Published on Jul 02, 2020 Updated 0 Hours ago

ब्रिटेन में मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह पहले ही एक बड़ी समस्या है. लेकिन, कोविड-19 जैसी महामारी भी लोगों को धर्मांधता फैलाने से नहीं रोक सकी. और ये दुर्भाग्य की ही बात है कि ऐसे लोग महामारी के दौरान समाज को एकजुट करने के बजाय नफ़रत फैलाने पर भी शर्मिंदगी नहीं महसूस करते.

ब्रिटेन में इस्लामोफोबिया और कोविड-19 की महामारी

किसी भी संकट के दौरान हम अपनी सुरक्षा और संरक्षण के लिए आमतौर पर अपने समुदाय का ही सहारा लेते हैं. कोविड-19 की महामारी के दौरान भी हमने देखा है कि तमाम समुदायों के लोग ज़रूरतमंदों की मदद के लिए एकजुट होकर आगे आए हैं. लेकिन, इस तरह की घटनाएं काफी निराशाजनक है जब किसी समुदाय को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाए और एक ख़ास समुदाय के ख़िलाफ़ उसमें नफ़रत का बीज बोया जाए. क्योंकि इससे जनता की सेहत ख़तरे में पड़ जाती है. इन मुश्किल दिनों में साज़िश की अस्पष्ट कहानियों का शोर मचा कर मुस्लिम समुदायों के विरुद्ध असहिष्णुता और भेदभाव का माहौल बनाया जा रहा है. नए कोरोना वायरस के संक्रमण का पहला मामला सामने आने के बाद से, पिछले कुछ महीनों में सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म पर ग़लत सूचनाओं को ख़ूब फैलाया गया. ऐसा देखा गया कि सोशल मीडिया के यूज़र्स इन अपुष्ट जानकारियों का इस्तेमाल करके, मुसलमानों पर कोरोना वायरस का सुपर स्प्रेडर होने का आरोप लगा रहे थे. अगर ऐसा ही होता रहा, तो जब लॉकडाउन की पाबंदियां हटेंगी, तो इन आरोपो के कारण समाज में अव्यवस्था और उथल पुथल का माहौल बनने का डर है. इससे भी अधिक अहम बात ये है कि मुसलमानों के ख़िलाफ़ आरोप लगाने वाली झूठी बातें फैलाने का काम, ब्रिटेन के प्रमुख कट्टर दक्षिणपंथी लोग कर रहे हैं. इन लोगों का मानना है कि ब्रिटेन के मुसलमान सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं. और इस तरह वो वायरस का प्रकोप फैला रहे हैं.

ये साइबर हब मुस्लिम विरोधी लहर बनाते हैं और मुसलमानों को कोविड-19 के प्रसार के लिए ज़िम्मेदार ठहराने वाली फ़र्ज़ी ख़बरें शेयर करते हैं

हाल के बर्मिंघम सिटी यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर इमरान अवान और रोक्साना ख़ान-विलियम्स द्वारा किए गए एक अध्ययन में ये बात सामने आई है कि मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फ़ैलाने वाले ऑनलाइन ‘साइबर हब’ का गठन किया जा रहा है. ये साइबर हब मुस्लिम विरोधी लहर बनाते हैं और मुसलमानों को कोविड-19 के प्रसार के लिए ज़िम्मेदार ठहराने वाली फ़र्ज़ी ख़बरें शेयर करते हैं. फ़र्ज़ी ख़बरों में आए उफ़ान और सोशल मीडिया में इनके विस्तार से मुसलमानों के बारे में पहले से ही दक्षिणपंथियों द्वारा फैलाई गई नफ़रत भरी सोच को बल मिल रहा है. अभी जब दुनिया कोविड-19 की महामारी से जूझ रही है. इस दौरान भी वायरस के हवाले से नफ़रत भरी बातें, जमकर ऑनलाइन माध्यमों से फैलायी जा रही हैं. और ये झूठी बातें वायरस से भी अधिक तेज़ी से समाज में फैल रही हैं.

मिसाल के तौर पर रमज़ान के पवित्र महीने के दौरान मुसलमानों को लेकर साज़िश की तमाम कहानियां ख़ूब फैलाई गईं. इनमें से कई में तो ये दावे किए गए कि चूंकि रमज़ान के दौरान मुस्लिम समुदाय के लोग ख़ूब जश्न मना रहे हैं. इसलिए कोरोना वायरस भी इस दौरान ख़ूब फैल रहा है. मुसलमानों को बुरा भला कहने वाले साज़िश के क़िस्से ऑनलाइन दुनिया में ख़ूब फल फूल रहे हैं. जैसे कि, ‘दुनिया में कोरोना वायरस फैलने के लिए मुसलमान ही ज़िम्मेदार हैं. क्योंकि चीन के बाद ये वायरस सीधे ईसाई देशों जैसे कि अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैंड और जर्मनी जा पहुंचा था.’ और नफ़रत भरे इन सोशल मीडिया पोस्ट में वायरस का इलाज करने के लिए सभी मस्जिदों को ढहाने की मांग भी की जा रही है.

कट्टर दक्षिणपंथी और मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह

ब्रिटेन में तमाम कट्टर दक्षिणपंथी नेता और कार्यकर्ता इस बात पर एकजुट हैं कि कोरोना वायरस का प्रकोप फैलने के लिए इस्लाम और मुसलमान ही ज़िम्मेदार हैं. क्योंकि, ये विचार दक्षिणपंथियों की उस विचारधारा में बिल्कुल फिट बैठता है, जिसमें वो मुसलमानों को समाज के लिए ‘परजीवी’, विदेशी और रोग जैसा बताते हैं.  कट्टर दक्षिणपंथियों की ओर झुक रहे मशहूर लोगों के बयान इस दुष्चक्र को और बढ़ावा दे रहे हैं. इंग्लिश डिफेंस लीग के संस्थापक और पूर्व नेता टॉमी रॉबिंसन ने सोशल मीडिया पर एक पुराना वीडियो डाला था. जिसमें लॉकडाउन के दौरान बर्मिंघम की मस्जिद से निकलते हुए नमाज़ी दिख रहे थे. बाद में इस वीडियो को ग़लत पाया गया और क़ानून व्यवस्था के ज़िम्मेदार अधिकारियों ने इसे फ़र्ज़ी वीडियो करार दिया था. मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत का भाव जगाने वाले ऐसे ऑनलाइन तत्व मुसलमानों के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह को और बढ़ाते हैं. और ऐसे लोगों के ऊपर नकारात्मक असर डालते हैं, जो ऑनलाइन न्यूज़ और परिचर्चाओं में आज ज़्यादा शामिल हो रहे हैं.

ब्रिटेन में तमाम कट्टर दक्षिणपंथी नेता और कार्यकर्ता इस बात पर एकजुट हैं कि कोरोना वायरस का प्रकोप फैलने के लिए इस्लाम और मुसलमान ही ज़िम्मेदार हैं. क्योंकि, ये विचार दक्षिणपंथियों की उस विचारधारा में बिल्कुल फिट बैठता है, जिसमें वो मुसलमानों को समाज के लिए ‘परजीवी’, विदेशी और रोग जैसा बताते हैं

हाल ही में एक ट्विटर एकाउंट द्वारा मुसलमानों पर इल्ज़ाम लगाने वाला एक और फ़र्ज़ी वीडियो अपलोड किया गया था. इस वीडियो में दावा किया गया था कि मुसलमान, सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए लंदन के वेम्बले स्टेडियम में जमा होकर नमाज़ पढ़ रहे हैं. इसी सोशल मीडिया एकाउंट में कट्टर मुस्लिम विरोधी विचार को केंद्र में रख कर कहा था कि, ‘इस्लाम हमारे भविष्य को ख़तरे में डाल देगा और हमारे देश को तबाह कर देगा.’ सोशल मीडिया की निगरानी करना वाला टेल मामा (Tell MAMA) ग्रुप, ब्रिटेन में तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर मुसलमान विरोधी घटनाओं का रिकॉर्ड दर्ज करता है. उसने कोविडो-19 की महामारी दौरान किए जाने वाले इस और इस जैसे अन्य नफ़रत भरे दावों को सिरे से नकार दिया है.

मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत भरे इन विचारों को ब्रिटेन के प्रमुख कट्टर दक्षिणपंथी नेता और बढ़ावा दे रहे हैं. जैसे कि केटी हॉपकिंस. हाल ही में केटी हॉपकिंस ने ट्वीट किया था कि, ‘भारत की तरह ब्रिटेन में भी सार्वजनिक स्थलों पर नमाज़ पढ़ने वाले मुसलमानों पर शारीरिक चोट पहुंचाने वाले हमले करने चाहिए.’ उग्र दक्षिणपंथी नेताओं द्वारा ब्रिटिश मुसलमानों को ब्रिटेन की हर समस्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराने का ये सिलसिला काफ़ी दिनों से चल रहा है. अब ये उग्रवादी नेता मुसलमानों को वायरस फैलने से लेकर आतंकवाद तक के लिए ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं. ये इस बात की मिसाल है कि किस तरह इंटरनेट बड़ी तेज़ी से एक इको चैम्बर में तब्दील हो जाता है. और किस तरह ऐसे विचारों में इस बात की ताक़त है कि, ये बड़ी आसानी से समाज की मुख्य धारा में अपनी पैठ बना लेते हैं.

मुसलमानों को लेकर फैलायी जा रही ये ख़बरें न केवल असत्य और ख़तरनाक हैं, बल्कि राष्ट्रीय प्रयासों में मुस्लिम समुदाय द्वारा दिए जाने वाले महत्वपूर्ण योगदान को भी चोट पहुंचाते हैं. जैसे कि कोविड-19 के दौरान कई मुस्लिम स्वास्थ्यकर्मियों ने अपनी जान गंवाई है. इसके अलावा मुस्लिम समुदाय ने कमज़ोर तबक़े के लोगों की मदद के लिए सामुदायिक स्तर पर प्रयास किए हैं. कुल मिलाकर ये कहें कि मुसलमानों को सीधे तौर पर ये कह दिया गया है कि वो ब्रिटिश समाज का हिस्सा बनने के लिए ख़ास कोशिशें करें. साथ ही साथ उन्हें ये भी बता दिया गया है कि ब्रिटेन और दुनिया के अन्य इलाक़ों में इस्लाम के नाम पर कुछ लोगों द्वारा किए जाने वाले सभी ग़लत कामों के लिए ज़िम्मेदारी लेनी होगी. 

बाहरी होने का डर

ब्रिटेन में अक्सर मुसलमानों को ब्रिटिश समाज के लिए ख़तरा बताया जाता है. अन्य कट्टरपंथी समूहों की तरह ही, ब्रिटेन का मीडिया भी मुसलमानों को एक जैसे असभ्य लोगों का समूह मानता है. उन्हें एक ही चश्मे से देखता है, जिसमें अक्सर मुसलमानों को इस्लामिक कट्टरपंथी या आतंकवादी कहा जाता है. मुसलमानों को ब्रिटिश समाज में हाशिए पर धकेलने का आधार यही सोच तैयार करती है. मीडिया इस सोच को बढ़ावा देता है कि मुसलमान आक्रमणकारी और भ्रष्ट ताक़तें हैं जो स्थानीय आबादी पर क़ब्ज़ा करके उनकी जगह ले रही हैं. मुस्लिम समुदाय के लोग जहां भी हैं, उन्हें समस्या खड़ी करने वाले समुदाय के तौर पर देखने का चलन बेहद आम है.

यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि ब्रिटेन में मुसलमान विरोधी पूर्वाग्रह तो पहले ही बड़ी समस्या बन चुका है. लेकिन, इस महामारी के दौरान भी लोग नफ़रत फैलाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं. ये बड़े दुर्भाग्य की ही बात है कि इस संकट के समय भी तमाम समुदायों के बीच एकता क़ायम नहीं हो सकी है. इस मुस्लिम विरोधी सोच की बड़ी वजह ये है कि ये उन लोगों के बीच गहरे पैठ बना चुकी है, जो अप्रवासियों और बहुलतावादी संस्कृति को नकारात्मक नज़रिए से देखते हैं. और ये ख्यालात धुर दक्षिणपंथी नेताओं की सोच के साथ एकदम फिट बैठते हैं. ये वो लोग हैं जो कोरोना वायरस का प्रकोप फैलने के लिए भूमंडलीकरण और अप्रवासियों को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं. एक और महत्वपूर्ण बात ये है कि मुख्यधारा के राजनेता, इस्लाम विरोधी बयानों का अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करने में नहीं हिचकिचा रहे हैं. इन सब बातों से ये संकेत मिलता है कि मुख्य धारा के राजनेता अल्पसंख्यक मुसलमानों और कई बार इस्लाम धर्म को ही पश्चिम के धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र के लिए ख़तरा मानते हैं. और वास्तव में मुसलमानों को ऐसे अल्पसंख्यक मानते हैं, जो ब्रिटिश समाज में सभी वर्गों के सम्मिलन और बहुलतावादी संस्कृति के लिए ख़तरा हैं.

मीडिया और इंटरनेट कंपनियों को इन तेज़ी से विकराल रूप धर रही समस्याओं से निपटने के लिए और गंभीर उपाय करने होंगे. उन्हें नफ़रत और समुदायों के बीच विद्वेष फैलाने वाली सोशल मीडिया पोस्ट की निगरानी के लिए भी ज़रूरी क़दम उठाने होंगे

समाज में ये सोच व्यापक रूप से फैली हुई है कि मुसलमानों की आबादी, ग़ैर मुसलमानों के मुक़ाबले अधिक तीव्र गति से बढ़ रही है. और ब्रिटिश आबादी का यही तबक़ा ये मानता है कि इस्लाम धर्म के मानने वाले, देश में ब्रिटिश क़ानून की जगह शरीया लागू करना चाहते हैं. इसी कारण से मुसलमानों के ख़िलाफ़ कट्टर सोच को बढ़ावा मिल रहा है. साथ ही साथ लोगों के बीच कट्टर दक्षिणपंथियों द्वारा प्रचारित की जाने वाली ये धारणा और मज़बूत हो रही है कि मुसलमानों की आबादी ग़ैर मुसलमानों के मुक़ाबले इतनी तेज़ी से बढ़ रही है कि आने वाले समय में ब्रिटेन के गोरे लोगों की जगह वो ही बहुसंख्यक समुदाय होंगे.

रमज़ान के दौरान मुसलमानों के क़ानून तोड़ने जैसी अफ़वाहों के प्रचार प्रसार के कारण इस समुदाय के ख़िलाफ़ हिंसा का ख़तरा पैदा हो गया था. आगे चल कर जब लॉकडाउन हटेगा, तो भी मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ हिंसा का डर है. ग़लत सूचनाएं फैलने से मुसलमानों के विरुद्ध नफ़रत का माहौल और गंभीर होगा. मीडिया द्वारा अल्पसंख्यकों को देश की संस्कृति और राजनीतिक व्यवस्था के लिए ख़तरा मानने की सोच बहुत व्यापक है. न्यूज़ मीडिया द्वारा ग़ैर श्वेत अप्रवासियों के ब्रिटेन और दुनिया के अन्य हिस्सों में बसने की ख़बरों पर भी काफ़ी ज़ोर दिया जाता है. इन बातों के कारण एक बार फिर ‘संस्कृतियों के टकराव’ की चर्चा तेज़ हो गई है. मीडिया और इंटरनेट कंपनियों को इन तेज़ी से विकराल रूप धर रही समस्याओं से निपटने के लिए और गंभीर उपाय करने होंगे. उन्हें नफ़रत और समुदायों के बीच विद्वेष फैलाने वाली सोशल मीडिया पोस्ट की निगरानी के लिए भी ज़रूरी क़दम उठाने होंगे. आज इन उपायों की ज़रूरत और भी बढ़ गई है, क्योंकि इस महामारी से लड़ने के लिए समाज के सभी वर्गों का एकजुट होना बेहद आवश्यक हो गया है.

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