जनवरी- फरवरी महीने के दरम्यान सीरिया की सीमा से सटे जॉर्डन में अमेरिकी सैन्य बेस पर हुए हमले में तीन अमेरिकी सैनिकों की मौत की ख़बर ने पूरी दुनिया को सन्न कर दिया था. अक्टूबर 2023 में गाज़ा में संकट शुरू होने के बाद यह पहला मौका था जब मिडिल ईस्ट में अमेरिकी सैनिकों की मौत की ख़बर सामने आई. लेकिन इस घटना के कुछ घंटे बाद ही यमन में मौजूद हूती विद्रोही (जिन्हें आधिकारिक तौर पर अंसारल्लाह कहा जाता है) के प्रवक्ता याह्या सारे ने अमेरिकी वॉरशिप यूएसएस लेविस बी पूलर पर मिसाइल हमले का ऐलान कर दिया. सारे ने दोहराया कि फिलिस्तीनियों के समर्थन में हूती विद्रोही ना सिर्फ़ लाल सागर में कमर्शियल जहाजों को निशाना बनाएंगे बल्कि अरब सागर तक ऐसे हमले किए जाएंगे.
ये हमले क्या बताते हैं?
य़ूएसएस लेविस बी पूलर पर हमला किसी भी मायने में सामान्य नहीं कहा जा सकता था क्योंकि यह ऐसे वक्त पर अंजाम दिया गया जब इस क्षेत्र में एक्टिव मिलिशिया संगठन, जो ईरान के एक्सिस ऑफ रेसिस्टेंस का हिस्सा हैं, जिन्हें ईरान का खुला समर्थन हासिल है, और वो गाज़ा में फिलिस्तीनियों के खिलाफ इज़रायल के सैन्य हमले का शुरू से विरोध कर रहे हैं. अमेरिकी नेवी सील (कमांडो) इससे पहले स्पेशल ऑपरेशन के तहत यूएसएस लेविस बी पूलर का इस्तेमाल ईरान की बैलिस्टिक मिसाइलों को इंटरसेप्ट करने के लिए कर रही थी. हाल ही में सोमालिया के तट पर एक जहाज़ को समुद्री लुटेरों से छुड़ाने के अभियान के दौरान अमेरिकी नौसेना के दो कमांडो पहले लापता फिर मृत बताए गए थे. लेकिन इन घटनाओं के बीच ईरानी प्रॉक्सी मिलिशिया संगठन जैसे हूती, हिजबुल्लाह समेत दूसरे आतंकी संगठन जो सीरिया और इराक में एक्टिव हैं, उन्हें ईरान की बैलिस्टिक मिसाइल तकनीक़, ड्रोन और दूसरे हथियारों की क्षमता को हासिल करने की प्रक्रिया को उदार बनाने के फैसले से सबसे ज़्यादा फायदा हुआ.
इस पूरे भौगोलिक क्षेत्र में प्रतिरोधक समूहों को तैयार करने और उन्हें समर्थन देने की ईरान की रणनीति वास्तव में ईरान के सामरिक उद्येश्यों को पूरा करने के लिए बड़े बफ़र ज़ोन की नींव डाल रही है जिससे न केवल क्षेत्रीय शक्तियां बल्कि अमेरिका जैसे सुपर पावर के लिए भी नई चुनौती की स्थिति पैदा होती जा रही है
7 अक्टूबर को इज़रायल पर हमास के आतंकी हमले के बाद से ही क्षेत्रीय सुरक्षा को दरकिनार कर दिया गया है और बड़ी घोषणाएं जैसे अब्राहम समझौता, आईएमईईसी (इंडिया मिडिल ईस्ट यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर), आईटूयूटू (इंडिया-इज़रायल-यूएई-यूएसए) समेत सऊदी अरब और इज़रायल के बीच रिश्तों के सामान्यीकरण के विषय एक बार फिर से फिलिस्तीन विवाद की भेंट चढ़ते नज़र आ रहे हैं.
हालांकि, इस पूरे भौगोलिक क्षेत्र में प्रतिरोधक समूहों को तैयार करने और उन्हें समर्थन देने की ईरान की रणनीति वास्तव में ईरान के सामरिक उद्येश्यों को पूरा करने के लिए बड़े बफ़र ज़ोन की नींव डाल रही है जिससे न केवल क्षेत्रीय शक्तियां बल्कि अमेरिका जैसे सुपर पावर के लिए भी नई चुनौती की स्थिति पैदा होती जा रही है, बल्कि तेज़ी से बदलते ग्लोबल ऑर्डर में नॉन स्टेट आर्म्ड (गैर-राज्य सशस्त्र) (आतंकवादी) समूहों को ज़्यादा ताकत, वैधता और रणनीतिक समानता भी हासिल होती जा रही है. नॉन स्टेट टेरर गुप (आतंकी संगठन) द्वारा हासिल की गई यह नई भूराजनीतिक समानताओं को समझना अहम है क्योंकि राजनीतिक और सामरिक शून्यता की स्थिति पैदा होना सामान्य है, लेकिन वास्तविकता यह भी है कि संकट के ऐसे हालात का प्रबंधन अब महाशक्तियों के वश में भी नहीं रहा है.
ईरानी प्रॉक्सी मिलिशिया गुटों का नया युग
ईरानी प्रॉक्सी मिलिशिया गुटों को ईरान का समर्थन यकीनन इन समूहों के लिए नए युग की शुरुआत जैसा है, क्योंकि इससे उन्हें वैश्विक भूराजनीति में जगह मिली है और उनके बीच संबंधों की नई शुरुआत हुई है. अब तक आतंकवादी समूहों की ज़्यादातर समझ को 9-11 के बाद अमेरिकी नेतृत्व वाले आतंक के खिलाफ युद्ध द्वारा ही परिभाषित किया जाता रहा है, जिसका मतलब अल-कायदा और उसके सहयोगियों और बाद में इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस या जिसे अरबी में दाएश कहते हैं) के बारे में अध्ययन करने तक सीमित रहा है. लेकिन इन समूहों के खिलाफ सक्रियता बढ़ाने वाली रणनीतियां मौजूदा समय में गाज़ा में इज़राइल के लक्ष्य को हासिल करने जैसा ही था. जैसा कि अमेरिका ने अल कायदा जैसे इस्लामी चरमपंथी समूहों के खात्मे के लिए अफगानिस्तान और इराक दोनों में सैन्य ऑपरेशन को अंजाम दिया वैसे ही गाज़ा में इज़रायल भी हमास के संपूर्ण सफाए के लिए मिलिट्री ऑपरेशन में फिलहाल जुटा हुआ है.
नॉन स्टेट टेरर ग्रुप की राजनीतिक कामयाबी कोई नई घटना नहीं है और ना ही उन्हें राजनीतिक रूप से छूट देना और बातचीत में शामिल किया जाना कोई नया ट्रेंड है. विद्वान और चिंतक कॉलिन क्लॉर्क ने हाल ही में ऐसे कई उदाहरणों को रेखांकित किया है कि कैसे विद्रोह समाप्त किए जा सकते हैं, और इसमें उन्होंने साल 1998 में लंदन के साथ प्रोविजनल आयरिश रिपब्लिकन आर्मी के गुड फ्राइडे समझौते पर सहमति बनने के बाद उत्तरी आयरलैंड से 30 वर्षों से जारी संघर्ष को समाप्त करने से लेकर साल 1992 में लेबनान के चुनावों में हिजबुल्लाह के भाग लेने तक की मिसाल दी है, जो यह बताने को काफी है कि हर तरह के उग्रवादी संकट का राजनीतिक इतिहास से लेकर वैचारिक चुनौतियों का अपना खाका होता है. सारा हरमौच और निकसा जहानबानी जैसे दूसरे विद्वानों ने आगे बताया है कि आतंकवादी समूहों के एक कथित प्रायोजक राष्ट्र और बगैर किसी प्रायोजक राष्ट्र के आतंकवादी गुटों के बीच संबंध कभी पूरी तरह शून्य नहीं होते हैं. जॉर्डन में अमेरिकी सैन्य ठिकाने पर ड्रोन हमले के बाद भी अमेरिका और ईरान के पास विकल्प मौजूद हैं जो वाशिंगटन और तेह़रान दोनों के लिए इस स्थिति से पैदा होने वाले उलझनों को रेखांकित करते हैं, और यह बताते हैं कि कैसे हूती विद्रोही और दूसरे आतंकी संगठन दो मुल्कों की राजनीतिक अनिर्णयता का फायदा उठा रहे हैं.
तीन अमेरिकी सैनिकों की हत्या के बाद से ही राष्ट्रपति जो बाइडेन पर ईरान पर ना कि उसके प्रॉक्सी मिलिशिया संगठनों पर सीधा हमला करने का घरेलू दबाव लगातार बढ़ता ही जा रहा है. यहां तक कि विकल्प के तौर पर यह भी मांग की जा रही है कि ईरान के बाहर या इन प्रॉक्सी मिलिशिया संगठनों के इलाके के आस-पास किसी वरिष्ठ ईरानी शख्सियत को भी निशाना बनाया जाए, जैसा कि अमेरिका ने ईरानी कुद्स फोर्स के कमांडर कासिम सुलेमानी को जनवरी 2020 में मार गिराया था.
यहूदी आबादी का अमेरिकी राजनीति और व्यापार दोनों में गहरा प्रभाव है. जबकि दूसरी वजह है अमेरिका अपने सहयोगियों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को अधिक मज़बूती से प्रचारित करता रहा है, जिससे दुनिया भर में यह नैरेटिव नहीं बन सके कि सुपरपावर अमेरिका का वैश्विक वर्चस्व कम होता जा रहा है और वह चीन जैसे देश से कमतर साबित हो रहा है.
लेकिन मौजूदा वास्तविकताएं बिल्कुल अलग हैं जैसा कि अमेरिका में चुनाव होने वाले हैं और पहले से ही यूक्रेन जंग को लेकर अमेरिका रूस से बुरी तरह उलझा हुआ है. जॉर्डन में अमेरिकी बेस पर हमले के फौरन बाद अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने कहा कि "हम ईरान के साथ युद्ध की उम्मीद नहीं कर रहे हैं". इज़रायल को भी बेलगाम समर्थन देने के पीछे बाइडेन के दो प्रमुख हित जुड़े हुए हैं. पहला तो घरेलू है, क्योंकि यहूदी आबादी का अमेरिकी राजनीति और व्यापार दोनों में गहरा प्रभाव है. जबकि दूसरी वजह है अमेरिका अपने सहयोगियों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को अधिक मज़बूती से प्रचारित करता रहा है, जिससे दुनिया भर में यह नैरेटिव नहीं बन सके कि सुपरपावर अमेरिका का वैश्विक वर्चस्व कम होता जा रहा है और वह चीन जैसे देश से कमतर साबित हो रहा है. इसे डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति काल के पूरा होने के बाद सुधार के तौर पर भी देखा जा सकता है जो मौजूदा वक्त में एक बार फिर इस वर्ष रिपब्लिकन उम्मीदवार के तौर पर जो बाइडेन को राष्ट्रपति चुनाव में चुनौती देना चाह रहे हैं, जिसने यूरोप और एशिया में अमेरिका के कई सहयोगी देशों की बेचैनी बढ़ा दी है.
दूसरी ओर ईरान के लिए भी परिस्थितियां एकदम आसान नहीं हैं. तेहरान के लिए अब सिर्फ़ एक मात्र राहत की बात तभी हो सकती है जब गाज़ा में इज़रायल अपने सैन्य ऑपरेशन को विराम दे दे. ईरानी प्रॉक्सी मिलिशिया गुट जैसे हूती, हमास, हिजबुल्लाह, कताइब हिजबुल्लाह के साथ वैचारिक समर्थन ने वैसे भी ईरान के लिए राजनीतिक विकल्प नहीं छोड़ा है. इन मिलिशिया ग्रुप से खुद को अलग करना या ज़्यादातर ऐसे संगठनों को पीछे हटने के लिए प्रेरित करना ही ईरान के लिए एकमात्र रास्ता है, जिसके बाद ही वह पश्चिमी देशों के साथ बातचीत शुरू करने की संभावना तलाश सकता है और जो उसके द्वारा डिज़ाइन किए गए रेसिस्टेंस ग्रुप पर पूरी तरह नकेल कस सकता है. फिलहाल ईरान यह कह सकता है कि ऐसे मिलिशिया समूह स्वभाव से स्वतंत्र हैं और इन पर उसका कोई सीधा प्रभाव नहीं है. फिलिस्तीन को समर्थन देने के मामले में भी ईरान, सुन्नी बाहुल्य राष्ट्र कतर और तुर्किए से ज़्यादा आक्रामक है, ऐसे में शिया बाहुल्य ईरान की इन मुल्कों से वैचारिक मतभेद जगज़ाहिर है.
साल 2021 में अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर तालिबान का कब्ज़ा होने से लेकर यमन में हूती के उदय तक, बीते पांच वर्षों में नॉन स्टेट मिलिटेंट एक्टर्स ने वैश्विक व्यवस्था, खास तौर पर पश्चिम और दक्षिण एशिया की भौगोलिक परिधि में बहुत ज़्यादा राजनीतिक और भू-राजनीतिक रसूख हासिल की है.
साल 2021 में अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर तालिबान का कब्ज़ा होने से लेकर यमन में हूती के उदय तक, बीते पांच वर्षों में नॉन स्टेट मिलिटेंट एक्टर्स ने वैश्विक व्यवस्था, खास तौर पर पश्चिम और दक्षिण एशिया की भौगोलिक परिधि में बहुत ज़्यादा राजनीतिक और भू-राजनीतिक रसूख हासिल की है. हालांकि इन परिस्थितियों को पश्चिमी ताकतों के लिए दूर से प्रबंधित करना तुलनात्मक रूप से ज़्यादा स्वीकार्य हो सकता है, लेकिन क्षेत्रीय ताकतों के लिए यह ऐसा ट्रेंड है जिससे कई तरह की दिक्कतें पैदा होंगी. पश्चिम और चीन ( यूक्रेन संघर्ष के बाद से अब इसमें रूस भी शामिल है ) के बीच व्यापक भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के बीच बहुध्रुवीयता बढ़ने के साथ, नॉन स्टेट मिलिटेंट एक्टर्स के पास अब इन रणनीतिक हितों के साथ जुड़ने के विकल्प मौजूद हैं. यह बात इससे भी उजागर होती है कि हाल ही में हमास नेतृत्व ने रूस का दौरा किया और लाल सागर में चीन और रूस के झंडे वाले कमर्शियल जहाज़ों को हूती विद्रोहियों ने भी निशाना नहीं बनाया है.
अब आगे क्या?
नॉन स्टेट मिलिटेंट एक्टर्स (गैर-राज्य उग्रवादी संगठन) के व्यवहार और क्षमताओं में ऐसे बदलाव, जिनमें ज़्यादातर संगठन संयुक्त राष्ट्र समेत अलग अलग बहुपक्षीय संस्थानों के तहत आतंकवाद के प्रायोजक के तौर पर सूचीबद्ध हैं, वो मनमाने, एडहॉ़क (तदर्थ) और कम समय के लिए सुरक्षा नीतियों के कार्यान्वयन के लिए मजबूर कर रहे हैं. इसके बजाए जरूरी यह है कि बदलती वैश्विक व्यवस्था के तहत ऐसे संगठनों के बढ़ते प्रभाव से निपटने के लिए मौजूदा ट्रेंड की जांच लंबे समय तक करनी होगी.
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