शहरों को मूल रूप से धन सृजित करने वाली, रोजगार मुहैया कराने वाले और उद्योग को समर्थ बनाने के लिए अच्छा जीवन मुहैया कराने वाली आर्थिक इकाइयों के तौर पर देखा जाता है। हालांकि अनेक लोगों को एक साथ लाकर और उन्हें एक ही जगह रखकर मानवीय व्यवस्थाओं में सुधार लाने की अपनी विशेषता के कारण शहर सामाजिक परिवर्तन लाने में भी उत्कृष्ट भूमिका निभाते हैं। जाति प्रथा इन्हीं व्यवस्थाओं में से एक है। इसलिए शहरीकरण की प्रक्रिया को यदि नियोजित, सतत और समावेशी तरीके से अंजाम दिया जाए तो वह संभवत: भारत में सर्व-व्यापी उस जातिवाद के प्रभाव में कमी लाने में मददगार साबित हो सकती है, जो विश्व शक्ति के तौर पर भारत के उदय को कमजोर कर रहा है। इस तथ्य के बावजूद कि उदारवाद शहरी वातावरण में ज्यादा मजबूत होता है, भारतीय जन मानस में रची-बसी जाति संबंधी असमानताओं में विविध स्वरूपों में विकसित होने की प्रवृत्ति मौजूद है। लेकिन शहर समुदायों को व्यापक परिवर्तनशीलता और विविधताएं उपलब्ध कराते हैं, जहां रिश्ते केवल या प्राथमिक तौर पर जाति के आधार पर नहीं स्थापित किए जाते।
शहरीकरण की प्रक्रिया को यदि नियोजित, सतत और समावेशी तरीके से अंजाम दिया जाए तो वह संभवत: भारत में सर्व-व्यापी उस जातिवाद के प्रभाव में कमी लाने में मददगार साबित हो सकती है, जो विश्व शक्ति के तौर पर भारत के उदय को कमजोर कर रहा है।
स्थानीय जीवन दर्शन प्रस्तुत करने वाले और जातिप्रथा को फलने-फूलने के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराने वाले गांवों के विपरीत, शहरों के भीतर जाति को उसके सहज सामंती वातावरण से विहीन करने और उसे एक जीवंत, बहुआयामी और अस्थिर स्थिति में प्रस्तुत करने की एक सहज विशेषता होती है, जिसमें वह दम तोड़ सकती है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के अमित आहूजा का कहना है, “शहरीकरण जाति को कमजोर बनाता है”। उनका कहना है कि शहर में किसी व्यक्ति की पहचान का ‘अपेक्षाकृत गुमनाम होना’ सार्वजनिक क्षेत्र में ”शुद्धता और अपवित्रता के नियमों” के पालन और अनुपालन को मुश्किल बना देता है। शहर में, बस और ट्रेन जाति के आधार पर लोगों में फर्क नहीं करती। नौकरियां जाति के आधार पर नहीं, बल्कि अनुभव और काबिलियत के बल पर दी जाती हैं। शहर आजादी से परम्परागत जाति-आधारित काम-धंधों को छोड़ने की इजाजत देते हैं और शहरी कार्यस्थल पर जातियों को मिश्रित कर देते हैं। शैक्षणिक संस्थान, जाति की परवाह न करते हुए छात्रों को समान कक्षा में एक जैसे बेंचों पर बिठाते हैं।
नौकरियां जाति के आधार पर नहीं, बल्कि अनुभव और काबिलियत के बल पर दी जाती हैं। शहर आजादी से परम्परागत जाति-आधारित काम-धंधों को छोड़ने की इजाजत देते हैं और शहरी कार्यस्थल पर जातियों को मिश्रित कर देते हैं।
शहरों में सीखने और पढ़़ने के अपार अवसर मौजूद होते हैं, इसलिए लड़कियां और लड़के स्कूलों और कॉलेजों में ज्यादा समय बिताते हैं और शादी की उम्र को आगे धकेल दिया जाता है, ताकि वे नौकरियां पाने के लिए ज्यादा शिक्षा और तैयारी करने का मौका पा सकें। पढ़़ाई, कार्यस्थल, यात्रा, खाने-पीने की जगहों और सिनेमा घरों में सभी जातियों के लोग घुलने-मिलने के अवसर कई गुणा बढ़़ जाते हैं। इन अवसरों से रिश्तों को फलने-फूलने की गुजांयश उत्पन्न होती है, व्यक्तिगत स्तर पर निर्णय लेने-जीवन साथी चुनने — कई बार तो परिवार के बड़ों की सलाह के बगैर जीवन साथी चुनने की गुंजाईश उत्पन्न होती है।
उपरोक्त दावों को शहरों और शहरीकृत राज्यों से प्राप्त हो रहे आंकड़ों से बल मिल रहा है। यह सच है कि गांवों के लोगों को शहरों का रुख कर देने से जाति के सामाजिक पूर्वाग्रह एकाएक समाप्त नहीं हो जाते। यह शहरों तक पहुंचते हैं और शायद अलग-अलग आकारों में ढ़ल जाते हैं। लेकिन शहरों और उनकी मजबूरियों ने कई कारणों से जाति के बंधन को ढ़ीला कर दिया है। यह देखा गया है कि शहरी मध्यम वर्ग, जो कभी ऊपरी जातियों तक सीमित था, पिछड़ी जातियों और दलितों के नियमित प्रवेश के साथ ज्यादा वैविध्यपूर्ण होता गया। प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं की ओर से 2011 में किए गए अध्ययन के अनुसार, ऐसा पाया गया है कि सबसे ज्यादा अंतर-जातीय विवाह (17प्रतिशत) पश्चिमी क्षेत्र में हुए। शहरीकृत राज्यों (तमिलनाडु को छोड़कर) में मुख्य रूप से अपने समकक्ष ग्रामीण राज्यों से ज्यादा अंतर-जातीय विवाह हुए। मिसाल के तौर पर, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, पंजाब और हरियाणा ज्यादा शहरीकृत राज्य हैं, जहां क्रमश: 17.7 प्रतिशत, 13.7 प्रतिशत, 16.5 प्रतिशत, 22.5 प्रतिशत और 17.3 प्रतिशत अंतर-जातीय विवाह हुए; जबकि बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में क्रमश: 4.7 प्रतिशत, 8.6 प्रतिशत, 2.3 प्रतिशत और 3.5 प्रतिशत अंतर-जातीय विवाह हुए। यह संकेत स्वागत योग्य है और इस ओर इशारा करते हैं कि शहर अंतर-जातीय विवाहों में मदद करते हैं।
शहरों और उनकी मजबूरियों ने कई कारणों से जाति के बंधन को ढ़ीला कर दिया है। यह देखा गया है कि शहरी मध्यम वर्ग, जो कभी ऊपरी जातियों तक सीमित था, पिछड़ी जातियों और दलितों के नियमित प्रवेश के साथ ज्यादा वैविध्यपूर्ण होता गया।
विवाह से संबंधित बाजार इस बदलाव को प्रतिबिम्बित करते हैं। 1970 में, राष्ट्रीय दैनिकों में पिछड़ी जातियों और दलितों से संबंधित मात्र 1.5 प्रतिशत वैवाहिक विज्ञापन प्रकाशित हुए। वर्ष 2010 तक इनकी संख्या बढ़कर 10 प्रतिशत हो गई। शहरों में, जीवनसाथी की तलाश गांवों से भिन्न है। मध्यम वर्ग के लोग परिवार और जाति दायरों से बाहर निकलकर मित्रों और व्यवसायिक नेटवर्क्स का रुख कर गए। इसके अलावा, भारत में तेजी से बढ़ रहे स्मार्ट फोन और डिजिटल टेक्नोलॉजी के दौर इस प्रक्रिया में सफलतापूर्वक सहायता दे रहे हैं। आज, कुछ ऑनलाइन वैवाहिक वेबसाइट जाति को कम करके आंकते हुए पर्सनल प्रोफाइल्स को दर्शा रही हैं, जबकि नए डेटिंग एप्प जाति का उल्लेख करने की पुरानी प्रथा से दूर हटते जा रहे हैं। राज्य भी अंतर-जातीय जोड़ों को नकद पुरस्कार देकर अंतर-जातीय विवाहों को प्रोत्साहन दे रहे हैं।
जाति स्पष्ट तौर पर समाज को बांटने वाली सबसे कलुषित प्रथा है, जिसका भारतीयों ने सदियों से पालन करते रहे हैं। आज संवैधानिक और कानूनी तौर पर जाति का त्याग किया जा चुका है और उसे गैर कानूनी करार दिया जा चुका है। लेकिन उसकी जड़ें भारतीय समाज में इतनी गहराई तक समाई हुई हैं कि वह आज भी सामाजिक हकीकत है। भारत के बहुसंख्य नागरिक आज भी जाति पर यकीन करते हैं। ज्यादातर फैसले जाति के आधार पर किये जाते हैं। विवाह के मामले में यह ज्यादा स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है। काफी हिंसक रूप से अंतर-जातीय विवाहों का विरोध होता है और कुछ मामलों में तो झूठी आबरू बचाने के नाम पर हत्याएं यानी आनर किलिंग्स तक कर दी जाती हैं। जैसा कि डॉ. अम्बेडकर ने कहा था “जाति”, “एक मानसिक अवस्था है, इसलिए उसे केवल संवैधानिक उपायों से मिटाया नहीं जा सकता।” इस बात में कोई दो राय हो ही नहीं सकती कि इस खतरनाक प्रवृत्ति का प्रगति की राह पर बढ़ते भारत पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। इसलिए भारत की प्रगति के हित में यह बेहद महत्वपूर्ण है कि इसे पूरी तरह खत्म कर दिया जाए।
समाजशास्त्रियों के अनुसार भारतीय जाति प्रथा छह आधारों पर खड़ी है — समाज का वर्ग विभाजन, अनुक्रम, खानपान और सामाजिक मेल-जोल पर रोक, विभिन्न वर्गों की अक्षमताएं और विशेषाधिकार, बेरोक-टोक पेशे का चुनाव करने का अभाव और विवाह संबंधी रोक। समाजशास्त्रियों की दलील है कि इन छहों में से केवल विवाह संबंधी रोक अन्य पांचों पर हावी है। अंतर-जातीय विवाहों पर लगी रोक को हटाने से ही जाति प्रथा ताश के पत्तों की तरह ढ़ह जाएगी।
समाजशास्त्रियों के अनुसार भारतीय जाति प्रथा छह आधारों पर खड़ी है — समाज का वर्ग विभाजन, अनुक्रम, खानपान और सामाजिक मेल-जोल पर रोक, विभिन्न वर्गों की अक्षमताएं और विशेषाधिकार, बेरोक-टोक पेशे का चुनाव करने का अभाव और विवाह संबंधी रोक।
इसी कारण से डॉ. अम्बेडकर ने अंतर-जातीय विवाह का स्वागत किया है और इसे “क्रांतिकारी” करार दिया है, क्योंकि यह जाति की सबसे मौलिक विशेषता पर सीधे प्रहार करती है। यह विशेषता है सगोत्र विवाह, जिस पर जाति की इमारत खड़ी है। सगोत्र विवाह (यानी अपनी जाति में विवाह करना) पर हमला होते और उसके नष्ट होते ही, जाति प्रथा की पूरी किलेबंदी भरभरा कर गिर पड़ेगी। 1936 में, डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, “मुझे यकीन हो गया है कि अंतर-जातीय विवाह ही असली उपाय है। अकेले खून का मिश्रण ही निकट संबंधी होने की भावना उत्पन्न कर सकता है और जब तक सगोत्रता की यह भावना, सगे संबंधी होने की भावना, सबसे प्रबल नहीं हो जाती, जाति के कारण उपजी अलगाव की भावना-अजनबी होने की भावना खत्म नहीं होगी। जहां समाज पहले से ही अन्य संबंधों द्वारा आपस में गुथा हुआ होता है, वहां विवाह जीवन की एक सामान्य घटना होती है। लेकिन जहां समाज बंटा हुआ होता है, वहां विवाह सबको जोड़ने वाली ताकत के रूप में अनिवार्य आवश्यकता बन जाता है। जाति को तोड़ने का असली उपाय अंतर-जातीय विवाह है। और कुछ भी जाति को समाहित नहीं करेगा।”
लेकिन अंतर-जातीय विवाहों को बढ़ावा देना आसान नहीं है। नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकॉनोमिक रिसर्च (एनसीएईआर) और यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड द्वारा कुछ साल पहले कराए गए एक अध्ययन में पाया गया कि केवल पांच प्रतिशत भारतीयों ने ही अंतर-जातीय विवाह किए हैं। हाल ही पता चला है कि यह संख्या अब लगभग 10 प्रतिशत है। स्पष्ट तौर पर, जाति प्रथा का अंत निकट नहीं है और जातिवाद की समस्याएं सामाजिक और राजनीतिक जीवन में मज़बूती से बनी रहेंगी।
यह स्प्ष्ट हो चुका है कि जाति बहुत ही घिनौना विषाक्त है, जो अब तक ग्रामीण क्षेत्रों में मज़बूती से जड़े जमाए बैठा है और भारतीय समाज के पुरुषों और महिलाओं के जीवन को बर्बाद कर रहा है और भारतीय संविधान में प्रावधानों के बावजूद यह कायम है। यह जातिवाद भारतीय शहरों तक में दाखिल हो जाता है, लेकिन वहां इसे ऐसी प्रतिकूल स्थितियों से जूझना पड़ता है, जो जाति को कमजोर बनाने को प्रोत्साहन देती हैं। निश्चित तौर पर भारतीय शहर और बढ़ता शहरीकरण आशा की किरण हैं। देश में शहरीकरण को गति मिला है। निश्चित रूप से यह जातिगत व्यवस्था को ख़त्म करेगा।
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