गाजा में इज़राइल और हमास की जंग को क़रीब दो महीने हो गए हैं, और हमास की क़ैद से कुछ बंधकों की सफलतापूर्वक रिहाई के बाद भी इस संकट को ख़त्म करने का फ़िलहाल कोई ऐसा रास्ता नहीं दिख रहा है, जिससे लड़ाई रुक जाए. आज जब ग़ज़ा में फिलिस्तीन के नागरिक, 7 अक्टूबर को हमास द्वारा किए गए हमले के जवाब में इज़राइली सेना के भयानक अभियान का सामना कर रहे हैं, तो ऐसे हालात में इस संकट के तनाव को हम अन्य मोर्चों पर बढ़ते देख रहे हैं, ख़ास तौर से उन इलाक़ों में, जहां ईरान समर्थक गुरिल्ला संगठन, इज़राइल विरोधी मोर्चे का दायरा बढ़ाने के लिए आपसी तालमेल के साथ काम करने की कोशिश कर रहे हैं.
हाल ही में लाल सागर से गुज़रने वाले कारोबारी जहाज़ों पर हमले हुए हैं. लाल सागर, दुनिया के कारोबार का बेहद अहम रास्ता है, जो स्वेज नहर के रास्ते से यूरोप को एशिया से जोड़ता है..
हाल ही में लाल सागर से गुज़रने वाले कारोबारी जहाज़ों पर हमले हुए हैं. लाल सागर, दुनिया के कारोबार का बेहद अहम रास्ता है, जो स्वेज नहर के रास्ते से यूरोप को एशिया से जोड़ता है. यमन की सत्ता पर क़ाबिज़ ईरान के समर्थन वाले हूती लड़ाकों ने कई जहाज़ों पर हमले करके दिखा दिया है कि इस संकट का दायरा कितना व्यापक हो सकता है. ये इज़राइल और फ़िलिस्तीन के पुराने संघर्ष से बहुत व्यापक स्तर तक फैला हुआ है, और ये ईरान और इज़राइल की लंबे समय से चली आ रही दुश्मनी का हिस्सा है, जिसमें अब ईरान खुलकर, इज़राइल के ख़िलाफ़ ‘प्रतिरोध की धुरी’ का खुलकर समर्थन कर रहा है. ख़बरों के मुताबिक़, पिछले महीने हमास को अपना समर्थन जारी रखने की बात दोहराते हुए, ईरान की मशहूर क़ुद्स फ़ोर्स के कमांडर इस्माइल क़ा’नी ने कहा था, ‘विरोध के मोर्चे पर आपके बिरादर आपके साथ खड़े हैं…. ये प्रतिरोधी मोर्चा हमारे दुश्मन को ग़ज़ा और फ़िलिस्तीन में अपने मक़सद में कभी भी कामयाब नहीं करने देगा.’ इस्माइल क़ा’नी,ने बहुचर्चित और सम्मानित ईरानी कमांडर क़ासिम सुलेमानी की जगह क़ुद्स फ़ोर्स की कमान संभाली है. जनवरी 2020 में अमेरिका ने एक ड्रोन हमले के ज़रिए क़ासिम सुलेमानी की हत्या कर दी थी. इराक़, सीरिया और यमन में फैले ईरान समर्थक जिन गुरिल्ला संगठनों को अब प्रतिरोध के एक सामूहिक मोर्चे के तौर पर देखा जा रहा है, वो पिछले एक दशक के दौरान इस इलाक़े में क़ासिम सुलेमानी की कामयाबी की ही कहानी सुनाते हैं.
अफ़ग़ानिस्तान के शिया लड़ाके अक्सर ये शिकायत करते हैं कि उन्हें, जंग में बराबर की भागीदारी के बावजूद, ईरान की इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर (IRGC) से अच्छे पैसे नहीं मिलते हैं.
वैसे तो यमन के हूती लड़ाके, लेबनान का हिज़्बुल्लाह, इराक़ में कातिब हिज़्बुल्ला और गाजा में हमास को अक्सर ईरान समर्थित गुरिल्ला मोर्चे का हिस्सा माना जाता रहा है. मगर, इनके अलावा भी ईरान के प्रभाव वाले कई छोटे संगठन और इलाक़े हैं, जिनके बारे में जानकारी कम है. अगर ग़ज़ा का संकट बढ़ता है, तो ईरान इन संगठनों की भी मदद ले सकता है. अफ़ग़ानिस्तान में फातिमियून ब्रिगेड और पाकिस्तान में ज़ैनबियून ब्रिगेड, ऐसे हथियारबंद शिया संगठन हैं, जो सीरिया में गृहयुद्ध के दौरान खड़े किए गए थे. तब ईरान ने इस्लामिक स्टेट (ISIS या अरबी में दाएश) के बढ़ते प्रभाव का मुक़ाबला करने इन संगठनों को खड़ा किया था. ज़ैनबियून की जड़ें, 2015 में दमिश्क में सैयदा ज़ैनब मस्जिद पर हमले तक जाती हैं. उस मस्जिद को सुन्नी आतंकवादियों ने निशाना बनाया था. उस हमले से निपटने के लिए ईरान ने पाकिस्तान से शिया समुदाय के कुछ लोगों को वो लड़ाई लड़ने के लिए भर्ती किया था. पाकिस्तान की आबादी में शिया समुदाय का हिस्सा 10 से 15 प्रतिशत है. ज़ैनबियून 2018 में जब अपनी ताक़त के शिखर पर था, तब उसके पास लगभग 1600 लड़ाके थे. उसका प्रतीक चिह्न हिज़्बुल्लाह से काफ़ी मिलता जुलता है. हालांकि, हाल के वर्षों में ज़ैनबियून बहुत सक्रिय नहीं दिखा है. अमेरिका ने 2019 में ज़ैनबियून ब्रिगेड को अपनी वित्तीय ब्लैकलिस्ट में शामिल कर लिया था. ज़ैनबियून को हम ईरान और पाकिस्तान के बीच कुछ बुनियादी मतभेदों के नज़रिए से भी देख सकते हैं, ख़ास तौर से बलूचिस्तान जैसे मसले पर. पाकिस्तान का ये उग्रवाद प्रभावित सूबा है, जिसको लेकर ईरान और पाकिस्तान अक्सर एक दूसरे पर सीमा पार से आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाते रहते हैं.
ईरान एवं अफ़ग़ानिस्तान संबंध
एक और देश अफ़ग़ानिस्तान भी है, जहां की शिया आबादी से ईरान ने अपने लिए लड़ने वालों को भर्ती किया है. फातिमियून ब्रिगेड का गठन 2014 में किया गया था, ताकि सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद को गृह युद्ध लड़ने में मदद की जा सके. पाकिस्तान के अपने सहयोगी संगठन की तरह फातिमियून में भी अफ़ग़ानिस्तान के शिया शरणार्थी शामिल हैं, जो पिछले कुछ वर्षों के दौरान अपनी हिफ़ाज़त के लिए ईरान में जाकर बस गए हैं. फातिमियून ब्रिगेड, अफ़ग़ानिस्तान के हज़ारा शिया समुदाय से भी भर्तियां करता है. हज़ारा समुदाय. अफ़ग़ानिस्तान की आबादी के दस प्रतिशत से भी कम है. वो अक्सर अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय आतंकवादी संगठनों का निशाना बनते रहे हैं, और ख़ास तौर से तालिबान की सत्ता में वापसी के बाद से तो उन पर ज़ुल्म और बढ़ गए हैं. ख़बरों के मुताबिक़ 2018 तक सीरिया में लड़ते हुए अफ़ग़ानिस्तान के दो हज़ार से ज़्यादा शिया लड़ाके मारे जा चुके हैं. एक वक़्त में सीरिया में 20 हज़ार से ज़्यादा हथियारबंद अफ़ग़ान शिया लड़ाई लड़ रहे थे. हालांकि, अफ़ग़ानिस्तान के शिया लड़ाके अक्सर ये शिकायत करते हैं कि उन्हें, जंग में बराबर की भागीदारी के बावजूद, ईरान की इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर (IRGC) से अच्छे पैसे नहीं मिलते हैं. इनमें से कुछ लड़ाके तो इसलिए ईरान के लिए लड़ने को तैयार हो गए कि वो शियाओं को सुन्नियों और सलाफ़ियों से बचाना चाहते हैं. मगर, बहुत से लड़ाकों और ख़ास तौर से अफ़ग़ानिस्तान से आने वाले शिया लड़ाके तो सिर्फ़ इसलिए ईरान की तरफ़ से लड़ने के लिए राज़ी हुए, क्योंकि इसके बदले में उनको पैसे मिलते थे. विचारधारा और अफ़ग़ानिस्तान में ग़रीबी के मेल ने वहां विदेशी भाड़े के लड़ाकों की भर्ती करना आसान बना दिया. क़ासिम सुलेमानी ने पहले सीरिया में मारे गए अफ़ग़ान शिया लड़ाकों की क़ब्रों पर जाकर अक़ीदत पेश की थी, जिससे वो ये दिखा सकें कि ईरान इन लड़ाकों का कितना सम्मान करता है और वो सिर्फ़ लड़ाई के मोहरे नहीं, बल्कि शियाओं के हक़ की लड़ाई लड़ने वाले शहीद हैं.
ईरान की उस ताक़त का पता चलता है कि वो शिया हितों की रक्षा के लिए न सिर्फ़ मध्य पूर्व, बल्कि अपनी सीमा से लगने वाले अन्य देशों से भी लड़ाकों का संगठन खड़ा कर सकता है.
जब 2021 में तालिबान, अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर दोबारा क़ाबिज़ हुआ, तो बहुत से लोगों ने देखा कि पहले से प्रशिक्षित समूह के तौर पर फातिमियून ब्रिगेड, तालिबान का मुक़ाबला कर सकती है और जब भी ज़रूरत पड़ेगी तो अफ़ग़ानिस्तान में ईरान के हितों की रक्षा कर सकती है. वहीं, अगर मध्य पूर्व में चल रहे संघर्षों के लिए और लड़ाकों की ज़रूरत पड़ती है, तो पैसे देकर फातिमिूयून ब्रिगेड के सदस्यों को लड़ाई का हिस्सा बनाया जा सकता है. काबुल पर तालिबान के दोबारा क़ब्ज़े से पहले, अमेरिका की नज़र में फातिमियून ब्रिगेड, ईरान की सामरिक ताक़त मानी जाती थी. अमेरिका को हमेशा ये आशंका बनी रहती थी कि फातिमियून के लड़ाके अफ़ग़ानिस्तान में उसके सैनिकों और हितो को निशाना बनाकर हमले कर सकते हैं. सत्ता में वापसी के बाद तालिबान को ये विरासत भी अमेरिका से हासिल हुई. अफ़ग़ानिस्तान में फातिमियून ब्रिगेड कोई बहुत ताक़तवर सामुदायिक संगठन नहीं है. इसके बजाय ये यहां वहां के लड़ाकों को जुटाकर खड़ा किया गया गिरोह ज़्यादा है, जिसमें लड़ाके पैसे के लिए भर्ती होते हैं.
ईरान के लिए अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में फ़ातिमियून और ज़ैनबियून समूहों का कोई ख़ास उपयोग नहीं है. फिर भी, इससे ईरान की उस ताक़त का पता चलता है कि वो शिया हितों की रक्षा के लिए न सिर्फ़ मध्य पूर्व, बल्कि अपनी सीमा से लगने वाले अन्य देशों से भी लड़ाकों का संगठन खड़ा कर सकता है. वैसे तो, भारत में शियाओं की ऐसी गोलबंदी देखने को नहीं मिली है, क्योंकि भारत के मुसलमानों में शियाओं की आबादी 13 से 15 फ़ीसद के बीच है. हालांकि, इतनी कम संख्या के बाद भी शिया आबादी के मामले में ईरान के बाद भारत का ही नंबर आता है. भारत में शियाओं की बड़ी आबादी कश्मीर में रहती है, जहां शिया संगठनों ने तो क़ासिम सुलेमानी की हत्या के बाद विरोध प्रदर्शन भी निकाला था. और शायद इससे भी दिलचस्प बात ये है कि भारत में शियाओं के बारे में माना जाता है कि वो चुनावों में आम तौर पर इस वक़्त की सत्ताधारी दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी का साथ देते हैं, क्योंकि बीजेपी सलाफ़ियत (जो सुन्नी इस्लाम का हिस्सा है) के ख़िलाफ़ कड़ा नज़रिया रखती है.
इज़राइल पर हमला करके हमास ने जो सफलता हासिल की है, उसमें से एक ये भी है कि उसने ‘आतंकवाद’ और ‘प्रतिरोध’ के बीच की खाई को पाट दिया है. ईरान के नेता अब खुलकर हिज़्बुल्लाह, हमास और यहां तक कि फ़तह के उन गुटों से मिलते हैं, जो फ़िलिस्तीन के मौजूदा राष्ट्रपति महमूद अब्बास के ख़िलाफ़ हैं. इससे पता चलता है कि दुनिया में भले ही कुछ और माहौल बनाया जा रहा हो, लेकिन ईरान अब खुलकर और सरेआम फ़िलिस्तीन के संघर्ष का इस्तेमाल इज़राइल और अमेरिका विरोध के लिए समर्थन जुटाने के लिए कर रहा है. ईरान अब ग़ज़ा के युद्ध को एक तरह से क्षेत्रीय या फिर कुछ हद तक वैश्विक स्तर पर वैचारिक संघर्ष के रूप में तब्दील करने की कोशिश कर रहा है. हम इसका सबूत अमेरिका में कॉलेज के छात्रावासों से लेकर यूरोप की संसदों में चल रहे वाद विवाद के रूप में देख रहे हैं.
मौजूदा संकट जितना विचारधारा की लड़ाई का नतीजा है, उतना ही ये भू-राजनीतिक और भू-सामरिक समीकरण साधने का भी है. ईरान के लिए मौजूदा हुकूमत की रक्षा और उसे बनाए रखना उसका सबसे बड़ा सामरिक मक़सद है.
निष्कर्ष
हालांकि, बग़ावत की आग भड़काने वाला ये गोरिल्ला मोर्चा विविधताओं वाला भी है. जहां तक ईरान समर्थक संगठनों का सवाल है, तो वो इसके मशालधारी बनने की कोशिश कर रहे हैं. वहीं, अल- क़ायदा और इस्लामिक स्टेट और उनसे जुड़े संगठन भी इस मौक़े और माहौल का लाभ उठाकर, अपने हित और हैसियत को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. मिसाल के तौर पर पाकिस्तान में जमात-ए-इस्लामी के अमीर सिराजुल हक़ ने पिछले हफ़्ते कश्मीर मसले को फ़िलिस्तीन से जोड़ने की कोशिश की और नेताओं और अपनी हुकूमत के बजाय सीधे मुसलमानों से अपील की कि वो एकजुट हो जाएं. सिराजुल हक़ ने पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में हुई एक रैली में कहा कि, ‘आज हमारी उम्मत ऐसे मुश्किल हालात से जूझ रही है, तो ये हमारे रीढ़विहीन नेताओं के कारण है. मैं मुज़फ़्फ़राबाद की सरज़मीं से पाकिस्तान और दूसरे मुस्लिम मुल्कों के हुक्मरानों से गुज़ारिश करता हूं कि वो (कश्मीर और फ़िलिस्तीन की आज़ादी के लिए) ठोस और व्यावहारिक क़दम उठाएं. वो सिर्फ़ इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) द्वारा प्रस्ताव पारित करने के रिवाज के भरोसे पर न रहें.’ इस एकजुट मोर्चे में ऐसे काफ़ी संगठन हैं, जो ज़मीनी तौर पर ईरान के हितों के मुताबिक़ नहीं चलते हैं. ग़ज़ा के मसले पर हुई इस्लामिक सहयोग संगठन की बैठक के दौरान, हमने देखा कि ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी, अपने अरब समकक्षों के साथ बातचीत के लिए क़रीब एक दशक बाद सऊदी अरब के दौरे पर गए थे.
आख़िर में, मौजूदा संकट जितना विचारधारा की लड़ाई का नतीजा है, उतना ही ये भू-राजनीतिक और भू-सामरिक समीकरण साधने का भी है. ईरान के लिए मौजूदा हुकूमत की रक्षा और उसे बनाए रखना उसका सबसे बड़ा सामरिक मक़सद है. यही बात ईरान के पड़ोसी अरब देशों की है, जहा वो अपनी शाही और मज़हबी सियासी व्यवस्थाओं को बचाए रखने की कोशिश कर रहे हैं. पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान जैसे मुल्क, एक नाकाम या लगभग नाकाम देश की सच्चाई का सामना कर रहे हैं, और वो भाड़े के लड़ाकों की भर्ती की उर्वर ज़मीन मुहैया कराते हैं, जिसा फ़ायदा अन्य देश अपने अपने हितों के लिहाज़ से करते हैं. ये बात ज़ैनबियून और फातिमियून ब्रिगेडों की स्थापना से ज़ाहिर होती है. ये ग़ैर सरकारी आतंकवादी संगठन इक्का दुक्का या अपवाद नहीं हैं. तेज़ी से अराजक होती विश्व व्यवस्था में फ़ौरी टकराव से निपटने के लिए ऐसे ग़ैर पारंपरिक तौर-तरीक़े और भी बढ़ते जाएंगे, भले ही इसमें शामिल सभी पक्षों के लिए नतीजे कितने ही ख़तरनाक क्यों न हों.
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