दक्षिण अफ्रीका में नस्ली भेदभाव को लेकर एक नए आंदोलन की आहट
सितंबर के महीने में दक्षिण अफ्रीका में लड़कियों के हाईस्कूलों में आचार संहिता को लेकर जमकर विरोध हुआ। ये विरोध देश भर के स्कूलों में जंगल की आग की तरहं फैल गया। इस आग को फैलाने वाली चिंगारी दक्षिण अफ्रीका की राजनीतिक राजधानी में प्रीटोरिया हाईस्कूल फॉर गर्ल्र्स में अगस्त के अंत में लगी जब वहां की छात्राओं ने अपने सर के’स्वाभाविक बालों’ के स्वरूप में बदलाव करवाने के शिक्षकों के प्रयासों के खिलाफ प्रदर्शन किया। हवा में दोनों हाथ उपर उठाकर मुट्ठियां बांधे हुए तेरहं साल की जुलेखा पटेल की छवि इस आंदोलन का प्रतीक बन चुकी है जो मूलत: कक्षाओं में नस्ली भेदभाव के खिलाफ है। जुलेखा पटेल का खास अफ्रीकी हेयर स्टाइल दक्षिण अफ्रीकी ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।
इस घटना के बाद दक्षिण अफ्रीका के कई स्कूलों में इस तरहं के विरोध प्रदर्शन हुए। देश के कई प्रमुख महानगरों में स्कूली छात्र—छात्राओं ने इस आंदोलन को अपना समर्थन जताने के लिए भी प्रदर्शन किए।
जुलेखा और उसकी कक्षा में पढ़ने वाली अन्य लड़कियां एक ऐसी व्यवस्था का विरोध कर रहे थे जिसने ऐसे सामाजिक नियम बना दिए हैं जो तय करते हैं कि बालों को उनके स्वाभाविक स्वरूप में नहीं रहने दिया जाएगा। छात्राओं को मजबूर किया जा रहा था कि वे अपने बलों को चोटी में बांधें यां उन्हें सीधा कर संवारें। यहां तक कि एक ऐसे सस्ते रसायन ‘रिलेक्सेंट’ का इस्तेमाल करने पर उन्हें बाध्य किया जा रहा था जिसमें बाल धोने से कुछ समय तक बाल तो सीधे हो जाते हैं, पर इससे अपूरणीय क्षति भी होती है। विरोध करने वाली लड़कियों की मांओं ने पूरा जीवन बिना विरोध किए यही सब स्वीकार किया। इस नजरिए से देखा जाए तो इस विरोध को और भी ज्यादा साहसिक माना जा सकता है। इससे पहले भी अश्वेतों की चेतना को इसी प्रकार जाग्रत करने की घटनाएं हुई हैं। सबसे पहले 1960 के दशक में अमेरिका के नागरिक अधिकार आंदोलन में सक्रिय अमेरिकी—अफ्रीकी समुदाय में इस बारे में चर्चा हुई थी। उस समय के नियम भी यही थे जिसके अंतर्गत सामाजिक अलगाव से बचने के लिए अश्वेत लड़कियों को अपने बालों को स्वाभाविक न रखकर उन्हें जबरन सीधा रखना पड़ता था।
इस संदर्भ में देखा जाए तो आधी सदी और बीत चुकी है और दक्षिण अफ्रीका के कई स्कूलों में लड़कियों ने बातचीत में जो खुलासा किया है उससे पता चलता है कि मामला सिर्फ बालों को लेकर की जाने वाली अपमानजनक टिप्पणियों तक ही सीमित नहीं है, कक्षाओं में नस्ली भेदभाव की तस्वीर और भी भयावह है। दक्षिण अफ्रीका में श्वेत परंपरा से जुड़ी दो भाषाएं हैं—अंग्रेजी व अफ्रीकन्स। कक्षाओं में अश्वेत लडकियों को एक प्रकार से जबरदन इन दोनो भाषाओं में बोलने पर मजबूर किया गया। उन्होंने जब भी अपनी स्थानीय बोली यां भाषा में बात करने का प्रयास किया तो उन्हें डांटा—डपटा गया। स्कूल की पूर्व निर्धारित सांस्कृतिक नीति का पालन करने के लिए लड़कियों को अपनी सांस्कृतिक विरासत को भुला देने पर मजबूत किया गया। ऐसे हालातों का व्यक्तिगत तौर पर बहुत नुकसानदेह मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है, व्यक्ति खुद को स्वीकार करने में मुश्किल महसूस करता है। सामूहिक स्तर पर राष्ट्रीय मानस पहचान के संकट का सामना करने लगता है। इस सबके पूरे प्रभाव का आकलन तो आने वाजे कुछ सालों में ही हो पाएगा।
कुछ आलोचक ऐसे भी हैं जो इस आक्रोश को महत्वपूर्ण् नहीं मानते हैं। उनके अनुसार यह कुछ किशोरों का गुस्सा भर है जो स्कूल के नियम कायदों नहीं मानना चाहते हैं। कुछ यह भी कहना है कि ‘रोड्स मस्ट फॉल’ व ‘फीस मस्ट फॉल’ नामक दो देशव्यापी आंदोलनों के परिणामस्वरूप अब स्कूली छात्र इस नए आंदोलन के माध्यम से अपने असंतोष को नस्लीय स्वरूप दे रहे हैं। लेकिन यह तर्क असली बात को पूरी तरहं नजरअंदाज करने वाला है।
पान्याजा लेसुफि गांटेग प्रांत की शिक्षा कार्यकारिणी के सदस्य हैं । वे इस घटना के बाद प्रीटोरिया स्कूल का दौरा कर चुके हैं। उन्होंने बालों को बदलने की नीति पर रोक लगा दी है। वैचारिक दृष्टि से एक दूसरे से बिल्कुल अलग खड़े राजनीतिक दल भी इस मसले पर हस्तक्षेप कर इस मुद्दे को राष्ट्रीय बहस में तब्दील कर चुके हैं। लेकिन मीडिया में अवसर को भुनाने के लिए यो राजनीतिक लाभ लेने के इन प्रयासों के चलते खतरा ये है कि कहीं असली मुद्दा ही गायब न हो जाए।
हमें भूलना नहीं चाहिए कि 16 जून 1976 को दक्षिण अफ्रीकी युवा जबरन अफ्रीकान्स भाषा सिखाने के विरोध में उठ खड़े हुए थे; अफ्रीकान्स भाषा स्कूलों में नस्ली भेदभाव से करीब से जुड़ी हुई थी। तीस साल बीत चुके हैं और अब भी अगली पीढ़ियों को अंग्रेजी व अफ्रीकान्स के अलावा अन्य कोई भी भाषा बोलने पर प्रताड़ित किया जा रहा है। उन्हें अपने बालों के स्वाभाविक स्वरूप के कारण हाशिए पर धकेला जा रहा है। यह सीधा—सीधा सांस्कृतिक दमन है। इस तरहं लोकतांत्रिक परिवर्तन के 22 साल बाद भी दक्षिण अफ्रीका के युवा आज दोराहे पर खड़े हैं क्योंकि उनके लिए आज भी बहुत कुछ बदला नहीं है। सांस्कृतिक पहचान के संकट से जूझने के साथ उन्हें आर्थिक चुनौतियों का सामना भी करना पड़ रहा है। अपने माता — पिता से उन्हें उत्तराधिकार में कमजोर आर्थिक स्थिति मिली है और उन्हें जिन भविष्य में मिलने वाले आर्थिक अवसरों के सब्ज़बाग दिखाए गए थे, वे अभी भी उनके हकीकत में बदलने का इंतजार कर रहे हैं।
बहुत से लोग दक्षिण अफ्रीका में युवाओं द्वारा किए जा रहे विरोध प्रदर्शनों को युवाओं के जिद्दीपन का परिणाम मान रहे हैं। उनका मानना है कि थोड़ी सी वजह मिलते ही ये युवा बेकार में भड़क जाते हैं। हो सकता है कि कुछ मायनों में में यह सही भी हो। पर इस समय इन युवाओं की आलोचनाएं करने से ज्यादा महत्वपूर्ण इस बात को स्वीकार करना है कि यह भावी पीढ़ी इस राजनीतिक व्यवस्था को अपनी समस्याएं समझने और सुलझाने में सक्षम नहीं मानती है। उन्हें लगता है कि हिंसा और अव्यवस्था के द्वारा ही वे यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि उनकी बात सुनी जाए। अगर समाज और सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए कोई और माध्यम प्रभावी नहीं माना जा रहा है तो यह इस बात का संकेत है कि समाज को एक सूत्र में बांधने वाले सामाजिक संबंधों का तानाबाना बिखर रहा है और यह एक खतरनाक स्थिति है।
एक समय था जब दक्षिण अफ्रीकी युवाओं की सांस्कृतिक और जातीय विविधता की सही तस्वीर पेश करने के लिए स्कूलों में आचार संहिता में परिवर्तन काफी था। पर अब बहुत देर हो चुकी है और इतने भर से काम नहीं चलने वाला है।
कम से कम दक्षिण अफ्रीकियों को इतना तो करना ही होगा कि सबसे पहले यह असलियत स्वीकार करें कि इस देश के समाज में भेदभाव मौजूद है। उन्हें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि अश्वेतों के आर्थिक सशक्तिकरण की नीतियां अपना कर ऐतिहासिक हो चुके सामाजिक अन्याय को दूर करने के दावों और प्रयासों के बीच सत्ता में बैठे मठाधीश मौजूदा भेदभाव की समस्या की ओर से आंखें मूंदे हुए प्रतीत होते हैं।
विकास के विशेषज्ञ अर्थशास्त्री अक्सर विशिष्ट प्रकार की जनसंख्या से होने वाले लाभ यानी ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ की बात करते हुए कहतें हैं कि इससे उभरती अर्थव्यवस्थाओं के आर्थिक विकास को जबरदस्त मदद मिलेगी। लेकिन दक्षिण अफ्रीका में सांस्कृतिक पहचान को दबाने के प्रयासों के प्रति आक्रोश, देश में बढ़ती बेरोजगारी तथा घिसटती आर्थिक विकास दर के साथ धमिल होती आर्थिक विकास की भावी तस्वीर अफ्रीका की इस सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के भविष्य को लेकर कोई शुभ संकेत नहीं देती है।
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