Published on Jul 31, 2023 Updated 0 Hours ago

प्लास्टिक प्रदूषण का ख़ात्मा करने के इरादे से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाध्यकारी उपायों की शुरुआत आवश्यक है

‘प्लास्टिक प्रदूषण के जिन्न को बोतल में बंद करने के लिए अंतरराष्ट्रीय क़ानून ज़रूरी’
‘प्लास्टिक प्रदूषण के जिन्न को बोतल में बंद करने के लिए अंतरराष्ट्रीय क़ानून ज़रूरी’

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अनेक प्रकार के पॉलीमर्स का इस्तेमाल होना शुरू हुआ. युद्धकाल में रसायनिक उद्योगों द्वारा इनका विकास किया गया और आगे चलकर भी इनका प्रयोग जारी रहा. रसायन और उच्च तकनीकी वाले पॉलीमर्स के क्षेत्र में अपनी खोजों के लिए कार्ल ज़िगलर और गियुलियो नाटा को 1963 में रसायन के नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. सेलोप्लास्ट द्वारा 1965 में एक पीस वाले पॉलीएथिलीन शॉपिंग बैग का निर्माण शुरू किया गया. इसके तत्काल बाद एक ही बार के प्रयोग के लिए (single-use) और उपयोग के बाद फेंक दिए जाने वाले प्लास्टिक के उत्पादन को बढ़ावा मिला. हर साल उत्पादित होने वाले प्लास्टिक का तक़रीबन 40 प्रतिशत हिस्सा इसी श्रेणी में आता है. दुनिया भर में प्लास्टिक के उत्पादन में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है. 1964 में 1.5 करोड़ टन के मुक़ाबले 2017 में प्लास्टिक का उत्पादन बढ़कर 34.8 करोड़ टन हो गया.

दुनिया में प्लास्टिक प्रदूषण का स्तर काफ़ी ऊंचा है और इसमें तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है. ऐसे में तत्काल प्लास्टिक प्रदूषण, मानवीय स्वास्थ्य के सामने पेश ख़तरे और पर्यावरण पर पड़ रहे प्रतिकूल प्रभावों की रोकथाम की दरकार है. 

दुनिया में प्लास्टिक प्रदूषण का स्तर काफ़ी ऊंचा है और इसमें तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है. ऐसे में तत्काल प्लास्टिक प्रदूषण, मानवीय स्वास्थ्य के सामने पेश ख़तरे और पर्यावरण पर पड़ रहे प्रतिकूल प्रभावों की रोकथाम की दरकार है. हाल ही में संपन्न हुई संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण महासभा (UNEA-5.2) में 175 देशों ने अंतरसरकारी वार्ताकार समिति (INC) के गठन की प्रतिबद्धता जताई. समिति इस साल अपना कामकाज शुरू करेगी. समिति को साल 2024 के अंत तक अंतरराष्ट्रीय तौर पर वैधानिक रूप से बाध्यकारी दस्तावेज़ तैयार करने का दायित्व सौंपा गया है. इसी दस्तावेज़ से प्लास्टिक प्रदूषण के ख़ात्मे से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय कार्ययोजना की दशादिशा तय होगी.

​वैश्विक स्तर पर प्लास्टिक का उत्पादन तक़रीबन 40 करोड़ टन है. 2040 तक इसके दोगुना होने की संभावना है. 20वीं सदी में प्लास्टिक का उत्पादन शुरू होने के बाद से लेकर साल 2015 तक उत्पादित प्लास्टिक में से महज़ 9 फ़ीसदी प्लास्टिक कचरे को ही रीसायकल किया जा सका है. इसी कालखंड में 12 प्रतिशत प्लास्टिक को जलाकर खाक किया गया. बाक़ी का 79 प्रतिशत प्लास्टिक कूड़े के ढेरों में इकट्ठा हो गया है या क़ुदरती वातावरण में शामिल हो गया है. महासागरों के हरेक हिस्से तक प्लास्टिक कचरे की घुसपैठ हो गई है. इनमें से 95 प्रतिशत जलीय इलाक़ा राष्ट्रीय क्षेत्राधिकारों के बाहर है. हर साल तक़रीबन 1.1 करोड़ टन प्लास्टिक महासागरों में पटक दिया जाता है. 2030 तक इस आंकड़े के दोगुना हो जाने और 2040 तक तक़रीबन तिगुना हो जाने का अनुमान लगाया गया है.

वित्तीय मदद के मोहताज?

लगभग आधी सदी पहले, 1972 में ओलोफ़ पालेमा ने क्षेत्रीय और गहरे समंदरों में बढ़ते प्रदूषण के निपटारे के लिए तत्काल, ठोस और एकजुट कार्रवाई की अपील की थी. हालांकि 1997 तक इस ओर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया गया. 1997 में समुद्र विज्ञानी चार्ल्स मूर ने उत्तरी प्रशांत जायर में विशाल प्रशांत कचरा पट्टी का ब्योरा पेश किया था. इस ख़ुलासे के बाद समुद्र में कचरे की विशाल और विकराल हो चुकी समस्या की ओर पूरी दुनिया का ध्यान गया था. उत्तरी प्रशांत जायर प्रशांत महासागर के सबसे दूरदराज़ वाले इलाक़ों में से एक है. मूर को हवा के बहाव से चलने वाली महासागरी धाराओं या उपोष्णकटिबंधीय ज्वार के आरपार जाने में तक़रीबन एक हफ़्ते का समय लगा था. इस दौरान उनको स्वच्छ और अनछुए समंदर की बजाए पूरे इलाक़े में प्लास्टिक का मलबा ही मलबा नज़र आया था.

2024 तक प्लास्टिक प्रदूषण के ख़ात्मे के लिए अंतरराष्ट्रीय तौर पर बाध्यकारी उपाय पूरी तरह से लाज़िमी हैं. हालांकि इस पूरी क़वायद में काफ़ी विलंब होने और पूरी प्रक्रिया के आधे-अधूरे रहने की आशंका रहेगी. पेरिस समझौते के तेवर और भाषा शैली के बाद संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण महासभा के प्रस्ताव में राष्ट्रों की परिस्थितियों और क्षमताओं को प्रमुखता दी गई. इस दस्तावेज़ में ज़ाहिर तौर पर ये बताया गया कि हर देश अपनी राष्ट्रीय परिस्थितियों और उससे जुड़े तमाम किरदारों की गतिविधियों को समझने के लिहाज़ से बेहतरीन स्थिति में है. दस्तावेज़ में स्वीकार किया गया कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तावित बाध्यकारी वैधानिक उपकरण से सामने आने वाले क़ानूनी दायित्वों के लिए क्षमता निर्माण की दरकार होगी. साथ ही विकासशील देशों और संक्रमण की अवस्था से गुज़र रही अर्थव्यवस्थाओं के लिए तकनीकी और वित्तीय सहायता के प्रभावी तरीक़े से अमल में लाए जाने की दरकार होगी. सामूहिक अभिव्यक्ति और साफ़गोई के आधार पर नए उपकरण का दायरा और अंजाम पेरिस समझौते से हासिल नतीजों से अलग होता दिखाई नहीं देता. दोनों ही क़वायदों को भले ही व्यापक स्वीकार्यता मिली हो लेकिन व्यक्तिगत और इकाई के तौर पर निष्क्रियताया फिर समस्या के आकार और तात्कालिकता के हिसाब से नाकाफ़ी कार्रवाइयां ही देखने को मिली हैं.

सामूहिक अभिव्यक्ति और साफ़गोई के आधार पर नए उपकरण का दायरा और अंजाम पेरिस समझौते से हासिल नतीजों से अलग होता दिखाई नहीं देता. दोनों ही क़वायदों को भले ही व्यापक स्वीकार्यता मिली हो लेकिन व्यक्तिगत और इकाई के तौर पर निष्क्रियताया फिर समस्या के आकार और तात्कालिकता के हिसाब से नाकाफ़ी कार्रवाइयां ही देखने को मिली हैं.

प्लास्टिक प्रदूषण की चुनौती से निपटने के सिलसिले में रवांडा और केन्या जैसे पूर्वी अफ़्रीकी देशों ने दिखा दिया है कि प्रदूषण के इस जिन्न को बोतल में बंद करने के लिए तकनीकी या वित्तीय सहायता का मोहताज होने की ज़रूरत नहीं है. ताज़ा मानव विकास सूचकांक (HDI) में रवांडा और केन्या क्रमश: 160वें और 143वें पायदान पर हैं. रवांडा की सकल राष्ट्रीय आय प्रति व्यक्ति 2,155 (PPP $) और केन्या की 4,244 (PPP $) है. रवांडा ने 2008 में प्लास्टिक की थैलियों पर पाबंदी लागू की थी. उस वक़्त मानव विकास सूचकांक में वो और भी नीचे (167वें पायदान पर) था. इन देशों के मुक़ाबले मानव विकास सूचकांक में भारत का स्थान ऊंचा (131वां) है. भारत की सकल राष्ट्रीय आय प्रति व्यक्ति 6,681 (PPP $) है. इसके बावजूद प्लास्टिक पर इसी तरह की पाबंदियों की कई बार घोषणाओं के बाद उनपर अमल में लगातार देरी होती जा रही है.

पर्यटन के ज़रिये विकास

बहरहाल, भारत इस मामले में कोई अपवाद नहीं है. इस मसले पर मौजूदा तजुर्बों से संकेत मिलते हैं कि अमल में देरी और नीतियों को पलटे जाने के पीछे घरेलू प्लास्टिक उद्योगों की कारोबारी ताक़त का हाथ होता है. दरअसल, अर्थव्यवस्था में अपने योगदान और रोज़गार के मोर्चे पर अपनी स्थिति के बूते इस उद्योग को ये मज़बूती मिली हुई है. एक अन्य अध्ययन के मुताबिक प्लास्टिक के बैगों और सिंगल यूज़ प्लास्टिक्स पर कामयाबी से प्रतिबंध लगाने वाले देशों में या तो मज़बूत प्लास्टिक उद्योग नहीं रहा था या वो सेवा-आधारित विकास पर निर्भर हैं. ख़ासतौर से जिन देशों में प्राकृतिक पर्यटन, सेवा क्षेत्र के विकास का अहम घटक रहा है, वहां प्लास्टिक पर पाबंदी सफलतापूर्वक लागू हो सकी है. “चूंकि सेवा-आधारित विकास (ख़ासतौर से पर्यटन) देश से बाहर के कारकों पर निर्भर होता है, लिहाज़ा विदेशी पूंजी और सैलानियों को अपने यहां आकर्षित करने को लेकर देशों के बीच अक्सर प्रतिस्पर्धा का दौर रहता है.” दूसरी ओर दुनिया में थाईलैंड जैसे भी देश हैं जो पर्यटन के बूते विकास कर रहे हैं. 2018 में थाईलैंड में पर्यटन क्षेत्र की विकास दर 7.5 प्रतिशत रही थी. साथ ही विनिर्माण और निर्यात भी थाईलैंड की अर्थव्यवस्था के प्रमुख आधार हैं. 2018 में इन क्षेत्रों के विकास की रफ़्तार 7.2 फ़ीसदी रही थी. बहरहाल समंदर में प्लास्टिक प्रदूषण फैलाने वाला थाईलैंड दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा देश है. ज़ाहिर है इस जिन्न को बोतल में बंद करने की क़वायद बेहद चुनौतीपूर्ण है.

जिन देशों में प्राकृतिक पर्यटन, सेवा क्षेत्र के विकास का अहम घटक रहा है, वहां प्लास्टिक पर पाबंदी सफलतापूर्वक लागू हो सकी है. “चूंकि सेवा-आधारित विकास देश से बाहर के कारकों पर निर्भर होता है, लिहाज़ा विदेशी पूंजी और सैलानियों को अपने यहां आकर्षित करने को लेकर देशों के बीच अक्सर प्रतिस्पर्धा का दौर रहता है.”

अंतरसरकारी वार्ताकार समिति के पास इस दस्तावेज़ के उद्देश्यों को साफ़-साफ़ बयान करने का मौक़ा है. समिति को प्लास्टिक के निर्माण से लेकर निपटारे तक की समूची प्रक्रिया को अपने दायरे में लेना चाहिए. साथ ही मौजूदा प्लास्टिक के वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र में मिलावट को कम करने के भी प्रयास करने चाहिए. बहरहाल, इस पूरी क़वायद में समिति को प्लास्टिक उद्योग के लिए वित्तीय सहायता का सुझाव देने से परहेज़ करना चाहिए. दरअसल UNFCCC और पेरिस समझौते को लेकर हुई वार्ताओं और क्रियान्वयन की रफ़्तार से ये बात साबित हुई है कि वित्त का मसला सबसे प्रमुख बन जाता है. दूसरी और इस मसले से निपटने के लिए हक़ीक़त में बेहद मामूली क़दम उठाए जाते हैं. ज़ाहिर है वित्त को लेकर किसी तरह का सुझाव देने की बजाए ख़र्च वहन करने की क्षमता रखने वाले देशों को उन्नत प्रकार की कचरा प्रबंधन व्यवस्था में निवेश करने को लेकर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. इससे प्लास्टिक का एक बड़ा हिस्सा दोबारा इस्तेमाल के लायक बनाया जा सकेगा या उन्हें रीसायकल करना मुमकिन हो सकेगा. दूसरी ओर जिन मुल्कों के पास ऐसे निवेश की क़ाबिलियत नहीं है उन्हें प्लास्टिक के इन तकलीफ़देह सामानों को चरणबद्ध रूप से हटाकर पूरे जिन्न को बोतल में बंद करने की क़वायद करने का बीड़ा उठाना चाहिए.

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Author

Anamitra Anurag Danda

Anamitra Anurag Danda

Anamitra Anurag Danda is Senior Visiting Fellow with ORF’s Energy and Climate Change Programme. His research interests include: sustainability and stewardship, collective action and institution ...

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