काबुल हवाई अड्डे पर भयंकर आत्मघाती बम हमले के बाद से पूरी दुनिया का ध्यान अचानक से तालिबान और उसके क़रीबी सहयोगी अल-क़ायदा से हटकर रहस्यमयी आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रांत (ISKP) पर आ गया है. काबुल धमाके के बाद से जिस तरह इस्लामिक स्टेट खुरासान को लेकर मीडिया ने कवरेज की, उससे लोगों को यही लगने लगा कि अफ़ग़ानिस्तान की असल समस्या उस पर तालिबान का क़ब्ज़ा नहीं, बल्कि वहां ISKP की मौजूदगी है. हवाई अड्डे पर धमाके के पीछे जो मास्टरमाइंड हैं, वो यही तो चाहते थे- कि लोग उनकी गढ़ी इस कहानी पर यक़ीन कर लें तालिबान और पाकिस्तान अच्छे हैं और पूरी दुनिया को उनकी मदद करनी चाहिए और इस्लामिक स्टेट खुरासान से लड़ने के लिए उन्हें पैसे देने चाहिए, क्योंकि, असल में तो ये ISKP ही है, जो दुनिया की सुरक्षा के लिए असल ख़तरा है. जब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ISKP को तालिबान का कट्टर दुश्मन बताया तो ऐसा लगा कि वो अच्छे बनाम बुरे के उसी क़िस्से को दोहरा रहे हैं, जिसके तहत ‘गुड तालिबान’ की छवि गढ़ी जा रही है. या फिर ब्रिटेन के सेनाध्यक्ष के शब्दों में कहें तो लड़ाई ISKP खुरासान के बुरे लोगों बनाम उस तालिबान की है, जिसमें गांव के वो लड़ाके हैं जो इज़्ज़त को उसूल मानते हैं. ऐसा लगता है कि अमेरिका की सेना अब तालिबान पर इस क़दर भरोसा करने लगी है कि वो अपनी बेहद संवेदनशील जानकारियां भी उनसे साझा करने लगे हैं. आज ख़बरें ऐसी आ रही हैं कि इस्लामिक स्टेट खुरासान पर हमला करने के लिए अमेरिकी सेना तालिबान से ख़ुफ़िया जानकारियां साझा कर रही है.
ऐसा लगता है कि अमेरिका की सेना अब तालिबान पर इस क़दर भरोसा करने लगी है कि वो अपनी बेहद संवेदनशील जानकारियां भी उनसे साझा करने लगे हैं. आज ख़बरें ऐसी आ रही हैं कि इस्लामिक स्टेट खुरासान पर हमला करने के लिए अमेरिकी सेना तालिबान से ख़ुफ़िया जानकारियां साझा कर रही है.
ISKP कितना ख़तरनाक?
आज जब इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रांत को इस्लामिक स्टेट (ISIS) से भी ख़तरनाक संगठन बताने की होड़ लगी है, जिससे तालिबान से सहयोग और तालमेल को वाजिब ठहराया जा सके, तो लोग कुछ बुनियादी सवाल भी नहीं पूछ रहे हैं: जैसे कि, क्या ISKP वाक़ई कितना ख़तरनाक है? क्या ये पूरी दुनिया या फिर अफ़ग़ानिस्तान- पाकिस्तान से बाहर किसी और क्षेत्र में भी सक्रिय है? या फिर ये कोई स्थानीय आतंकी संगठन है जिसके दुनिया के दूसरे आतंकी संगठनों से रिश्ते हैं? कहीं ये वैश्विक आतंकवादी संगठन के नाम और उसकी ताक़त का इस्तेमाल अपनी छवि गढ़ने के लिए तो नहीं कर रहा है? अफ़ग़ानिस्तान- पाकिस्तान से बाहर किसी और देश में बड़े आतंकी हमले करने की क्षमता इसमें है भी या नहीं? मौजूदा आंकड़े ISKP को लेकर मच रहे शोर-शराबे से मेल नहीं खाते हैं. साउथ एशिया टेररिज़्म पोर्टल (SATP) के मुताबिक़, 2021 में ऐसे केवल तीन बड़े आतंकवादी हमले हुए हैं, जिनकी ज़िम्मेदारी ISKP ने ली थी- जलालाबाद में एक टीवी चैनल में काम करने वाली तीन महिलाओं की हत्या, मई में काबुल में शिया इमामबारगाह पर हमला करके 14 लोगों की हत्या और काबुल हवाई अड्डे पर हमला. काबुल में लड़कियों के एक स्कूल पर हमले की ज़िम्मेदारी ISKP ने कभी नहीं ली, जबकि आम तौर पर वो ऐसे हमलों की ज़िम्मेदारी भी फ़ौरन ले लेता है, जो उसने नहीं किए होते. पिछले साल भी ISKP ने केवल 7 बड़े आतंकवादी हमले किए. इनमें से ज़्यादातर हमले उसने आसान ठिकानों को निशाना बनाकर किए थे.
सच तो ये है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान ISKP न केवल लगातार अपने कट्टर दुश्मनों (तालिबान) के निशाने पर रहा है बल्कि इससे पहले की अफ़ग़ान सरकार और अमेरिकी सेना भी उसे लगातार निशाना बना रही थी. कई मामलों में तालिबान, अमेरिका और अफ़ग़ान सेना ने एक दूसरे से तालमेल करके ISKP को निशाना बनाकर हमले किए.
2018 में जहां ISKP ने 130 से ज़्यादा आतंकवादी हमले किए, वहीं 2021 के पहले आठ महीनों में वो केवल तीन आतंकवादी हमले करने में कामयाब हो सका (अगर इसमें लड़कियों के स्कूल पर हमले को भी जोड़ लें, तो कुल हमलों की तादाद चार हो जाती है). ऐसे में साफ़ है कि इस्लामिक स्टेट खुरासान के अभियान में ज़बरदस्त ढंग से ख़लल पड़ा है, और उसकी ताक़त काफ़ी कम हो गई है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़े, साउथ एशिया टेररिज़्म पोर्टल (SATP) से अलग हैं. फिर भी मोटे तौर पर सुरक्षा परिषद भी ISKP को लेकर इसी निष्कर्ष पर पहुंची है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की रिपोर्ट के मुताबिक़ ‘ISKP की ताक़त अपने उरूज़ के दौर से काफ़ी घट गई है. इसकी शुरुआत 2018 की गर्मियों में अफ़ग़ानिस्तान के जुज़ान सूबे में उसको मिले एक के बाद एक झटकों से हुई थी’. सच तो ये है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान ISKP न केवल लगातार अपने कट्टर दुश्मनों (तालिबान) के निशाने पर रहा है बल्कि इससे पहले की अफ़ग़ान सरकार और अमेरिकी सेना भी उसे लगातार निशाना बना रही थी. कई मामलों में तालिबान, अमेरिका और अफ़ग़ान सेना ने एक दूसरे से तालमेल करके ISKP को निशाना बनाकर हमले किए.
अस्तित्व बचाने का ख़तरा
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक़, ISKP के लड़ाकों की संख्या 1500 से 2000 के आस-पास है. लेकिन, रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि उसे अपना अस्तित्व बचाने के लिए ‘ख़ुद को छोटी छोटी टुकड़ियों के रूप में पूरे देश में फैलाना पड़ा है. ISKP की ये प्राथमिक इकाइयां एक जैसी विचारधारा होने के बावजूद, स्वायत्त रूप से काम करती हैं.’ इसके बावजूद, संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि, ‘ये संगठन सक्रिय और ख़तरनाक’ इसलिए बना हुआ है क्योंकि ISKP नाख़ुश तालिबान और अन्य जिहादी लड़ाकों को एक विकल्प मुहैया कराता है. लेकिन इस बात के आधार पर ISKP को दुनिया के लिए और इस क्षेत्र के लिए इतना बड़ा ख़तरा बताना, जिससे निपटने लिए दुनिया की सभी ताक़तों को एकजुट होकर तालिबान की पैसों और हथियारों से मदद करनी चाहिए, इसके ख़तरे को कुछ ज़्यादा ही बढ़ा- चढ़ाकर पेश करने जैसा है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ISKP में ऐसे बड़े हमले करने की क्षमता है, जिनमें बड़ी संख्या में लोगों की मौत हो. ये भी संभव है कि ISKP, अफ़ग़ानिस्तान के कुछ ज़िलों या कुछ सूबों पर ही क़ब्ज़ा करने में कामयाब हो जाए. लेकिन, इस संगठन के पास इससे ज़्यादा ताक़त नहीं है कि वो इस्लामिक स्टेट की तरह कई देशों के एक बड़े इलाक़े पर क़ाबिज़ हो जाए और पूरे क्षेत्र ही नहीं दूसरे इलाक़ों में भी तबाही मचा सके.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ISKP में ऐसे बड़े हमले करने की क्षमता है, जिनमें बड़ी संख्या में लोगों की मौत हो. ये भी संभव है कि ISKP, अफ़ग़ानिस्तान के कुछ ज़िलों या कुछ सूबों पर ही क़ब्ज़ा करने में कामयाब हो जाए. लेकिन, इस संगठन के पास इससे ज़्यादा ताक़त नहीं है कि वो इस्लामिक स्टेट की तरह कई देशों के एक बड़े इलाक़े पर क़ाबिज़ हो जाए और पूरे क्षेत्र ही नहीं दूसरे इलाक़ों में भी तबाही मचा सके.
अब तक ISKP की वास्तविक ‘उपलब्धि’ यही रही है कि ये तालिबान को अंतरराष्ट्रीय सम्मान और स्वीकार्यता दिलाने में कामयाब रहा है. अगर, ISKP के उभार के पीछे असल मक़सद यही था, तो ये लक्ष्य हासिल किया जा चुका है. ISKP के संभावित ख़तरों के हवाले से आज रूस, चीन, ईरान, मध्य एशियाई देशों और यहां तक कि कई पश्चिमी देशों ने भी तालिबान से बातचीत के दरवाज़े खोल दिए हैं. आज ISKP से निपटने के नाम पर तालिबान से बात करने को वाजिब ठहराया जा रहा है. जबकि अभी ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, जब तालिबान को अछूत माना जाता था. आज इस बात की पूरी तरह से अनदेखी की जा रही है कि ISKP के मुक़ाबले तालिबान बड़ा अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठन है, जिसके कई आतंकवादी और जिहादी संगठनों से क़रीबी संबंध रहे हैं. वहीं, ISKP में नाराज़ अफ़ग़ान और पाकिस्तानी तालिबान के लड़ाके ही शामिल हैं.
इन आतंकी संगठनों का विश्लेषण
इस्लामिक स्टेट खुरासान और दूसरे आतंकवादी संगठनों (जो आज इसके दुश्मन बन गए हैं) के बीच संपर्क और इनमें से बहुत से आतंकी संगठनों की जनक- पाकिस्तान की अहम ख़ुफ़िया एजेंसी ISI के बीच के रिश्ते किसी से छुपे नहीं हैं. इस मामले में अपने दशकों पुराने तजुर्बे के चलते ISI ने तमाम आतंकवादी संगठनों के बीच मतभेद और विरोधाभासों का लाभ उठाने में महारत हासिल कर ली है. वो इनकी मदद से पाकिस्तान की सुरक्षा और विदेश नीति के एजेंडे को आगे बढ़ाती है. एक संगठन को दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करके, एक संगठन को दूसरे के विकल्प के तौर पर आज़मा कर, किसी ख़ास मक़सद को हासिल करने के लिए कट्टर दुश्मनों के बीच तालमेल कराने की उस्ताद ISI ने ‘आतंकवाद के ज़रिए जंग लड़ने’ की रणनीति का बख़ूबी इस्तेमाल किया है. सच तो ये है कि तालिबान बनाम ISKP का पूरा मनगढंत क़िस्सा ही सबसे पहले पाकिस्तान से शुरू हुआ था.
अफ़ग़ानिस्तान- पाकिस्तान क्षेत्र में सक्रिय आतंकवादी संगठनों का विश्लेषण करते समय एक बुनियादी ग़लती ये होती है कि उन्हें अलग अलग करके देखा जाता है. उदाहरण के लिए अक्सर ये मान लिया जाता है कि हक़्क़ानी नेटवर्क जो ISI की एक शाखा जैसा है, वो ISI के कट्टर दुश्मन तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) का दुश्मन होगा. हक़्क़ानी नेटवर्क का तालिबान के प्रतिद्वंदी ISKP से कोई रिश्ता नहीं होगा. लेकिन, हक़्क़ानी नेटवर्क न केवल तालिबान का अटूट अंग है, बल्कि उसके तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP), अल क़ायदा और ISKP से भी बेहद क़रीबी रिश्ते हैं. अक्सर हक़्क़ानी नेटवर्क ने इन आतंकवादी संगठनों के बीच टकराव ख़त्म कराने के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाई है. वो ISI और इन संगठनों के बीच भी मध्यस्थ की भूमिका निभाता है. ऐसी कई मिसालें हैं, जब तालिबान और ISKP ने मिलकर आतंकवादी हमले किए हैं; फिर ऐसे भी कई उदाहरण हैं जब दोनों ने एक-दूसरे को निशाना बनाकर बर्बरता से हमले किए हैं.
जब 2014 में तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के कुछ बड़े कमांडरों ने मुल्ला फ़ज़्लुल्लाह से अलग होकर अबू बकर अल बग़दादी की वफ़ादारी की क़समें खाई थीं, तब से ही इस बात की आशंकाएं जताई जाने लगी थीं कि आख़िर TTP में इस फूट के पीछे किसका दिमाग़ था. ऊपरी तौर पर तो ये फूट टीटीपी के बड़े कमांडरों और हकीमुल्ला महसूद की जगह लेने वाले मुल्ला फ़ज़्लुल्लाह के बीच मतभेद का नतीजा था. मुल्ला फ़ज्लुल्लाह, मुल्ला उमर (जिसकी तब तक मौत हो चुकी थी) के प्रति वफ़ादार था. वहीं, अलग हुए गुट को इस्लामिक स्टेट के झंडे तले काम करना आसान लगा. लेकिन, ऐसी भी अटकलें हैं कि जून 2014 में पाकिस्तानी फ़ौज द्वारा उत्तरी वज़ीरिस्तान में TTP के ख़िलाफ़ शुरू किए गए ऑपरेशन ज़र्ब-ए-अज़्ब ने भी इस फूट में अहम भूमिका निभाई थी. दूसरे शब्दों में कहें तो इस फूट के ज़रिए तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान की ताक़त कमज़ोर करके उस जंग को वापस अफ़ग़ानिस्तान की तरफ़ धकेलना था, जो पाकिस्तान की सरहद के भीतर हो रही थी. ISKP के शुरुआती नेताओं में से एक अब्दुल रहीम मुस्लिमदोस्त के मुताबिक़, संगठन में पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी के एजेंटों ने घुसपैठ कर ली है, ताकि पाकिस्तान में फैले बचे-खुचे आतंकवाद को सीमा के उस पार धकेला जा सके.
अफ़ग़ानिस्तान- पाकिस्तान क्षेत्र में सक्रिय आतंकवादी संगठनों का विश्लेषण करते समय एक बुनियादी ग़लती ये होती है कि उन्हें अलग अलग करके देखा जाता है.
उस वक़्त क्या हुआ था इसकी संदेहास्पद हक़ीक़त जो भी रही हो, लेकिन बाद की ख़बरों ने ISKP और ISI के रिश्तों को लेकर गहरी आशंकाएं ज़ाहिर की थीं. हालांकि दोनों के बीच ये संपर्क सीधे नहीं, बल्कि ISI की ‘भरोसेमंद शाखा’ हक़्क़ानी नेटवर्क के ज़रिए था. वैधानिक तौर पर अफ़ग़ानिस्तान के कार्यवाहक राष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह लंबे समय से ISKP को ISI का पाला-पोसा आतंकी संगठन बताते रहे हैं. दो साल पहले दिए एक इंटरव्यू में सालेह ने ये राज़ खोला था कि ISKP के गिरफ़्तार आतंकवादियों ने ये माना था कि उन्हें पाकिस्तान से पैसे और प्रशिक्षण मिलते हैं. सालेह ने इस राज़ पर से भी पर्दा उठाया था कि आतंकवादियों के बीच ख़ुफ़िया बातचीत में सुना गया था कि ISKP के आतंकवादी लगातार पाकिस्तान में बैठे लोगों के संपर्क में रहा करते थे. इस्लामिक स्टेट खुरासान पर अपनी किताब में एंतोनियो गियुस्तोज़्ज़ी ने लिखा है कि 2017 में ISI के साथ हुए एक समझौते के तहत ही पाकिस्तानी आतंकवादी असलम फ़ारुक़ी को ISKP का लीडर बनाया गया था. गियुस्तोज़्ज़ी के मुताबिक़, इस समझौते की शर्त ये थी कि इस्लामिक स्टेट खुरासान, ISI से जुड़े एक आतंकवादी को अपना आक़ा बनाएगा और पाकिस्तान सरकार के ठिकानों पर हमले नहीं करेगा. इसके बदले में उसके आतंकवादियों को पाकिस्तान में सुरक्षित ठिकानों पर पनाह दी जाएगी. इस समझौते में हक़्क़ानी नेटवर्क ने मध्यस्थ की भूमिका अदा की थी. लेकिन, असलम फ़ारुक़ी को लीडर बनाए जाने के बाद ISKP में फूट पड़ गई. पिछले साल आई एक रिपोर्ट से ये जानकारी मिली थी कि ISI के इशारे पर हक़्क़ानी नेटवर्क, ISKP को अपने क़ाबू में करने की कोशिश कर रहा था. लेकिन, ISKP में फूट के बाद बने कुछ गुट इसका विरोध कर रहे थे.
तालिबान के सबसे घातक हिस्सों में से एक होने के बावजूद, हक़्क़ानी नेटवर्क ने हमेशा इस्लामिक स्टेट खुरासान से नज़दीकी रिश्ते बनाए रखे थे. काबुल में हुए ऐसे कई आतंकी हमले जिनकी ज़िम्मेदारी ISKP ने ली थी, वो असल में हक़्क़ानी नेटवर्क के साथ मिलकर किए गए थे. हक़्क़ानी नेटवर्क ने न सिर्फ़ उनकी मदद की थी, बल्कि शायद ये हमले ISKP की तरफ़ से ख़ुद ही किए थे. 2020 में आई संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, ‘इस्लामिक स्टेट खुरासान के पास अपने दम पर काबुल में ऐसे बड़े हमले करने की क्षमता नहीं थी. उसने भले ही इन हमलों की ज़िम्मेदारी ली हो, लेकिन संभावना यही है कि इन हमलों को हक़्क़ानी नेटवर्क ने ही अंजाम दिया था.’ पिछले साल मई महीने एक गुरुद्वारे पर हमले के बाद, अफ़ग़ान ख़ुफ़िया एजेंसियों ने काबुल में हक़्क़ानी नेटवर्क और ISKP की एक बड़ी सेल का पर्दाफ़ाश किया था. अच्छे रिश्ते वाले आतंकवादी संगठनों या कभी कभी एक दूसरे के दुश्मन संगठन भी ऐसे साझा आतंकवादी हमले करते हैं. ये कोई अचरज की बात नहीं है. पाकिस्तान में भी ऐसे कई उदाहरण हैं जब दो या इससे ज़्यादा आतंकवादी संगठनों ने आतंकवादी हमलों की ज़िम्मेदारी ली, क्योंकि वो सभी उन हमलों में शामिल थे और इन हमलों की ज़िम्मेदारी लेना उनका हक़ बनता था.
ऐसे कई हमले जिसमें पाकिस्तान के आतंकी संगठनों जैश-ए-मुहम्मद या लश्कर-ए-तैयबा की छाप साफ़ दिखी थी, उनकी ज़िम्मेदारी हिज़्ब-उल-मुजाहिदीन जैसे ‘स्थानीय’ आतंकी संगठन संगठन ने ली.
किसी एक आतंकी संगठन के हमला करने और उसकी ज़िम्मेदारी किसी और द्वारा लेने की बातें भी असामान्य नहीं हैं. हम ऐसा जम्मू-कश्मीर में कई बार देख चुके हैं. ऐसे कई हमले जिसमें पाकिस्तान के आतंकी संगठनों जैश-ए-मुहम्मद या लश्कर-ए-तैयबा की छाप साफ़ दिखी थी, उनकी ज़िम्मेदारी हिज़्ब-उल-मुजाहिदीन जैसे ‘स्थानीय’ आतंकी संगठन संगठन ने ली. अफ़ग़ानिस्तान में भी ऐसा ही होते देखा गया है. ये बात संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की रिपोर्ट से साफ़ होती है, जिसमें लिखा है कि, ‘कुछ हमले जिनसे तालिबान इनकार करता है, उनकी ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट खुरासान (ISIL-K) ले लेता है और इसमें ये बात क़तई साफ़ नहीं हो पाती कि ये हमले पूरी तरह से हक़्क़ानी नेटवर्क ने किए थे या फिर उनमें इस्लामिक स्टेट खुरासान के आतंकवादी भी शामिल थे’.
हालांकि इस वक़्त इस्लामिक स्टेट खुरासान की चर्चा ज़्यादा हो रही है और तालिबान के गुनाहों पर पर्दा डाला जा रहा है. अमेरिका के विदेश विभाग के प्रवक्ता ने तो यहां तक कह दिया कि तालिबान और हक़्क़ानी नेटवर्क अलग अलग संगठन हैं. ज़ाहिर है कोशिश ये है कि इस्लामिक स्टेट खुरासान (ISKP) पर नियंत्रण स्थापित करने की पुरज़ोर कोशिश हो रही है. हालांकि ISKP के बहुत से गिरफ़्तार आतंकवादी उस वक़्त भाग निकले जब तालिबान ने जेलें खोल दी थीं. लेकिन, ख़बरें ऐसी भी हैं कि अब ISKP के आतंकवादियों को तालिबान में शामिल किए जाने की कोशिशें हो रही हैं. लेकिन, इससे पहले इस्लामिक स्टेट खुरासान के कई बड़े आतंकवादियों का सफ़ाया किया जा रहा है. इनमें खुरासान विलायत का पूर्व ‘गवर्नर’ अबू उमर खुरासानी शामिल है. हालांकि इस संगठन के लड़ाकों को इस शर्त पर माफ़ी देने का प्रस्ताव दिया जा रहा है कि वो तालिबान में शामिल हो जाएं, वरना उन्हें खोज-खोजकर मारा जाएगा.
आगे की राह
आगे चलकर तालिबान के साथ एक और छलावे वाला समझौता करने और उनसे इस्लामिक स्टेट खुरासान के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने की उम्मीद लगाकर, तालिबान को पैसों और संसाधनों से मज़बूत करने के बजाय अमेरिका और उसके सहयोगी देशों को इस बारे में नए सिरे से सोचना चाहिए. बेहतर होगा कि तालिबान को उनके ही हाल पर छोड़ दिया जाए. आतंकवाद का जो ज़हर तालिबान ने फैलाया, उसका अंजाम भुगतने के लिए तालिबान को उसके हाल पर छोड़ दिया जाए. किसी को ये नहीं भूलना चाहिए कि तालिबान ने उन्हीं तरीक़ों से हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतारा, जिनका इस्तेमाल इस्लामिक स्टेट खुरासान करता है. तालिबान में ऐसी कोई ख़ूबी नहीं है जो उन्हें ISKP से अलग करती हो. ऐसे में अगर अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने के बाद इस्लामिक स्टेट खुरासान फिर से सिर उठाता है, तो उठाने देना चाहिए. तालिबान को उनका सामना अपने संसाधनों और तौर-तरीक़ों से करने देना चाहिए. इससे तालिबान अपनी मुश्किलों के जाल में उलझे रहेंगे. एक दूसरे को मारते रहेंगे और आतंकवाद का ज़हर कहीं और नहीं फैलाएंगे. वैसे भी, अब जबकि अमेरिका, अफ़ग़ानिस्तान से निकल गया है, तो क्यों न तालिबान के समर्थकों- पाकिस्तान, रूस, चीन और यहां तक कि ईरान को इस समस्या से निपटने दिया जाए और उन्हें अपने पैदा किए हुए राक्षस से निपटने की क़ीमत चुकाने दी जाए.
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