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अमेरिका में फेडरल रिज़र्व की स्वतंत्रता को लेकर हो रही बहस इस बात का संकेत है कि बड़ा बदलाव आ रहा है. चार दशकों की स्थिरता के बाद अब मौद्रिक व्यवस्था में आए बदलाव से फेड की विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे हैं.
Image Source: Getty images
वो साल था 1965, सर्दी का मौसम आ रहा था. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन ने फेडरल रिज़र्व बैंक के अध्यक्ष विलियम मैकचेस्नी मार्टिन को पेडरनेल्स नदी के किनारे स्थित अपने टेक्सास स्थित आवास पर बारबेक्यू के लिए आमंत्रित किया. हालांकि, जॉनसन के टेक्सास आवास पर होने वाली बारबेक्यू पार्टी उनके राजनीतिक इतिहास का एक अभिन्न और मशहूर हिस्सा थी, लेकिन मार्टिन को बुलाए जाने की वजह विनम्रता नहीं, बल्कि नाराज़गी थी. विलियम मार्टिन सार्वजनिक रूप से ब्याज दरें बढ़ाने पर विचार कर रहे थे, और जॉनसन इससे खुश नहीं थे. राष्ट्रपति का इरादा अपने फेड अध्यक्ष को किसी न किसी तरह "फटकार" लगाने का था, लेकिन मार्टिन इस मुलाक़ात के दौरान जॉनसन को यह समझाने में कामयाब रहे कि ब्याज दरें तय करना फेडरल बैंक का काम है, और राष्ट्रपति पीछे हट गए.
ठीक छह दशक पहले की यह छोटी सी घटना इस बात की याद दिलाती है कि अमेरिका में मौद्रिक नीति पर नियंत्रण हमेशा से एक विवादास्पद मुद्दा रहा है. मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा फेड अध्यक्ष जेरोम पॉवेल को हटाने के तरीके खोजने या फेडरल ओपन मार्केट कमेटी (एफओएमसी) की सदस्य लिसा कुक को बर्खास्त करने के सार्वजनिक कदम कुछ लोगों को अभूतपूर्व लग सकते हैं, लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रपति जॉनसन की आर्थिक सलाहकार परिषद (सीईए) के अध्यक्ष गार्डनर एकली ने 1964 में कहा था कि "मैं फेडरल रिज़र्व की स्वतंत्रता को कम करने या यहां तक कि उसे खत्म करने के लिए हर संभव प्रयास करूंगा."
इस लिहाज़ से देखें तो, ट्रंप की कार्यकारिणी द्वारा अपने केंद्रीय बैंक पर हाल ही में किए गए हमलों की झड़ी, सरकार और फेडरल रिज़र्व के बीच अक्सर होने वाले गंभीर मतभेदों का एक चरम उदाहरण मात्र है. ये स्थिति में तब है, जब केंद्रीय बैंक खुलकर कह चुका है कि वो मौद्रिक नीति को और सख्त करने की योजना बना रहा है. राजनेता हमेशा कम ब्याज दरों की तलाश में रहते हैं, यहां तक कि कभी-कभी मुद्रास्फीति और महंगाई की कीमत पर भी. यही महंगाई लंबे समय में औसत परिवार को सबसे ज़्यादा नुकसान पहुंचाती है. इस हिसाब से देखा जाए तो केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता, अपने आप में, उस समस्या को कम करने की एक कोशिश भर है. इसलिए, अगर फेड की स्वतंत्रता को ख़त्म करने की ट्रंप की हालिया कोशिशें उम्मीद के मुताबिक रुक जाती हैं, तो जल्द ही सभी लोग अपने-अपने काम में लग जाएंगे.
ट्रंप की कार्यकारिणी द्वारा अपने केंद्रीय बैंक पर हाल ही में किए गए हमलों की झड़ी, सरकार और फेडरल रिज़र्व के बीच अक्सर होने वाले गंभीर मतभेदों का एक चरम उदाहरण मात्र है.
फिर भी, वैश्विक अर्थव्यवस्था के अधिकांश प्रतिभागियों का मानना है कि फेडरल रिज़र्व बैंक की स्वतंत्रता का मौजूदा संकट, पहले से कहीं अधिक गंभीर है. पिछले कुछ महीनों में, सोने और चांदी की कीमतों में भारी वृद्धि हुई है. इससे भी ज़्यादा हैरानी की बात ये है कि, जैसा कि टीडी सिक्योरिटीज़ ने बताया है, माइक्रोसॉफ्ट के बॉन्ड अमेरिकी ट्रेजरी बॉन्ड की तुलना में कम लाभ पर कारोबार कर रहे हैं. ऐसा नहीं होना चाहिए, क्योंकि अमेरिकी सरकारी बॉन्ड दुनिया की सबसे सुरक्षित संपत्ति माने जाते हैं. चूंकि फेड की स्वतंत्रता को व्हाइट हाउस द्वारा चुनौती दी जा रही है, इसलिए यह नजरअंदाज़ करना आसान है कि चार दशकों के बाद मौद्रिक व्यवस्था में एक अधिक मौलिक परिवर्तन भी हो सकता है. ये बदलाव - कम मुद्रास्फीति-कम ब्याज दरों के युग को ख़त्म कर देगा.
फेड के साथ ट्रंप प्रशासन की मौजूदा जंग को समझने के लिए, कई टिप्पणीकार 1960-70 के दशक में लौटना पसंद करते हैं. ऐसा करने के बहुत सारे कारण हैं. ना सिर्फ अमेरिका और दुनिया भर में समान आर्थिक परिस्थितियों के कारण, बल्कि इसलिए भी कि यह हमें फेड के काम के संदर्भ और गतिशील प्रकृति के बारे में बताता है. इतना ही नहीं, ये क्षण व्यापक रूप से, केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता के बारे में कहीं अधिक मौलिक बातें सिखाता है. इस संबंध में, एलन ब्लाइंडर की शानदार किताब, "संयुक्त राज्य अमेरिका का मौद्रिक और राजकोषीय इतिहास, 1961-2021", विशेष रूप से उपयोगी है.
राष्ट्रपति जॉन एफ़ कैनेडी की हत्या के बाद, 1963 में जॉनसन ने व्हाइट हाउस का कार्यभार संभाला. जल्द ही, उन्होंने एक बड़ी टैक्स कटौती की. इसे कैनेडी-जॉनसन टैक्स कटौती कहा गया, क्योंकि कैनेडी भी अपनी मौत से पहले इस पर काम कर रहे थे. इसके बाद जॉनसन ने ग्रेट सोसाइटी कल्याण के लिए प्रयास किया और अंत में वियतनाम युद्ध के कारण रक्षा खर्च में भारी वृद्धि की. जैसी कि उम्मीद थी, इस व्यापक राजकोषीय विस्तार के कारण विकास और मुद्रास्फीति दोनों में वृद्धि हुई. यही वो पृष्ठभूमि थी, जिसके कारण जॉनसन ने फेड अध्यक्ष मार्टिन को अपने टेक्सास स्थित फार्महाउस में बुलाया.
कागज़ों पर यानी सैद्धांतिक रूप से, ट्रेजरी-फेडरल रिज़र्व समझौते ने 1951 में केंद्रीय बैंक को स्वतंत्रता प्रदान की. लेकिन असलियत ये थी कि फेड की स्वतंत्रता 1970 के दशक के अंत तक भी स्थापित नहीं हुई थी. इसका नतीया ये रहा कि फेड की प्रतिक्रिया देर से और अपर्याप्त थी. 1969 में जब निक्सन सत्ता में आए, तब तक मुद्रास्फीति 6.4 प्रतिशत तक पहुंच चुकी थी. अगले कुछ वर्षों में, राजकोषीय और मौद्रिक नीति दोनों का संकुचन हुआ. इसकी वजह से, मुद्रास्फीति में गिरावट आई, लेकिन मंदी भी आ गई. ये अभी भी स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम जैसा ही था: अगर मुद्रास्फीति बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है, तो राजकोषीय और मौद्रिक नीति को तब तक सख्त किया जाता है जब तक कि वो कम न हो जाए. ऐसा करने पर अगर मंदी ही इसका एक अतिरिक्त नुकसान है, तो ऐसा होने दिया जाए. मौद्रिक और राजकोषीय नीति में संकुचन हुआ, लेकिन देरी से. इस तरह, मुद्रास्फीति भी कम हुई, लेकिन देरी से.
हैरानी की बात ये है कि केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता के विचार को मात्र दो दशक पहले अपनाया गया था. मार्टिन ने फेड में आर्थर बर्न्स को नियुक्त किया, और उसके बाद दो साल तक मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों का एक बड़ा उछाल आया.
जब मुद्रास्फीति पर काबू पा लिया गया, उसके बाद सबसे ज़्यादा निंदा हुई केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता के विचार की. हैरानी की बात ये है कि केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता के विचार को मात्र दो दशक पहले अपनाया गया था. मार्टिन ने फेड में आर्थर बर्न्स को नियुक्त किया, और उसके बाद दो साल तक मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों का एक बड़ा उछाल आया. माना जाता है कि ये सब 1972 के राष्ट्रपति चुनावों में निक्सन की जीत सुनिश्चित करने के लिए किया गया.
1971 और 1972 के दौरान राजकोषीय घाटा क्रमशः 1 और 0.5 प्रतिशत बढ़ा. इस बीच, एम2 वृद्धि दर फरवरी 1970 में 2.5 प्रतिशत से बढ़कर जून 1971 में 13.1 प्रतिशत और नवंबर 1972 में 12.7 प्रतिशत हो गई. ये वृद्धि चुनावों के बिल्कुल सही समय पर हुई. हालात तब और भी बदतर हो गए, जब मुद्रास्फीति को रोकने के लिए वेतन-मूल्य नियंत्रण लागू कर दिए गए. बहुत ज़्यादा उत्साहजनक आर्थिक परिस्थितियों-जैसा कि 1972 में 6.9 प्रतिशत की वृद्धि दर से स्पष्ट है-ने निक्सन की जीत में अहम भूमिका निभाई. केनेथ रोगॉफ़ ने इसे 'राजनीतिक व्यापार चक्र' कहा था.
चुनाव ख़त्म होते ही, राजकोषीय और मौद्रिक नीति दोनों में संकुचन हुआ, लेकिन वेतन-मूल्य नियंत्रण भी समाप्त कर दिए गए. 1951 के बाद से मुद्रास्फीति अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई. ओपेक के पहले झटके के कारण कच्चे तेल की कीमतों में भारी वृद्धि हुई, इससे महंगाई और भी बढ़ गई. ओपेक तेल निर्यात करने वाले देशों का संगठन है. दिलचस्प बात ये है कि अब तक ब्रेटन वुड्स प्रणाली भी ख़त्म हो चुकी थी, और इसमें शामिल ज़्यादातर देश धीरे-धीरे अस्थिर विनिमय दरों की ओर बढ़ रहे थे. अमेरिकी अर्थव्यवस्था अब मुद्रास्फीति से पैदा हुई मंदी की स्थिति में थी, और ब्लिंडर ने फेड की प्रतिक्रिया को "विखंडित" बताया है. फेडरल रिज़र्व ने पहले दरें बढ़ाईं और फिर उन्हें कम कर दिया.
ये पूरा दशक वित्तीय उथल-पुथल से भरा रहा. 1970 का दशक जैसे ही ख़त्म हो रहा था और मुद्रास्फीति में गिरावट शुरू ही हुई थी, तभी ओपेक का दूसरा झटका आया, जिससे मुद्रास्फीति की दर 14 प्रतिशत तक पहुंच गई. अमेरिका में 1965-82 की अवधि को 'महामुद्रास्फीति' के दौर के रूप में जाना जाता है.
1979 में, राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने न्यूयॉर्क फेड के तत्कालीन अध्यक्ष पॉल वोल्कर को देश के केंद्रीय बैंक का कार्यभार सौंपा. वोल्कर ने ब्याज दरों में लगातार बढ़ोतरी की. एक समय तो यह 20 प्रतिशत से भी ज़्यादा हो गई, और मुद्रा आपूर्ति में अभूतपूर्व कमी की. इससे मुद्रास्फीति तो नियंत्रण में आ गई, लेकिन इसका नतीजा ये हुआ कि गहरी मंदी आई और बेरोजगारी दर 10.8 प्रतिशत तक पहुंच गई. कई साल बाद, जब वोल्कर से पूछा गया कि उन्होंने इस भीषण मुद्रास्फीति को कैसे नियंत्रित किया, तो वोल्कर का जवाब था: "दिवालियापन पैदा करके."
आम तौर पर इसी दौर को फेड की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता की शुरुआत माना जाता है. आखिरकार, दोनों स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. किसी केंद्रीय बैंक का स्वतंत्र होना ही काफ़ी नहीं है; उसे मूल्य स्थिरता प्रदान करने में अपनी विश्वसनीयता भी प्रदर्शित करनी होती है. फिर भी, वोल्कर शॉक की एक और विशेषता है जिस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है.
अब तक ये समझ आ चुका था कि डॉलर का मूल्य फेड की मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित करने और मुद्रास्फीति प्रक्रिया को ख़त्म करने की क्षमता पर निर्भर करता है.”
वोल्कर ने अपने संस्मरण 'कीपिंग एट इट' में लिखा कि, “अब, वर्षों के समझौते और मुद्रास्फीति पर सीधे हमले के बाद, कार्रवाई करने का समय आ गया था. डॉलर का सोने से और ब्रेटन वुड्स स्थिर विनिमय दर प्रणाली से संबंध पहले ही खत्म हो चुका था. अब तक ये समझ आ चुका था कि डॉलर का मूल्य फेड की मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित करने और मुद्रास्फीति प्रक्रिया को ख़त्म करने की क्षमता पर निर्भर करता है.”
सत्तर के दशक में लगातार महंगाई सिर्फ वेतन-मूल्य नियंत्रण, तेल संकट या कार्टर वित्तीय प्रोत्साहन के कारण नहीं थी. एक बड़ा मौलिक शासन परिवर्तन ब्रेटन वुड्स स्थिर विनिमय दर प्रणाली के अंत के साथ हुआ था. पश्चिमी देशों के केंद्रीय बैंकों को इसके अनुकूल होने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा. हालांकि, बाद में इंग्लैंड बैंक और बुंदेसबैंक से लेकर फेडरल रिज़र्व तक, सभी ने ब्याज दरों में तेज़ वृद्धि और मुद्रास्फीति को कम करने में सफलता पाई. इसी सफलता ने आधुनिक केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता और स्वतंत्रता का जन्म दिया.
फेड संकट के मौजूदा दौर की बात करें तो ये दिन-प्रतिदिन स्पष्ट होता जा रहा है कि कोरोना महामारी के बाद, एक बार फिर शासन में बदलाव हुआ है. पिछले पांच साल में, फेड का रिकॉर्ड कुछ हद तक मिश्रित रहा है. भारी वित्तीय विस्तार और आपूर्ति श्रृंखला के व्यवधान के कारण मुद्रास्फीति की भविष्यवाणी कर पाने में उसकी असमर्थता एक बड़ी नाकामी थी. हालांकि, मंदी लाए बिना फेड ने महंगाई पर प्रभावी ढंग से काबू पया, जिसे इसकी एक बड़ी जीत माना जाना चाहिए. लेकिन केंद्रीय बैंकों के मिश्रित रिकॉर्ड को उपलब्धि नहीं माना जा सकता, विशेष रूप से तब, जबकि वो दुनिया का सबसे बड़ा केंद्रीय बैंक हो. फेड को अपने अनुमान पर हर बार सही साबित होना होगा.
जैमी रश और सह-लेखकों ने अपनी किताब 'प्राइस ऑफ मनी' में तर्क दिया है कि कम मुद्रास्फीति और कम ब्याज दर वाले युग के ख़त्म होने के संकेत मिल रहे हैं, और इसके कई कारण हैं. बेबी बूमर्स की उम्र बढ़ना, एआई से संबंधित पूंजीगत व्यय में वृद्धि, आपूर्ति श्रृंखला का पुनर्गठन, बढ़ता संरक्षणवाद, और तेजी से बढ़ते कर्ज़ स्तर के कारण ऐसा हो सकता है. इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण तर्क शायद अमेरिकी सार्वजनिक वित्तीय गणित है.
स्थिति के और ज़्यादा बिगड़ने की एक वजह ये भी है कि ट्रंप प्रशासन में नीतियों को लेकर बहुत अधिक अनिश्चितता है. इन अनिश्चित नीतियों के बीच मौद्रिक नीति को सही ढंग से लागू करना फेड के लिए एक बेहद मुश्किल काम है.
अमेरिका अब ज़ाहिर तौर पर एक नए त्रिस्तरीय असमंजस का सामना कर रहा है, जहां सभी तीन को बनाए रखना मुश्किल होता जा रहा है. कर्ज़ की बड़ी राशि, उच्च प्राथमिक घाटा, और कम ब्याज दरें. इन तीनों में से किसी को तो छोड़ना होगा. स्थिति के और ज़्यादा बिगड़ने की एक वजह ये भी है कि ट्रंप प्रशासन में नीतियों को लेकर बहुत अधिक अनिश्चितता है. इन अनिश्चित नीतियों के बीच मौद्रिक नीति को सही ढंग से लागू करना फेड के लिए एक बेहद मुश्किल काम है.
यह एक नया शासन है, और अब फेडरल रिज़र्व खुद को इसमें घिरा पाता है. यहां एक दुविधा ये है कि अभी तक यही स्पष्ट नहीं है कि नया शासन पहले से ही सामने आया है, या यह अभी भी प्रगति पर है. भविष्य में केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता, विशेष रूप से फेड की साख इस बात पर निर्भर करेगी कि वो बाज़ारों से पहले ही सही आर्थिक भविष्यवाणी कर सके.
सृजन शुक्ला सेंटर फॉर इकोनॉमी एंड ग्रोथ प्रोग्राम और फोरम टीम के एसोसिएट फेलो हैं.
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Srijan Shukla is an Associate Fellow working with the geoeconomics and the forums team. His research focuses on domestic and international political economy. In the ...
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