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श्रीलंका के लिए भारत, जापान, रूस और चीन से सहायता पश्चिमी देशों की मदद के मुक़ाबले ज़्यादा व्यावहारिक है क्योंकि इनके साथ राजनीतिक शर्तें जुड़ी हैं.
श्रीलंका में हर रोज़ ज़रूरी सामानों, ख़ास तौर पर ईंधन, दवाई और खाद्य, की कमी की ख़बरों के बीच परेशानियों से घिरे प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की तरफ़ से भारत, चीन और जापान के साथ मिलकर मदद से जुड़े सम्मेलन की योजना के ऐलान को मीडिया में ज़रूरत के मुताबिक़ जगह नहीं मिली. विक्रमसिंघे ने पहले आईएमएफ केंद्रित ‘सहायता समूह’ का प्रस्ताव दिया था लेकिन मानवाधिकार को लेकर श्रीलंका पर निशाना साधने वाले पश्चिमी देशों के मनमाने रवैये की वजह से इसमें दिक़्क़त आ सकती है. ऐसे में भारत केंद्रित एक और समूह इसका जवाब हो सकता है जिसमें चीन, रूस और कुछ पश्चिमी देश भी शामिल होंगे.
पिछले दिनों प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने संसद में कहा कि, “हमें भारत, जापान और चीन, जो ऐतिहासिक रूप से हमारे सहयोगी हैं, के समर्थन की ज़रूरत है. इन देशों को शामिल करके हम एक सहायता सम्मेलन आयोजित करने की योजना बना रहे हैं ताकि श्रीलंका के संकट का समाधान किया जा सके.” विक्रमसिंघे ने आगे ये भी कहा कि श्रीलंका के दौरे पर आई अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की टीम के साथ बातचीत भी अच्छी रही. लेकिन आईएमएफ की अपेक्षित शर्तों का सामाजिक, राजनीतिक और आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर असर पड़ सकता है.
प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने संसद में कहा कि, “हमें भारत, जापान और चीन, जो ऐतिहासिक रूप से हमारे सहयोगी हैं, के समर्थन की ज़रूरत है. इन देशों को शामिल करके हम एक सहायता सम्मेलन आयोजित करने की योजना बना रहे हैं ताकि श्रीलंका के संकट का समाधान किया जा सके.”
स्वतंत्र रूप से श्रीलंका की सरकार ने “कर्ज़ नवीनीकरण की रूप-रेखा पर बातचीत शुरू” कर दी है. सरकार को उम्मीद है कि जुलाई तक ये काम पूरा हो जाएगा. श्रीलंका के द्वारा 51 अरब अमेरिकी डॉलर के विदेशी कर्ज़ के मामले में डिफॉल्ट के साथ ही कुछ बड़े कर्ज़दाताओं, जिनमें अमुंडी एसेट मैनेजमेंट, ब्लैकरॉक, एचबीके कैपिटल मैनेजमेंट, मॉर्गन स्टैनली इन्वेस्टमेंट मैनेजमेंट और टी. रोवे प्राइस एसोसिएट्स शामिल हैं, ने बातचीत के लिए एक समूह का गठन किया है. इन कर्ज़दाताओं ने एक बयान में कहा कि, “उनका समूह मोटे तौर पर श्रीलंका की बॉन्ड धारण करने वाली बुनियाद, संस्थागत और भौगोलिक- दोनों तरीक़े से, का प्रतिनिधित्व करता है.”
इन सबके बीच कैरिबियाई आइलैंड के सेंट किट्स एड नेविस आधारित एक अमेरिकी बॉन्ड होल्डर हैमिल्टन रिज़र्व बैंक लिमिटेड ने न्यूयॉर्क के फेडरल कोर्ट में एक केस दायर किया है जिसमें ब्याज़ समेत पूरे भुगतान की मांग की गई है. हैमिल्टन रिज़र्व बैंक लिमिटेड ने राजपक्षे परिवार समेत श्रीलंका सरकार के नेताओं पर राजकोषीय लापरवाही और भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है. साथ ही ये आरोप भी लगाया है कि बकाया रक़म को लेकर ब्याज़ के साथ घरेलू कर्ज़ के भुगतान के सरकारी फ़ैसले में पक्षपात किया गया है.
श्रीलंका में जिस चिंता की चर्चा नहीं हो रही है, वो ये है कि क्या हैमिल्टन रिज़र्व का मामला सिर्फ़ बैंक के व्यावसायिक हितों की रक्षा करने के लिए है या कुछ ऐसा भी है जो दिख नहीं रहा है. ये विशेष रूप से कई मुद्दों, जैसे कि ‘चीन का मुद्दा’, यूएनएचआरसी की जांच और राष्ट्रपति गोटाबाया के पद छोड़ने से जुड़ी उम्मीदों, को लेकर अमेरिकी राजनीतिक दबाव के सामने श्रीलंका के मान जाने को लेकर है. वैसे गोटाबाया ने अपने इरादे जता दिए हैं कि वो अपना पद नहीं छोड़ेंगे लेकिन ये वादा भी किया है कि दूसरे कार्यकाल के लिए दावेदारी पेश नहीं करेंगे.
संसद में अपने भाषण के दौरान प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने ये भी दोहराया कि श्रीलंका अमेरिका से भी मदद मांगेगा. उनके इस बयान के बाद मदद को लेकर पहले से तय बातचीत करने के लिए अमेरिका का एक प्रतिनिधिमंडल श्रीलंका आया. इस दौरे के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जर्मनी में जी-7 शिखर वार्ता के दौरान 20 मिलियन अमेरिकी डॉलर की अतिरिक्त मदद का ऐलान किया. अब जिसे ‘योजनाबद्ध सहायता’ कहा जा सकता है, इसके तहत मिली अमेरिकी मदद से अगले 15 महीनों तक 8,00,000 बच्चों के लिए पोषण कार्यक्रम चलाया जाएगा और 27,000 गर्भवती एवं दूध पिलाने वाली माताओं को ‘फूड वाउचर’ दिया जाएगा. इससे 30,000 किसानों को भी मदद दी जाएगी ताकि वो खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ा सकें.
कोलंबो में नियुक्त यूरोपीय संघ (ईयू) के देशों के दूतों ने राष्ट्रपति गोटाबाया से मिलकर अनुरोध किया कि वो उन्हें ‘श्रीलंका का दोस्त’ समझें. श्रीलंका के मौजूदा आर्थिक संकट के बीच उन्होंने मदद का भरोसा भी दिया. रूस के राजदूत यूरी मेतेरी के साथ बातचीत के बाद श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना ने कहा कि रूस ने ‘उर्वरक और ईंधन की कमी दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने’ का प्रस्ताव दिया है.
हैमिल्टन रिज़र्व बैंक लिमिटेड ने राजपक्षे परिवार समेत श्रीलंका सरकार के नेताओं पर राजकोषीय लापरवाही और भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है. साथ ही ये आरोप भी लगाया है कि बकाया रक़म को लेकर ब्याज़ के साथ घरेलू कर्ज़ के भुगतान के सरकारी फ़ैसले में पक्षपात किया गया है.
पश्चिमी देशों के द्वारा राष्ट्रपति गोटाबाया और प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे की तरफ़ से तुरंत मदद के लिए बार-बार की खुली अपील पर उतना ध्यान नहीं दिए जाने के बाद श्रीलंका की सरकार ने रियायती शर्तों पर ईंधन की आपूर्ति के लिए अलग-अलग मंत्रिस्तरीय दलों को रूस और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) भी भेजा है. ये क़दम तब उठाया गया जब प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने सफ़ाई दी कि वो रूस से तेल हासिल करने के ख़िलाफ़ नहीं थे जिसने एक बार में 90,000 टन कच्चे तेल की सप्लाई की. रूस ने ये सप्लाई श्रीलंका के एक कोर्ट के उस विवादित आदेश से पहले की थी जिसके तहत कोलंबो में एयरोफ्लोट के कमर्शियल एयरक्राफ्ट को ज़ब्त करने का निर्देश दिया गया था. इसकी वजह से पिछले दिनों दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध तनावपूर्ण हो गए.
विक्रमसिंघे ने कहा है कि श्रीलंका की सरकार चीन, जो कि 2009 में जातीय युद्ध ख़त्म होने के बाद के दशक में श्रीलंका को सहायता के नाम पर विवादों में घिरा रहने वाला देश है, के साथ कर्ज़ नवीनीकरण पर चर्चा करेगी. चीन के उप राजदूत हू वे के साथ चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने इस बात की पुष्टि कि की उनका देश ‘वन चाइना’ की नीति का पालन जारी रखे हुए हैं. लेकिन ये नीति अमेरिका की अगुवाई में पश्चिमी देशों के अनुकूल नहीं है क्योंकि उन्होंने राजनीतिक और सैन्य मामलों में पूरी तरह से ताइवान का समर्थन जारी रखा है.
लेकिन श्रीलंका की तरफ़ से भरोसा मिलने के बावजूद चीन ने धीरे-धीरे मदद भेजने के अलावा न तो कर्ज़ नवीनीकरण, न ही बड़ी मात्रा में अतिरक्त सहायता को लेकर तुरंत कोई भरोसा दिया है. ये अभी स्पष्ट नहीं है कि चीन की तरफ़ से मदद में इस देरी के लिए प्रधानमंत्री ली केकियांग का देरी से स्वीकार किया गया ये बयान है कि चीन की अर्थव्यवस्था को नुक़सान पहुंचा है, कुछ हद तक इसमें सुधार आया है लेकिन बुनियाद ठोस नहीं है. या फिर चीन की तरफ़ से इस देरी के पीछे राजनीतिक कारण भी हैं जैसा कि पश्चिमी देशों के मामले में है.
विक्रमसिंघे ने ज़िक्र किया है कि एशिया महादेश में श्रीलंका के एक और पुराने सहयोगी जापान के साथ भी ऐसा ही मामला है. जैसा कि ध्यान दिया जा सकता है, ज़रूरत के बावजूद जापान से मदद काफ़ी कम मिली है. इसी तरह टोक्यो में मई के मध्य में आयोजित क्वॉड शिखर वार्ता में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा के बीच मुलाक़ात के दौरान दोनों देश ‘एक साथ मिलकर श्रीलंका की मदद’ के लिए फ़ैसला लेने में आगे बढ़ते हुए नहीं दिखे.
प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने इस बात की पुष्टि कि की उनका देश ‘वन चाइना’ की नीति का पालन जारी रखे हुए हैं. लेकिन ये नीति अमेरिका की अगुवाई में पश्चिमी देशों के अनुकूल नहीं है क्योंकि उन्होंने राजनीतिक और सैन्य मामलों में पूरी तरह से ताइवान का समर्थन जारी रखा है.
प्रधानमंत्री मोदी ने जर्मनी में पिछले दिनों आयोजित जी-7 शिखर वार्ता के दौरान अफ़ग़ानिस्तान के साथ-साथ श्रीलका में खाद्य संकट का मुद्दा उठाया लेकिन इसको लेकर किसी ख़ास नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका. श्रीलंका को मई के मध्य में जी-7 के द्वारा कर्ज को लेकर राहत के ऐलान के बारे में उम्मीद रखने की ज़रूरत है. इसके बारे में विस्तार से ब्यौरा तब मालूम होगा जब बातचीत शुरू होगी.
इस संपूर्ण पृष्ठभूमि में भारत के नये विदेश सचिव विनय क्वात्रा के हाल के कोलंबो दौरे- जो कि पदभार ग्रहण करने के बाद उनका पहला विदेश दौरा है- को देखने की ज़रूरत है. राष्ट्रपति गोटाबाया और प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे के साथ अलग-अलग ग़ैर-राजनीतिक चर्चाओं के बाद विदेश सचिव क्वात्रा ने कहा कि, “भारत पूरी तरह से श्रीलंका का समर्थन करेगा”.
कोलंबो में भारतीय उच्चायोग के द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि तत्काल की ज़रूरतों का समाधान करने के अलावा, “दोनों पक्षों ने आधारभूत ढांचे, कनेक्टिविटी, नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में भारत-श्रीलंका निवेश साझेदारी और दोनों देशों के बीच गहरे आर्थिक संबंध को बढ़ावा देने के महत्व पर ज़ोर दिया”.
संदर्भ में देखें तो भारतीय निवेशक भारत में सबसे तेज़ी से बढ़ते निजी क्षेत्र के समूह अडानी, जो अन्य क्षेत्रों के अलावा बंदरगाह और ऊर्जा क्षेत्र के आधारभूत ढांचे से जुड़ा है, के द्वारा पिछले दिनों के निवेश प्रस्ताव के विवाद को लेकर चिंतित होंगे. किस तरह श्रीलंका की सरकार इस पर काम करती है, इस पर दूसरे देशों और उनके निवेशकों की नज़र होगी क्योंकि इस तरह के विवाद का सामना उन्हें भी करना पड़ सकता है.
भारत को लगता है कि पड़ोसी होने के नाते उसका ये नैतिक दायित्व है कि श्रीलंका की मदद करे. दूसरे देशों के सहयोग को देखते हुए ये ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है. भारत को मानवाधिकार के मोर्चे पर पश्चिमी देशों की राजनीतिक शर्तों की संभावना को लेकर भी सचेत रहना चाहिए, ख़ास तौर पर यूएनएचआरसी के कई प्रस्तावों और उनकी आगे की कार्यवाही और राष्ट्रपति के तौर पर गोटाबाया से इस्तीफ़े की उम्मीदों के संबंध में. हालांकि गोटाबाया के पद छोड़ने का कहीं ज़िक्र नहीं किया गया है.
श्रीलंका के द्वारा अतीत में दावा किया गया था कि ‘एलटीटीई के आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध’ में मिली जीत के पीछे एक तरफ़ भारत, चीन और पाकिस्तान और दूसरी तरफ़ अमेरिका से मिली जानकारी ने योगदान दिया था. लेकिन मौजूदा समय में भारत और चीन के बीच किसी तरह का सीधा सहयोग कल्पना की तरह लग सकता है. श्रीलंका के लिए इसका एक विकल्प ये हो सकता है कि वो एशिया के देशों के दान दाताओं और निवेशकों को इकट्ठा करे, दक्षिण-पूर्व एशिया के अपने मित्रों को शामिल करे और पश्चिम एशिया के उन कुछ देशों को साथ ले जिन्होंने राजपक्षे सरकार के दौरान श्रीलंका में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ बर्ताव को लेकर चिंता जताई थी. इस काम में भारत आधार बने और जापान, रूस एवं अमेरिका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से शामिल हों.
कोलंबो में भारतीय उच्चायोग के द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि तत्काल की ज़रूरतों का समाधान करने के अलावा, “दोनों पक्षों ने आधारभूत ढांचे, कनेक्टिविटी, नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में भारत-श्रीलंका निवेश साझेदारी और दोनों देशों के बीच गहरे आर्थिक संबंध को बढ़ावा देने के महत्व पर ज़ोर दिया”.
इस बात में कोई शक नहीं है कि खाड़ी के देश श्रीलंका की तरफ़ से अपने मुस्लिम नागरिकों की सुरक्षा और कल्याण को लेकर मौखिक गारंटी से नहीं मानेंगे. क्या वो इस समूह में भारत की मौजूदगी को अभी या बाद में पर्याप्त गारंटी के तौर पर देखेंगे? ये एक ऐसा सवाल है जिसका कोई आसान जवाब नहीं है.
लेकिन इसके बावजूद ये आईएमएफ केंद्रित ‘सहायता समूह’ के मुक़ाबले ज़्यादा व्यावहारिक और कामकाजी होगा. इसकी वजह राजनीतिक शर्तें और मानवाधिकार के मुद्दे पर पश्चिमी देशों का प्रचार- दोनों हैं. इन दोनों ही बातों का श्रीलंका और श्रीलंका के लोगों के लिए कम, मध्यम और लंबे समय में नतीजा सामने आएगा. ये सरकार विरोधी प्रदर्शनों, जिसमें 9 मई को ‘बदला लेने के लिए किए गए एक हमले’ में सत्ताधारी पार्टी के एक सांसद की मौत हो गई और सत्ताधारी दल के 78 नेताओं के घरों को भी जला दिया गया, को देखते हुए और ज़्यादा है.
ये बात सही है कि श्रीलंका को अभी भी राजकोषीय और आर्थिक मोर्चे पर कमी के लिए तैयार रहना होगा. लेकिन मानवाधिकार के मुद्दे पर भारत और जापान, चीन और रूस के साथ-साथ खाड़ी देशों का विचार मिलता-जुलता है और ये श्रीलंका के शासकों के लिए चिंता में एक कमी है.
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N. Sathiya Moorthy is a policy analyst and commentator based in Chennai.
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