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टोक्यो और सियोल के बीच 12 वर्षों के बाद इसी साल मार्च के महीने में पहली द्विपक्षीय बैठक आयोजित हुई थी, जो स्पष्ट तौर पर यह दिखाती है कि जापान और दक्षिण कोरिया सक्रियता के साथ अपने द्विपक्षीय रिश्तों को न सिर्फ़ सुधारना चाहते हैं, बल्कि उन्हें आगे भी बढ़ाना चाहते हैं. निष्पक्षता के साथ जापान और दक्षिण कोरिया के बीच अतीत के संबंधों के मद्देनज़र और इसी तरह से नज़दीकी बढ़ाने को लेकर पहले भी किए जा चुके कई नाक़ाम प्रयासों के रिकॉर्ड को देखते हुए यह मान लेना किसी भी लिहाज़ से उचित नहीं होगा कि मार्च में इनकी द्विपक्षीय बैठक लंबे वक़्त से चले आ रहे राजनयिक गतिरोध के समाप्त होने का स्पष्ट संकेत है. हालांकि, जिन भू-राजनीतिक परिस्थितियों के बीच दोनों देश में मुलाक़ात हुई थी, वो इनके पारस्परिक संबंधों में सुधार की दिशा में एक मज़बूत उत्प्रेरक साबित हो सकती हैं.
जापान और कोरिया के आपसी संबंध उन विवादों और तनावों से भरे इतिहास से प्रभावित रहे हैं, जो कि कई शताब्दियों पहले हुए थे. इन देशों की भौगोलिक रुप से नज़दीकी, सांस्कृतिक एकरूपता और दोनों पक्षों द्वारा संबंधों में सुधार के लिए समय-समय पर की गई कोशिशों के बावज़ूद, ख़ास तौर पर हाल के वर्षों में दोनों के बीच आर्थिक सहयोग समेत, उच्च स्तरीय राजनयिक बैठकों में, दोनों देशों ने अपने द्विपक्षीय संबंधों को लेकर तमाम तरह की चुनौतियों का अनुभव किया है. क्षेत्रीय विवाद से जुड़े मसले,जैसे कि डोक्डो/ताकेशिमा द्वीप का मुद्दा, जापान के उपनिवेशी शासन के पीड़ितों के लिए मुआवज़ा, दोनों देशों के बीच सबसे विवादास्पद विषय रहा है. इसकी वजह यह है कि कई कोरियाई पीड़ितों को महसूस होता है कि टोक्यो ने अतीत में किए गए अपने अन्याय एवं अत्याचार को स्वीकारने और उसके लिए माफ़ी मांगने की दिशा में पर्याप्त उपाय नहीं किए हैं. सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो 2018 का वर्ष बेहद चुनौतीपूर्ण साबित हुआ, जब दक्षिण कोरियाई सुप्रीम कोर्ट ने जापानी कंपनियों, निप्पॉन स्टील एवं मित्सुबिशी हेवी इंडस्ट्रीज़ को जबरन मज़दूरी वाले कोरियाई पीड़ितों को मुआवज़ा देने के लिए अपनी संपत्ति बेचने का आदेश दिया. कोरियाई कोर्ट के इस आदेश का जापान द्वारा विरोध किया गया था और जवाबी कार्रवाई करते हुए टोक्यो की तरफ से वर्ष 2019 में निर्यात प्रतिबंध लगाए गए थे. इस कार्रवाई ने दोनों देशों के बीच तल्ख़ द्विपक्षीय रिश्तों की कटुता को और तेज़ कर दिया था.
इस सबके बावज़ूद, पांच साल बाद, यून-किशिदा की मीटिंग हुई और इसके फलस्वरूप दोनों पक्ष द्विपक्षीय दौरों को फिर से शुरू करने, व्यापार से जुड़े विवादों को हल करने के लिए क़दम उठाने, सुरक्षा सहयोग बढ़ाने और व्यापक व्यापारिक संबंध स्थापित करने पर राजी हुए. यह बैठक उस समय हुई, जब हाल के वर्षों में प्योंगयांग द्वारा अपने परमाणु हथियार कार्यक्रम को आगे बढ़ाने और भारत-प्रशांत समुद्री क्षेत्र में चीन की प्रगति और आक्रामकता के चलते भू-रणनीतिक और भू-आर्थिक अनिश्चितता में बढ़ोतरी दर्ज़ की जा रही है. देखा जाए तो इन गतिविधियों के मुताबिक़ पहले भी क्षेत्रीय सुरक्षा परिदृश्य का बखान किया जा चुका है, लेकिन अब पूरे क्षेत्र में हो रही उथल-पुथल की तीव्रता और महत्व को फिर से परिभाषित किया गया है. इसलिए, जापान और रिपब्लिक ऑफ कोरिया (ROK) दोनों ने महसूस किया है कि वे पिछले ज़ख्मों को कुरेदने के बजाए, सभी विवादों को दरकिनार करके ही पारस्परिक लाभ हासिल कर सकते हैं.
द्विपक्षीय बैठक के बाद, हाल ही में हिरोशिमा में संपन्न G7 समिट में सियोल को जापान की आउटरीच मीटिंग्स के लिए एक ऑब्ज़र्वर के रूप में आमंत्रित किया गया था, जहां दोनों देशों के बीच एक बार फिर द्विपक्षीय मुलाक़ात हुई, जो कि दो महीने के भीतर तीसरी बैठक थी. हिरोशिमा में, दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यून और जापानी प्रधानमंत्री किशिदा ने द्विपक्षीय रिश्तों की प्रगति पर चर्चा की, जिसमें अंतर-क्षेत्रीय हवाई मार्गों को खोलना और चीन, रूस एवं उत्तर कोरिया से पैदा होने वाले क्षेत्रीय सुरक्षा ख़तरों को दूर करने के लिए एक साथ काम करने की ज़रूरत को दोहराते हुए दोनों देशों के बीच पीपुल-टू-पीपुल आदान-प्रदान का विस्तार शामिल है. जहां तक द्विपक्षीय सुरक्षा सहयोग के संबंध की बात है, तो दोनों देश प्योंगयांग को लेकर अपने एक समान दृष्टिकोण के रूप में नई मिसाइल रक्षा प्रणाली विकसित करने और ख़ुफ़िया जानकारी साझा करने एवं प्रतिबंधों को समायोजित करने के लिए मिलकर काम करके अपने सुरक्षा सहयोग को मज़बूती देने पर सहमत हुए.
दक्षिण कोरिया और जापान को क़रीब लाने के कई साझा कारण हैं. जैसे कि अस्थिर उत्तर कोरिया, ताइवान और आस-पास के पूरे इलाक़े में बीजिंग की आक्रामकता और उसका बढ़ता दबदबा, बेहद जटिल और अनिश्चित क्षेत्रीय भू-राजनीति एवं औद्योगिक आपूर्ति श्रृंखलाओं में अवरोध, उन कई कारणों में शामिल हैं, जिनकी वजह से दोनों देश एक ऐसा अनुकूल कामकाजी माहौल बनाने की कोशिश में जुटे हुए हैं. जहां दोनों अधिक सक्रिय ढंग से अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सकें. यह भी एक सच्चाई है कि दोनों देशों की अगुवाई अमेरिका समर्थक नेताओं द्वारा की जा रही है और इसने भी दोनों देशों के नज़दीक आने का मार्ग प्रशस्त किया है.
ROK और जापान की घनिष्ट मित्रता इंडो-पैसिफिक रीजन के देशों के लिए क्षेत्रीय सुरक्षा के साथ-साथ कार्य-आधारित साझेदारी की प्रभावशीलता को व्यापक तौर पर बढ़ाएगी. दोनों देशों ने द्विपक्षीय व्यापार को बहाल करने पर भी चर्चा की है, जो कि वैश्विक हाई-टेक आपूर्ति श्रृंखलाओं के दबाव से राहत प्रदान करेगा. वॉशिंगटन के लिए यह समझना बहुत आसान है कि सियोल और टोक्यो क्षेत्रीय अशांति को देखते हुए सामंजस्य स्थापित करना चाहेंगे. ऐसे में जबकि कई कोरियाई और जापानी नागरिक भी ऐसा ही महसूस करते हैं, लेकिन कोरियाई श्रमिक पीड़ितों का मानना है कि इस तरह का नज़रिया उनकी वेदना के प्रति उपेक्षा और अनादर दोनों को दिखाता है.
दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यून ने नेतृत्व ग्रहण करने के बाद से ही जापान के साथ टूटे हुए द्विपक्षीय रिश्तों को सुधारने को प्राथमिकता दी और वे उसी दिशा में निरंतर काम भी कर रहे हैं. एक प्रकार से यह क्षेत्रीय स्तर पर और वैश्विक स्तर पर दक्षिण कोरिया के लिए अधिक विस्तारित भूमिका तराशने और विकसित करने के उनके अभियान का हिस्सा है. यून और किशिदा दोनों को यह सुनिश्चित करने के लिए कि उनकी यह नई इच्छा और अपसी संबंधों में जो तेज़ी आई है, वो प्रभावित न हो, जापान के युद्धकालीन श्रमिक पीड़ितों के मुआवज़े के मुद्दे को लेकर एक स्थाई और सार्थक समाधान निकालना चाहिए. यदि दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति यून व्यापक रूप से फैले इस असंतोष को प्रभावी तरीक़े से संभाल लेते हैं, तो जापान के साथ प्रगाढ़ राजनीतिक और कूटनीतिक संबंध न केवल दोनों देशों के लिए लाभदायक सिद्ध होंगे, बल्कि नॉर्थ ईस्ट एशिया और भारत-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा संरचना को मज़बूत करने में भी कारगर साबित होंगे. जापान और दक्षिण कोरिया के बीच सहयोग, क्षेत्र के अन्य देशों के बीच विश्वास बनाने में भी मदद कर सकता है. हालांकि, यह भी सच है कि ऐसा नहीं होने पर दोनों देशों के नज़दीकी द्विपक्षीय रिश्तों में हमेशा दरार पैदा होने का ज़ोख़िम बना रहेगा. अगर जापान और दक्षिण कोरिया के बीच संबंधों को बिगड़ने से रोक लिया जाता है, तो निश्चित तौर पर इनकी यह जुगलबंदी हिंद-प्रशांत क्षेत्र में साझेदारियों के विकास के लिए एक महत्त्वपूर्ण आधार बन सकती है.
प्रत्नाश्री बसु ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के CNED प्रोग्राम में एसोसिएट फेलो हैं.
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Pratnashree Basu is an Associate Fellow, Indo-Pacific at Observer Research Foundation, Kolkata, with the Strategic Studies Programme and the Centre for New Economic Diplomacy. She ...
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