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चीन के जमते पांव के बीच, मध्य पूर्व को लेकर अमेरिका के रुख़ की वजह से सामरिक रूप से बेहद अहम इस क्षेत्र में उसके प्रति अविश्वास गहरा होता जा रहा है.
Image Source: Getty
12 जून की रात मध्य पूर्व के पहले से ज्वलनशील मंज़र में उस वक़्त नए शोले भड़क उठे जब इज़राइल के लड़ाकू विमानों ने ईरान के सैन्य मूलभूत ढांचे और परमाणु केंद्रों पर बमबारी की. इज़राइल इस हमले में ईरान की सेना के बड़े अधिकारियों और राजनीतिक हस्तियों का सफ़ाया करने में भी कामयाब रहा था. हालांकि, ईरान ने भी इस हमले का अपनी पूरी ताक़त से जवाब दिया और अगले ही दिन तेल अवीव और हाइफा में इज़राइल के अहम ठिकानों को निशाना बनाया. आज दोनों ही देश वार और पलटवार के चक्र में फंसे हुए हैं. जहां अमेरिका ने ख़ुद को इज़राइल और ईरान की इस जंग से दूर बनाए रखने की कोशिश की है. वहीं, उसके राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा खुले तौर पर इज़राइल के अभियानों का समर्थन करने की वजह से दुनिया के अलग अलग क्षेत्रों और विशेष रूप से दक्षिणी पूर्वी एशिया में चिंताएं बढ़ गई हैं, जहां अमेरिका की छवि पहले ही दाग़दार हो रही थी.
दक्षिणी पूर्वी एशिया के ज़्यादातर देश मध्य पूर्व के इस संघर्ष को अलग करके नहीं देख रहे हैं. बल्कि उनकी नज़र में ये युद्ध भी उसी संघर्ष का विस्तार है, जो फ़िलिस्तीन में इज़राइल और हमास के बीच चल रहा है.
दक्षिणी पूर्वी एशिया के ज़्यादातर देश मध्य पूर्व के इस संघर्ष को अलग करके नहीं देख रहे हैं. बल्कि उनकी नज़र में ये युद्ध भी उसी संघर्ष का विस्तार है, जो फ़िलिस्तीन में इज़राइल और हमास के बीच चल रहा है. 7 अक्टूबर 2023 को हमास के तबाही मचाने वाले हमले ने जहां इज़राइल को जवाबी कार्रवाई का अधिकार दे दिया. लेकिन, उसके बाद के महीनों से जो कुछ चल रहा है, उसमें अभूतपूर्व संख्या में बेगुनाह फ़िलिस्तीनियों की जान जा चुकी है. जिस तरह इज़राइल ने तुलनात्मक रूप से कई गुना अधिक कार्रवाई की है, उसकी दक्षिणी पूर्वी एशिया के कई मुस्लिम बहुल देशों ने कड़ी निंदा की है. इनमें मलेशिया, इंडोनेशिया और ब्रुनेई शामिल हैं. यही नहीं, सिंगापुर ने जहां शुरुआती दिनों में निरपेक्ष रुख़ अपनाया हुआ था, लेकिन बाद के दिनों में सिंगापुर ने भी इज़राइल की गतिविधियों की आलोचना शुरू कर दी थी. मिसाल के तौर पर मार्च 2024 में सिंगापुर के विदेश मंत्री विवियन बालाकृष्णन ने कहा था कि, ‘इज़राइल की जवाबी सैन्य कार्रवाई तमाम हदों के पार कर चली गई है.’ इसी साल मई में सिंगापुर के प्रधानमंत्री लॉरेंस वोंग ने ज़ोर देकर कहा कि इज़राइल की सैन्य कार्रवाईयों की वजह से भयानक मानवीय आपदा हुई है.
हालांकि, इज़राइल हमास संघर्ष से भी ज़्यादा बड़ी बात ये है कि दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों ने इस बात को लेकर चिंता और यहां तक कि निराशा भी ज़ाहिर की है कि अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय क़ानून लागू करने में दोहरे मानक का प्रदर्शन किया है. जब अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) के जजों ने इज़राइल के प्रधानमंत्री और उनके उस वक़्त के रक्षा मंत्री योआव गैलेंट के ख़िलाफ़ नवंबर 2024 में गिरफ़्तारी का वारंट जारी किया, तो अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस फ़ैसले की निंदा की थी. इसी वजह से दक्षिणी पूर्वी एशिया के देशों के लिए अंतरराष्ट्रीय क़ानून का पालन करना, क्षेत्र की शांति व्यवस्था के लिए उस वक़्त आधारभूत सिद्धांत बन गया है, जब दक्षिणी चीन सागर में सुरक्षा के बदलते समीकरणों और अमेरिका व चीन के बीच ताक़त की प्रतिस्पर्धा की वजह से नियमों पर आधारित विश्व व्यवस्था की बुनियादें हिल रही हैं. यही वजह है कि स्टेट ऑफ साउथ ईस्ट एशिया 2024 सर्वे में इज़राइल और हमास का संघर्ष इस इलाक़े की सबसे बड़ी भू-राजनीतिक चिंता का विषय बनकर उभरा. जबकि इसी दौरान इलाक़े में अमेरिका के दबदबे में काफ़ी कमी आई, और इस क्षेत्र में तालमेल के विकल्प के रूप में चीन, अमेरिका से आगे बढ़ गया है.
आज मध्य पूर्व के तमाम संघर्षों को लेकर विशेष रूप से ट्रंप प्रशासन के रुख़ की वजह से अविश्वास के ये बीज और बढ़ने ही वाले हैं. ट्रंप ने न केवल अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय के सदस्यों पर पाबंदी लगाई, बल्कि इससे भी आगे बढ़ते हुए ग़ज़ा पट्टी पर अमेरिका के क़ब्जे की बात शुरू कर दी. ऐसे बयान और ग्रीनलैंड पर हमला करने और कनाडा को अमेरिका का 51वां राज्य बनाने जैसी बातों ने अमेरिका के विस्तारवादी लक्ष्यों और अंतरराष्ट्रीय क़ानून को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं.
ट्रंप ने न केवल अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय के सदस्यों पर पाबंदी लगाई, बल्कि इससे भी आगे बढ़ते हुए ग़ज़ा पट्टी पर अमेरिका के क़ब्जे की बात शुरू कर दी.
इन परिस्थितियों में इज़राइल और ईरान के युद्ध के मौजूदा संकट की वजह से दक्षिणी पूर्वी एशिया में अमेरिका की छवि और भी बिगड़ने का अंदेशा है. इंडोनेशिया और मलेशिया, पहले ही ईरान पर आक्रामक हमले के लिए इज़राइल की निंदा कर चुके हैं. यही नहीं, ईरान के नेतृत्व का सफ़ाया करने के इज़राइल के खुले इरादे की तरफ़ से आंखें मूंदकर अमेरिका, ईरान में सत्ता परिवर्तन का इच्छुक समर्थक बन गया है. ये विशेष रूप से विवादास्पद है, क्योंकि दक्षिणी पूर्वी एशिया की सरकारें, हुकूमत का अस्तित्व बचाए रखने और सुरक्षा को काफ़ी महत्ता देती हैं. आज जब अमेरिका, मध्य पूर्व में अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों और सिद्धांतों का खुला उल्लंघन कर रहा है, तब चीन इस मौक़े का लभा उठाकर क्षेत्रीय अखंडता को सम्मान देने और अपनी ज़मीन पर फ़िलिस्तीनियों के अधिकार का समर्थन करके, अपने ऊंचे नैतिक मानदंडों का प्रदर्शन कर रहा है.
इसके अलावा, क्रियान्वयन के मोर्चे पर वियतनाम और फिलीपींस जैसे देश, जो चीन के साथ समुद्री सीमा के विवाद में फंसे हैं, उनके लिए पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर अमेरिका की दूरगामी वचनबद्धता को लेकर चिंताएं पैदा हो गई हैं. जो अमेरिकी नौसैनिक बेड़े पहले पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में तैनात थे, उनको पहले ही मध्य पूर्व की ओर रवाना कर दिया गया है. इससे इस क्षेत्र में सत्ता का असंतुलन और बढ़ डाएगा, जिससे चीन को दक्षिणी पूर्वी एशिया के समुद्री क्षेत्र में अपनी हैसियत और मज़बूत बनाने का मौक़ा मिल जाएगा. ट्रंप की हालिया आर्थिक नीयितों ने भी दक्षिणी पूर्वी एशिया में अमेरिका को लेकर सोच को सुधारने के बजाय और बिगाड़ दिया है.
नीतियों में उतार चढ़ाव और अंतरराष्ट्रीय क़ानून को चुनिंदा रूप से लागू करने से अमेरिका की छवि निश्चित रूप से दाग़दार होगी. ये बात धीरे धीरे काफ़ी महत्वपूर्ण होती जा रही है. क्योंकि, दक्षिणी पूर्वी एशिया में चीन लगातार अमेरिका के दबदबे को चुनौती दे रहा है.
वैसे तो पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के पास तुलनात्मक रूप से अधिक ताक़त है. लेकिन, दक्षिणी पूर्वी एशिया में उसकी दिनोंदिन बिगड़ती छवि अंतत: उसके कूटनीतिक संबंधों पर दबाव बढ़ाने वाले हैं. इससे अमेरिका के लिए इस क्षेत्र में अपनी सैन्य और आर्थिक ताक़त के दम पर एक ठोस और स्थायी विदेश नीति को लागू कर पाना मुश्किल होता जाएगा. इसीलिए, अगर अमेरिका को दक्षिणी पूर्वी एशिया में अपनी हैसियत को सुधारना है, तो उसको इस इलाक़े के देशों की चिंताओं को लेकर ज़्यादा बारीक़ समझ पैदा करनी होगी. अमेरिका को ये स्वीकार करना होगा कि दुनिया लगातार आपस में जुड़ती जा रही है. इसका मतलब ये है कि दुनिया के एक हिस्से में अमेरिका जो कुछ करेगा, उसका विश्व के दूसरे हिस्सों पर भी काफ़ी गहरा असर देखने को मिलेगा. इसीलिए, नीतियों में उतार चढ़ाव और अंतरराष्ट्रीय क़ानून को चुनिंदा रूप से लागू करने से अमेरिका की छवि निश्चित रूप से दाग़दार होगी. ये बात धीरे धीरे काफ़ी महत्वपूर्ण होती जा रही है. क्योंकि, दक्षिणी पूर्वी एशिया में चीन लगातार अमेरिका के दबदबे को चुनौती दे रहा है.
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Don McLain Gill is a Philippines-based geopolitical analyst author and lecturer at the Department of International Studies De La Salle University (DLSU). ...
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