Author : Prateek Tripathi

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jul 23, 2024 Updated 3 Hours ago

जिस रफ़्तार से स्वायत्त वाहन और हथियार बढ़ रहे हैं, उसे देखते हुए ये आवश्यक है कि इनसे निपटने के व्यावहारिक उपाय तलाशे जाएं. निर्देशित ऊर्जा वाले हथियार इसका एक विकल्प हो सकते हैं.

क्या हम संचालित ऊर्जा के युग में पहुंच चुके हैं?

निर्देशित ऊर्जा हथियारों (DEWs) को लेकर रुचि तो बहुत पहले से थी लेकिन इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति अब हुई है. अमेरिकी सरकार DEWs पर पिछले कई वर्षों से अरबों डॉलर का निवेश कर रही थी, लेकिन आखिरकार अब जाकर इस तकनीकी के कुछ फायदा मिलने के आसार नज़र रहे हैं. अब तक विज्ञान कथाओं के दायरे तक सीमित रहने वाले ये हथियार अब वास्तविकता का रूप लेने जा रहे हैं. भारत भी डीईडब्ल्यू पर निवेश कर रहा है. इन हथियारों की अहमियत अब और भी बढ़ गई है क्योंकि ये पता चला है कि DEWs मानव रहित हवाई प्रणाली (UAS) और संभावित रूप से हाइपरसोनिक हथियारों से निपटने के कारगर और व्यावहारिक विकल्प साबित हो सकते हैं.

 

निर्देशित ऊर्जा हथियार क्या हैं?

अमेरिकी रक्षा विभाग (DOD)के मुताबिक निर्देशित ऊर्जा हथियारों में कॉन्सेन्ट्रेटेड इलेक्ट्रोमैग्नेटिक एनर्जी (CEME) का इस्तेमाल किया जाता है जबकि पारंपरिक हथियार काइनेटिक एनर्जी से संचालित होते हैं. यानी निर्देशित ऊर्जा हथियार दुश्मन के उपकरणों, सुविधाओं या फिर शत्रुओं को अशक्त करने, नुकसान पहुंचाने, निष्क्रिय और नष्ट करने के लिए CEM ऊर्जा का उपयोग करते हैं. खास बात ये है कि इस्तेमाल किए जाने वाले इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम के आधार पर अलग-अलग DEWs हासिल किए जा सकते हैं. इनमें सबसे प्रमुख हथियार हैं उच्च ऊर्जा वाले लेज़र (HEL) और हाई पावर्ड माइक्रोवेव (HPM). हालांकि पार्टिकल बीम जैसे दूसरे निर्देशित ऊर्जा हथियार भी हैं, लेकिन ये अभी विकास के शुरुआती चरण में हैं.

निर्देशित ऊर्जा हथियार दुश्मन के उपकरणों, सुविधाओं या फिर शत्रुओं को अशक्त करने, नुकसान पहुंचाने, निष्क्रिय और नष्ट करने के लिए CEM ऊर्जा का उपयोग करते हैं. खास बात ये है कि इस्तेमाल किए जाने वाले इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम के आधार पर अलग-अलग DEWs हासिल किए जा सकते हैं. 

जब से रेडियो तरंगों का आविष्कार हुआ है, तभी से विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम फ्रीक्वेंसीज़ का सैन्य क्षेत्र में इस्तेमाल हो रहा है. उसी के बाद रडार का भी विकास हुआ. ये उस चीज़ का हिस्सा है, जिसे हम आम तौर पर "इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर" के रूप में जानते हैं. इस प्रणाली में कम्युनिकेशन रिसीवर को जाम करना या धोखा देना, रडार और मिसाइल का पता लगाने वाले उपकरण भी शामिल हैं. DEWs के साथ फायदा ये है कि इससे इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर की सीमा को काफी विस्तार दिया जा सकता है. बंदूक और मिसाइल जैसे काइनेटिक हथियार तो अपनी जगह हैं ही.

हाई पावर्ड माइक्रोवेव्स (HPMs)की तुलना में उच्च ऊर्जा वाले लेज़र्स की मारक क्षमता दूर तक होती है, साथ ही वो तेज़ी से चल रहे लक्ष्य को भेद सकता है, लेकिन इसकी कमी ये है कि एक वक्त पर ये एक ही टारगेट पर हमला कर सकता है. दूसरी तरफ एचएमपी की रेंज काफी व्यापक होती है. वो एक साथ कई लक्ष्यों को निशाना बना सकते हैं. बस शर्त ये है कि ये टारगेट कवरेज सीमा के अंदर हों. इसका अर्थ ये हुआ कि HELs को मिसाइल, सेटेलाइट और ऑप्टिकल सेंसर जैसे एकल लक्ष्यों पर हमला करने के लिए, जबकि HPMs को झुंड में आने वाले ड्रोन्स और मिसाइलों की बौछार को नाकाम करने में इस्तेमाल किया जा सकता है. इसके अलावा इनकी मदद से दुश्मन के इलेक्ट्रॉनिक और संचार प्रणाली को भी निष्क्रिय किया जा सकता है.

हालांकि इसे लेकर अभी कोई आम राय नहीं है कि अलग-अलग टारगेट को बेअसर करने के लिए इन DEWs को सटीक तौर पर कितनी शक्ति चाहिए लेकिन माना जा रहा है कि 100 kW (किलोवाट) की HELs मानव रहित विमान प्रणाली, छोटी नाव, रॉकेट, तोपखाने और मोर्टार को नष्ट कर सकता है. इसी तरह 300 kW पावर वाली HELs कुछ प्रोफाइल्स में उड़ने वाले क्रूज़ मिसाइल्स (यानी जो मिसाइल लेज़र की तरफ नहीं बल्कि उसके पार उड़ रही है)को रोक सकती है या नष्ट कर सकती है. एक मेगावाट वाली लेज़र बैलेस्टिक मिसाइल और हाइपरसोनिक हथियारों को नष्ट कर सकती है.

 

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वैश्विक परिदृश्य

 

अमेरिका


अमेरिका में DEWs के विकास में तेज़ी 1980 के दशक में रोनाल्ड रीगन प्रशासन के दौरान आई. उन दिनों अमेरिकी अपनी रणनीतिक पहल के तहत ये कोशिश कर रहा था कि वो सोवियत संघ की मिसाइलों का मुक़ाबला करने के लिए ज़्यादा शक्तिशाली लेज़र हथियार बनाए. बाद में इसे "स्टार वार्स" कहा गया. ये पहल कामयाब नहीं रही और बहुत महंगी विफलता साबित हुई. लेकिन इसने भविष्य में DEWs के विकास के लिए एक आधार तैयार कर दिया

अमेरिकी रक्षा विभाग के डायरेक्टेड एनर्जी मैप में जो खाका तैयार किया गया है, उसमें वित्त वर्ष 2025 तक DEWs के पावर लेवल को 500 किलोवाट तक करना है. ये पावर लेवल अभी 150 किलोवाट है क्योंकि फिलहाल यही व्यावहारिक है.


हाल के वर्षों में अमेरिकी रक्षा विभाग (DoD) DEWs के विकास में हर साल औसतन एक अरब डॉलर खर्च कर रहा है, खास तौर पर HELs और HPMs के विकास में. वित्त वर्ष 2025 के लिए अमेरिकी रक्षा विभाग ने अवर्गीकृत DEW प्रोग्राम के लिए करीब 789.7 मिलियन डॉलर की मांग की है, जबकि पहले उसने इसके लिए 962.4 मिलियन डॉलर का अनुरोध किया था. इसके साथ ही वित्त वर्ष 2024 के लिए एक अरब डॉलर विनियोजित भी किए गए. अमेरिकी रक्षा विभाग के डायरेक्टेड एनर्जी मैप में जो खाका तैयार किया गया है, उसमें वित्त वर्ष 2025 तक DEWs के पावर लेवल को 500 किलोवाट तक करना है. ये पावर लेवल अभी 150 किलोवाट है क्योंकि फिलहाल यही व्यावहारिक है. इसका आकार और वजन भी कम किया जाएगा. वित्त वर्ष 2026 तक रक्षा विभाग का लक्ष्य इसके आकार और वजन को और घटाना है जबकि पावर लेवल एक मेगावाट तक ले जाना है. डायरेक्टेड एनर्जी रोडमैप के अलावा इंजीनियरिंग और रिसर्च के अंडर सेक्रेट्री का ऑफिस हाई एनर्जी लेज़र स्केलिंग इनीशिएटिव (HELSI) का भी प्रबंधन करता है. इसका उद्देश्य रक्षा और उद्योग जगत के आधार को मज़बूत करना और कारोबारी साझेदारों को भविष्य के संभावित DEWs के प्रोटोटाइपिंग के मौके मुहैया कराना है.

 

तैनात किए गए DEW 

 

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हालांकि अभी इनकी संख्या काफी कम है. नौसेना के विध्वंसक में 8 ODINs हैं. लैंडिंग प्लेटफॉर्म डॉक पर एक HELIOS, एक सॉलिड स्टेट लेज़र, एक अज्ञात स्थान पर 5 CLaWs, 3 HELWS और एक THOR हैं. यानी कुल मिलाकर 19 DEWs हैं.

चीन

चीन भी 1980 के दशक की शुरुआत से DEWs के विकास पर काम कर रहा है. कहा जा रहा है कि चीन ने 30 किलोवाट का रोड मोबाइल और LW–30 विकसित कर लिया है, जिसे यूएएस और सटीक निर्देशित हथियारों का मुक़ाबला करने के लिए तैयार किया गया है. रिपोर्ट्स के मुताबिक चीन एक एयरबोर्न एचईएल पॉड भी तैयार कर रहा है. अमेरिकी सुरक्षा खुफिया एजेंसी के मुताबिक चीन पहले ही सीमित क्षमता वाले HELs को विकसित कर चुका है. ये लो-ऑर्बिट वाले अंतरिक्ष आधारित सेंसर का मुक़ाबला कर सकते हैं. इसके अलावा चीन के पास ऐसे DEW सिस्टम भी हो सकते हैं जो 2020 के दशक के मध्य और बाद में बने नॉन ऑप्टिकल सेटेलाइट्स के लिए ख़तरा पैदा कर सकते हैं.

रूस

रूस तो 1960 के दशक से ही निर्देशित ऊर्जा हथियारों पर रिसर्च कर रहा है. रूस का ज़ोर HELs के विकास पर है. कहा जा रहा है कि रूस ने कई मोबाइल अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल इकाइयों के साथ पेरेसवेट ग्राउंड-आधारित एचईएल को तैनात किया है. हालांकि पेरेसवेट के बाद में सार्वजनिक रूप से बहुत कम जानकारी है. इसके पावर लेवल के बारे में भी पता नहीं है. लेकिन कुछ विश्लेषकों का कहना है कि इसमें सेटेलाइट्स का चकाचौंध करने और यूएएस से सुरक्षा देने की क्षमता है. रूस के उप रक्षा मंत्री एलेक्सी क्रिवोरुचको ने कहा है कि पेरेसवेट का पावर लेवल बढ़ाने और इसे सैन्य विमानों पर तैनात करने की कोशिशें चल रही हैं. कुछ रिपोर्ट्स में ये भी दावा किया गया है कि रूस एचपीएम के साथ-साथ एंटी सैटेलाइट मिशन करने की क्षमता वाले अतिरिक्त एचईएल भी विकसित कर सकता है.

जनवरी 2024 में ब्रिटेन ने ड्रैगरफायर HEL हथियार का सफलतापूर्वक परीक्षण किया. इसे विकसित करने में ब्रिटेन ने करीब 100 मिलियन पाउंड का निवेश किया है. 2 अक्टूबर 2023 को हमास के हमले के बाद इज़रायल ने भी अपने आयरन बीम लेज़र हथियार के काम में तेज़ी लाने का फैसला किया है.

DEWs पर अन्य देशों की क्या स्थिति है?

जनवरी 2024 में ब्रिटेन ने ड्रैगरफायर HEL हथियार का सफलतापूर्वक परीक्षण किया. इसे विकसित करने में ब्रिटेन ने करीब 100 मिलियन पाउंड का निवेश किया है. 2 अक्टूबर 2023 को हमास के हमले के बाद इज़रायल ने भी अपने आयरन बीम लेज़र हथियार के काम में तेज़ी लाने का फैसला किया है. ये हथियार इज़रायल की तरफ आने वाले ड्रोन्स और रॉकेटों को मार गिरा सकेंगे. इसके साथ ही वो आयरन डोम मिसाइल रक्षा प्रणाली के काइनेटिक इंटरसेप्टर को भी मज़बूत बनाएंगे. फ्रांस, तुर्किए, ईरान, साउथ कोरिया और जापान जैसे देश भी अपने-अपने DEW प्रोग्राम पर निवेश कर रहे हैं.

 

भारत की तरफ से की जा रही पहल

 हालांकि भारतीय सेना ने इसे लेकर कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की है लेकिन कई स्रोतों ने इस बात को कहा है कि DEWs भारत के रक्षा प्रतिष्ठान का हिस्सा हैं. DEWs में भारत की इंट्रीत्रिनेत्रनाम की वर्गीकृत परियोजना से हुई. इसे दिल्ली में स्थित लेज़र साइंस और टेक्नोलॉजी केंद्र (LASTEC) द्वारा कार्यान्वित किया गया. 2001 में LASTEC में हिंडन एयरबेस पर इस प्रौद्योगिकी का प्रदर्शन किया. यहां 100 किलोवाट की लेज़र बीम के सहारे स्टील से बने टारगेट पर निशाना साधकर उसे पूरी तरह नष्ट कर दिया गया. 2018 के बाद से LASTEC के काम को धीरे-धीरे चंडीगढ़ में CHESS और टर्मिनल बैलिस्टिक रिसर्च प्रयोगशाला (TBRL) के बीच बांट दिया गया है. टीबीआरएल के काम को बाद में देहरादून स्थित इंस्ट्रूमेंट रिसर्च और डेवलपमेंट एस्टेब्लिशमेंट (IRDE) को सौंप दिया गया.

रक्षा शोध और अनुसंधान संगठन (DRDO) और हैदराबाद स्थित इसकी सहायक संस्था सेंटर फॉर हाई एनर्जी सिस्टम और साइंस (CHESS) DEWs के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं. भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर (BARC) और आर्मी डिज़ाइन ब्यूरो (ADB) भी DEW को विकसित करने के अलग-अलग प्रोग्रामों में शामिल हैं. भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (BEL) को इन हथियारों के निर्माण और आपूर्ति की जिम्मेदारी सौंपी गई है. BEL ने 2 किलोवाट लेज़र आधारित DEW को बनाने में सफलता हासिल की है. इसकी मदद से ड्रोन, यूएएस जैसे नए, एसिमेट्रिक और विघटनकारी ख़तरों का मुक़ाबला किया जा सकता है. कुछ रिपोर्ट्स से ये भी सामने आया है कि KALI (किलो एम्पीयर लीनियर इंजेक्टर) और दुर्गा (डायरेक्शनली अनरिस्ट्रिक्टेड रे-गन ऐरे) जैसे क्लासिफाइड प्रोग्राम के उत्पादों को पहले ही सशस्त्र सेनाओं में शामिल किया जा चुका है

 

निष्कर्ष 

 

जिस रफ़्तार से स्वायत्त वाहन और हथियार बढ़ रहे हैं, उसे देखते हुए ये आवश्यक है कि इनसे निपटने के व्यावहारिक उपाय तलाशे जाएं. इस संदर्भ में निर्देशित ऊर्जा वाले हथियार इसका एक विकल्प हो सकते हैं. हालांकि इस क्षेत्र में विकास काफी धीमा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसने रफ्तार पकड़ी है. भारत भी इस प्रौद्योगिकी में निवेश कर रहा है और उसने ठीक ठाक प्रगति की है. फिर भी काफी कुछ किया जाना बाकी है. पड़ोसी देश चीन से जिस तरह लगातार ख़तरा बना हुआ है. चीन ने व्यापक तकनीकी प्रगति हासिल कर ली है. इसे देखते हुए भारत को अपनी रक्षा चुनौतियों से निपटने के लिए हर वक्त तैयार रहना चाहिए. फिर चाहे ये ख़तरा स्वायत्त हथियारों से हो या हाइपरसोनिक हथियारों से. इनसे निपटने के लिए निर्देशित ऊर्जा हथियार एक विकल्प हो सकते हैं.


प्रतीक त्रिपाठी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं.

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