Author : Harsh V. Pant

Published on Dec 27, 2021 Updated 0 Hours ago

सबसे बड़ा घटनाक्रम इस साल आतंकवाद और चरमपंथ को लेकर हुआ है. जिस तरह से अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की वापसी हुई है, उससे शंकाएं बढ़ती जा रही हैं. अफ़ग़ानिस्तान के लिए तो यह आपदा ही है.

2021 की अंतरराष्ट्रीय राजनीति: अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका तक

इस साल इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में काफी उथल-पुथल रही. सबसे बड़ा मुद्दा तो यही रहा कि कोरोना से कैसे निजात मिले. यह साल एक तरह से कोरोना से शुरू होकर कोरोना पर ही ख़त्म हो रहा है. साल की शुरुआत में पहली और दूसरी लहर आई. फिर धीरे-धीरे जब ऐसा लगने लगा कि दुनिया वापस ढर्रे पर आ रही है, तो ओमिक्रॉन की आहट आने लगी. उसके चलते दोबारा कई तरह की रोक लगा दी गई है और टेंशन का माहौल है कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा.

पश्चिम से मध्य एशिया

कोविड सिर्फ़ एक हेल्थ क्राइसिस नहीं है. यह इकनॉमिक क्राइसिस भी है, वेल्थ क्राइसिस भी है. इस साल जो हेल्थ क्राइसिस से वेल्थ क्राइसिस बना था, उससे अभी तक दुनिया निकल नहीं पाई है. पहले ऐसा लग रहा था कि निकल जाएगी, पर ऐसा हो नहीं पाया. कोविड से जंग का कोई परिणाम अभी तक सामने नहीं आया है. लग रहा है कि कोविड के साथ जीना दुनिया को सीखना पड़ेगा, यही न्यू नॉर्मल रहेगा.

पहले ऐसा लग रहा था कि निकल जाएगी, पर ऐसा हो नहीं पाया. कोविड से जंग का कोई परिणाम अभी तक सामने नहीं आया है. लग रहा है कि कोविड के साथ जीना दुनिया को सीखना पड़ेगा, यही न्यू नॉर्मल रहेगा. 

अमेरिका में एक राजनीतिक बदलाव

साल की शुरुआत में जो एक बड़ा डेवलपमेंट रहा, वह ये कि ट्रम्प एडमिनिस्ट्रेशन से बाइडेन एडमिनिस्ट्रेशन की तरफ अमेरिका में एक राजनीतिक बदलाव आया. इससे उम्मीद थी कि कोई बहुत बड़ा नाटकीय परिवर्तन होगा, क्योंकि ट्रंप को कई लोग एक ख़ास नज़रिए से देखते थे. लेकिन गौर करें तो अमेरिकी विदेश नीति या अमेरिका के अंदरूनी माहौल में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं आया है. बाइडेन एडमिनिस्ट्रेशन ने थोड़ा-बहुत बदलाव करने की कोशिश की है. लेकिन जो बड़े ट्रेंड्स हैं, मुद्दे हैं, चाहे वे विदेश नीति के हों या घरेलू नीति के, उसमें अगर आप उनका अंदरूनी हाल देखें तो पोलराइजेशन बहुत ज़्यादा है. रिपब्लिकंस और डेमोक्रेट्स अभी भी काफी पोलराइज्ड हैं. एक्स्ट्रीम लेफ्ट और एक्सट्रीम राइट के लोग अभी भी एक-दूसरे से बात करने को तैयार नहीं हैं. राजनीतिक समझौते नहीं हो रहे हैं.

रिपब्लिकंस और डेमोक्रेट्स अभी भी काफी पोलराइज्ड हैं. एक्स्ट्रीम लेफ्ट और एक्सट्रीम राइट के लोग अभी भी एक-दूसरे से बात करने को तैयार नहीं हैं. राजनीतिक समझौते नहीं हो रहे हैं.

ऐसे में जो बाइडेन का एजेंडा अभी भी अटका हुआ है. इन्फ्रास्ट्रक्चर प्लान उनको कम करना पड़ा क्योंकि उन पर मॉडरेट्स का दबाव बना. विदेश नीति में उन्होंने ज़्यादातर बातें ट्रंप की ही फॉलो की हैं. बाइडेन एडमिनिस्ट्रेशन ने चीन पर और दबाव डालने की कोशिश की है. उसकी आर्थिक गतिविधियों पर कई और प्रतिबंध लगाए हैं. विंटर ओलंपिक्स के बहिष्कार की घोषणा की. शिनजियांग और वीगर मुद्दे को लेकर काफी एक्सप्रेसिव बयान दिए. मानवाधिकारों के मामले में चीन को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की. अभी जो समिट ऑफ डेमोक्रेसी हुआ था, उसमें भी चीन को घेरा गया. मुझे लगता है कि दूसरा बड़ा ट्रेंड यह रहा कि अमेरिकी विदेश नीति का ग्लोबल पॉलिटिक्स में जो रोल है, उसमें ट्रंप और बाइडेन में ज़्यादा बदलाव नहीं दिखा.

तीसरा बड़ा ट्रेंड: हिंद प्रशांत क्षेत्र

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में तीसरा बड़ा ट्रेंड हिंद प्रशांत क्षेत्र का रहा. हमने देखा कि कैसे दुनिया भर की राजनीति का केंद्रीय गुरुत्वाकर्षण हिंद प्रशांत पर केंद्रित हुआ. अमेरिकी विदेश नीति हिंद प्रशांत पर केंद्रित है और चीन तो है ही यहां पर. तो जो भी बड़े बदलाव आ रहे हैं, बड़े विवाद चल रहे हैं, वे हिंद प्रशांत से जुड़े हैं. चाहे वे तकनीक के हों, सप्लाई चेन के हों, समुद्री सीमा सुरक्षा के हों, व्यापार के हो, या चाहे इन्फ्रास्ट्रक्चर कनेक्टिविटी से संबंधित हों. हिंद प्रशांत क्षेत्र में में जो बड़ा बदलाव आया है, वह अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया का क्वाड प्लेटफॉर्म है. इस साल क्वाड पुख्ता तरीके से खड़ा हुआ. दो समिट हुए, एक वर्चुअल, एक फिजिकल. चीन को एक बड़ा संदेश दिया गया कि हिंद प्रशांत में बड़ी ताकतें एक साथ काम करने को तैयार हैं और छोटे देशों को एक साथ विकल्प देने को तैयार हैं.

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में तीसरा बड़ा ट्रेंड हिंद प्रशांत क्षेत्र का रहा. हमने देखा कि कैसे दुनिया भर की राजनीति का केंद्रीय गुरुत्वाकर्षण हिंद प्रशांत पर केंद्रित हुआ. 

फिर जिस तरह से शी जिनपिंग का दबदबा चीन में बढ़ता जा रहा है, उसको लेकर भी चिंताएं बढ़ती जा रही हैं. ऐसे में चौथा ट्रेंड भी हिंद प्रशांत से ही जुड़ा हुआ नजर आता है. चीन में शी जिनपिंग का जो कंट्रोल है, वह लगभग पूरा हो गया है. इस बार पार्टी के समारोह में उन्होंने ख़ुद को माओ की तुलना में खड़ा कर दिया. बाकी के पुराने नेता दूसरी श्रेणी में खड़े किए गए. एक तरह से उनके व्यक्तित्व का चीन में पंथ बन रहा है. इसे लेकर काफी आशंकाएं जताई जा रही हैं कि इसके चीन में क्या नकारात्मक प्रभाव होंगे और इनका चीन की विदेश नीति पर क्या प्रभाव होगा. इसके कुछ संकेत तो हमें अभी से देखने को मिल रहे हैं. चीन ने पड़ोसी देशों के साथ आक्रामक रुख अपनाया है. भारत के ख़िलाफ हिमालय में उसका रवैया इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है. साउथ चाइना सी में उसका जैसा वुल्फ ओरिएंटेड सीन देखने को मिल रहा है वह भी गौर करने लायक है. ऐसे में अगले साल भी चीनी रुख में किसी तरह का बदलाव आने की उम्मीद नहीं की जा सकती.

सबसे बड़ा घटनाक्रम: आतंकवाद और चरमपंथ

सबसे बड़ा घटनाक्रम इस साल आतंकवाद और चरमपंथ को लेकर हुआ है. जिस तरह से अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की वापसी हुई है, उससे शंकाएं बढ़ती जा रही हैं. अफ़ग़ानिस्तान के लिए तो यह आपदा ही है. आम अफगानी इस सर्दियों में जिस तरह से परेशानियां झेल रहे हैं, उनके चलते बहुत ज़्यादा समस्याएं खड़ी होंगी. तालिबान के आने से चरमपंथी समूहों को भी बूस्ट मिला है. दक्षिण एशिया सहित इस पूरे क्षेत्र में बहुत सारी आशंकाएं फैली हैं. पाकिस्तान में हम इसका प्रभाव पहले ही देख रहे हैं कि किस तरह से चरमपंथी समूह अब सड़कों पर उतर आए हैं और पाकिस्तान की सरकार उनके सामने घुटने टेक रही है.

सबसे बड़ा घटनाक्रम इस साल आतंकवाद और चरमपंथ को लेकर हुआ है. जिस तरह से अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की वापसी हुई है, उससे शंकाएं बढ़ती जा रही हैं. अफ़ग़ानिस्तान के लिए तो यह आपदा ही है. 

रूस-भारत संबंध

इसका प्रभाव मध्य एशिया में भी काफी चिंता का विषय बना हुआ है. मध्य एशिया के जो पांच देश हैं, उनके साथ रूस भी इसे लेकर काफी परेशान है. मध्य एशिया और रूस के संबंधों ने जो गति पकड़ी है, अफ़ग़ानिस्तान उसका बहुत बड़ा कारण है. वहां आतंकवाद और चरमपंथ के जोर पकड़ने के आसार हैं. ऐसे में पूरी संभावना है कि मध्य और दक्षिण एशिया के देशों को साथ में काम करना पड़ेगा.

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यह आर्टिकल नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है.

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