Author : Kabir Taneja

Expert Speak Raisina Debates
Published on Apr 17, 2024 Updated 0 Hours ago

इज़राइल पर ईरान द्वारा मिसाइलों से किया गया ताज़ा हमला, आने वाले दिनों में मध्य पूर्व की सुरक्षा की एक डरावनी तस्वीर पेश कर रहा है.

'एक बार फिर से युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं ईरान, इज़राइल और पश्चिमी एशिया'

पिछले शनिवार को ईरान ने इज़राइल के ऊपर सैकड़ों मिसाइलों और ड्रोन से हमला किया. ईरान ने ये हमला इज़राइल द्वारा सीरिया की राजधानी दमिश्क में अपने कॉन्सुलेट पर किए गए हमले के जवाब में किया था. ईरान ने संयुक्त राष्ट्र (UN) के चार्ट की धारा 51 का हवाला देते हुए अपनी सैन्य कार्रवाई को जायज़ ठहराया. इस धारा मेंआत्मरक्षा के लिए व्यक्तिगत या सामूहिक अधिकारकी बात कही गई है.

वहीं, ख़बरों के मुताबिक़ इज़राइल ने अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस की मदद से अपनी सीमा के भीतर दाग़ी गई 97 फ़ीसद मिसाइलों और ड्रोनों को नष्ट करने में सफलता प्राप्त की. 2022 में जब हमास ने ग़ज़ा से उसके ऊपर मिसाइलें दाग़ी थीं, तब भी इज़राइल ने इतनी ही तादाद में सटीक निशाना लगाकर उन्हें नष्ट कर दिया था. इस तरह, इज़राइल ने ऐसे ख़तरों से निपटने के लिए अपने पास मौजूद एक मज़बूत एयर डिफेंस व्यवस्था का प्रदर्शन किया.

इज़राइल ने फ़ौरी तौर पर इस कार्रवाई का जवाब देने के बजाय अपने क़दम पीछे खींच लिए हैं. अमेरिका और ईरान दोनों तरफ़ से जो संकेत दिए गए, उनका झुकाव तनाव कम करने के प्रति ज़्यादा था. 

इज़राइल की युद्ध कैबिनेट ने कहा है कि ये मामला अभी ख़त्म नहीं हुआ है. हालांकि, इज़राइल ने फ़ौरी तौर पर इस कार्रवाई का जवाब देने के बजाय अपने क़दम पीछे खींच लिए हैं. अमेरिका और ईरान दोनों तरफ़ से जो संकेत दिए गए, उनका झुकाव तनाव कम करने के प्रति ज़्यादा था. संयुक्त राष्ट्र में ईरान के स्थायी प्रतिनिधि ने कहा कि, ‘अब इस मामले को ख़त्म समझा जाना चाहिए.’ वहीं, अपने बेहद मुश्किल चुनावी अभियान से जूझ रहे अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ये क़तई नहीं चाहते कि पश्चिमी एशिया (मध्य पूर्व) में जंग छिड़ जाए. क्योंकि इससे उनके लिए पहले से ही नाज़ुक घरेलू हालात और बिगड़ने का अंदेशा है. ख़बरों के मुताबिक़, जो बाइडेन ने इज़राइल से कहा है कि ईरान के साथ सीधे सैन्य संघर्ष में अमेरिका शामिल नहीं होगा. ख़बरों के मुताबिक़, इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से बात करते हुए बाइडेन ने कहा कि, ‘आपको एक जीत हासिल हुई है. उस पर संतोष करिए.’ वहीं, ईरान की हुकूमत ने भी ये संकेत देने की कोशिश की है कि उनका ये टकराव और बढ़ाने का कोई इरादा नहीं है. हालांकि, ये संदेश ईरान ने अपने जाने पहचाने धमकी भरे अंदाज़ के साथ दिया, जिसका मक़सद अपनी जनता को ख़ुश करना था.

इज़राइल का नज़रिया

वैसे तो इस क्षेत्र के हालात फिलहाल स्थिर दिखाई दे रहे हैं. लेकिन, इसकी दूरगामी तस्वीर पहले से कहीं अधिक भयानक मालूम हो रही है. इज़राइल ने फिलहाल अगर ईरान पर पलटवार नहीं करने का फ़ैसला किया है, तो, इसकी बड़ी वजह अमेरिका का दबाव है. हालांकि, बात इसी पर ख़त्म होने वाली नहीं है. 7 अक्टूबर को हमास के हमले के बाद से इज़राइल के बिना किसी चुनौती के अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के ख़याल को पहले ही तगड़ा झटका लगा है. ऐसे में ईरान के साथ इस टकराव में रणनीतिक और सामरिक बढ़त हासिल करना और इस संघर्ष में ईरान को बराबरी का दर्जा देना, ऐसी बात है, जो इज़राइल के लिए कभी भी स्वीकार्य नतीजा नहीं हो सकता है. फिलहाल, जो स्थिति है वो ऐसी ही है.

इज़राइल का तो अस्तित्व ही अपनी भौगोलिक सीमा को सुरक्षित बनाना और यहूदी समुदाय की इकलौती पनाहगाह के तौर उभरा था. वैसे तो इज़राइल ने कहा है कि वो अपनी पसंद के मुताबिक़ इस हमले का जवाब देगा. लेकिन, ये बात तो पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि इज़राइल के पास ईरान के भीतर उसके हितों को चोट पहुंचाने का विकल्प खुला है. इज़राइल पहले भी ऐसा कर चुका है. ये स्थिति तो 7 अक्टूबर से पहले से ही बनी हुई है, जब ऊपरी तौर पर इज़राइल ने ऐसे हमलों की शुरुआत करने से परहेज़ किया था

इज़राइल ने कहा है कि वो अपनी पसंद के मुताबिक़ इस हमले का जवाब देगा. लेकिन, ये बात तो पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि इज़राइल के पास ईरान के भीतर उसके हितों को चोट पहुंचाने का विकल्प खुला है.

इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के लिए मुश्किलें और बढ़ने वाली हैं. घरेलू स्तर पर दबाव और नेतृत्व को मिली चुनौतियों के बावजूद नेतन्याहू ने पिछले छह महीने के दौरान इस बात की पुरज़ोर कोशिश की है कि उन्हें अपने देश का कमज़ोर नेता माना जाए. अब तो शायद उन्हें अपने गठबंधन के भीतर से ही कड़े विरोध का सामना करना पड़े. राष्ट्रीय सुरक्षा के मंत्री बेन ग्विर ईरान परकुचल डालने वालेहमले की मांग की है, जबकि बाक़ी नेताओं ने सब्र बनाए रखने की वकालत की. ईरान के साथ साथ, नेतन्याहू के सामने अपनी सरकार की अंदरूनी लड़ाइयों से भी निपटने की चुनौती है. इसके अलावा, हमास द्वारा इज़राइलियों को बंधक बनाए रखने का संकट भी जारी ही है. अब जबकि ये हमले और पलटवार हो रहे हैं, तो ख़बरों के मुताबिक़ हमास ने क़तर, मिस्र और अमेरिका द्वारा बंधकों की अदला बदली के लिए की जा रही बातचीत के ताज़ा दौर में शामिल होने से इनकार कर दिया है. बंधकों की रिहाई के बदले में इज़राइली जेलों में बंद कुछ फिलिस्तीनियों को रिहा किया जाना है. इसका मतलब ये है कि इज़राइल के बंधक हमास की गिरफ़्त में बने हुए हैं. वैसे तो कुछ लोगों का मानना है कि इज़राइल और ईरान के बीच टकराव ने ग़ज़ा के मसले को पर्दे के पीछे धकेल दिया है. लेकिन, बेंजामिन नेतन्याहू के लिए बंधकों के साथ साथ ये संकट भी चिंता का विषय बना रहेगा और आगे चलकर वो जो भी फ़ैसले लेंगे, उन पर इस संकट का असर दिखेगा.

ईरान का रुख़

दमिश्क में ईरान के कॉन्सुलेट पर हमले और ईरान की बेहद ताक़तवर इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर (IRGC) के वरिष्ठ कमांडर ब्रिगेडियर जनरल मुहम्मद रज़ा ज़ाहिदी की मौत के बाद, ईरान के पास उपलब्ध विकल्प बेहद सीमित रह गए थे. पहला तो उसे इज़राइल को धमकाना भी था और तनाव बढ़ने से बचना भी था. लेकिन, अयातुल्लाह ख़ामेनेई के लिए भी IRGC को इस विकल्प के लिए राज़ी करना मुश्किल होता. जबकि, IRGC सीधे ख़ामेनेई को ही रिपोर्ट करती है. ऐसे ही हालात 2020 में भी आए थे, जब अमेरिका ने इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स कोर के मशहूर कमांडर जनरल क़ासिम सुलेमानी को बग़दाद में मार दिया था. तब भी ईरान ने मिसाइलों से हमला किया था. लेकिन, तब उसका निशाना अमेरिका था.

ग़ज़ा में युद्ध के आग़ाज़ के बाद से ईरान ने बेहद आक्रामक रुख़ अपनाया हुआ है. वो पूरी मज़बूती से हमास और इस इलाक़े में अपने समर्थन वाले तमाम हथियारबंद संगठनों जैसे कि लेबनान में हिज़्बुल्लाहऔर यमन में हूतियों के साथ खड़ा रहा है. ये मरहूम जनरल क़ासिम सुलेमानी की विरासत ही है, जो उन्होंने IRGC की आला दर्जे वाली क़ुद्स फ़ोर्स की अध्यक्षता करते हुए खड़ी की थी. हालांकि, ‘विश्वसनीयता और ख़ौफ़स्थापित करने के लिए पारंपरिक युद्ध का विकल्प केवल आंशिक तौर पर ही उचित लगता है. इज़राइल के ऊपर हमला करने से ईरान की हुकूमत को घरेलू तौर पर तो मज़बूती मिल ही जाती है. इस वजह से पूरे मध्य पूर्व इलाक़े में भी ईरान अपनी छवि एक ऐसे देश के तौर पर मज़बूत कर पाता है कि वो गाज़ा और फ़िलिस्तीन के मसले पर सीधे इज़राइल से भिड़ने को तैयार है. हो सकता है कि ईरान के इस रुख़ से इस इलाक़े की अरब सरकारों और उनके सामरिक रुख़ पर कोई असर पड़े. लेकिन, हौले हौले ही सही ईरान के इस कड़े रुख़ का अरब जनता पर तो असर पड़ता ही है. 

ईरान के इस रुख़ से इस इलाक़े की अरब सरकारों और उनके सामरिक रुख़ पर कोई असर न पड़े. लेकिन, हौले हौले ही सही ईरान के इस कड़े रुख़ का अरब जनता पर तो असर पड़ता ही है. 

जहां तक ख़ौफ़ क़ायम करने की बात है, तो ईरान के ये योजनाबद्ध हमले अबूझ पहेली लगते हैं. ईरान का दुश्मन पर ख़ौफ़ जताने का प्रमुख ज़रिया उसके समर्थन वाले हथियारबंद समूह और पूरे इलाक़े में उनके द्वारा लड़े जाने वाले युद्ध थे. ख़ास तौर से सीरिया, लेबनान, यमन और इराक़ में. ईरान की सरपरस्ती में संचालित होने वाले समूह अपने वैचारिक मतभेदों के बावजूद- जैसे कि हमास सुन्नी संगठन है- पारंपरिक सैन्य रणनीति की तुलना में ज़्यादा असरदार साबित हुए हैं. ऐसे संघर्ष का ही एक नतीजा सऊदी अरब और ईरान के बीच शांति समझौते के तौर पर देखने को मिला था. इन संगठनों से ईरान को अपना पल्ला झाड़ लेने का मौक़ा भी मिल जाता है. हमने लाल सागर में हूतियों के हमले के मामले में ऐसा होते हुए भी देखा था, जब ईरान पर उन्हें ट्रेनिंग और हथियार देकर समर्थन देने का इल्ज़ाम लगा था. हालांकि, ईरान ने तुरंत इन इल्ज़ामों को ख़ारिज कर दिया था. इज़राइल के साथ पारंपरिक युद्ध छेड़ना, ईरान की इस करीने से रचे गए चक्रव्यूह को ख़त्म कर देगा.

निष्कर्ष

ये तथ्य की ख़बरों के मुताबिक़ ईरान ने कहा है कि उसने इस इलाक़े मेंअपने दोस्तों और पड़ोसियों को’ 72 घंटे पहले ही बता दिया था कि वो इज़राइल पर हमला करने जा रहा है. इसका मतलब यही है कि अमेरिका, इज़राइल और अन्य देशों को भी अच्छे से पता था कि कब और क्या होने वाला है. अमेरिका ने ग़ज़ा के मसले पर इज़राइल का बिना शर्त और मज़बूती से समर्थन किया था. जो बाइडेन को इस साल होने वाले चुनाव में इसकी भारी सियासी क़ीमत भी चुकानी पड़ सकती है. ऐसे में, इसके बदले में अमेरिका ने इज़राइल से पूर्ण युद्ध छेड़ने से बचने की गुज़ारिश के बजाय मांग ही की होगी. 2024 के बाक़ी बचे हुए महीने, मध्य पूर्व की सुरक्षा के लिए बेहद भयंकर रहने वाले हैं. वैसे तो बहुतों ने संकेत दिया है कि इस क्षेत्र की शांति के लिए इज़राइल और फिलिस्तीन के संकट का समाधान करना हमेशा से ही प्रमुख शर्त रही है. लेकिन, रान और इज़राइल के बीच संघर्ष का हमेशा मंडराते हुए ख़तरे को टालना भी अगर इससे ज़्यादा नहीं तो कम अहम शर्त नहीं है.

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