Author : Gurjit Singh

Published on Sep 17, 2022 Updated 25 Days ago

कीनिया में हाल के चुनावों के दौरान राजनीतिक हिंसा की कमी इस पूर्वी अफ्रीकी देश के लिए प्रगति का संकेत है

कीनिया का चुनाव: आश्चर्यजनक रूप से लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण आयोजन

इस साल अगस्त के महीने में कीनिया में बहु-स्तरीय चुनाव आयोजित किए गए, जिसमें राष्ट्रपति, संसद के दोनों सदन, काउंटी गवर्नर और 47 काउंटी विधानसभाओं के सदस्यों के लिए चुनाव शामिल थे. गौर करने वाली बात यह है कि इन चुनावों के दौरान हिंसा नहीं हुई थी. हालांकि चुनाव परिणामों में अंतर की वज़ह से अदालत में कई चुनाव याचिकाएं दायर की गईं, लेकिन चुनाव के दौरान हिंसा की कमी कीनिया लोकतंत्र के लिए एक प्रगतिवादी संकेत देती है. यह उस इलाक़े के लिए बेहद शुभ संकेत है जो वैसे हिंसात्मक संघर्ष के लिए जाना जाता रहा है; इसमें सोमालिया, सूडान, दक्षिण सूडान और इथियोपिया जैसे देश शामिल हैं. इसी तरह, रवांडा और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो (हाल ही में पूर्वी अफ्रीकी समुदाय में भर्ती हुए) में भी अराजकता की स्थिति पैदा होती जा रही है. जैसा कि कीनिया अब राजनीतिक और आर्थिक रूप से तरक्की की राह पर चलता दिख रहा है तो यह देश पूर्वी अफ्रीकी देशों के लिए प्रेरणा की वज़ह बनता जा रहा है.

यह उस इलाक़े के लिए बेहद शुभ संकेत है जो वैसे हिंसात्मक संघर्ष के लिए जाना जाता रहा है; इसमें सोमालिया, सूडान, दक्षिण सूडान और इथियोपिया जैसे देश शामिल हैं.

राष्ट्रपति चुनाव में, कीनिया क्वांज़ा (कीनिया फर्स्ट) गठबंधन के उप राष्ट्रपति विलियम रुतो ने अज़ीमियो ला उमजा (रिजॉल्यूशन टू यूनिटी – एकता का संकल्प) गठबंधन के रैला ओडिंगा को बेहद कम अंतर से हराकर 7,176,141 या 50.49 प्रतिशत वोट हासिल किए, जबकि ओडिंगा ने 6,942,930 वोट या 48.85 फीसदी वोट हासिल किए. इसके बाद बतौर नए राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति रुतो के चुनाव की स्वतंत्र चुनाव और सीमा आयोग (आईईबीसी) द्वारा घोषणा को बरकरार रखने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर विपक्ष निराश तो ज़रूर दिखा लेकिन इसे लेकर सड़कों पर किसी तरह की हिंसा नहीं हुई.

रैला पांचवीं बार राष्ट्रपति चुनाव हार गए और 77 साल की उम्र में अब शायद आगे की चुनौतियों का सामना करने के लिए वो काफी बुज़ुर्ग हैं. जबकि 55 वर्षीय रुतो युवा राजनेताओं में शुमार हैं. वह दूसरे राष्ट्रपति, डैनियल अराप मोई की सरपरस्ती में बतौर युवा नेता और राजनीतिक आयोजक के रूप में सामने आए, जिन्होंने कीनिया में दूसरे सबसे बड़े समूह में जनजातियों के कलेंजिन गठबंधन को अंजाम दिया. किकुयुस जनजाति के तीन कीनिया राष्ट्रपति हुए: जोमो केन्याटा, मवाई किबाकी और उहुरू केन्याटा. किकुयू राजनीतिक और आर्थिक रूप से अहम जनजाति हैं. हालांकि, दो जनजातियों के बीच प्रतिद्वंद्विता कम नहीं हुई है और सत्ता के लिए संघर्ष जारी है. ऐसे बंटवारे के कारण, तब से हर चुनाव हिंसा से प्रभावित होता रहा है. सबसे ख़राब मामला साल 2007-08 का है जब राष्ट्रपति उहुरू केन्याटा और उनके डिप्टी रुतो दोनों पर गंभीर अपराध का आरोप लगा और यह अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय द्वारा लगाया गया था.

जनजातियों का वर्चस्व

कीनिया से जानकारी और सबूतों की कमी के कारण आईसीसी इन मामलों को आगे नहीं बढ़ा सका. उहुरू केन्याटा के ख़िलाफ़ मामला साल 2015 में हटा दिया गया था और बाद में, 2016 में, सबूतों की कमी के कारण रुतो के ख़िलाफ़ भी मामला बंद कर दिया गया. जबकि कई लोग साल 2007 की चुनावी हिंसा के लिए रुतो को याद करना चाहेंगे, क्योंकि उनकी अहम राजनीतिक विरासत उनके संगठनात्मक कौशल में है, जिसका इस्तेमाल उन्होंने मोई के लिए और बाद में किबाकी के लिए किया.

यह साफ हो चुका है कि किकुयू-लुओ प्रतिद्वंद्विता अभी भी कम नहीं हुई है, रुतो के इस दावे के बावज़ूद कि चुनाव वर्ग विशेष के लिए था ना कि जनजाति के लिए, क्योंकि वह एक वंशवादी नहीं बल्कि एक विनम्र किसान था.

जब रुतो को लगा कि उहुरू ने उन्हें इस्तेमाल कर ख़ुद से दूर कर दिया लेकिन उन्हें अपनी संगठनात्मक क्षमता पर पर्याप्त भरोसा था. यद्यपि उहुरू ने किकुयुस और लुओस को एक साथ लाने के लिए अपने पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी, रैला के साथ ‘हाथ मिलाया’, रुतो को मोई के कलेंजिन का समर्थन विरासत में मिला और उन्होंने किकुयुस का समर्थन प्राप्त किया. यह साफ हो चुका है कि किकुयू-लुओ प्रतिद्वंद्विता अभी भी कम नहीं हुई है, रुतो के इस दावे के बावज़ूद कि चुनाव वर्ग विशेष के लिए था ना कि जनजाति के लिए, क्योंकि वह एक वंशवादी नहीं बल्कि एक विनम्र किसान था. कीनिया की राजनीतिक व्यवस्था किकुयू जनजाति के वर्चस्व और लुओस को दूर रखने की उनकी इच्छा पर केंद्रित है लेकिन छोटी जनजातियों के साथ यह सत्ता साझा करती है.

रुतो ख़ुद को एक बर्ख़ास्त उप राष्ट्रपति की तरह महसूस करने लगे जिनकी सरकार में लगभग ना तो कोई भूमिका और न ही कोई ज़िम्मेदारी बची थी. इसके बावज़ूद उन्होंने उहुरू के किकुयू निर्वाचन क्षेत्र को सिर्फ़ इसलिए उलझाया कि उहुरू की उम्मीदों के मुताबिक़ रैला को उन्होंने अपना समर्थन नहीं दिया था. पारंपरिक गठबंधन ने रैला-उहुरू गठबंधन की जगह रुतो को प्राथमिकता दी. रुतो ने ना केवल अपना समर्थन ज़ोरदार तरीक़े से बचाए रखा, बल्कि कीनिया के मध्य प्रांत में कई जगहों पर भी जीत हासिल की, जहां किकुयुस और केन्याटा का गढ़ है. उनकी जीत के लिए वोट शेयर में बढ़ोतरी महत्वपूर्ण बात थी. रैला ने अपना वोट शेयर खो दिया, यहां तक ​​​​कि उन क्षेत्रों में भी जहां उन्होंने पारंपरिक रूप से पहले के चुनावों में जीत दर्ज़ की थी, जिसमें मोम्बासा तट और नैरोबी के पूर्व के निर्वाचन क्षेत्र शामिल थे. रैला ने बड़े अंतर से जिन निर्वाचन क्षेत्रों पर कब्ज़ा किया उनकी संख्या भी काफी कम हो गई थी. पारंपरिक वोट इलाक़ों पर अपनी पकड़ खोने और नए हासिल करने में असमर्थता उनकी हार की मुख्य वज़ह बनी.

वोटर टर्न आउट में सुधार के लिए मतदान पद्धति और वोट शेयरों पर करीब से नज़र डालना आवश्यक है, यह देखते हुए कि युवाओं का राजनीतिक प्रक्रिया से मोहभंग हो चुका है और वोट देने का विकल्प उन्होंने नहीं चुना है.

मतदान का प्रतिशत घटकर लगभग 65 प्रतिशत रह गया, जो 15 वर्षों में सबसे कम है. वोट शेयर के अंतर का रूटो के पक्ष में बड़ा असर देखने को मिला. कुछ लोगों का कहना है कि इस चुनाव को रूटो और उनकी टीम ने अच्छी तरह से मैनेज किया था.

इस चुनावी वक़्त में, जनमत सर्वेक्षणों ने लगातार रैला को जीतते हुए दिखाया क्योंकि उन्होंने जो गठबंधन बनाया था वह अपराजेय लग रहा था लेकिन चुनावों ने जिस बात पर ध्यान नहीं दिया, वह थी उहुरि के निर्वाचन क्षेत्र में चल रही उनके ख़िलाफ़ लोगों की नाराज़गी. ऐसे में मीडिया के लिए रुटो की जीत एक आश्चर्यजनक घटना थी. वोटर टर्न आउट में सुधार के लिए मतदान पद्धति और वोट शेयरों पर करीब से नज़र डालना आवश्यक है, यह देखते हुए कि युवाओं का राजनीतिक प्रक्रिया से मोहभंग हो चुका है और वोट देने का विकल्प उन्होंने नहीं चुना है.

सुप्रीमकोर्ट का फैसला

रैला ने शीर्ष अदालत के फैसले को तेज़ी से अपने हक़ में करने का फैसला किया, हालांकि उनकी टीम के विरोध के बावज़ूद उन लोगों ने चुनावी नियमों को माना और समय-सीमा को ध्यान में रखते हुए अपील की. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश मार्था कूम के नेतृत्व में सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी अपील को ख़ारिज कर दिया. यह पांच साल पहले की घटना से अलग था, जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव रद्द कर दिया और नए सिरे से चुनाव कराने की बात कही थी. तब रैला को पराजित घोषित कर उहुरू को विजयी घोषित किया गया, जिन्होंने तब नया चुनाव नहीं लड़ा था.

आईईबीसी ने काफी साफ सुथरा चुनाव प्रबंधन किया और आकंड़ा प्राप्त होते ही उसे प्रकाशित किया. हालांकि, यह उस व्यवस्था और कार्य प्रणाली के लिए भारी था जो इस तरह की पारदर्शिता के लिए अभ्यस्त नहीं थी. हालांकि चुनावी नतीजों का मिलान करते समय विसंगतियां सामने आईं. इसने आईईबीसी को अजीब तरह से बांट भी दिया और उहुरू द्वारा हाल ही में नियुक्त चार लोगों को आईईबीसी द्वारा अंतिम घोषणा से पहले हटा लिया गया. उन्होंने अपनी अलग प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की जो पूरी तरह से साफ नहीं है कि आख़िर ऐसा क्यों किया गया और ज़ाहिर तौर पर अदालत में यह तर्क साबित नहीं हो सके. हालांकि, इसने चुनावों के नतीजों को ख़राब कर दिया और काफी बेचैनी पैदा कर दी, ख़ासकर जब से कीनिया में और उसके आसपास के इलाक़ों में हिंसा की आशंका गहरी रहती है लेकिन सौभाग्य से, अदालतों ने पारदर्शी तरीक़े से समय-सीमा का पालन किया जिसके कारण रुतो को राष्ट्रपति घोषित किया जा सका.

यह देखना होगा कि क्या लुहिया और लुओस जैसी अन्य बड़ी जनजातियां नए नेतृत्व का दामन पकड़ती हैं या नहीं. रुतो ने भले ही आदिवासी प्रतिद्वंद्विता को वर्ग संघर्ष में नहीं बदला हो लेकिन वह एक गैर-वंशवादी नेता बन गए हैं और यह पार्टियों और प्रांतों के भीतर बदलाव को हवा दे सकता है.

ऐसा लगता है कि रुतो अब रैला और केन्याटा तक पहुंच बना चुके हैं. यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि संसदीय चुनाव में दोनों पक्षों के बीच काफी नजदीकी का मामला रहा. 67-सदस्यीय सीनेट में, क्वांज़ा ने अज़ीमियो के 23 के मुक़ाबले 24 सीट जीते और दोनों ने विशेष हितों को कवर करने के लिए 10 सदस्यों को नामांकित किया. 349 सीटों वाले विधानसभा में अजीमियो ने 173 और क्वानज़ास ने 161 सीट हासिल किए. रैला गठबंधन के भीतर कुछ हित समूहों ने संसद में रुतो के साथ गठबंधन करने की ओर कदम बढ़ाया. नज़दीकी चुनावी मुक़ाबले के बावज़ूद, रुतो ने संसद के दोनों सदनों में अपना दबदबा दिखाया और सरकार बनाने में क़ामयाबी हासिल की.

शायद अभी ऐसा होता रहेगा क्योंकि ये गठबंधन अगले पांच सालों के लिए राजनीतिक धूप-छांव के बीच अपनी जगह तलाशते रहेंगे. साथ ही  रैला के अनिश्चित भविष्य के साथ, यह देखना होगा कि क्या लुहिया और लुओस जैसी अन्य बड़ी जनजातियां नए नेतृत्व का दामन पकड़ती हैं या नहीं. रुतो ने भले ही आदिवासी प्रतिद्वंद्विता को वर्ग संघर्ष में नहीं बदला हो लेकिन वह एक गैर-वंशवादी नेता बन गए हैं और यह पार्टियों और प्रांतों के भीतर बदलाव को हवा दे सकता है.

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