुख रूप से सोडियम थायोसल्फेट की सिफारिश पर आधारित है जिसका इस्तेमाल सायनायड के ज़हर का इलाज करने के लिए किया जाता है. UCC ने न सिर्फ कानूनी कार्रवाई और पीड़ितों को पर्याप्त मुआवज़ा देने से बचने की कोशिश की बल्कि उसने भोपाल प्लांट में काम-काज भी बंद कर दिया और उस जगह की पूरी तरह से सफाई नहीं की. 

पिछले 40 वर्षों के दौरान आपदाओं को लेकर प्रतिक्रिया के मामले में भारत सरकार की क्षमता में सुधार हुआ है लेकिन आपदा को कम करने में देश के दृष्टिकोण में कई खामियां अभी भी बनी हुई हैं. 

ये घटना कंपनियों की ज़िम्मेदारी में कमी और व्यवसाय एवं मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के मार्गदर्शक सिद्धांतों के कार्यान्वयन के बीच बहुत ज़्यादा अंतर को उजागर करती है. ये भविष्य में रासायनिक आपदाओं और जानबूझकर किए गए हमलों के मामले में इस तरह के दिशानिर्देशों को मज़बूत करने की आवश्यकता पर ज़ोर देती है. 

रासायनिक आपदा प्रबंधन में चुनौतियां 

सीमित सार्वजनिक स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे और निजी पक्षों को ज़िम्मेदार ठहराने में कठिनाई के अलावा भोपाल आपदा ने ज़हरीले यौगिक से दूषित बड़ी और असुरक्षित आबादी को संक्रमण मुक्त करने के बड़े पैमाने और जटिलताओं को दिखाया. ये बात रासायनिक हथियारों के हमलों के मामलों में भी लागू होती है जहां प्रभावित लोगों की पहचान करना महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ मुश्किल भी है. ऐसी घटनाओं में और ज़्यादा संक्रमण को रोकने के लिए नियंत्रण के क्षेत्रों की स्थापना करना महत्वपूर्ण है.   

वैसे तो पिछले 40 वर्षों के दौरान आपदाओं को लेकर प्रतिक्रिया के मामले में भारत सरकार की क्षमता में सुधार हुआ है लेकिन आपदा को कम करने में देश के दृष्टिकोण में कई खामियां अभी भी बनी हुई हैं. 

रोकथाम की जगह आपदा प्रबंधन पर भारत का ध्यान: भोपाल आपदा को लेकर जवाब भारत की इस प्रवृत्ति को उजागर करता है कि वो सक्रिय रूप से रोकथाम में भाग लेने की जगह दुर्घटना के बाद प्रतिक्रिया देता है. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) जैसे संस्थानों के द्वारा विशेष चिकित्सा उपायों के रूप में आपदा प्रबंधन में प्रगति के बावजूद आपदा की जगह को साफ करना अभी भी एक लंबी प्रक्रिया थी. वैसे तो NDMA के अनुसार रोकथाम के कानूनों और DRDO के द्वारा आवश्यक परीक्षक किट के लिए प्रावधान हैं लेकिन इनको लागू करना स्वैच्छिक है और इसे तीसरे पक्ष के द्वारा सत्यापित नहीं किया जा सकता है. तीसरे पक्ष के द्वारा इस ऑडिट और निजी पक्षों के लिए ज़िम्मेदारी के उपायों की कमी की वजह से भारत अभी भी रोकथाम के उपायों को लागू करने में महत्वपूर्ण बाधाओं का सामना करता है. 

ज़्यादातर रासायनिक नुकसान औद्योगिक परिदृश्यों में होता है जिसमें गैर-अनुसूचित या आसानी से उपलब्ध औद्योगिक ग्रेड रसायन का उपयोग शामिल है.

भोपाल आपदा ने भारत के स्वास्थ्य देखभाल की प्रणाली में उल्लेखनीय कमज़ोरियों को भी उजागर किया, विशेष रूप से बड़े स्तर की रासायनिक दुर्घटना से निपटने को लेकर. कई स्वास्थ्य केंद्रों में रासायनिक संक्रमण वाले मरीज़ों, विशेष रूप से बड़ी संख्या में, के इलाज के लिए ट्रेनिंग का अभाव था. 

OPCW और NACWC की सीमित भूमिका: भारत संयुक्त राष्ट्र आपदा जोखिम न्यूनीकरण कार्यालय (UNDRR) का एक सदस्य है लेकिन UNDRR की स्थापना भोपाल आपदा के बाद हुई थी. इसलिए भोपाल दुर्घटना को लेकर प्रतिक्रिया, संक्रमण की लगातार चुनौतियों और UCC की जवाबदेही की कमी ने उजागर किया कि ये वैश्विक मंच और उनका घरेलू प्रतिनिधित्व भी सीमित था. 

अंतर्राष्ट्रीय दिशानिर्देशों और समझौतों के बेहतर अनुपालन को आसान बनाने के लिए रासायनिक आपदाओं पर निगरानी रखने वाले वैश्विक पक्षों को भारत में अपनी गतिविधियों को बढ़ाना चाहिए. इसमें रासायनिक हथियार निषेध संगठन (OPCW) और राष्ट्रीय रासायनिक हथियार सम्मेलन प्राधिकरण (NACWC), जो कि रासायनिक हथियार सम्मेलन (CWC) अधिनियम का भारतीय अवतार है, शामिल होंगे. CWC और OPCW 1997 में अस्तित्व में आए थे और भारतीय CWC अधिनियम और NACWC की स्थापना 2000 में की गई थी यानी भोपाल गैस त्रासदी के एक दशक के बाद. वैसे तो NACWC भारतीय रासायनिक परिषद (ICC), राष्ट्रीय सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क एवं नारकोटिक्स अकादमी (NACEN) और यहां तक कि कीटनाशक निर्माण प्रौद्योगिकी संस्थान (IPFT) समेत दूसरी एजेंसियों के साथ बातचीत करती है लेकिन अनुसूचित रसायनों के दुर्भावनापूर्ण उपयोग पर इसका सीमित ध्यान भोपाल गैस त्रासदी या भविष्य की संभावित आपदाओं की रोकथाम का समाधान करने को लेकर भारत के दृष्टिकोण में तार्किक रूप से सहायता नहीं करता है.

ज़्यादातर रासायनिक नुकसान औद्योगिक परिदृश्यों में होता है जिसमें गैर-अनुसूचित या आसानी से उपलब्ध औद्योगिक ग्रेड रसायन का उपयोग शामिल है. इस तरह दुर्भावनापूर्ण किरदारों के द्वारा किए गए रासायनिक हमलों के आगे NACWC के दायरे का विस्तार करने से रासायनिक संक्रमण की व्यापक सीमा का समाधान करने में मदद मिलेगी और रासायनिक हमले के समान असर वाले गैर-ज़िम्मेदाराना बर्ताव के लिए निजी पक्षों को जवाबदेह ठहराया जा सकेगा. 

भोपाल से मिली सीख का विस्तार 

वैसे तो भारत सरकार ने आपदा प्रबंधन की दिशा में कदम उठाए हैं, विशेष रूप से रसायनों के भंडारण, व्यापार, परिवहन और उपयोग में, लेकिन ज़हरीले रसायन का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों में सख़्त सुरक्षा जांच और आपातकालीन ड्रिल जैसे एहतियाती उपायों को अनिवार्य बनाना चाहिए. भोपाल गैस त्रासदी की जगह को मलबे से खाली करने में लगे लंबे समय पर विचार करते हुए आपदा और हमले के प्रबंधन के दृष्टिकोण की नियमित समीक्षा आवश्यक है. प्राथमिक तौर पर NDMA और NACWC को निम्नलिखित काम करने का प्रयास करने के लिए ज़्यादा नज़दीकी तौर पर काम करना चाहिए:

अंतर्राष्ट्रीय तैयारी और समन्वय में बढ़ोतरी हो: रासायनिक संक्रमण, विशेष रूप से चिंता उत्पन्न करने वाले रासायनिक हथियारों को लेकर, का जवाब देने के लिए वैश्विक क्षमता को विकसित करने के उद्देश्य से भोपाल से सीखना सबसे महत्वपूर्ण सबक में से एक है. लेकिन किसी भी प्रकार के रासायनिक संक्रमण के साथ जवाबदेही तय करना कठिन है. इस तरह सरकार को प्रशिक्षण कार्यक्रमों को मज़बूत बनाने, बुनियादी ढांचे में सुधार करने और अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय एजेंसियों और चिकित्सा सुविधाओं के बीच समन्वय को बढ़ावा देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ मिलकर काम करना चाहिए. 

अंतर्राष्ट्रीय पक्षों को रासायनिक और औद्योगिक प्लांट समेट महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के तीसरे पक्ष से ऑडिट का पालना करना चाहिए ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि स्थानीय निवासियों के लिए प्रक्रियाएं सुरक्षित हैं. 

आधुनिक पहचान और शुद्धीकरण तकनीकों को अपनाना: भारत को आधुनिक पता लगाने की प्रणाली (डिटेक्शन सिस्टम) में निवेश करना चाहिए. वैसे तो DRDO पहले से ही रासायनिक, जैविक, रेडियोलॉजिकल और परमाणु (CBRN) रक्षा के प्रति अपने दृष्टिकोण के लिए ऐसे उपकरणों पर निवेश कर रहा है लेकिन इस तरह के हमलों और रिसाव की प्रकृति इसे न केवल रक्षा का मुद्दा बल्कि आपदा प्रबंधन और रोकथाम का भी मुद्दा बनाती है क्योंकि जानबूझकर और अनजाने में हुई आपदा- दोनों ही एक समान नुकसान पहुंचाती हैं. इन निवेशों में संक्रमित क्षेत्रों में प्रवेश करने के लिए आवश्यक व्यक्तिगत इस्तेमाल के सूट शामिल होंगे. इसमें पता लगाने की क्षमताओं से सुसज्जित हाथ से पकड़े जाने वाले सेंसर और ड्रोन भी शामिल होंगे जो इस बात की गारंटी देंगे कि प्रभावित क्षेत्र और आबादी की तुरंत पहचान की जा सके और लोगों का इलाज शुरू किया जा सके. 

संकट प्रबंधन और बहु-एजेंसी समन्वय को मज़बूत करना: भोपाल आपदा के जवाब में एक बड़ी कमी राहत के प्रयासों में शामिल अलग-अलग एजेंसियों के बीच तालमेल की कमी थी. भारत को एक ऐसी एजेंसी की स्थापना करनी चाहिए जो सभी ज़रूरी हितधारकों जैसे कि सरकारी एजेंसियों, सेना, आपातकालीन प्रतिक्रिया दल, चिकित्सा कर्मियों और गैर-सरकारी संगठनों के बीच समन्वय में सहायता करें ताकि भविष्य में रासायनिक आपदा को लेकर प्रतिक्रिया में देरी और ख़राब कार्यक्षमता को रोका जा सके. इस तरह की रूप-रेखा सुनिश्चित करेगी कि हर संभावित रूप से शामिल पक्ष अपनी भूमिका के बारे में जाने और किसी संकट के दौरान प्रभावी संचार के रास्ते मौजूद हों. इस तरह की एजेंसी किसी आपदा के दौरान कम समय के लिए स्थापित की जा सकती है लेकिन ऐसे प्राधिकरण की रूप-रेखा और संरचना पहले से तैयार होनी चाहिए और ये NDMA के तहत हो. इस ढांचे में रासायनिक संक्रमण के लिए आकस्मिक योजनाएं भी शामिल होंगी जो संसाधनों, कर्मियों और चिकित्सा सहायता जुटाने के लिए विशिष्ट प्रोटोकॉल की रूप-रेखा तैयार करेगी. इन योजनाओं की बार-बार समीक्षा की जानी चाहिए और उनमें संशोधन किया जाना चाहिए ताकि बदलते हालात में भी इनका उपयोग जारी रहे. अंतर्राष्ट्रीय पक्षों को रासायनिक और औद्योगिक प्लांट समेट महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के तीसरे पक्ष से ऑडिट का पालना करना चाहिए ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि स्थानीय निवासियों के लिए प्रक्रियाएं सुरक्षित हैं. 

जवाबदेही और रेगुलेटरी अनुपालन में सुधार: भोपाल त्रासदी ने प्राइवेट कंपनियों के द्वारा अपने काम, विशेष रूप से काम-काज की जगह पर रसायन छोड़ने और औद्योगिक दुर्घटनाओं को लेकर, में जवाबदेही तय करने में की गई कमियों को उजागर किया और उन्हें अधिक गंभीर बनाया. औद्योगिक संरक्षा और रासायनिक ख़तरे पर कानून को मज़बूत बनाया जाना चाहिए. भारत को रोकथाम के कानून के कार्यान्वयन को बढ़ाना चाहिए और सभी कंपनियों को ख़तरनाक पदार्थों के सुरक्षित प्रबंधन के लिए जवाबदेह ठहराना चाहिए. प्राइवेट सेक्टर की जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिए विश्व के स्तर पर तालमेल महत्वपूर्ण है और विश्व सीमा शुल्क संगठन, UNDRR और OPCW के साथ समन्वय ज़रूरी है. 

सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की ट्रेनिंग और बुनियादी ढांचे की स्थापना: भोपाल त्रासदी ने किसी भी अन्य चीज़ की तुलना में भारत के सार्वजनिक स्वास्थ्य में गंभीर कमियों को उजागर किया, विशेष रूप से बड़े पैमाने पर रासायनिक संक्रमण को नियंत्रित करने में उसकी सीमित क्षमता को. किसी भी तरह की रासायनिक घटना का प्रभावी रूप से जवाब देने के लिए भारत को अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को मज़बूत करना चाहिए. इसके तहत बड़े पैमाने पर रासायनिक दुर्घटना के मामलों में अस्पतालों और स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए बेहतर उपकरण और संसाधन शामिल होंगे. स्वास्थ्य देखभाल करने वालों को असरदार ढंग से रासायनिक संक्रमण का इलाज करने के लिए प्रशिक्षित होना चाहिए. इसके अलावा चिकित्सा कर्मियों को रसायन की चपेट में आने वालों के विशेष इलाज के लिए शिक्षित और रासायनिक ज़हर के लक्षणों की पहचान करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए. 

भोपाल गैस त्रासदी ने रासायनिक आपदाओं का जवाब देने के लिए भारत की क्षमता में खामियों को उजागर किया. इसने बेहतर तैयारी, मज़बूत नियामक रूप-रेखा और अधिक समन्वय के लिए रासायनिक सुरक्षा और रासायनिक संरक्षा के बीच सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता को उजागर किया. इन सिफारिशों का पालन करके भारत औद्योगिक दुर्घटनाओं या रासायनिक युद्ध की वजह से उत्पन्न रासायनिक स्थिति को नियंत्रित करने के लिए एक मज़बूत और अधिक सक्रिय रणनीति विकसित कर सकता है. 


श्राविष्ठा अजय कुमार ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर सिक्योरिटी, स्ट्रेटजी एंड टेक्नोलॉजी में एसोसिएट फेलो हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.