ईरान के परमाणु समझौते की फिर से बहाली, जिसे औपचारिक रूप से ज्वाइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ़ एक्शन (JCPOA) के तौर पर जाना जाता है, इसके समर्थकों की उम्मीद और विरोधियों के डर से ज़्यादा कठिन साबित हुई है. ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर लंबे समय से चला आ रहा संघर्ष आने वाले महीनों में ऐसी स्थिति में पहुंच सकता है जहां से वापसी मुमकिन नहीं है क्योंकि ईरान परमाणु हथियार बनाने में इस्तेमाल होने वाले संवर्धित यूरेनियम के भंडार को बढ़ा रहा है. कुछ ही हफ़्तों के बाद ईरान यूरेनियम के संवर्धन का स्तर 90 प्रतिशत तक कर लेगा और उसने एक अंडरग्राउंड संवर्धन प्लांट में आधुनिक सेंट्रीफ्यूज़ को लगाना शुरू कर दिया है. लेकिन 60 प्रतिशत तक यूरेनियम का संवर्धन और एक तय स्तर तक जल्द ही पहुंचने का ये मतलब नहीं है कि तेहरान ने परमाणु समझौते की उम्मीद छोड़ दी है. समझौता अभी भी संभव है लेकिन बातचीत टूटने की संभावित स्थिति में संघर्ष और बढ़ सकता है क्योंकि ईरान और अमेरिका अपने संकीर्ण हितों और समझौता नहीं करने की रणनीति का पालन कर रहे हैं.
ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर लंबे समय से चला आ रहा संघर्ष आने वाले महीनों में ऐसी स्थिति में पहुंच सकता है जहां से वापसी मुमकिन नहीं है क्योंकि ईरान परमाणु हथियार बनाने में इस्तेमाल होने वाले संवर्धित यूरेनियम के भंडार को बढ़ा रहा है.
अमेरिका और ईरान का रुख़
अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के द्वारा अमेरिका समर्थित प्रस्ताव के जवाब में 9 जून को ईरान की तरफ से 27 निगरानी कैमरे हटाने का फ़ैसला जेसीपीओए को फिर से शुरू करने की दिशा में, बातचीत के लिए बड़ा झटका माना जा सकता है. अमेरिका और यूरोप के उसके सहयोगी देशों ने परमाणु कार्यक्रमों पर नज़र रखने वाली संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की संस्था आईएईए के बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स के सामने ईरान के परमाणु कार्यक्रम के ख़िलाफ़ एक प्रस्ताव का मसौदा रखा. उन्हें लगा कि सुरक्षा से जुड़े बाक़ी मुद्दों का समाधान करने के लिए एक प्रस्ताव लाना सबसे अच्छा तरीक़ा है. आईएईए के महानिदेशक राफेल ग्रॉसी ने ईरान के बदहाल परमाणु समझौते को लेकर दुनिया की ताक़तों के साथ बातचीत में ईरान के क़दम का ज़िक्र “घातक झटके” के रूप में किया. इसके विपरीत ईरान के अधिकारियों ने प्रस्ताव को ज़्यादा महत्व नहीं दिया जिसको आईएईए के बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स के द्वारा ईरान के ख़िलाफ़ स्वीकार किए जाने की उम्मीद है. ईरान के परमाणु ऊर्जा संगठन (एईओआई) के प्रमुख मोहम्मद इस्लामी ने कहा कि अगर प्रस्ताव को स्वीकार किया जाता है तो इसका नतीजा नई शर्तों के बनने के रूप में नहीं निकलेगा. फिलहाल के लिए, इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) पर निशाना साधने वाले आर्थिक प्रतिबंध 2015 के परमाणु समझौते का पालन करने की तरफ़ अमेरिका और ईरान को ले जाने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा बने हुए हैं. दोनों पक्षों ने अपने-अपने देशों में घरेलू राजनीतिक दबाव की वजह से अभी तक इस मुद्दे पर रियायत देने से इनकार किया है. इस बीच जिस सवाल का जवाब सभी पक्षों, ख़ास तौर पर ईरान और अमेरिका, को देने की ज़रूरत है वो ये है कि अगर परमाणु बातचीत टूट जाती है तो जेसीपीओए का विकल्प क्या होगा?
दोनों पक्षों ने अपने-अपने देशों में घरेलू राजनीतिक दबाव की वजह से अभी तक इस मुद्दे पर रियायत देने से इनकार किया है. इस बीच जिस सवाल का जवाब सभी पक्षों, ख़ास तौर पर ईरान और अमेरिका, को देने की ज़रूरत है वो ये है कि अगर परमाणु बातचीत टूट जाती है तो जेसीपीओए का विकल्प क्या होगा?
वैकल्पिक समाधान के साथ जुड़ी भारी क़ीमतों को व्यावहारिक रूप से समझने पर परमाणु समझौते को फिर से बहाल करने का फॉर्मूला पेश होता है जो ईरान और अमेरिका – दोनों देशों के लिए सबसे सस्ता विकल्प है. इसको समझना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि अतिरिक्त विकल्प उकसाने वाले और जोख़िम भरे हैं. परमाणु बातचीत के टूटने का बेहद गंभीर नतीजा होगा. बातचीत टूटने पर क्षेत्रीय तनाव बढ़ेगा और ईरान के साथ सैन्य संघर्ष की आशंका बढ़ेगी. बातचीत के रुक जाने के साथ ईरान की सेना को नियंत्रित करने के लिए बाइडेन प्रशासन पर (JCPOA) के कट्टर विरोधियों की तरफ़ से दबाव बढ़ने वाला है. ईरान को उकसाने पर इस क्षेत्र में तेल के आधारभूत ढांचे के ध्वस्त होने का जोख़िम है. ये स्थिति उस वक़्त बन सकती है जब पश्चिमी देश, रूस के तेल और गैस निर्यात पर निर्भरता को ख़त्म करने के लिए नये स्रोतों की तलाश कर रहे हैं. ईरान की बात करें तो परमाणु समझौते के टूटने पर उसके तेल से होने वाली अरबों डॉलर की कमाई बंद हो जाएगी, सैकड़ों अरब डॉलर का फंड ज़ब्त हो जाएगा और इसका नतीजा बड़े आर्थिक जुर्माने के रूप में निकलेगा. इसके अलावा, जेसीपीओए में यूरोप की शक्तियां परमाणु समझौते के पिछले प्रावधानों को सक्रिय करेंगी जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सातवें अध्याय में ईरान की परमाणु फाइल को फिर से शुरू करेगी. अगर बातचीत टूट जाती है तो अमेरिका सबसे ख़राब स्थिति का सामना करेगा. उसे या तो परमाणु क्षमता की दहलीज़ पर खड़े ईरान के साथ रहना होगा या ईरान को परमाणु शक्ति संपन्न बनने से रोकने के लिए सैन्य कार्रवाई करनी होगी. लेकिन इसका नतीजा सैन्य संघर्ष में बढ़ोत्तरी के रूप में निकल सकता है.
अमेरिका की वैकल्पिक योजना
ऐसा लगता है कि ईरान के लिए अमेरिका की वैकल्पिक योजना अप्रैल के आख़िर में ही शुरू हो चुकी है, जो रोकने वाली कूटनीति पर आधारित है और जिसका उद्देश्य परमाणु क्षमता विकसित करने में ईरान के क़दम को सीमित करना है. ये वैकल्पिक योजना भी राजनीतिक दबाव के साथ-साथ इज़रायल की सुरक्षा से जुड़े उकसाव पर भी निर्भर है. इज़रायल को ईरान में हुई पांच हत्याओं के लिए मुख्य संदिग्ध माना जाता है जिसकी शुरुआत मई से हुई थी. इस मामले में अमेरिका ने भी चालाकी से भरी व्यवस्था का इस्तेमाल किया है. अमेरिका के द्वारा बी-52 लड़ाकू विमानों की उड़ान और उसके साथ इज़रायल के एफ-16 का चलना अमेरिका की दूसरी योजना का हिस्सा है जो ईरान के परमाणु क़दमों के ख़िलाफ़ एक सुनियोजित चेतावनी पर आधारित है. ईरान के विशेषज्ञों के बीच इस बात को लेकर आम राय है कि इस योजना का नतीजा अमेरिका की तरफ़ से पूरी तरह सैन्य कार्रवाई के रूप में नहीं निकलेगा क्योंकि यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद ऐसी किसी भी रणनीति को लेकर कई तरह की चिंताएं हैं. इस बीच अमेरिका के घरेलू माहौल को देखते हुए और नवंबर में होने वाले कांग्रेस के चुनाव के नज़दीक आने की वजह से बाइडेन प्रशासन स्वाभाविक रूप से ईरान को रियायत देना नहीं चाहेगा. ये ध्यान रखना चाहिए कि अमेरिका आंतरिक और बाहरी स्तर पर कई मुश्किल चुनौतियों का सामना कर रहा है जैसे कि घरेलू मुद्दे, अपने आधारभूत ढांचे का फिर से निर्माण और रूस एवं चीन के साथ संघर्ष. ऐसे में वो ईरान के मुद्दे पर संघर्ष के लिए तैयार नहीं दिखता.
अगर कूटनीति नाकाम होती है तो इसका सबसे संभावित नतीजा ईरान के परमाणु संघर्ष में बढ़ोतरी के रूप में सामने आ सकता है, लेकिन बदलते हालात ने एक और संभावित परिणाम को स्वीकार किया है.
ऐसा लगता है कि प्रतिरोधी कूटनीति को अपनाकर बाइडेन प्रशासन ख़ुद को मज़बूत करने की तैयारी कर रहा है ताकि अपने मौजूदा आर्थिक प्रतिबंधों को निश्चयपूर्वक लागू करने का संकेत देकर समझौते में बेहतर स्थिति हासिल कर सके. जैसा कि अमेरिका के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ईरान भी अपने परमाणु कार्यक्रम का विस्तार कर रहा है जिसका उद्देश्य बम बनाने से ज़्यादा “अपने लिए बेहतर परमाणु समझौता” हासिल करना है. लेकिन ईरान के लिए यूरोपीय संघ के तीन देश (फ्रांस, जर्मनी और यूनाइटेड किंगडम) हालात को मुश्किल बना रहे हैं क्योंकि इन देशों ने संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक प्रतिबंधों को पुरानी स्थिति में पहुंचाने और अपने बहुपक्षीय आर्थिक प्रतिबंधों को फिर से लागू करने का फ़ैसला लिया है. वैसे तो ईरान को उम्मीद है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस और चीन इस तरह के क़दम का संभवत: विरोध करेंगे लेकिन ईरान में कई लोग ऐसे भी हैं जो इस तरह के क़दम के राजनीतिक और आर्थिक नतीजों को लेकर चिंतित हैं, उन्हें लगता है कि आर्थिक प्रतिबंधों को पुरानी स्थिति में लागू करने से ईरान के सामने कोई विकल्प नहीं रहेगा और उसे (JCPOA) और परमाणु अप्रसार संधि (NPT) से बाहर होना पड़ेगा. अगर कूटनीति नाकाम होती है तो इसका सबसे संभावित नतीजा ईरान के परमाणु संघर्ष में बढ़ोतरी के रूप में सामने आ सकता है, लेकिन बदलते हालात ने एक और संभावित परिणाम को स्वीकार किया है. ये परिणाम है जेसीपीओए की नाकामी लेकिन संबंधित पक्ष दिखावा करेंगे कि आधिकारिक रूप से इसकी नाकामी के भयावह परिणामों को लेकर वो अभी भी सचेत हैं. क्विंसी इंस्टीट्यूट के कार्यकारी उपाध्यक्ष त्रीता पारसी ने इस स्थिति को “कोमा में जाने के विकल्प” के रूप में परिभाषित किया है.
ईरान और अमेरिका के बीच बढ़ता अविश्वास
अमेरिका में मध्यावधि चुनाव नज़दीक आने के साथ बाइडेन प्रशासन ईरान को (IRGC) और आर्थिक प्रतिबंध हटाने को लेकर कोई गारंटी नहीं दे सकता है. लेकिन फिलहाल एक अस्थायी कार्य योजना दोनों पक्षों के लिए कारगर हो सकती है. ईरान ये वादा हासिल करने में अभी तक सफल नहीं हुआ है कि, कोई भी अमेरिकी प्रशासन जेसीपीओए से दोबारा नहीं हटेगा और फिर से आर्थिक प्रतिबंध नहीं लगाएगा. अपनी तरफ़ से ईरान ने ये साफ़ कर दिया है कि कम-से-कम फिलहाल के लिए उसका कोई इरादा नहीं है कि वो 90 प्रतिशत शुद्धता तक यूरेनियम का संवर्धन करेगा, भले ही जेसीपीओए की बातचीत नाकाम क्यों न हो जाए. अमेरिका की तरफ़ से “अधिकतम दबाव” की रणनीति के कारण परमाणु संघर्ष बढ़ने, क्षेत्रीय सुरक्षा से जुड़े असमंजस में बढ़ोतरी और ईरान के लोगों की आर्थिक बदहाली के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ है. एक समझौते तक पहुंचने के लिए ईरान और अमेरिका- दोनों को बातचीत जारी रखने की ज़रूरत है. वैसे तो संतुलन के लिए दोनों पक्षों की तरफ़ से समझौता करना सबसे बड़ी ज़रूरत होगी लेकिन असली जेसीपीओए तक नहीं पहुंचा जा सकेगा, चाहे 2015 के समझौते के आधार पर कोई समझौता क्यों न हो जाए.
ईरान और अमेरिका ने दूसरे पक्ष से रियायत का बयान सुनने के लिए महीनों तक इंतज़ार किया लेकिन अभी तक किसी भी पक्ष ने कोई रचनात्मक पेशकश नही की है. परमाणु समझौता करने में नाकामी का नतीजा ईरान की राइसी सरकार और अमेरिका के बाइडेन प्रशासन- दोनों के लिए बड़ी राजनीतिक क़ीमत के रूप में निकलेगा.
ईरान और अमेरिका ने दूसरे पक्ष से रियायत का बयान सुनने के लिए महीनों तक इंतज़ार किया लेकिन अभी तक किसी भी पक्ष ने कोई रचनात्मक पेशकश नही की है. परमाणु समझौता करने में नाकामी का नतीजा ईरान की राइसी सरकार और अमेरिका के बाइडेन प्रशासन- दोनों के लिए बड़ी राजनीतिक क़ीमत के रूप में निकलेगा. इससे पूरे मध्य-पूर्व में अप्रत्याशित और अनियंत्रित तनाव पैदा होगा और तेल एवं गैस की क़ीमत में बढ़ोतरी होगी. इसकी वजह से ईरान चीन के साथ सैन्य संबंध बढ़ाने के लिए मजबूर होगा क्योंकि ईरान अपनी प्रतिरोधी नीतियों में कई चुनौतियों का सामना कर रहा है. 27 अप्रैल को चीन के रक्षा मंत्री जनरल वेई फेंघे ने अपने तेहरान दौरे में ईरान की थल सेना के प्रमुख मेजर जनरल मोहम्मद बघेरी से मुलाक़ात की और इस बातचीत के दौरान दोनों देश व्यापक सैन्य सहयोग को बढ़ाने के लिए तैयार हुए. इस बात में कोई संदेह नहीं है कि चीन और ईरान के बीच सैन्य संबंध में बढ़ोत्तरी के पीछे परमाणु बातचीत में नाकामी है.
निष्कर्ष
(JCPOA) को लेकर बातचीत रुके हुए लगभग तीन महीने हो चुके हैं. इस बात के भी स्पष्ट संकेत नहीं हैं कि दोनों पक्ष बातचीत जारी रखने के लिए राजनीतिक तौर पर इच्छुक हैं. ऐसा लगता है कि बाइडेन प्रशासन समय बिता रहा है, क्योंकि उसे मालूम है कि ईरान आर्थिक संकट का सामना कर रहा है. राइसी प्रशासन के लिए भी आईआरजीसी को प्रतिबंधों की सूची से बाहर करने की मांग को वापस लेना काफ़ी महंगा होगा, क्योंकि ऐसा करने पर सरकार रूढ़िवादियों का राजनीतिक समर्थन गंवा देगी. ईरान के लिए संभावित क़दम होगा यूरेनियम संवर्धन को 90 प्रतिशत तक करने का फ़ायदा उठाकर अमेरिका को बातचीत की मेज़ पर लाना. अमेरिका के अधिकारी भी स्वीकार करते हैं कि 2015 के परमाणु समझौते का कोई भी विकल्प महंगा और मध्य-पूर्व में जोख़िम भरा होगा. लेकिन दोनों पक्ष एक-दूसरे को रियायत देने के लिए मजबूर करने के साथ-साथ बातचीत का दरवाज़ा खुला रखने की कोशिश कर रहे हैं. एक-दूसरे से हर तरह के ऐहतियात के बावजूद ऐसा लगता है कि “न शांति, न युद्ध” की स्थिति ज़्यादा दिनों तक नहीं रहेगी. अगर दोनों पक्ष एक-दूसरे को मान्य समझौते के लिए तैयार होते हैं तो तनाव ख़त्म होने के हालात बन सकते हैं. लेकिन अगर बातचीत नाकाम होती है तो निम्नलिखित नतीजे अवश्यंभावी हैं: बातचीत नाकाम होने पर ईरान के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के छह प्रस्तावों के लिए रास्ता तैयार होगा और इससे ईरान की अर्थव्यवस्था डगमगाने के कगार पर पहुंच जाएगी जिससे इस क्षेत्र में मानवीय संकट में बढ़ोतरी होगी; बातचीत नाकाम होने पर ईरान-इज़रायल के बीच युद्ध के लिए अनुकूल हालात बन जाएंगे जिससे पूरे मध्य-पूर्व में कोई भी सुरक्षित क्षेत्र नहीं बचेगा; बातचीत नाकाम होने पर ईरान और पश्चिमी देशों के बीच तनाव में बढ़ोत्तरी होगी; ईरान और अरब देशों के बीच संबंध और भी ख़राब होंगे; ईरान और सऊदी अरब के बीच पुराने संघर्ष के समाधान की कोई भी संभावना धुंधली हो जाएगी; और आख़िर में, इन नतीजों की वजह से रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा में हथियार नियंत्रण और व्यवस्था के लिए नई जटिलताएं जुड़ जाएंगी.
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