Published on Dec 29, 2021 Updated 0 Hours ago
Judicial infrastructure: देश में न्यायिक बुनियादी ढांचे की दुर्दशा के मुद्दे

भारत के मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India, CJI) जस्टिस एन. वी. रमन्ना ने हाल ही में देश में न्यायिक बुनियादी ढांचे की दुर्दशा के मुद्दे को पुरज़ोर तरीक़े से उठाया. 23 अक्टूबर 2021 को बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद बेंच की एनेक्सी बिल्डिंग के उद्घाटन के मौके पर उन्होंने इस मुद्दे पर दो टूक अंदाज़ में अपने विचार रखे. समारोह में केंद्रीय क़ानून मंत्री किरण रिजिजू भी मौजूद थे. न्यायिक बुनियादी ढांचे में आमूलचूल सुधार की ज़रूरतों पर ज़ोर देते हुए चीफ़ जस्टिस रमन्ना ने कहा कि “भारत की अदालतों में बढ़िया बुनियादी ढांचे की आवश्यकता से जुड़ी बातें हमारे ज़ेहन में हमेशा ही बाद में आती रही हैं. इसी मानसिकता की वजह से आज भी हमारे देश की अदालतें पुरानी और टूटी-फूटी इमारतों से चलाई जा रही हैं. ऐसे में अदालतों को प्रभावी रूप से अपनी भूमिकाओं के निर्वाह में काफ़ी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है.” देश की न्यायपालिका की इन परेशानियों की ओर ध्यान दिलाने वाले जस्टिस रमन्ना भारत के पहले मुख्य न्यायाधीश नहीं हैं. उनके  पहले भी भारत के कई मुख्य न्यायाधीशों ने इस समस्या की ओर सरकारों का ध्यान खींचा है. 2016 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस टी. एस. ठाकुर कोर्ट में लंबित मामलों, खाली पड़े न्यायिक पदों और बुनियादी ढांचों से जुड़ी परेशानियों की चर्चा करते-करते भावुक हो उठे थे. उनका कहना था कि इन तमाम दुश्वारियों के चलते देश की न्यायिक व्यवस्था पर देशवासियों के भरोसे पर बुरा असर पड़ रहा है.

 निचली अदालतों में न्यायिक तंत्र से जुड़े बुनियादी ढांचे का घोर अभाव है. ज़मीनी स्तर पर उपलब्ध प्रमाणों से ये बात शीशे की तरह साफ़ हो जाती है. 

ख़ासतौर से निचली अदालतों में न्यायिक तंत्र से जुड़े बुनियादी ढांचे का घोर अभाव है. ज़मीनी स्तर पर उपलब्ध प्रमाणों से ये बात शीशे की तरह साफ़ हो जाती है. सार्वजनिक रूप से मौजूद जानकारियों के मुताबिक देश में न्यायिक अधिकारियों की कुल स्वीकृत संख्या 24,280 है. हालांकि देश में फ़िलहाल केवल 20,143 अदालती कक्ष उपलब्ध हैं. इनमें से 620 हॉल किराए के हैं. फ़िलहाल 2,423 कक्षों का निर्माण किया जा रहा है. रिहाइशी इकाइयों की बात करें तो न्यायिक अधिकारियों के लिए महज़ 17,800 इकाइयां ही उपलब्ध हैं. इनमें से 3988 किराए के हैं. इतना ही नहीं तक़रीबन 26 फ़ीसदी ज़िला अदालतों में मौजूद महिला शौचालयों में साफ़ पानी की सुविधा नदारद है. केवल 11 फ़ीसदी वॉशरूमों में ही दिव्यांग नागरिकों के इस्तेमाल से जुड़ी सहूलियतें मौजूद हैं. सिर्फ़ 2 प्रतिशत अदालतों में दृष्टिहीन नागरिकों की सुविधा के लिए आने-जाने के ख़ास रास्ते बने हैं. महज़ 20 फ़ीसदी अदालतों में ही दिशा-निर्देशक नक्शे (guide maps) लगाए गए हैं. कोर्ट आने वाले लोगों की मदद के लिए ज़रूरी हेल्पडेस्क भी केवल 45 फ़ीसदी न्यायालयों में ही उपलब्ध हैं. इतना ही नहीं क़रीब-क़रीब 68 फ़ीसदी निचली अदालतों में दस्तावेज़ों को सहेज कर रखने के लिए अलग से रिकॉ़र्ड रूम उपलब्ध ही नहीं हैं. क़रीब-क़रीब 50 फ़ीसदी अदालतों में पुस्तकालय की सुविधा नदारद है.

ज़ाहिर है कि CJI रमन्ना ने  न्यायपालिका के बुनियादी ढांचे में सुधार से जुड़ी प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव की ज़रूरतों को बड़े ही माकूल वक़्त पर उठाया है. 

कोविड-19 महामारी के दौरान अदालती कार्यवाहियों को वर्चुअल माध्यमों से संचालित करने की ज़रूरत पड़ गई. बहरहाल अदालतों में अहम बुनियादी ढांचों के अभाव के चलते वर्चुअल तौर-तरीक़े अपनाने में  कई तरह की रुकावटों का सामना करना पड़ा. दरअसल सिर्फ़ 27 फ़ीसदी अदालतों में ही जज के आसन के सामने वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग की सुविधा के साथ कम्प्यूटर लगाने की व्यवस्था हो पाई. ऐसे में महामारी के दौरान, ख़ासतौर से निचली अदालतों में न्यायिक कार्यवाहियों के संचालन में भारी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा. ज़ाहिर है कि CJI रमन्ना ने  न्यायपालिका के बुनियादी ढांचे में सुधार से जुड़ी प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव की ज़रूरतों को बड़े ही माकूल वक़्त पर उठाया है.

न्यायिक बुनियादी ढांचे की अहमियत क्यों है

अदालती बुनियादी ढांचे में न्यायालयों, कचहरियों, ट्रिब्यूनलों और वकीलों के चैंबरों से जुड़ी इमारतें और उनके परिसरों को शामिल किया जाता है. न्यायिक प्रक्रिया और न्याय व्यवस्था के नतीजे सही समय पर सुनिश्चित कराने में मददगार साबित होने वाले तमाम संसाधन इसी दायरे में आते हैं. इनमें डिजिटल और मानव संसाधनों से जुड़ा पूरा ढांचा शामिल है. बहरहाल, इस संक्षिप्त लेख का ज़ोर भौतिक ढांचे पर है. अनुभवों के आधार पर पर्याप्त और आवश्यक न्यायिक ढांचे और न्याय सुनिश्चित करने की प्रक्रिया की उत्पादकता के बीच सकारात्मक सह-संबंध साफ़-साफ़ दिखाई देते हैं. पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण न्यायिक ढांचा जजों, वक़ीलों और न्यायिक अधिकारियों की बेहद बुनियादी और पहली ज़रूरतों में शामिल हैं. न्यायिक तंत्र में इंसाफ़ दिलाने की ज़िम्मेदारियों के निर्वहन में कुशलतापूर्व काम करने के लिए इस तरह का ढांचा निहायत ज़रूरी है. नेशनल मिशन फ़ॉर जस्टिस डिलिवरी एंड लीगल रिफ़ॉर्म्स के मुताबिक इंसाफ़ में देरी और लंबित मुक़दमों की समस्या को कम करने के लिए न्यायिक बुनियादी ढांचे की पर्याप्त उपलब्धता पहली शर्त है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित नेशनल कोर्ट मैनेजमेंट सिस्टम (NCMS) का विचार है कि न्यायिक तंत्र के भौतिक, कार्मिक और डिजिटल ढांचे का लंबित मुक़दमों की तादाद के साथ सीधा संबंध है. NCMS की योजना में न्याय व्यवस्था में पर्याप्त बुनियादी ढांचे की मौजूदगी के सकारात्मक नतीजों को रेखांकित किया गया है. कार्यकुशलता को बढ़ाने के लिए काम करने के बेहतरीन हालात सुनिश्चित करने के लक्ष्य में बुनियादी ढांचा बेहद अहम भूमिका निभा सकता है.

देश में केवल एक तिहाई निचली अदालतों में ही पर्याप्त डिजिटल सुविधाएं मौजूद हैं. लिहाज़ा इंसाफ़ मुहैया कराने की प्रक्रिया को भारी झटका लगा है. मार्च 2020 से कोविड-19 को लेकर आई रुकावटों के चलते अदालतों में लंबित मामलों की तादाद में 19 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो चुकी है. 

पर्याप्त न्यायिक ढांचे (ख़ासतौर से डिजिटल ढांचे) की अहमियत कोरोना महामारी के कालखंड में बड़ी शिद्दत से महसूस की गई है. इस दौर में अदालतों को वर्चुअल माध्यमों का सहारा लेना पड़ा है. दरअसल देश में केवल एक तिहाई निचली अदालतों में ही पर्याप्त डिजिटल सुविधाएं (जज के आसन पर वीडियो कॉन्फ़्रेंसिग की सुविधा के साथ कम्प्यूटर की उपलब्धता) मौजूद हैं. लिहाज़ा इंसाफ़ मुहैया कराने की प्रक्रिया को भारी झटका लगा है. मार्च 2020 से कोविड-19 को लेकर आई रुकावटों के चलते अदालतों में लंबित मामलों की तादाद में 19 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो चुकी है. आज देश की अदालतों में रिकॉर्ड 4.4 करोड़ मामले अटके पड़े हैं. इसमें कोई शक़ नहीं है कि सुस्त न्यायिक प्रक्रिया का सबसे सीधा असर ग़रीबों और समाज में हाशिए पर पड़े तबकों पर पड़ता है.

न्यायिक बुनियादी ढांचा पीछे क्यों छूट गया?

इन तमाम हालातों के मद्देनज़र ये सवाल लाज़िमी हो जाता है कि भारत इस समस्या (ख़ासतौर से भौतिक बुनियादी ढांचे) के निपटारे में अबतक सक्षम क्यों नहीं हो सका है? मानव संसाधनों से जुड़े पहलुओं के मुक़ाबले भौतिक ढांचे से जुड़ी दिक़्क़तों का निपटारा कहीं अधिक आसान होना चाहिए था? सबसे पहले, न्याय व्यवस्था में बुनियादी ढांचे की समस्याओं को न्यायिक शाखाओं के लिए विशेष बजट के अभाव के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. ज़्यादातर लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में आम तौर पर यही तौर-तरीक़ा अपनाया जाता है. चीफ़ जस्टिस रमन्ना ने दो टूक अंदाज़ में इसके लिए ऐतिहासिक रूप से न्यायपालिका की अनदेखी किए जाने की प्रवृति को ज़िम्मेदार ठहराया है. उनका कहना है कि इसी वजह से न्यायपालिका की ओर पर्याप्त संस्थागत ध्यान नहीं दिया गया. न्यायिक शाखा को होने वाले बजटीय आवंटन से ये बात साफ़ तौर से उभरकर सामने आती है. निश्चित तौर पर शासन-प्रशासन के लिहाज से ये एक महत्वपूर्ण अंग है. आज़ादी हासिल हुए 7 दशकों से भी ज़्यादा का वक़्त बीत चुका है, लेकिन अब भी  न्यायिक तंत्र के लिए केंद्र और राज्यों का बजटीय आवंटन जीडीपी के एक प्रतिशत हिस्से से भी कम है.

आज़ादी हासिल हुए 7 दशकों से भी ज़्यादा का वक़्त बीत चुका है, लेकिन अब भी  न्यायिक तंत्र के लिए केंद्र और राज्यों का बजटीय आवंटन जीडीपी के एक प्रतिशत हिस्से से भी कम है. 

हाल ही में जारी इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के मुताबिक, 2011-12 से 2015-16 के बीच भारत में न्यायपालिका पर सालाना औसत ख़र्च जीडीपी का महज़ 0.08 प्रतिशत रहा था. हालांकि 13वें और 14वें वित्त आयोग की सिफ़ारिशों के बाद केंद्र द्वारा आवंटन बढ़ाए जाने से इस आंकड़े में थोड़ा सुधार आया है, लेकिन फिर भी ये गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है. इतना ही नहीं केंद्रीय बजट से न्यायपालिका को होने वाला आवंटन नाकाफ़ी, नामुनासिब और अस्थिर है. इसको हम एक मिसाल के ज़रिए समझ सकते हैं. आज अदालतों में लंबित मामलों की तादाद बड़ी तेज़ी से बढ़ रही है. न्यायिक ढांचा काम के इस बढ़ते बोझ को झेल पाने में नाकाम साबित हो रहा है. ऐसे माहौल में भी न्यायिक ढांचा तैयार करने के लिए किए जाने वाले आवंटन में भारी कटौती कर दी गई. 2019-20 में इसे 990 करोड़ रु से घटाकर 762 करोड़ रु कर दिया गया.

​दूसरे, मौजूदा संकट के लिए वित्त ही इकलौती वजह नहीं है. विशिष्ट बुनियादी योजनाओं के लिए आवंटित कोष का पूरा इस्तेमाल न होना भी समस्या की बड़ी वजह है. दरअसल पिछले कुछ वर्षों में केंद्र प्रायोजित योजनाओं (CSS) के तहत निचली अदालतों में बुनियादी ढांचे से जुड़ी समस्याओं के निपटारे के लिए केंद्र ने पूरी रकम मुहैया कराई है. 1993 से 2020 के बीच केंद्र सरकार ने ज़िला अदालतों की दशा सुधारने के लिए राज्यों को 7460.24 करोड़ रु की रकम जारी की थी. ये रकम केंद्रीय योजना में राज्यों के 40 फ़ीसदी हिस्से से अलग है. बहरहाल आवंटित की गई रकम का एक बड़ा हिस्सा बग़ैर इस्तेमाल के रह जाता है. आगे समय-सीमा बीत जाने के चलते साल दर साल ये प्रक्रिया ऐसे ही अटकी पड़ी रहती है. मिसाल के तौर पर 2019-20 में राज्यों को आवंटित 981.98 करोड़ रु में से पांच राज्य साझा तौर पर सिर्फ़ 84.9 करोड़ रु ही ख़र्च कर पाए थे. ज़ाहिर है कुल आवंटित रकम में से 91 प्रतिशत रकम बिना इस्तेमाल के रह गई. केंद्रीय योजनाओं के तहत आवंटित रकम का इस्तेमाल न हो पाने के पीछे कई वजहें हैं.

पहली बात ये है कि CSS की शर्तं और नियमों के मुताबिक राज्यों को केंद्र के साथ सामंजस्य बिठाते हुए अपनी ओर से 40 प्रतिशत का अनुदान देना होता है. अक्सर ज़्यादातर राज्य सरकारें अलग-अलग वजहों से इस प्रतिबद्धता को पूरा करने में विफल रहती हैं. दरअसल बराबर के योगदान की इस ज़रूरत के अलावा आमतौर पर राज्य सरकारों का रुख़ अदालतों से जुड़ी इन आवश्यकताओं को लेकर बेपरवाही भरा रहता है. मिसाल के तौर पर भारत में सिर्फ़ महाराष्ट्र ही इकलौता ऐसा राज्य है जिसने न्यायिक बुनियादी ढांचे के लिए अपने बजट के 2 प्रतिशत हिस्से का आवंटन किया है. इस मद में देश के बाक़ी तमाम राज्यों का आवंटन 2 फ़ीसदी से कम है. दूसरी बात क्रियान्वयन से जुड़े तंत्र को लेकर है. राज्यों के संबंधित उच्च न्यायालयों के पास ज़िला अदालतों और ज़रूरी बुनियादी ढांचों के लिए रकम मंज़ूर करने की शक्ति है, लेकिन इनके क्रियान्वयन से जुड़े फ़ैसले लेने में राज्य सरकारों की बड़ी भूमिका होती है. मिसाल के तौर पर ज़मीन के आवंटन और परिसर के लिए ज़रूरी मंज़ूरियां लेने के काम संबंधित हाईकोर्ट की सलाह से राज्य सरकारें ही करती हैं. सलाह-मशविरे और तालमेल की ये पूरी प्रक्रिया बेहद थकाऊ और समय खपाने वाली है. इससे भी अहम बात ये है कि आम तौर पर राज्य सरकारें अपनी दूसरी ज़्यादा अहम प्राथमिकताएं पूरी करने में व्यस्त होती हैं. हाईकोर्ट भी इंसाफ़ सुनिश्चित करने से जुड़े दैनिक कार्यों में लगे रहते हैं. ऐसे में वास्तविक तौर पर इन परियोजनाओं के लिए आवाज़ उठाने वाला कोई बचता ही नहीं है.

क्या नेशनल ज्यूडिशियल इंफ़्रास्ट्रक्चर कॉरपोरेशन इस संकट को सुलझाने में कामयाब हो पाएगा?

देश में न्यायिक बुनियादी ढांचे से जुड़ा काम कछुए की रफ़्तार से आगे बढ़ा है. ऐसे में CJI ने इन कामों में तेज़ी लाने के लिए तालमेल बिठाने वाली एजेंसी के तौर पर नेशनल ज्यूडिशियल इंफ़्रास्ट्रक्चर कॉरपोरेशन (NJIC) स्थापित किए जाने का प्रस्ताव रखा है. हाल ही में सामने रखे गए इस प्रस्ताव ने कई लोगों का ध्यान खींचा है. प्रस्तावित NJIC में भारत के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के तमाम जजों के साथ-साथ केंद्र और संबंधित राज्यों के वित्त सचिव शामिल होंगे. CJI का मानना है कि ये संस्था अफ़सरशाही से जुड़ी अड़चनों और अनेक संस्थाओं के बीच तालमेल की चुनौतियों का तेज़ी के साथ निपटारा कर लेगी. प्रस्तावित संस्था ज़मीन आवंटन में देरी, न्यायिक कार्यों के लिए आवंटित रकम का ग़ैर-न्यायिक कार्यों के लिए इस्तेमाल, हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट द्वारा जवाबदेही से बचने की प्रवृतियों, जैसे मुद्दों पर निगरानी रखकर उनका निपटारा करेगी. NJIC के लक्ष्य बेहद ऊंचे और बुलंद मालूम होते हैं. हालांकि इसका विस्तृत ब्योरा अभी सामने नहीं आया है, पर लाख टके का सवाल ये है कि क्या ये कारगर साबित होगा? क्या ये नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की तरह की संस्था तो नहीं बन जाएगा, जो अपना प्रभाव हासिल करने की जद्दोजहद कर रही है?

बहरहाल कुछ विश्लेषकों ने इस संस्था की दरकार और इसकी प्रस्तावित भूमिकाओं को लेकर गहरा संदेह जताया है. उनके मुताबिक नई संस्था के तहत अधिकारों का केंद्रीकरण हो जाएगा, जो संघवाद के सिद्धांत के ख़िलाफ़ है. NJIC राज्यों को ज़्यादा ख़र्च करने या नई संस्था को ज़्यादा अधिकार देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता. इतना ही नहीं बुनियादी ढांचों से जुड़ी परियोजनाओं (ख़ासतौर से CSS के तहत मुहैया कराए जाने वाले कोष के मामलों में) में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच बड़े पैमाने पर काग़ज़ी कार्यवाही की थकाऊ प्रक्रिया होती है. उसके बाद भूमि अधिग्रहण में तालमेल से जुड़े मसले, टेंडर और ठेके देने की प्रक्रिया, कार्यस्थल का निरीक्षण आदि काम आते हैं. इस क़वायद में NJIC की ओर से काफ़ी वक़्त और जुगत लगाने की ज़रूरत पड़ेगी. यहां एक बड़ा सवाल खड़ा होता है. दरअसल अदालतों में लंबित मामलों का अंबार लगता जा रहा है. ज़ाहिर है जजों का ध्यान इन लंबित मामलों के निपटारे पर होना चाहिए. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इन लंबित केसों के निपटारे की बजाए जजों को बुनियादी परियोजनाओं जैसे मुद्दों पर ध्यान लगाना चाहिए?

 कुछ विश्लेषकों ने इस संस्था की दरकार और इसकी प्रस्तावित भूमिकाओं को लेकर गहरा संदेह जताया है. उनके मुताबिक नई संस्था के तहत अधिकारों का केंद्रीकरण हो जाएगा, जो संघवाद के सिद्धांत के ख़िलाफ़ है. 

ये सारे सवाल अहम हैं और इनपर ग़ौर करना ज़रूरी है. हालांकि हमें ये समझना होगा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश ऐसे हस्तक्षेपों की वक़ालत क्यों कर रहे हैं, जिनके लिए ‘असाधारण’ तौर-तरीक़े अपनाने होंगे. दरअसल हमारे सामने एक ऐसी परिस्थिति है जिसमें केंद्र और राज्य सरकारों ने न्यायिक इंफ़्रास्ट्रक्चर को लेकर वित्तीय आवंटन की खानापूर्ति करने के अलावा ईमानदारी से कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है. अतीत में बुनियादी ढांचों से जुड़ी परियोजनाओं को ज़मीन पर उतारने के अनुभवों से पता चलता है कि इन्हें एक निश्चित समय सीमा में पूरा करने को लेकर राज्यों और ज़िला स्तर के अधिकारियों की ओर से किसी तरह की गंभीरता नहीं दिखाई जाती है. कई परियोजनाएं तो संस्थाओं के बीच अधिकार-क्षेत्र को लेकर होने वाली लड़ाइयों में उलझकर रह गई हैं. अक्सर भूमि आवंटन जैसे अहम मसलों के निपटारे में कई-कई साल लग जाते हैं. इससे परियोजना के आग़ाज़ में ही कई साल निकल जाते हैं. ये परियोजनाएं केंद्र-प्रायोजित योजनाओं के तहत संचालित होती हैं. इससे पूरा मसला पेचीदा हो जाता है. दरअसल इनके लिए केंद्र और राज्यों के बीच लंबी काग़ज़ी कार्यवाही करनी होती है. ज़ाहिर है इससे ये पूरी प्रक्रिया बेहद थकाऊ बन जाती है. परियोजनाओं को बिना किसी समयसीमा के बेहद अनौपचारिक ढंग से संचालित किया जाता है. इन समस्याओं से पार पाने के लिए एक केंद्रीय निगरानी संस्था की ज़रूरत सामने आती रही है. इस संस्था के पास परियोजनाओं पर अमल से जुड़ी एजेंसियों को सशक्त करने और उनके कामकाज पर तात्कालिक आधार (real time basis) पर निगरानी रखने का जिम्मा होना चाहिए. भूमि आवंटन, टेंडरिंग और ठेके देने, कार्यस्थलों की निगरानी करने जैसे अहम मसलों के लिए एक से ज़्यादा संस्थाओं के बीच तालमेल बिठाने की आवश्यकता होती है. इस क़वायद में NJIC अहम बदलाव ला सकता है. साथ ही इससे तेज़ी के साथ मामलों के निपटारे में भी मदद मिल सकेगी.

निश्चित तौर पर NJIC को लेकर केंद्रीकरण और शीर्ष से नीचे की ओर दखलंदाज़ियां किए जाने से जुड़ी आशंकाएं पूरी तरह से बेबुनियाद नहीं हैं. हालांकि हर राज्य में वहां के संबंधित हाईकोर्ट और ज़िलास्तर के अधिकारियों का कॉरपोरेशन बनाकर इन ख़तरों को काफ़ी हद तक कम किया जा सकता है. NJIC का खाका सामने आने पर इन तमाम आशंकाओं पर से पर्दा उठ सकता है. ऐसी संस्था के मिज़ाज और कामकाज के तौर-तरीक़ों को लेकर बहस हो सकती है. हालांकि इस बात में कोई शक़ नहीं है कि न्यायिक बुनियादी ढांच को बड़े पैमाने पर आगे बढ़ाने की ज़रूरत है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.